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अनाम रिश्ते

अनाम रिश्ते

कार्तिकेय को घर लौटने में निरंतर आवश्यकता से अधिक देरी होने पर न जाने क्यों, कुछ दिनों से करीना को अत्यंत क्रोध आने लगा था । उसके टोकने पर अतिआवश्यक मीटिंग में फँस गया था, कहकर कार्तिकेय करीना के क्रोध को कुछ क्षणों के लिये दूर तो अवश्य कर देता था किन्तु फिर से वही स्थिति आने पर वह बेकाबू होने लगती थी जबकि वह जानती थी कि कार्तिकेय का काम ही ऐसा है जिसमें देर सबेर होना आम बात है लेकिन पिछले कुछ दिनों से जीवन में छाया अकेलापन, सूनापन उसके मनमस्तिष्क पर छा कर उसे अनमना कर उसे क्रोध दिला ही देते थे ।
पिछले दो हफ्ते से वह ज्वर से तप रही थी किंतु कार्तिकेय का पूर्ववत देर से आना उसे मर्माहत करने लगा था । क्या काम ही जिंदगी है...? काम के लिये रिश्ते नातों की परवाह न करना क्या उचित है...? अन्य दिन तो ठीक है किंतु क्या उसकी बीमारी में भी वह समय पर घर नहीं आ सकता है ?
उसे याद आये वह दिन जब ठीक छह बजे विशिष्ट अंदाज में कॉलबेल की आवाज सुनकर वह दरवाजा खोलने दौड़ी जाती थी तथा कार्तिकेय भी उसे आगोश में लेकर प्यार की बौछार करने लगता था । कभी-कभी प्यार के रूमानी दौर में उसका बनाया नाश्ता भी ठंडा हो जाता था ।
रोज बाहर घूमना, खाना पीना उनका दैनिक कार्यक्रम बन गया था । कभी वह खर्चे की बात करती तो वह निश्चिंतता से कहता । इंसान कमाता किसलिये है...अपनी खुशी के लिये ही न, यदि खुशी ही न मिली तो करोड़ों की जायदाद का क्या अर्थ ?
उस समय एक बार वह बीमार पड़ी थी तो आफिस से छुट्टी लेकर वह लगातार उसकी देखभाल में लगा रहा था और आज बीमार पत्नी की देखभाल के लिये भी उसके पास समय नहीं है । समय के साथ-साथ इंसान कितना बदल जाता है...सोचकर दुख और वेदना से उसकी आँखें भर आई थीं ।
जब पहले प्यार का अंकुरण प्रस्फुटित हुआ था तब वह बेहद खुश हुआ था । मातृत्व पर लिखी कई पुस्तकें उसने उसे लाकर दी थीं । यह न करो, वह न करो...की कई ताकीदें देकर वह आफिस जाता था । स्कूटर पर बैठ कर कहीं जाने में, झटका लगने से गर्भस्थ शिशु को नुकसान पहुँच सकता है ,जानकर उसने पंद्रह दिन के भीतर ही फाइनेंस कंपनी से लोन लेकर एक सेंकेड हैंड कार खरीद ली थी ।
अंतिम महीने में अत्यधिक रक्तस्त्राव के कारण जब डाक्टर ने करीना को पूर्ण विश्राम की सलाह दी तो जब तक सासूमाँ नहीं आ गई, तब तक छुट्टी लेकर उसके आस-पास ही मँडराता रहा था । तब वह सचमुच ही स्वयं को संसार की सबसे भाग्यशाली नारी समझती थी जिसे इतना प्यार करने और उसकी भावनाओं को समझने वाला पति मिला ।
पहले अंकुर तथा दो वर्ष बाद ही आई अंकिता की देख भाल में करीना ऐसा खोई कि उसे पता ही न चला कि कार्तिकेय कब उससे दूर होता चला गया...। कार्तिकेय और उसके मध्य आई दूरी का एहसास उसे तब हुआ जब अंकुर के इंजीनियरिंग में जाने के दो वर्ष पश्चात् ही अंकिता भी मेडिकल की पढ़ाई के लिये चली गई किंतु फिर भी उसे कार्तिकेय का देर से घर आना इतना बुरा नहीं लगता था क्योंकि वह सोचती थी कि सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति की जिम्मेदारियाँ भी बढ़ जाती हैं । पिछले दो हफ्ते के ज्वर ने उसे तोड़कर रख दिया था । माना काम...कर्तव्य सर्वोपरि है लेकिन पारिवारिक दायित्व भी तो है । क्या बीमार पत्नी के पास कुछ क्षण बैठकर उसका हालचाल पूछना उसका कर्तव्य नहीं है ?
