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लखनऊ की तवायफ

लखनऊ की तवायफ

--“आदाब बजा लाता हूं बेगम साहिबा!”

--“हूं……..साथ कौन जायेगा इस बार?” अमीना बेगम ने गहरी नजरों से मुआयना करते हुये पूछा।

--“जी साबिर और मुख़्तार, ख़ालाजाद भाई हैं मेरे। माशाल्लाह दोनों जवान और हट्टे-कट्टे हैं।“

--“पहलवानी नहीं करनी है वहां, अकल से काम लेना है। मैं न होती तो पिछली बार हवालात में दम टूटता तुम्हांरा।“

--“जी, बजा फ़रमाती हैं, आपकी मेहरबानी, पर अब ख़ता न होगी। मैं एहतियात रखूंगा।“

--“बेहतर।“ कहकर अमीना बेगम ने एक थैली सरफराज की ओर उछाल दी, --“पेशगी है, बाकी काम के बाद मिल

जायेंगे, तख़्लिया।“ सरफराज ने थैली लपक कर अमीना बेगम को कोर्निश की और कोठी के बाहर चला गया।

अमीना बेगम ने ’या अल्लाह, करम कर’ कहकर कमर सीधी की और हुक्के का कश लेकर, --“अरी हाजरा, जरा

पानदान तो लाना।“

शहर लखनऊ के बाहरी इलाके हैदरगंज की घनी अमराई के बीचोबीच बनी यह कोठी लखनऊ की मशहूर तवायफ अमीना बेगम की थी। अमीना बेगम का असली नाम फ़िरदौसी आशिक एवान था पर लखनऊ के बाजार में वे अमीना बेगम के नाम से मशहूर हुईं। उन दिनों लखनऊ की ज्यादातर तवायफें चौक और क़ैसरबाग के इलाके में आबाद थीं, अकेली अमीना बेगम थीं जो तवायफों की बस्ती छोड़ डेढ़ कोस दूर हैदरगंज जा बसी थीं। वे बड़े फख्र से कहतीं, --“मैं कांचनी हूं, चौक की उन हर्राफ़ाजनी चूना वालियों के बीच मेरा क्या काम!” कहती तो अमीना बेगम यह थीं कि उन्होंने वह कोठी सल्लालपुर के छोटे नवाब मुन्नन मियां से खरीदी थी पर दबी जुबान से लोग कहते बाज न आते कि अमीना बेगम की मोहब्बत में मुब्तिला मुन्नन मियां को कोठी दाखिल-खारिज करने के बाद किसी ने नहीं देखा। जमाना वो था कि तवायफों का मआशरे में बड़ा एज़ाज़-एहतराम, बड़ी इज्जत होती थी, सही भी था, लखनऊ में इस फ़न के अहल-ए-नजर भारी तादाद में मौजूद थे। कहा जाता था कि आधे अवध की दौलत तवायफों के कोठों में नज़रबंद थी। आला हुक्काम तो उधर मुंह नहीं ही करते, फिरंगी भी जल्दी उन पर हाथ डालने की जुर्रत न करते। होती भी थीं वे बेहद सलीकेदार और तमीजदार। जहां मौसिकी और अदब-ओ-सुखन अवध के कोठों की पनाह में परवान चढ़ा, वहीं मर्शियाख्वानी या मुरब्बा दोहराबंदी गाने में लखनऊ की कोठेवालियों का कोई जोड़ न था। उस जमाने में लखनऊ और बनारस की कुछ कोठेवालियां कलकत्ते तक जा हुनर और हुस्न-ओ-अदा के झंडे गाड़ आतीं पर दिल्ली में उनकी पूछ न थी। अमीना बेगम की कोठी भर बड़ी न थी, उनका नाम भी आला-अव्वल था। उनके दीवानखाने में, जहां रक्स और मौसिकी की महफिलें सजा करतीं, खास ईरानी गालीचे बिछे होते, विलायत से लाये आतशदान और फ़ानूस रोशन होते। इलाके के रईस, अमीर-उमरा और नवाबजादों के घोड़ों-बग्घियों से बाहरी इलाका गुलजार रहता, फारसी इ़त्रों की खुशबुयें फिजां में तारीं रहतीं तो अंदर हुस्न, गायकी, घुंघरु और साजों से जन्नत सी महफिल सजती। जहां एक ओर तवायफों के रुखसार अदा और अदब-ओ-सुखन की आब से दमकते, वहीं दौलत, हुस्न और हुनर उन्हें बेपनाह एहतराम का मुस्तहक बनाता, वे लखनऊ के बाजारों में नमूदार होतीं तो तिजारती तो दूर, बड़े -बड़े अहलकार और इज्जतदार लोग भी उन्हें तस्लीम करते और रास्ता देते।

उन दिनों का ज्यादातर हिंदुस्तान उनींदा सा था, कभी-कभी कहीं-कहीं राख के अंदर कोई चिंगारी भड़क उठती पर लखनऊ अपने नर्म-ओ-नाजुक मिजाज के मुताबिक पुरअमन था, न कोई तहरीक, न बलवा, न मार-काट। शायद इसी वजह से इस शहर में सबसे ज्यादा तवायफें आबाद थीं।1857 की इंकलाबी बग़ावत को तीस साल गुजर गये थे पर उसकी आग सफदरगंज के जमींदार ठाकुर रणजीत सिंह के सीने में अभी भी धधक रही थी। मेरठ की बग़ावत से सबक लेते हुये अंग्रेजी हुकूमत ने एहतियातन दूसरी जगहों में इंकलाबियों को सख्ती से कुचलने का रास्ता अख्तियार किया। इसी वजह से अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के बेकसूर दादा की जायज इंकलाबी हरकतों के बावजूद उनके अलावा चार और के ऊपर सरकारी खजाना लूटने का मंसूबा बनाने का इल्जाम लगाकर सरेआम गोली मार दी थी। रणजीत सिंह ही थे जो जब-तब फिरंगियों को ललकारते रहते, खुलेआम नाफरमानी करते और हुकूमत की आंख का कांटा बनते। उन पर हुकूमत के फ़रमान असरअंदाज न होते। अपनी मौज-मस्ती में ग़ाफ़िल अमूमन सारे के सारे काहिल नवाब और नवाबजादे फिरंगियों के ताबेदार होते थे पर चुगलियों के बावजूद रणजीत सिंह के रसूख की वजह से उन पर कोई हाथ न डाल पाता। कहने को तो छः साल के बेटे प्रताप सिंह और तीन साल की बेटी रत्ना के पिता रणजीत सिंह जमींदार थे पर असलियत में वे हिंदुस्तान की तहरीक-ए-आजादी के एक सच्चे सिपाही थे।

बाराबंकी से कोई एक कोस की दूरी पर मरहूम शाह कुतुबुद्दीन चिश्ती की दरगाह में जुमाद-ई-उला की सातवीं से लेकर नौवीं ताःरीख तक सालाना तीन रोजा उर्स होता था। उसी दौरान दरगाह से थोड़ी दूर पर बने शिव मंदिर में भी संक्रांति का मेला भरता। जहां दरगाह में हर मजहब के लोग आकर चादर चढ़ाते और मन्नत मांगते, वहीं मंदिर की घंटियां भी न थमतीं। मेले में खेल-तमाशे वाले, हलवाई, मनिहारी, कपड़े-बर्तन वाले सौदागर दूर-दूर से आकर अपनी दुकानें सजाते, वहीं तमाशबीनों और जरायमपेशा लोगों की भी पौ बारह रहती। एक बेटी पैदा हो जाने के ख़्वाहिशमंद रणजीत सिंह मुराद पूरी होने पर दरगाह में चादर चढ़ाने की गरज से मेले में मय खानदान पहुंचे थे। इधर अमीना बेगम के लिये यह मेला शिकार का माकूल मौका था। जहां अमीना बेगम हाजरा और बांदी अलफिया के साथ मेले में शिरकत फ़रमा रही थीं, वहीं सरफराज भी साबिर और मुख्तार के साथ मुस्तैद था। रणजीत सिंह को देखते ही पारखी अमीना बेगम ने शिकार तय कर लिया। रणजीत सिंह प्रताप की उंगली पकड़े हुये रत्ना को अपनी गोद में लिये खड़े थे और ठकुराइन मनिहारी से मोल-तोल कर रही थीं कि इतने में बुर्के वाली दो ख़वातीन भी उसी दुकान में आकर मनिहारी से नोंक-झोंक करने लगीं, बुर्का पहने सरफराज भी उन्हीं के साथ खामोशी से खड़ा था। हाजरा बुर्के में कुछ दूर खड़ी थी। अचानक ’हटो-हटो बचो-बचो’ का भारी शोर सुनाई दिया, उड़ती धूल के बीच हाथ में लगाम थामे एक साईस एक घोड़े के साथ दौड़ता, घिसटता सा दिखा। भीड़ में भगदड़ मच गयी, लोग जान बचाने के लिये जहां जगह मिल रही थी, दब-छिप रहे थे। न जाने क्या हो गया था कि घोड़ा रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था, बस बेसाख़्ता इधर-उधर दौड़े जा रहा था। अचानक रणजीत सिंह रत्ना को गोद से उतार घोड़े के पीछे दौड़ पड़े। धूल और गहमा-गहमी का फायदा उठा सरफराज अपना काम करके आहिस्ता से निकल गया, उसकी जगह बुर्का पहने एक ख़ातून हाजरा आकर खड़ी हो गयी। रणजीत सिंह घोड़े को काबू में कर साईस की दुआयें लेकर जब लौटे तो पाया कि रत्ना गायब थी। ठकुराइन का रो-रोकर बुरा हाल था, रणजीत सिंह ने हर जगह ढूंढा पर बच्ची को न मिलना था सो न मिली। जब तक तफ़्तीश-दर्याफ़्त चली, तीन की तीनों बुर्केवालियां अपनी जगह मौजूद रहीं, लिहाजा उन पर शुबहे की कोई गुंजाइश न रही। उधर बेहोश बच्ची को दूसरे घोड़े में लेकर सरफराज और मुख्तार ने, जैसा कि अमीना बेगम का हुक्म था, उस्मानपुर होते हुये मोहनलालगंज की जानिब रुख किया। रात होते-होते रणजीत सिंह और ठकुराइन छाती पीटते, रोते-बिलखते सफदरगंज लौटे, वहीं अमीना बेगम अपने कामयाब दौरे से फारिग हो अमले के साथ हैदरगंज कोठी आ पहुंचीं।

दूसरा दिन, शाम का वक्त, अमीना बेगम नमाज अदा कर उठी ही थीं कि ड्योढ़ी से नायब शहर कोतवाल दिलावर खान साहब के तशरीफ लाने की खबर आयी। अमीना बेगम चादर डाल फौरन बारादरी में हाजिर हुई। दिलावर खान ने खड़े होकर,

--“जी, आदाब अर्ज है!”

--“जी, आदाब! जहे किस्मत, हुजूर गरीबखाने में तशरीफ लाये। हुकुम किया होता, लौंडी हुजूर की खि़दमत में भागी

चली आती। तशरीफ रखिये………खैरियत तो है?”

--“जी नवाजिश! खैरियत कहां, दम मारने की फुरसत नहीं। आप भी तशरीफ रखिये।“ अमीना बेगम भी एक चौकी में

बैठ गयीं। --“कानपुर से तबादले पर सुकून की उम्मीद से लखनऊ आया, आते ही ओले पड़े। कल उर्स के जलसे से

एक बच्ची अगवा हो गयी, ऊपर से फौरन तफ़्तीश का हुक्म मिला है।“

--“हाय हाय, न जाने कौन कमीनजादे हैं जो ऐसी हरकत करते हैं। नामुरादों को जरा सा भी ख़ुदा का ख़ौफ़ नहीं, अपनी

आखि़रत का भी ख़्याल नहीं करते कम्बख़्त। अल्लाह इन्हें दोजख़़ में भी जगह नसीब न कराये। मैं तो बच्ची के

वालदैन का ख़्याल कर मरी जाती हूं, हाय हाय!”

--“अफसोस न करें। मैं अपना फर्ज पूरा करने हाजिर हुआ हूं, मेहरबानी करके दिल पे न लें।“

--“हुजूर की अपनी कोठी है, बारादरी से गुसलखाने तक तफ़्तीश कर लें, मैं अपनी बच्चियों के साथ बाहर हुई जाती

हूं।“

--“नहीं नहीं, मुझे आप पर एतबार है, मैं तो अपना फर्ज पूरा करने हाजिर हुआ था। मैं माफ़ी चाहता हूं, अब इजाज़त

दीजिये।“

--“अरे ऐसे कैसे हुजूर, कम से कम मेहमाननवाजी का एक मौका तो दें। अरे हाजरा, पानदान तो लाना, बांदी का कम

से कम एक पान नोश फ़रमायें हुजूर।“ दिलावर खान घोड़े पर सवार हो जैसे आया था, वैसे ही चला गया, अमीना बेगम उसे जाते हुये बड़ी देर तक देखती रही, फिर एक गहरी सांस लेकर कोठी के अंदर चली गयी। जैसा कि तय था, तीसरे दिन आधी रात के बाद सरफराज के आने की इत्तला हुई, आज अमीना बेगम सोई नहीं थी। कोठी में पहले सरफराज अकेले दाखिल हुआ, इशारा मिलने पर मुख़्तार भी बच्ची के साथ आ पहुंचा, रत्ना मुख़्तार की गोदी में थी और उसके गले में दोनों हाथ डाले सुबकते हुये टुकुर-टुकुर अमीना बेगम को देख रही थी। अमीना बेगम ने मुस्कुराकर दोनों हाथ बढ़ाये, रत्ना उनकी गोदी में आकर छाती से चिपक गयी, औरत को औरत का आगोश मिला।

--“बच्ची ने दिक् तो नहीं किया?”