यह सच है कि उसकी देखभाल के लिये नौकरानी है । कंपनी का डाक्टर सुबह शाम आकर उसका परीक्षण कर जाता है किंतु वह सब तो अपने कर्तव्यों से बंधे है । उनमें रिश्तों की वह गर्माहट नहीं है जो इंसान को जीवन के कठिनतम क्षणों में भी हिम्मत और हौसला टूटने नहीं देते ।
अभी विचारों का बबंडर थमा भी नहीं था कि कॉलबेल की आवाज सुनाई पड़ी । श्यामा नौकरानी ने दरवाजा खोला तो सामने से कुसुम आती दिखी । कुसुम कार्तिकेय के सहयोगी अधिकारी की पत्नी है लेकिन इतनी बातूनी थी कि अच्छे भले आदमी को पागल बना दे । किसी के दुख दर्द में काम आना अपना कर्तव्य ही नहीं अधिकार भी समझाती है । कभी वह सबसे इतने प्रेम से बातें करती है कि लोगों को लगता है कि उसके समान, उनका हितैषी संसार में और कोई नहीं है और कभी जरा सी बात पर रूठकर बैठ जाती है ।
सबकी अंदरूनी बातें पता कर जब तब विष बुझे तीर छोड़कर दूसरों को परेशान होते देखकर चैन की साँस लेना उसकी आदत बन गई थी । उसकी इस बुरी आदत ने उसकी खूबियों को ढँक लिया था और शायद यही कारण था कि उसके दो मुंहे स्वभाव के कारण सभी धीरे-धीरे उससे कतराने लगे थे लेकिन सहयोगी की पत्नी होने के कारण करीना के लिये उससे मुंह मोड़ पाना संभव नहीं है अतः मन की भावनाओं को मन में दबा कर प्रसन्नता प्रकट करते हुए बोली, ‘ आओ कुसुम, अच्छा हुआ जो तुम आ गई वरना मैं अत्यंत ही बोरियत हो रही थी ।’
‘ सुना है, आपकी तबियत ठीक नहीं है अतः सोचा आपसे मिल आऊँ । अब कैसी आपकी तबियत है ? ’ कुसुम ने पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए पूछा ।
‘ आज तो ज्वर कम है । दवा ले रही हूँ । डाक्टर ने वाइरल फीवर बताया है । धीरे-धीरे ही ठीक होगा ।’ करीना ने सहज स्वर में उत्तर दिया ।
बातों-बातों में एक घंटा कैसे बीत गया पता ही नहीं चला । कुछ क्षणों के लिये करीना को भी लगा कि वह ठीक हो गई है या वह तो बीमार थी ही नहीं । वास्तव में बीमारी भी कभी-कभी मन की होती है । तभी कहते भी हैं कि यदि मन स्वस्थ है तो तन छोटी-मोटी बीमारियों को प्रसन्नता से झेल सकता है वरना छोटी सी बीमारी भी बड़ी और जानलेवा लगने लगती है ।
‘ अच्छा, अब चलती हूँ...।’ कुसुम ने उठते हुए कहा ।
‘ अरे बैठो न, कार्तिकेय तो नौ बजे से पहले आते ही नहीं हैं ।’ कहते हुए करीना गर्व से भर उठी थी । वस्तुतः जबसे कार्तिकेय जनरल मैनेजर बना है तबसे वह अतिव्यस्त हो गया है । अक्सर मीटिंगों में व्यस्त रहने के कारण देर से घर आना उसकी आदत ही नहीं मजबूरी बन गई है । करीना को उस पर गर्व है । अपनी मेहनत, परिश्रम और लगन के कारण ही वह कई लोगों को सुपरसीड करके इस पद तक पहुँच पाया है ।
‘ नहीं, अब मैं चलूँगी, हमारे सूरी साहब तो समय से घर आ जाते हैं । ज्यादा काम करने से कौन सा जल्दी प्रमोशन मिलता है । आज के युग में तो जब तक सोर्स या रूपया न हो, कितना भी काम करो कुछ भी नहीं होने वाला । ’ व्यंग्यात्मक स्वर में कुसुम ने कहा ।