--“जी नहीं, पर है तेज, हलाकान कर डाला।“

--“तेज तो होगी ही। इसे कुछ खिलाया-पिलाया कि नहीं? अरे हाजरा, जरा मेरा बुग़चा लाना।“ अमीना बेगम ने

गिनकर पचास कलदार एक थैली में सरफराज की ओर उछाल दिये।

--“माफी चाहता हूं बेगम साहिबा, आपका ख़ादिम हूं पर ये क्या, सिर्फ पचास कलदार? दो-दो घोड़ों पर खर्च हुआ, तीन

कलदार तो लौंडिया पर खर्च हो गये, मुख़्तार और साबिर भी हैं, मुझे क्या बचेगा?”

--“तो क्या पूरा बुग़चा उलट दूं? और पेशगी क्या तेरी मां निगल गयी? सुनो तो, मरदूद कहता है बच्ची पर तीन

कलदार खर्च हो गये, सोने के बताशे खिला दिये क्या कम्बख़्तमारे ने! हाय हाय, क्या जमाना आ पहुंचा, दो घड़ी

का काम क्या कराया, ये तो जान पर बन आये।“

--“चौक की हबीबन बाईजी पूरे सौ देने तैयार थीं, वो तो लौंडिया आपकी अमानत थी सो मैंने ख़यानत न की। जरा

शकल तो देखिये माल की।“

--“और जब ज़िन्दान में हड्डियां टूटतीं तो हबीबन की अम्मा बचाने आतीं? ख़ुदा का ख़ौफ़ कर खबीस। और ये कोई

जिंस नहीं है, चांद का टुकड़ा है, मेरी लख़्त-ए-ज़िगर! अरे हाजरा, बच्ची घर आयी है, संभालो इसे।“

मायूस सरफ़राज थोड़ी देर खड़ा रहा, वह अमीना बेगम के मिजाज से अच्छी तरह वाकिफ़ था लिहाजा कोर्निश कर अपनी राह ली।

--“एकदम चांद का टुकड़ा है! मैं तो इसे माह-ए-ज़बीं कहूंगी।“ हाजरा ने कहा, फिर बच्ची की जानिब रुख कर पुकारा, --“माहेज़बीं!” बच्ची कुछ न बोली, बस हाजरा की तरफ देखकर दो आंसू ढुलका दिये। हाजरा भी रो पड़ी, बच्ची को छाती से लगा सेहन की ओर चली गयी, --“यह मेरी बेटी है, इसे मैं पालूंगी।“ सुनकर लम्हे भर कौन जाने क्यों अमीना बेगम का चेहरा जर्द हो गया, सिर फेरकर हुक्के का एक गहरा कश लिया, फिर हंस दीं।

अमीना बेगम के हुक्म और मालूमात के बिना कोठी में पत्ता भी न खड़कता था। कोठी की लौंडियें कभी सैर-तफरीह के लिये निकलतीं तो टमटम में भी हिजाब पहन बापर्दा जातीं। अमीना बेगम शाहखर्च हर्गिज न थीं, दस आने का काम दो आने में कराने में उनकी महारत थी। दौलत ही उनका ख़ुदा थी, दौलत ही उनका ईमान। उन्हें न अपना माज़ी याद था, न मजहब पर इतना वे जानती थीं कि किसी की दौलत की चाहत ने ही कभी उनका भी बचपन, उनकी मासूमियत, उनकी जिंदगी निगल ली थी, लिहाजा अब उन्होंने भी दौलत को ही अपना मजहब बना लिया था। हां, अपने आराम-आसाईश-आरास्तगी में कोई कोताही न करतीं। बारादरी, जहां मुजरा होता, की सजावट के लिये वे उसूलन शाहखर्च थीं, दो लगाओ, दस वसूलो। वे अदायें दिखातीं तो पैसे वसूलतीं, मुस्करातीं तो पैसे वसूलतीं, किसी को नजर भर देखतीं तो पैसे वसूलतीं। दौलत, दौलत, दौलत, बस दौलत! माली हालात् के मुताबिक नवाबों का ख़ैर-मकदम होता, उन्हें गाव-तकिये-मसनद मिलते। लोग भूले न थे कि अदालत के फैसले से हालिया बेनवा हुये महदपुर के छोटे नवाब को भरे मुजरे के दरम्यान अमीना बेगम ने कैसे बाहर का रास्ता दिखा दिया था। कोठी हड़पने के लिये मुन्नन मियां का क्या हश्र उन्होंने किया था, वह उनके अलावा ख़ुदा ही जानता था। माहेजबीं हाजरा को बीबी कहके पुकारती जो उसे सब कहते थे और अमीना बेगम को बेगम साहिबा कहके, जो उसने सरफराज और मुख्तार के मुंह से सबसे पहले सुना था। माहेजबीं को महज दो छोड़कर और कोई दुनियावी शौक न थे, एक कोठी के बुर्ज में तनहाई में खड़ी रहकर डूबते सूरज को ताकते हुये एक गुजरते हुये फकीर का गाना सुनना और दूसरा शतरंज। किस्मत से उसके अदब के उस्ताद शतरंज के भी माहिर खिलाड़ी थे लिहाजा उसका ज्यादातर वक्त उनकी सोहबत में बीतता। एक शाहिद ही था जिसकी कोठी के अंदर सेहन से आगे के बरामदे में रखे अमीना बेगम के तख़्त तक पहुंच थी, दीगर किसी की मजाल न थी। शाहिद दरअसल अमीना बेगम का खबरची था जो हफ्ते-हफ्ते आकर उन्हें पान और आसपास की दिलचस्प खबरें दे जाता जिसमें हुकूमत, इंकलाबियों की शरारतों और चौक-कैसरबाग की खबरें अहम होतीं। बस एक दफ़ा अमीना बेगम ने उसे जूतियां मारकर आइंदा कोठी न आने की ताकीद की थी जब उन्होंने खुद उसे जनानखाने में गौहर से इश्क फ़रमाते पकड़ लिया था। कुछ अरसे बाद लजीज पान और दिलचस्प खबरों के लिये तरसती अमीना बेगम ने उसे माफ कर दिया था। अमीना बेगम की कोठी में कोई मजहबी पाबंदी नहीं थी, जितनी शिद्दत से ईद-बकरीद मनायी जाती, उससे कम रौनक होली-दीवाली में न होती, दिये जलते, रंग-फुहार बरसती। ऐसे ही माहौल में माहेजबीं की परवरिश-तरबियत होने लगी। बेहतरीन सारंगिये, तबलची और ग़ुलूकार उसके उस्ताद थे। ऊपर वाले ने बच्ची को बेपनाह हुस्न से नवाजने और उसके गले में सारे के सारे सुर भरने में कोई कोताही न की थी। रक्स के उस्ताद तो हैरान थे, वे सिखाते बाद में, वो पहले ही सीख जाती। अदब-सुखन सीखना शुरु ही हुआ था कि रफ़्ता-रफ़्ता शेर भी कहने लगी, उसके कलाम सुनकर आलिम-दानिशवर भी दांतों तले उंगलियां दबा लेते। मुल्क की आन पर उबल जाने वाला खून अमीना बेगम की निगहबानी में अय्याशों के ठंडे खून को और ठंडा करने के लिये तैयार हो रहा था। इसी तरह बीस साल गुजर गये। माहेजबीं की शोहरत दूर-दूर तक फैल चुकी थी, इलाके के सारे अमीर-उमरा उसके शैदायी थे, लोग उसके लिये थैलियों का मुंह खोल रखते, बूढ़ी अमीना बेगम की मुराद पूरी हुई। माहेजबीं जन्नत की हूर सी निकली, एकदम माहताब, एकदम माहेकामिल, फरिश्ते भी उसके दीदार को तरसते। उसके हुस्न, हुनर और नाज-ओ-अंदाज से नाज़रीन नीममस्त हो जाते। उसके शबनमी शबेमाह भर के चर्चे आम न थे, लोग उसकी शायस्तगी के भी कायल थे। पर माहेजबीं को महफिलों के जरिये ऐसा एक न मिला जिस पर वह खुद कुर्बान जाती।

फैजाबाद के नवाब असद खान के बेटे की शादी में मुजरे का इसरार था, पूरी रकम पेशगी आ पहुंची थी। अड़तीस कोस का फासला, पूरे चार दिन का सफर, नजूमी से साअत पूछ रवानगी डाली गयी। अमीना बेगम, माहेजबीं और हाजरा एक टमटम में सवार हुये, साजिंदे व रसद दूसरी में। पहला पड़ाव बाराबंकी और दूसरा रामसनेही घाट में तय हुआ था पर दूसरे दिन सफदरगंज निकलते-निकलते शाम हो गयी। धुंधलका हो चला था, अचानक कोचवान ने टमटम रोक दी,

--“क्या हुआ मियां, टमटम क्यों रोक दी?”

--“लगता है डाकू हैं।“ असगर फुसफुसाया। अमीना बेगम के हाड़ कांप गये, माहेजबीं उनसे लिपट गयी। मुंह में कपड़ा लपेटे घोड़ों पर सवार चार जवान तलवार लिये हुये टमटम के सामने खड़े थे।

--“कौन है अंदर, बाहर निकलो।“ किसी ने कड़ककर कहा।

--“मुसाफिर हैं माईबाप, लखनऊ की बाइयां फैजाबाद जा रही हैं।“ टमटम से उतर असगर हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाया।

--“सुजान सिंह, देखो जरा।“ कोई रोबीली आवाज में बोला। घोड़े पर सवार सुजान सिंह ने टमटम के पीछे आकर तलवार से परदा उलट दिया, उसके होश उड़ गये, उसके चेहरे से कपड़ा हट गया। माहेजबीं दोनों हाथ अमीना बेगम के गले में डाले उनसे चिपकी हुई थी, वह डरी हुई हिरनी की तरह सुजान सिंह को अपनी नीली आंखों से एकटक देख रही थी। बस उसकी एक लट पेशानी से होकर दोनों आंखों के बीच से गुजरकर ठोड़ी को छूती हुई हिल रही थी, ओंठ जुंबिश कर रहे थे और दिल की धड़कन की आवाज सुजान सिंह के कानों से टकरा रही थी। ऐसा कुदरती और लासानी हुस्न सुजान सिंह ने पहले कभी नहीं देखा था, वह सकते में आ माहेजबीं को ठगा सा देखता रह गया। समय थमा सा रहा। थोड़ी देर बाद,

--“बाइयां ही हैं, जाने देते हैं प्रताप।“ सुजान बोला।

--“ठीक है पर आगे दुर्जन सिंह डाकू का इलाका है, घना जंगल भी है। सुजान, दो लोगों को लेकर तुम इन्हें रामसनेही घाट तक छोड़ कर आओ।“ काफिला फिर चल पड़ा, रास्ता लंबा था। सुजान सिंह पूरे रास्ते घोड़े पर आगे चलता रहा। माहेजबीं के ऊपर हल्का सा ख़़ुमार तारीं हो चुका था जिसकी महक अमीना बेगम तक न पहुंची, उसने चोरी से सुजान सिंह को देखने की कई बार कामयाब-नाकामयाब कोशिश की। बाद में असगर ने बताया कि वे चारों इंकलाबी थे। टमटम देख उन्हें शुबहा हुआ कि कोई फिरंगी होगा। अमीना बेगम का इंकलाबियों से यह पहला साबका था। वह हैरान थी, वह अब तक इंकलाबियों को वो दरिंदा समझती आयी थी जो बेमक़सद शरीफ़ों की ज़िदगी अजाब बनाते हैं, धमाके करते और कत्ल करते फिरते हैं। पर इन्होंने तो औरतों, खासकर हम जैसियों के साथ न सिर्फ पुरएहतराम सुलूक किया बल्कि बाहिफ़ाजत सफ़र का इंतजाम भी किया। फैजाबाद में इस बार माहेजबीं ने अपने हुनर का वो जलवा दिखाया कि अमीना बेगम खुद हैरान रह गयीं, माहेजबीं किसी से मोहब्बत जो करने लगी थी और उसकी कुदरती आब में मोहब्बत की नायाब आब भी जा मिली थी।