करीना के चेहरे के उतार चढ़ाव को पढ़ते हुए उसने एक-एक शब्द पर जोर डालते हुए गंभीर स्वर में पुनः कहा,‘ तुम्हें बुरा तो अवश्य लगेगा लेकिन तुम तो जानती हो कि मैं सीधी और सच्ची बात कहने से कभी नहीं डरती । यह ठीक है कि आफिस की जिम्मेदारी सर्वोपरि है लेकिन इतनी भी नहीं कि इंसान अपना घर परिवार भूल जाए या घर के प्रति अपने दायित्वों से मुंह मोड़ लें । काम तो कभी समाप्त नहीं होता । इंसान को ही तन मन की स्फूर्ति पाने के लिये उसे कुछ समय के लिये रोकना पड़ता है...शायद इसी के लिये विधि ने रात दिन का प्रावधान रखा है । वैसे भी यदि पुरूष को घर में उचित मानसम्मान मिले तो बाहर क्यों घूमता फिरे....? ’
‘ तुम कहना क्या चाहती हो कुसुम...? ’ असमंजस की स्थिति में करीना ने पूछा ।
‘ यही कि आजकल श्रीवास्तव साहब अपनी सेक्रेटरी नंदिता के साथ काफी समय बिताने लगे हैं ।’ बिना किसी हिचकिचाहट के कुसुम ने उत्तर दिया ।
‘ तुम क्या कह रही हो....? ’ आश्चर्ययुक्त स्वर में करीना ने पूछा ।
‘ मैं सच कह रही हूँ । क्या तुम्हें पता नहीं है...? आफिस में काफी चर्चा है । ’ कंटीली मुस्कराहट के साथ कुसुम ने विष बुझा तीर फेंक ही दिया ।
‘ मैं विश्वास नहीं कर सकती...? ’ अविश्वास के स्वर में करीना ने फिर से पूछा ।
‘ विश्वास न हो तो आज ही श्रीवास्तव साहब से पूछ लेना ।’ फिर अपनेपन से बोलीं,‘ पता नहीं यह बात मुझे इस समय बतानी चाहिए थी या नहीं लेकिन तुम्हारा अकेलापन और गिरता स्वास्थय देखकर रहा नहीं गया...।’
कुसुम चली गई किंतु उसके लिये कई ऐसे अनउत्तरित प्रश्न छोड़ गई जिनका उत्तर उसके पास नहीं था । वह समझ नहीं पा रही थी कि उसके प्यार और समर्पण में कहाँ कमी रह गई कि अधेड़ावस्था में कार्तिकेय एक युवा लड़की के जाल में फँस गया ।
नंदिता...कार्तिकेय की सेक्रेटरी उससे अक्सर ही मिलने आती रहती थी । कल ही उसकी बीमारी का समाचार सुनकर उससे मिलने आई थी । वह काफी हँसमुख और बेतकल्लुफ स्वभाव की महिला है । उसने अपने पति से तलाक देने के लिये आवेदन कर रखा है ।
कारण पूछने पर उसने कहा था, ‘ प्रशांत बात-बात पर मुझ पर शक करता है । भला सदैव शक करने वाले आदमी के साथ जिंदगी कैसे गुजारी जा सकती है...? मैं नौकरी करती हूँ । आत्मनिर्भर हूँ फिर क्यों किसी के दबाव में रहूँ ? मैं स्वच्छंद जीवन जीना चाहती हूँ । तलाक के पश्चात् मैं स्वतंत्र हो जाऊँगी । अपनी जिंदगी की मालिक मैं स्वयं होगीं । जैसे चाहे रहूँगी, न कोई बंधन, न जिम्मेदारी और न ही कोई रोक-टोक । वैसे भी घर की जिम्मेदारियों में फंसी कोई भी कैरियर ओरिएन्टेड महिला कभी सफल नहीं हो सकती ।’
करीना ने जब उसे घर परिवार की सार्थकता, महत्ता, पत्नीत्व और मातृत्व की गरिमा बताने का प्रयास किया तो वह बोली,‘ मैं इन बातों में विश्वास नहीं करती मैम । मातृत्व स्त्री को गरिमा नहीं देता वरन् बेड़ियाँ पहनाता है । जब एक स्त्री सफलता की ऊँचाईयाँ छूना चाहती है तब मातृत्व का हार, प्रेम और बलिदान की माँग कर उसके पैरों को जकड़ कर, तन मन को बंदी बनाकर उसकी सारी महत्वाकांक्षाओं और उसके सारे स्वप्नों को धूलधूसरित कर देता है, अरमानों को कुचल देता है । अब आप ही बताइए ऐसे मातृत्व से क्या लाभ जो स्त्री की सारी योग्यताओं, रात दिन जागकर प्राप्त की गई डिग्रियों को ठंडे बस्ते में डालने का सुझाव देता हो...ठीक यही बात घर परिवार के प्रति समर्पित स्त्री के संदर्भ में कही जा सकती है । ’