लौटते समय सफदरगंज बस आने ही वाला था कि कोई दौड़ता हुआ आया और बोलकर भाग गया, --“आगे मत जाना। अंग्रेजों ने तीन लोगों को पेढ़ से लटका दिया है। मुनादी है कि जो उनकी मदद करेगा उसे भी सजा मिलेगी।“ जाने क्या हुआ, अमीना बेगम टमटम से उतर पड़ीं। असगर भी साथ हो लिया। एक इमली के पेढ़ से एक आदमी, एक औरत और एक बच्चे की लाशें लटक रही थीं, सुजान सिंह दोनों हाथों से मुंह ढंके रो रहा था। अमीना बेगम का इशारा पा असगर और सुजान ने लाशें पेढ़ से नीचे उतारीं। आदमी को देखकर अमीना बेगम पर बेहोशी छाने लगी, वह रणजीत सिंह को पहचान गयी। औरत उनकी बीवी थी और बच्चा उनका इकलौता पोता। अमीना बेगम के आंसू न निकले, वह पत्थर बन गयी। उसने अपनी दोनों चादरें रणजीत सिंह और उनकी बीवी की लाशों पर डाल दीं। अचानक उसने माहेजबीं को दौड़कर आते देखा, लग रहा था जैसे वह किसी रुहानी ताकत की गिरफ्त में हो। इंसानी जिस्म-जेहन में खून की दो सतरें होती हैं, अमीना बेगम की लाख कोशिशों के बावजूद माहेजबीं की अंदरुनी सतरों में अभी भी खानदानी गर्म खून बाकी दिख रहा था। लाशें देख माहेजबीं सकते में आ गयी, उसके पैर थम गये। फिर वह हौले-हौले आगे बढ़ी और अपना दुपट्टा बच्चे की लाश पर डाल उसकी पेशानी को चूम लिया। इसके बाद उसने बाकी दोनों लाशों के पास जाकर उनके पैर चूम लिये। अब अमीना बेगम के आंसू रुक न सके, वह रो पड़ी, वजह सिर्फ वो जानती थी। सुजान सिंह ने अपना साफा उतार कर बेपरदा माहेजबीं को दे दिया, उसने थाम लिया। असगर उन दोनों को वापस टमटम तक ले आया। चंद रोज बाद पता चला कि किसी की मुखबिरी पर सफदरगंज के रणजीत सिंह के इकलौते लड़के प्रताप सिंह पर कानपुर के सदर चर्च में धावा बोलकर अंग्रेजों का कत्ल करने का मंसूबा बनाने का इल्जाम लगाकर उसे उसकी ससुराल बिठूर से गिरफ्तार कर सरेआम गोली मार दी गयी थी और इधर सफदरगंज में प्रताप सिंह की बीवी को छोड़कर उसके बेकसूर पिता, मां और छः साल के बेटे को सरेआम पेढ़ में फांसी पर लटका दिया गया था। उसके बाद हैदरगंज़ की कोठी में महीनों महफिल न सजी। हाजरा कभी अमीना बेगम और माहेजबीं की पसंद का जर्दा बनाती, कभी शीरमाल, पर कोई भी हाथ न लगाता। अमीना बेगम माहेजबीं को देखती तो सहम जाती, उसकी आंखों के सामने वही मंजर तैर जाता। उसने माहेजबीं की आंखों को पढ़ अपने तजुर्बे से समझ लिया था कि उसे सुजान सिंह से मोहब्बत हो गयी है। वह मोहब्बत जो डर के माहौल के दरमियान पैदा हुई और मौत के हौलनाक मंजर के दरमियान परवान चढ़ी। अमीना बेगम का किसी काम में जी न लगता, वह अपने आपको माहेजबीं का गुनहगार मानने लगी। वह सोचती कि मैंने सारी जिंदगी किसी को कुछ भी नहीं दिया, लोगों को धोखे में रखा, उन्हें लूटा और दौलत जैसी चीज लूटी जो यहीं रह जानी है। ये इंकलाबी किस किस्म के लोग हैं जो अनजानों के लिये अपनी सबसे कीमती चीज अपनी जान लुटा देते हैं, कमाल है, उन्हें इससे क्या मिलता होगा भला! सोचती कि मेरी शोहरत तो कांच पर पड़ी पानी की बूंद जैसी है, उनकी बेशक चांद-आफ़ताब जैसी।

उस दिन लाख मना करने के बावजूद सदरगढ़ के नवाब नब्बन मियां के इंतहाई इसरार पर बेमन से अमीना बेगम उनसे मिलने को तैयार हो गयी। कहा भी कि बच्ची की तबियत नासाज़ है पर नवाब साहब ज़िद पर अड़े रहे। हाजरा के समझाने पर कि नब्बन मुंहमांगी रकम दे रहा है, ऐसे कब तक चलेगा आखिर, अमीना बेगम राजी हो गयीं और महफिल सज उठी। आज माहेजबीं पूरे जोश-ओ-खरोश से नाच रही थी, उसने आज ताजा कलाम भी पेश किया पर केवल अमीना बेगम समझ पा रही थीं कि आज वह महफिल में होते हुये भी महफिल में मौजूद नहीं है। आज वह किसी और के लिये मुकम्मल पाकीज़गी और अक़ीदत के साथ नाच-गा रही है। अचानक ड्योढ़ी में भारी शोर मच गया, महफिल थम गयी। सुजान सिंह नंगी तलवार लिये अंदर आ गया और नब्बन की ओर झपटा। महफिल में भगदड़ मच गयी, केवल माहेजबीं अपनी जगह बुत बनी खड़ी रही। नब्बन चीख मारकर बारादरी से सेहन की ओर जा भागा, पीछे-पीछे अमीना बेगम और सुजान सिंह भी जा लपके। अमीना बेगम अचानक नब्बन मियां के सामने आ खड़ी हुई,

--“मैं आपको इसका कत्ल करने नहीं दूंगी।“

--“आप बीच से हट जाइये वरना आज दो कत्ल हो जायेंगे। हम औरतों पर हाथ नहीं उठाते।“

--“पर इसका कुसूर क्या है?”

--“ये वही दोगला है जिसकी मुखबिरी से मेरे भाई जैसे दोस्त, उसके मां-बाप और मासूम बेटे को बेमौत मरना पड़ा।

अंग्रेज सिपाही मेरा पीछा कर रहे हैं, मेरी मौत तय है। इसके पहले कि वे मुझे मार डालें, मैं इसे दोज़ख़ पहुंचा दूंगा।“ कहकर सुजान सिंह ने तलवार उठाई ही थी कि अमीना बेगम ने उसे धक्का देकर पीछे हटा दिया, बिजली की तेजी से तलवार छीन ली और उसी तेजी से घूमकर नब्बन मियां के पेट में भोंक दी। सुजान सिंह भौंचक रह गया, पीछे खड़ी माहेजबीं चीख कर बेहोश हो गयी, सुजान सिंह ने उसे संभाल लिया। सुजान सिंह संभल भी न पाया था कि एक अंग्रेज अफसर ने अंदर आकर उस पर पिस्तौल तान दी। अमीना बेगम हौले-हौले चलकर अफसर के पास यह कहते हुये पहुंची कि नब्बन का कत्ल सुजान सिंह ने नहीं, बल्कि मैंने किया है और बिजली की तेजी के साथ उसके हाथ पर वार करके पिस्तौल नीचे गिरा दी और उसके भी पेट में तलवार भोंक दी। अंग्रेज कटे दरख़्त सा गिर पड़ा। अमीना बेगम तेजी से अंदर गयी और लौटकर एक थैली माहेजबीं के हाथ में रख कर बोली,