‘ यदि ऐसा ही था तो तुमने विवाह ही क्यों किया ? ’ न चाहते हुए भी तब करीना उससे पूछ बैठी थी ।
‘ मैम, गलती हो गई...प्यार कर बैठी । ममा और पापा की इच्छा के विरूद्ध विवाह कर लिया । धीरे-धीरे प्यार करने वाला प्रेमी दकियानूसी पति में बदल गया । विवाह के बंधनों, कर्तव्यों को निभा पाने में स्वयं को असमर्थ पाने लगी अतः तलाक लेने का आवेदन देकर यहाँ की ब्रांच में स्थानांतरण करवा कर आई हूँ ।’
‘ दकियानूसी पति...।’
‘ एक दकियानूसी पति जिसे सिर्फ अपनी ही चिंता है मेरी नहीं ।’
करीना ने एक बार फिर अपनी तरह नंदिता को समझाने का प्रयास किया लेकिन उसकी दलीलों के आगे वह निरूत्तर हो गई । तब दो पीढ़ियों का अंतर समझकर उसने इतना ही कहा, ‘ जैसा तुम्हें उचित लगे करो लेकिन घर परिवार का महत्व कभी समाप्त नहीं होगा...शायद तुम कभी इस बात को समझ पाओ । एक बात ऑर ‘ मैम ’ शब्द से अपनत्व का बोध नहीं होता मैं तुम्हारी माँ जैसी हूँ अतः यदि तुम्हें मेरे साथ संबंध कायम रखने हैं तो मुझे आँटी, दीदी या भाभी जो चाहे संबोधित कर सकती है लेकिन मैम नहीं ।’
तबसे नंदिता उसे दीदी कह कर ही संबोधित करती थी । किसी अपरिचित के सामने अपने जीवन की किताब खोलने के पश्चात् क्या नंदिता ऐसा निंदनीय कृत्य कर सकती है...? अगर कार्तिकेय और उसके बीच में ऐसा कोई भी संबंध होता तो क्या वह उससे इतनी सहजता से मिल पाती या बात कर अपने जीवन का रहस्य खोल पाती या कातिर्केय का साथ पाने के लिये ही उसने उससे संबंध बनाये । नहीं...नहीं...ऐसा नहीं हो सकता । अपने ही प्रश्न का अपने द्वारा उत्तर प्राप्त कर उसने अपने विचारों को झटकने का प्रयास किया किंतु चाहकर भी सफल नहीं हो पाई ।
मिसेज सूरी की तो आदत ही है इधर का उधर करने की...सोच कर करीना ने मन को सांत्वना दी । वास्तव में वह उसके सुखी पारिवारिक जीवन को देखकर ईर्ष्या ग्रस्त हो गई है अतः व्यर्थ की बातें करके उसके जीवन में जहर घोलना चाहती है । शायद उसकी ईष्र्या की एकमात्र वजह है...कार्तिकेय को जल्दी जल्दी प्रमोशन मिलने के कारण वरिष्ठ होते हुए भी सूरी साहब कार्तिकेय से पीछे हो गये हैं । वस्तुतः जिस कुर्सी पर सूरी साहब को बैठना था उस पर आज कार्तिकेय का बैठे हैं ।
लेकिन ऐसा आरोप तो कोई दुश्मनों पर भी नहीं लगाता । क्या इस आरोप में कोई सच्चाई है...? शक का कीड़ा उसके मनमस्तिष्क में कुलबुलाने लगा था । काफी पहले उसने कहीं पढ़ा था कि पुरूष ऐसे हीरे के समान है जो पुराना होने पर भी अपनी चमक, दमक नहीं खोता है । शायद इसी कारण आज के भौतिकतावादी परिवेश में पली बढ़ी कुछ युवतियाँ, युवाओं की अपेक्षा प्रौढ़ों को अधिक पसंद करने लगी हैं क्योंकि वे पूर्ण रूप से स्थापित होने के कारण उनके लिये दुनिया भर के ऐशोआराम के साधन जुटाने में सक्षम होते हैं जबकि युवाओं को वही साधन जुटाने में काफी समय लग जाता है...।