--“मेरी बच्ची, अब मेरा हश्र क्या होगा, तुम समझ सकती हो। जितनी जल्दी हो सके, यहां से दूर चली जाओ। मेरी

जिंदगी की कुल कमाई का ये आधा है, ये रख लो, इस पर तुम्हारा ही हक है। बाकी आधा किसी और को देने मुझे

कहीं दूर जाना होगा।“ फिर वह सुजान सिंह की ओर मुखातिब होकर बोली, --“मेरा मकसद नब्बन की हिफ़ाज़त

करना हर्गिज नहीं था, तुम्हें कत्ल के इल्जाम से बचाना था जिससे तुम मेरी बच्ची का हाथ थाम सको। माहेजबीं

दोशीजा है, इसे लेकर अब तुम जाओ यहां से।“ कह कर अमीना बेगम ने माहेजबीं का हाथ सुजान सिंह के हाथ में दे दिया। वह उन्हें लेकर बाहर आयी, दोनों को उनके घोड़े पर बैठा दिया और खुद दूसरे घोड़े पर सवार होकर जाने लगी। सुजान सिंह और माहेजबीं ने अमीना बेगम का हाथ जोर से पकड़ लिया, सुजान, --“आपने ऐसा क्यों किया?” अमीना बेगम ने सिर झुकाकर एक गहरी सांस ली, फिर सुजान सिंह से आंख मिलाकर कहा, --“मैं इंकलाबियों से नफरत करती थी क्योंकि वे मेरे पेशे से नफरत करते थे। मैंने जिंदगी में कोई सवाब नहीं कमाया। कभी सुना करती थी कि मादर-ए-वतन की खिदमत से बड़ा कोई सवाब नहीं, अलबत्ता समझ न पाती थी। जान हथेली पर लिये तुम नौजवानों को देखा, रणजीत सिंह के खानदान, खासतौर पर मासूम बच्चे की कुर्बानी को देखा तो यकीन आया। मैंने गुनाह पर गुनाह कर अपने लिये दौलत का जखीरा बनाया, वे गैरों के लिये फांसी पर झूल गये। मुझे यकीन है कि वतन की ख़िदमत में ये दो कत्ल अल्लाह जरुर कुबूल फरमायेंगे। रणजीत सिंह के साथ मैंने महज एक गुनाह नहीं, गुनाह-ए-अजीम किया है लिहाजा मैं अपनी आधी कमाई रणजीत सिंह की चौखट पर रख उस पाक रुह से अपने गुनाहों की माफी मांगूंगी, शायद इससे मेरी रुह को सुकून मिले और कयामत के दिन अल्लाह मेरे अजीम गुनाहों को माफ कर दे।“ कह कर अमीना बेगम ने उन दोनों के हाथों को चूमा फिर हाथ छोड़कर घोड़े को एड़ लगायी पर फिर रुक कर दोनों की तरफ पीठ कर बोली, --“अब मेरी वो बात ध्यान से सुनो सुजान सिंह जो मैं तुमसे और माहेजबीं से नजर मिलाकर नहीं कह सकती। आज के बाद मेरी तुमसे मुलाकात शायद कभी न हो। मेरे गुनाह शायद अल्लाह तब माफ कर दे जब तुम इसे सहारा दो क्योंकि माहेजबीं मेरी बेटी नहीं है, वो रणजीत सिंह की बेटी और प्रताप सिंह की बहन रत्ना है जिसे मैंने बचपन में अगवा कर लिया था। ख़ुदा हाफिज!” सुजान सिंह और माहेजबीं पर बिजली सी गिरी। अमीना बेगम का घोड़ा हौले-हौले चल दिया। माहेजबीं रो पड़ी, वह दोनों हाथ फैलाकर चीखी, --“अम्मा!” उस चीख को सुनकर आसमान के तारे भी हिल गये। आज अमीना बेगम ने माहेजबीं के मुंह से वो सुना जिसे सुनने के लिये वह औरत सारी उम्र तरसती रही, उसके दिल में एक साथ सैकड़ों आसमान, सैकड़ों पहाड़, सैकड़ों समंदर हिलोरें लेने लगे। अमीना बेगम एक पल के लिये थम गयी, उसकी आंखें, ओंठ और मुट्ठियां भिंच गयीं, दोनों हाथ सीने से जा लगे पर उसने पीछे मुड़कर न देखा, उसकी आंखों से आंसुओं का सैलाब बह निकला। उसने घोड़े को एड़ लगायी, घोड़ा हवा से बातें करने लगा। सुजान सिंह और माहेजबीं को होश में आने में वक्त लग गया। माहेजबीं को लगा उसने इन चार पलों में अपनी पूरी उम्र जी ली। अब सुजान सिंह का घोड़ा हल्के-हल्के आगे बढ़ने लगा। पेढ़ों के पत्तों से छन-छनकर चांदनी उन पर पड़ रही थी। कुछ दूर जाने पर माहेजबीं ने इशारे से घोड़ा रुकवाया और उतर पड़ी। उसने भर निगाह सुजान सिंह को देखा, उसका हाथ सुजान के हाथ में था। वह मुड़कर हौले-हौले वापस कोठी की ओर चल दी,सुजान सिंह से उसका हाथ आहिस्ता-आहिस्ता छूटता गया, वह उसे पीछे मुड़कर वापस जाते देखता रहा। मोहब्बत की इंतिहा में पहुंच माहेजबीं ने मोहब्बत की कुर्बानी दे दी। वह अपना फर्ज समझ एक इंकलाबी की राह से हट गयी और अपना फर्ज समझ अमीना बेगम की राह में बढ़ चली। माहेजबीं दौड़कर ड्योढ़ी पर खड़ी हाजरा से गले जा मिली।

उसके बाद बहुत अरसे तक हैदरगंज की कोठी आबाद रही पर फिर कोई रत्ना वहां नहीं लाई गयी। अमीना बेगम रणजीत सिंह के बेटे की बेवा के हाथ आधी दौलत सौंप किसी दरगाह में मुजाविर हो गयी। हिंदुस्तान के इंकलाबियों की फेहरिस्त में रणजीत, प्रताप, सुजान जैसे नाम तो थे पर किसी अमीना बेगम, माहेजबीं या रत्ना का नाम कभी शुमार न हो सका।

उर्दू - हिंदी डिक्शनरी

तवायफ - नाचने वाली जो पेशा नहीं करती। आदाब बजा लाना - नमस्कार करना। मुआयना - निरीक्षण। ख़ालाजाद - मौसेरे। माशाल्लाह - भगवान की दया से। बज़ा फ़रमाना - ठीक कहना। मेहरबानी - दया। ख़ता - गलती। एहतियात - सावधानी। बेहतर - अच्छा। पेशगी - एडवांस। तख़्लिया - एकांत दो (अकेला छोड़ दो)। कोर्निश - झुककर नमस्कार करना। करम - दया। मशहूर - प्रसिद्ध। आबाद - रहना। कोस - दो मील की दूरी। फ़ख्र - गर्व। हर्राफाजनी -रंडियों की औलादें। मोहब्बत - प्रेम। मुब्तिला - फंसे होना, व्यस्त होना। दाखिल-खारिज - संपत्ति को एक नाम से दूसरे के नाम रिकार्ड में चढ़ाना। मआशरा - समाज। एज़ाज़् - सम्मान। एहतिराम - आदर। फ़न - कलात्मक गुण। अहले-ए-नजर – गुणी, कद्र करने वाले। दौलत - संपत्ति। नजरबंद - कैद। आला - प्रमुख, प्रधान । हुक्काम - शासन करने वाले अधिकारी। फिरंगी - अंग्रेज। जुर्रत - साहस। सलीकेदार - काम को विधिपूर्वक करने वाला। तमीजदार - अच्छे आचरण वाला। अदब - साहित्य। सुखन – लेख, साहित्य। मौसिकी - संगीत। पनाह - शरण। परवान चढ़ना – पनपना, उन्नति करना। मर्शियाख्वानी/ मुरब्बा दोहराबंदी - कोठों में उस समय प्रचलित गायन सामग्री। हुनर - गुण। हुस्न -सौंदर्य। अदा – भाव-भंगिमा। अव्वल - प्रथम। दीवानखाना - ड्राइंग रुम, बैठक। रक्स - नृत्य। महफिल - मनोरंजन सभा। विलायत - विदेश। आतशदान - लैंप। फानूस - लटकने वाले लैंपों का समूह। रोशन होना – जलना, प्रकाशवान होना। नवाबजादा - नवाब का बेटा। गुलजार - खिलना। फ़िजां - वातावरण। तारीं - व्याप्त। जन्नत - स्वर्ग। रुखसार - चेहरा। आब – दीप्ति, तेज। दौलत - धन। बेपनाह - असीमित। मुस्तहक – हकदार, अधिकारी। नमूदार - प्रकट। तिजारती - व्यापारी। अहलकार - पदधारी। तस्लीम - प्रणाम करना। मिजाज - स्वभाव। मुताबिक - अनुसार। पुरअमन - शांतिपूर्ण। तहरीक - आंदोलन। बलवा - उपद्रव। इंकलाब - स्वतंत्रता संग्राम। बगावत - विद्रोह। सबक - सीख। हुकूमत - शासन। एहतियातन - सावधानीपूर्वक। सख्ती - कठोरता। अख्तियार करना - अपनाना। बेकसूर - निरपराध। जायज - उचित। हरकत - गतिविधि। मंसूबा - योजना। इल्जाम - आरोप। नाफ़रमानी - अवज्ञा। फ़रमान - आदेश। असरअंदाज - प्रभावी। गाफ़िल – डूबे, रत। अमूमन - लगभग। काहिल – आलसी, कोई काम न करने वाला। ताबेदार - अनुयायी। चुगली - झूठी शिकायत। रसूख - प्रभाव। तहरीक-ए-आजादी - स्वतंत्रता आंदोलन। जुमाद-ई-उला - इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार लगभग जनवरी का दूसरा सप्ताह। मरहूम - स्वर्गीय। उर्स - किसी संत की याद में लगने वाला मेला। मजहब - धर्म। मन्नत - मन की चाहत/इच्छा। मनिहारी -चूड़ियों का व्यापार करने वाले। सौदागर - व्यापारी। तमाशबीन - तमाशा देखने वाले। जरायमपेशा - अपराधी। ख़्वाहिशमंद - इच्छुक। मुराद – मनौती, लालसा। गरज - उद्येश्य। खानदान - परिवार। माकूल – सटीक, उचित। शिरकत फ़रमाना - उपस्थित होना। मुस्तैद - तैयार। ख़वातीन - औरतें। साईस - घुड़पाल। बेसाख़्ता - बिना रुके। आहिस्ता - धीरे से। खातून - महिला। दुआ - आशीर्वाद। तफ्तीश - जांच। दर्याफ़्त – खोजबीन, पूछताछ। लिहाजा - अतः। शुबहा - संदेह। जानिब - की तरफ। रुख करना – जाना, झुकाव। कामयाब - सफल। फारिग - निपट कर, फुरसत होकर। अमला - स्टाफ। नायब - उप। तशरीफ लाना - पधारना। बारादरी - प्रमुख बैठका। आदाब अर्ज करना - आदर देते हुये नमस्कार करना। जहे किस्मत - धन्य भाग्य। गरीबखाना - निवास स्थान (विनयी भाव से कहा जाने वाला शब्द)। हुकुम - आदेश। लौंडी - सेविका। हुजूर - श्रीमान। खि़दमत - सेवा। खैरियत - कुशलता। नवाजिश - कृपा। सुकून –आराम, शांति। उम्मीद - आशा। जलसा - कार्यक्रम। अगवा - अपहरण। कमीनजादा - नीच आदमी। हरकत -कृत्य। नामुराद - अधम। ख़ुदा - ईश्वर। ख़ौफ – भय, डर। आखि़रत - परलोक। कम्बख़्त – हल्का/घटिया आदमी। दोजख़ - नर्क। नसीब न कराना - उपलब्ध न कराना। वालदैन – माता-पिता। ख़्याल - ध्यान। अफसोस - दुःख। फ़र्ज - कर्त्तव्य। हाजिर होना - उपस्थित होना। मेहरबानी - दया। गुसलखाना - शौचालय। एतबार - भरोसा। इजाज़त - आज्ञा। मेहमाननवाजी - अतिथि सत्कार। पानदान – पान-सुपाड़ी रखने का डिब्बा। बांदी - सेविका। नोश फ़रमाना – खाना, पीना। इत्तला - सूचना। दाखिल होना - प्रवेश करना। इशारा - संकेत। आगोश - बाहों में लेना, चिपका लेना। दिक् - परेशान। हलाकान करना - परेशान करना, थका देना। बुग़चा - छोटी संदूकची। कलदार - पुराने समय में चलने वाला सिक्का। ख़ादिम - सेवा करने वाला। लौंडिया - अवध के इलाके में लड़कियों