अतीत की ओर दृष्टिपात किया तो करीना को महसूस हुआ यदि कुसुम की बात सही है भी तो क्या वह इस स्थिति के लिये स्वयं दोषी नहीं है ? जब बच्चे छोटे थे तो वह स्वयं को बच्चों में इतना व्यस्त रखती थी कि उसके पास कार्तिकेय के लिये समय ही नहीं था । कभी वह उसका साथ चाहता या आफिस में चल रहे किसी तनाव को उसको बता कर अपना बोझ हल्का करना चाहता तो वह बड़ी सहजता से यह कह कर मुक्ति पा लेती कि मुझे क्या पता या मेरे पास समय नहीं है । वास्तव में उस समय उसके पास बच्चों की प्रत्येक समस्या के हल के लिये समय था लेकिन कार्तिकेय के लिये नहीं था । कभी रात के गहन अंधकार में वह अपने प्यार का प्रतिदान चाहता तो कहती...मैं थक गई हूँ या बच्चे अभी जग रहे हैं । कभी सहयोग देती भी थी तो वह भी आधे-अधूरे मन से ।
‘ महिला मंडल ’ की सदस्य तो वह प्रारंभ से ही थी लेकिन कार्तिकेय की पदोन्नति होने के साथ, जरनल मैनेजर की पत्नी होने के कारण उसे क्लब का अध्यक्षा बनना पडा़ । इसके साथ ही उसका कार्यभार भी बढ़ गया और उसके साथ ही उसे ताश खेलने की बुरी लत लग गई । क्लब की कुछ महिलायें क्लब के दिन के अतिरिक्त सायं चार बजे से पपलू खेलना प्रारंभ करती थी जो रात के सात आठ बजे तक चलता रहता था ।
ताश का खेल वास्तव में शराब की तरह का ही एक नशा है जिसमें खेलने वाला तन मन की सुध बुध भूल कर खेल में ऐसा डूब जाता है कि उसे न घर की परवाह रहती है, न जमाने की और न ही समय की...यही करीना के साथ हुआ । यहाँ तक कि अक्सर कार्तिकेय आफिस से आकर उसका इंतजार करता रहता तथा वह पहले अपराध बोध के साथ तथा बाद में बिना किसी अपराध बोध के वह केवल ‘सारी ’ कहकर मुक्ति पा लेती थी । धीरे-धीरे कार्तिकेय का आफिस से आना और लेट होता गया लेकिन तब उसे लगा था चलो अच्छा हुआ , कम से कम ‘ सारी ’ कहने से तो मुक्ति मिल गई ।
उसे याद आया विवाह के समय उसकी बहन ने सफल दाम्पत्य जीवन के कुछ नियम बताये थे उसमें एक था...पुरूष को यदि वश में रखना है तो उसके आफिस जाने और आने के समय घर पर ही उपस्थित रहना चाहिए । दरवाजे पर आफिस के लिये विदा करती पत्नी का मुस्कराता चेहरा न केवल काम करने की प्रेरणा देता है वरन् समय से घर आने को भी प्रेरित करता है । सदैव लड़ती झगड़ती या शिकायत करती पत्नी से पुरूष सदा दूर भागना चाहता है ।
विवाह के प्रारंभिक दिनों में तो उसने इस नियम को निभाया भी था । अच्छा भी लगता था लेकिन बच्चों के साथ बढ़ती व्यस्तता में यह व्यर्थ लगने लगा था । आज स्थिति यहाँ तक आ गई कि वह स्वयं कार्तिकेय का इंतजार करने की अपेक्षा उसे ही इंतजार करने के लिये बाध्य करने लगी थी तब उसने यह नहीं सोचा था कि सुबह का गया शाम को घर लौटने पर थका हारा कार्तिकेय भी सुकून के कुछ पल चाहता है । दिन भर की खट्टी- मीठी यादों को उसके साथ शेयर करना चाहता है लेकिन वह पहले बच्चों तथा बाद में मित्र मंडली में अपना सुकून ढूँढती रही...। शायद यही कारण था कि कार्तिकेय ने अपनी मंजिल तलाश ली थी या दूसरे शब्दों में उसके कदम भटक गये थे लेकिन इस भटकन के लिये क्या वह स्वयं दोषी नहीं है ?