के लिये किये जाने वाला शिष्ट संबोधन। अमानत - किसी के पास सुरक्षित रखी वस्तु/संपत्ति। ख़यानत - किसी की संपत्ति का अनधिकृत उपयोग। ज़िन्दान - जेल। खबीस - नीच आदमी। जिंस - वस्तु। लख़्त-ए-ज़िगर - कलेजे का अुकड़ा। माह-ए-ज़बीं - चांद जैसे सुंदर चेहरे वाली। जानिब - की तरफ। सेहन - आंगन। हुक्म - आदेश। मालूमात - जानकारी। सैर-तफरीह – घूमने-फिरने। हिजाब - चेहरे को ढंकने वाला कपड़ा। बापर्दा - पर्दे में। शाहखर्च - अपव्ययी। हर्गिज - बिल्कुल। महारत - विशेष योग्यता। ईमान - आत्मा। माज़ी - अतीत। आराम – विश्राम, आनंद के अर्थ में भी। आसाईश – सुख-चैन। आरास्तगी – बनाव-श्रंगार। कोताही – कमी, कंजूसी। उसूलन - नीति के अनुसार। मुजरा - कोठों में होने वाले नृत्य का एक प्रकार, झुककर अभिवादन करना। माली - आर्थिक। हालात् – स्तर, परिस्थिति। मुताबिक - अनुसार। ख़ैर-मकदम – स्वागत-सत्कार। गाव-तकिये-मसनद – बैठने/टिकने के लिये बिछावन। हालिया - कुछ दिनों पहले का। बेनवा – दरिद्र,कंगाल। दरम्यान - बीच में। हश्र – दुर्दशा, बुरा हाल। महज - केवल । दुनियावी - सांसारिक। बुर्ज - प्राचीर। तनहाई - एकांत। अदब - साहित्य। माहिर - कुशल। सोहबत - सान्निध्य। दीगर - अन्य कोई। मजाल - हिम्मत। खबरची - समाचार देने वाला। दिलचस्प - मनपसंद। अहम - मुख्य। दफा - बार। आइंदा - आज के बाद। ताकीद - चेतावनी। जनानखाना - जहां महिलायें रहती हैं। इश्क फ़रमाना - प्रेम प्रदर्शित करना। अरसा - समय। लजीज - स्वादिष्ट। पाबंदी - रोक। शिद्दत - उत्साह। माहौल - वातावरण। परवरिश – पालन-पोषण। तरबियत - व्यक्तित्व विकास। बेहतरीन - सर्वश्रेष्ठ। ग़ुलूकार - गाना गाने वाले। उस्ताद - गुरु। रक्स - नृत्य। अदब - साहित्य। सुखन – कविता, शायरी आदि। रफ़्ता-रफ़्ता – धीरे-धीरे। कलाम – उर्दू के पद्य। आलिम – ज्ञानी। दानिशवर – विद्वान। मुल्क – देश। आन – मर्यादा। निगहबानी – देख–रेख। अय्याश – बुरे काम करने वाला लंपट। शोहरत – प्रसिद्धि। अमीर–उमरा – धनवान लोग। शैदायी – मुग्ध, आसक्त। हूर – स्वर्ग की अप्सरा। माहताब – चांद सी रोशनी वाला। माहेकामिल – पूर्णिमा का पूरा चांद। फरिश्ता – देवदूत। दीदार – दर्शन। नाज–ओ–अंदाज – स्त्रियोचित भंगिमायें। नाज़रीन – दर्शक। नीममस्त – तंद्रा। शबनमी – ओस जैसे। शबेमाह – ज्योत्सना। शायस्तगी – शिष्टता, सभ्यता। कायल – प्रशंसक। जरिये – द्वारा, के माध्यम से। कुर्बान – प्राणोत्सर्ग। इसरार – आग्रह। नजूमी – पंचांग विचारने वाला, ज्योतिषी। साअत – शुभ समय। टमटम – घोड़े जुते बग्घीनुमा एक मंहगी गाड़ी। मुसाफिर – यात्री। पेशानी – माथा। जुंबिश – कंपन। कुदरती – प्राकृतिक। लासानी – अनुपम। काफिला – यात्रियों का समूह। ख़ुमार – तंद्रा। नाकामयाब – असफल। शुबहा – संशय, शक। साबका – सामना। दरिंदा – खूंखार जानवर। बेमकसद – निरुद्येश्य। अज़ाब – दुःखमय। धमाका करना – विस्फोट करना, बम फोड़ना। कत्ल – हत्या। पुरएहतराम – सम्मानपूर्ण। सुलूक – व्यवहार। बाहिफाजत – सुरक्षित। सफर – यात्रा। इंतजाम – व्यवस्था। नायाब – नयी। मुनादी – सार्वजनिक घोषणा। रुहानी ताकत – ईश्वरीय शक्ति। गिरफ्त – पकड़, जकड़, आधीन। जिस्म – शरीर। जेहन – दिमाग। सतरें – पंक्तियां, सतहें। सकते में आना – किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो जाना। हौले–हौले – धीरे–धीरे। बेपरदा – बगैर या कम कपड़ों के। मुखबिरी – जासूसी। सदर – प्रधान। सरेआम – सबके सामने। जर्दा – चावल का मीठा व्यंजन। शीरमाल – दूध से बना मीठा व्यंजन। मंजर – दृश्य। तजुर्बा – अनुभव। दरमियान – के बीच, के दौरान। हौलनाक – भयानकतम। गुनहगार – अपराधी। आफ़ताब – सूरज। इंतहाई – अत्यधिक। तबियत नासाज़ होना – स्वास्थ्य खराब होना। मुकम्मल – पूर्ण। पाकीज़गी – पवित्रता। अक़ीदत – श्रद्धा। बुत – मूर्ति, पुतला। कुसूर – दोष। दोगला – वह अविश्वसनीय व्यक्ति जो दोनों पक्षों से मिला हो। दरख़्त – पेढ़। मुखातिब – की ओर मुंह करके। मकसद – उद्देश्य। हिफाज़त – सुरक्षा। दोशीजा – कुमारी, अक्षत। सवाब – पुण्य। मादर–ए–वतन – मातृभूमि। अलबत्ता – हालांकि, पर। जखीरा बनाना – ढेर लगाना, इकट्ठा करना। गैरों – दूसरों। कबूल फरमाना – स्वीकार करना। गुनाह – अपराध। महज – केवल। गुनाह–ए–अजीम – बहुत बड़ा पाप। लिहाजा – इसलिये। रुह – आत्मा। पाक – पवित्र। सुकून – आराम। कयामत – प्रलय। अजीम – बड़े, गंभीर। सैलाब – बाढ़। इंतिहा – चरम। अरसा – समय। बेवा – विधवा। मुजाविर – दरगाह की सेवा करने वाला। फेहरिस्त – सूची।

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