कमरे में लाइट जलने के साथ ही उसकी तंद्रा भंग हुई । घड़ी देखी तो दस बजने की सूचना दे रही थी ।
‘ क्या बात है...? पूरे घर में अँधेरा है । श्यामा कहाँ है ? तबियत अब कैसी है ? जल्दी आने की कोशिश कर रहा था लेकिन सिन्हा अपने प्रमोशन की पार्टी में खींच ले गया । तुम्हें सूचित भी नहीं कर पाया । मैं तो खाना खा आया हूँ । तुमने कुछ खाया या नहीं ।’ कार्तिकेय ने स्नेहयुक्त स्वर के साथ सफाई देते हुए कहा ।
कार्तिकेय के मुँह से शराब की बदबू आ रही थी । करीना को शराब से सदा नफरत रही है लेकिन पार्टी वगैरह में सबके आग्रह को कार्तिकेय कभी ठुकरा नहीं पाया । कभी-कभी सब चलता है या हाई सोसाइटी में तो यह आम बात है, की दलील सुनकर वह चुप रह जाती थी ।
श्यामा खाना डायनिंग टेबिल पर रख कर जा चुकी थी । करीना का खाने का बिलकुल मन नहीं कर रहा था अतः उठकर खाना फ्रिज में रख दिया ।
सोने से पूर्व ज्वर की तीव्रता जानने के लिये कार्तिकेय ने करीना का माथा छुआ । इसी हाथ ने किसी और को भी छुआ होगा, सोचकर उसका मन वितृष्णा से भर उठा । हाथ को हटाने के लिये हाथ उठाना चाहा लेकिन हाथ ही जवाब दे गये ।
उसने किस्से कहानियों में ऐसे प्रेम त्रिकोण के बारे में पढ़ा था जिनमें दूसरी औरत ने छल कपट से किसी एक जिंदगी पर अधिकार कर, उस पर निर्भर अनेक जिंदगियों का जीवन दूभर बना दिया था किंतु उसे अपने प्यार...कार्तिकेय पर इतना विश्वास था कि ऐसी बात उसके मन में कभी आई ही नहीं । वह सोच भी नहीं सकती थी कि कभी उसे भी ऐसी समस्या का सामना कर पड़ सकता है ।
एक बार उसका मन हुआ कि वह कार्तिकेय से नंदिता के बारे में पूछे । उसके साथ चल रहे प्रेम संबंधों के बारे में जानकारी प्राप्त करे । उससे पूछे कि उसके प्यार और समर्पण में कहाँ कमी रह गई कि इस उम्र में उसे दूसरी सहचरी की आश्यकता पड़ गई या उसे, उसके प्यार को अपमानित करने के लिये उसने ऐसा कदम उठाया है । मन किया उसे डाँटे, लड़े, झगड़े जिससे कि उसके मन की आग शांत हो सके लेकिन उसके संस्कारी मन ने उसे ऐसा करने से रोका ।
शांत मन से सोचा तो करीना को लगा कि हो सकता है कुसुम ने जो बात बताई हो वह सच न हो...मात्र अफवाह हो । एक स्त्री और पुरूष एक साथ यदि काम करते हैं तो कुछ लोग महज लुफ्त उठाने के लिये ऐसी बातें करके बात का बतंगड़ बनाने से नहीं चूकते और यदि कुसुम की बातों में कुछ सच्चाई है भी तो रोने-धोने या लड़ने-झगड़ने से ही किसी समस्या का अंत नहीं होता । कभी-कभी ऐसी स्थिति में इस तरह की बातों से बात सुधरने की बजाय बिगड़ भी जाती है अतः उसे शांति और धैर्य से काम लेते हुए कूटनीति से काम लेना होगा जिससे लाठी भी न टूटे और साँप भी मर जाए...।
उसे एहसास हो गया था कि कभी किसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए । इस दुनिया में यदि जीना है तो अपने आँख और कान सदैव खुले और चौकन्ने रखने चाहिए वरना पलक झपकते ही पल भर में पता नहीं कब, कहाँ और कैसे, क्या से क्या हो जाये और पता भी नहीं चले ।
कार्तिकेय शीघ्र ही नींद के आगोश में खो गया लेकिन करीना की आँखों से नींद कोसों दूर थी... । क्या वह कार्तिकेय को नंदिता से दूर कर पायेगी...? पता नहीं वे दोनों कब से साथ-साथ चल रहे हैं तथा कितनी दूर जा चुके हैं...? बच्चों को जब पता चलेगा तो क्या उनके दिल में पिता के लिये मानसम्मान रह पायेगा ? कहीं कार्तिकेय ने उस दूसरी औरत के लिये उससे तलाक ले लिया तो...? नहीं-नहीं कार्तिकेय ऐसा नहीं कर सकता !! इतने वर्षो का साथ क्या ऐसे अचानक तोड़ा जा सकता है ? उसे किसी भी प्रकार से इन दोनों को अलग करना होगा ।
कुछ वर्ष पूर्व उससे मिलने आई दीदी....रवीना के शब्द उसके मस्तिष्क में गूँजने लगे, ‘ तेरे जीजू की कई मंत्रियों से जान पहचान है, तू कहे तो हैड आफिस में स्थानांतरण करवा दें ।’
‘ दीदी, अभी नहीं , अंकिता हायर सेंकेडरी की परीक्षा दे ले , उसके पश्चात् सोचेंगे...।’
‘ इस छोटी सी जगह में तुम लोग रह कैसे लेते हो....? न कोई बड़ा मार्केट, न कोई घूमने की जगह ।’ एक दिन बातों-बातों में दीदी ने कहा था ।
वास्तव में महानगर में रहने की अभ्यस्त दीदी को यह छोटा सा शहर अत्यंत नीरस प्रतीत हो रहा था ।
‘ दीदी, यह जगह छोटी अवश्य है लेकिन किंतु सुख सुविधा के साधनों से भरपूर है । वैसे भी इतना बड़ा बंगला ,नौकर चाकर की सुविधा बड़े शहर में नहीं मिलेंगी और इससे भी अधिक ऐसी शुद्ध हवा ,ताजी फल और सब्जियाँ महानगरों में ढूँढने से भी नहीं मिलने से रही ।’ करीना ने अपना पक्ष रखते हुए कहा ।
वैसे कार्तिकेय के पद के अनुसार मिली सुविधा और प्रतिष्ठा से दीदी भी प्रभावित थीं । यह भी निर्विवाद सत्य है कि कुछ उच्चवर्ग के व्यावसायिक घरानों को छोड़कर एक व्यवसाई चाहे जितना भी पैसे वाला क्यों न हो एक प्रतिष्ठित कंपनी के अधिकारी के समान शानोशौकत से नहीं रह पाता । यदि वह अधिकारी जरनल मैनेजर हो तो बात ही कुछ और होती है । वेतन भले ही कम हो लेकिन अन्य भत्ते तथा सुख सुविधायें उसे एक छोटी रियासत का राजा बना देती हैं । वैसे भी मुफ्त में मिली सुविधायें किसे अच्छी नहीं लगती । आश्चर्यजनक स्थिति यह है कि इन सुविधाओं का भोग अधिकारी की अपेक्षा उसका परिवार अधिक करता है यद्यपि लोगों की जागृति के कारण आज स्थितियाँ बदल रही हैं लेकिन कमोवेश पहली वाली ही स्थिति है ।
अंकिता अब हायर सेंकेडरी कर मेडिकल में प्रवेश पा चुकी है अतः अब इन बदली हुई परिस्थितियों में कल ही दीदी को फोन करके स्थानांतरण के लिये प्रयत्न करने के लिये कह देगी । वैसे भी यहाँ रहते हुए कई वर्ष हो गये है । यदि ऐसा हो गया तो उसके और कार्तिकेय के लिये अच्छा ही होगा । शायद इस तरह पैदा हुआ अलगाव...दूरी उन दोनों के मध्य प्रस्फुटित हुये संबंधों का भी अंत कर दे और वह शायद नई जगह नये वातावरण में अपने प्यार और समर्पण के द्वारा अपने बिछुड़े प्यार को लौटा पाने में सफल हो पाये ।
लेकिन कहीं कार्तिकेय को पता चल गया तो...उन्हें वैसे भी सिफारिश द्वारा कोई भी काम करवाने से सख्त नफरत है । यदि दीदी ने ही उससे स्थानांतरण का कारण पूछ लिया तो वह क्या जवाब देगी ? नहीं-नहीं उसे कोई और उपाय सोचना होगा । अचानक उसे याद आया कि अगले सप्ताह ही उनके विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ है । क्यों न इसे एक बड़े समारोह के रूप में मना कर कार्तिकेय के मन की थाह ली जाये ।
खिड़की से झांकती भोर की पहली किरण के साथ ही करीना का विश्वास दृढ़ निश्चय में बदल गया । उसे लग रहा था कि एक स्त्री जहाँ अपनी छोटी सी भूल से अपने प्यार को खो सकती है तो वही प्रयास करके उसे पा भी सकती है । दूसरी औरत कार्तिकेय के जीवन में कभी उसका स्थान नहीं ले पायेगी । वही उसकी पहली और अंतिम औरत रहेगी । आज से वह उसकी पत्नी ही नहीं प्रेयसी भी बनेगी । वास्तव में कार्तिकेय के दिल में जगह बनाने के लिये उसे आज और अभी से प्रयास करना होगा । इस विचार ने उसके तन मन को एक नई आभा, नई चेतना से ओत प्रोत कर दिया ।
कार्तिकेय को अदरक और तुलसी की पत्ती की मसाले वाली चाय पसंद है कितने वर्षो से उसके आग्रह के बावजूद भी वह उसे अपने हाथ की चाय नहीं पिला पाई है । इस विचार के साथ ही अपनी संपूर्ण शक्ति को एकत्रित करते हुए जहाँ करीना कल तक बैड टी के लिये श्यामा का इंतजार करती थी वहीं आज उसने स्वयं बैड टी बनाकर कार्तिकेय को जगाया तो उसने आश्चर्य से उसका माथा छूकर पूछा ,‘ तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है...। तुम चाय बनाकर क्यों लाई...? श्यामा कहाँ गई ? ’
‘ आँख जरा जल्दी खुल गई तो सोचा आज मैं ही चाय बना दूँ । तुम्हारी मनपसंद चाय बनाकर लाई हूँ ।’ करीना ने कप उसके हाथ में पकड़ाते हुए कहा ।
‘ काफी दिनों बाद तुम्हारे हाथ की चाय पी रहा हूँ । सच बहुत स्वादिष्ट है ।’ कार्तिकेय ने प्रसंशात्मक स्वर में कहा ।
‘ अगर आज तुम्हारी कोई मीटिंग न हो तो आज मार्केट जाना चाहती हूँ ।’
‘ पहले पूर्णरूप से ठीक तो हो लो...। वैसे भी मार्केट जाने की इतनी आवश्यकता क्या पड़ गई ?’
‘ तुम्हें याद है इसी महीने की बारह तारीख यानि आज से ठीक दस दिन पश्चात् हमारे विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ है, मैं इस सुअवसर को कुछ विशिष्ट अंदाज में मनाना चाहती हूँ...।’
‘ जैसा तुम चाहो करो लेकिन पहले ठीक तो हो लो...।’
‘ मैं अब ठीक हूँ , तुम बताओ, आज शाम को खाली हो या नहीं ।’
‘ मेरी क्या आवश्यकता है...? गाड़ी लेकर चली जाना । जो चाहे खरीद लाना । तुम्हारे पास क्रेडिट कार्ड तो है ही ।’ कार्तिकेय ने दिल्लगी करते हुए कहा ।
‘ तुम्हें मेरे साथ चलना होगा । एक नया सूट सिलवाना है । उसका नाप मैं तो नहीं दे पाऊँगी...।’ करीना ने भी उसी अंदाज में उत्तर दिया ।
‘ ठीक है...। आज मैं जल्दी आने का प्रयत्न करूँगा ।’
‘ यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो नंदिता को भी साथ ले लें । कपड़ों के मामले में उसकी रूचि अच्छी है । तुम्हें कहने की आवश्यकता नहीं है, मैं ही फोन करके उससे बात कर लूँगी । ’ गहरी नजरों से उसे देखते हुए पुनः बोली ।
‘ जैसा तुम चाहो । ’ कह कर कार्तिकेय ने बात समाप्त करने की गर्ज से अपनी नजर पेपर पर टिका दी ।
उसके बाद के दिन करीना के बेहद व्यस्तता में गुजरे । जिसको कार्ड दिये जा सकते थे उसको कार्ड दे दिये । जो दूर थे उनको फोन द्वारा ही सूचित कर दिया गया । पूरी तैयारी में नंदिता उसके साथ रही आखिर वह दिन आ ही गया जिस दिन का करीना को बेसब्री से इंतजार था । बच्चे भी आ गये थे ।
करीना ने इसी अवसर के लिये खरीदी, कार्तिकेय के सूट से मेल खाती अपनी जरी वर्क की बेशकीमती आफ वाइट साड़ी पहनी । जूड़ा बाँधकर वेणी लगाकर हल्का मेकअप किया । उसी समय कार्तिकेय ने उसको प्रसंशात्मक निगाहों से निहारते हुए चिरपरिचत अंदाज में हौले से कहा, ‘अनछुई लग रही हो...कहो तो हनीमून के लिये भी टिकट बुक करा दूँ ।’ फिर थोड़ा रूककर बोले,‘ बेकार तुमने इतना तामझाम किया । इस समय तो बस तुम और मैं होते तो आनंद ही कुछ और होता...।’
करीना खामोश रहकर मुस्कराते हुए कार्तिकेय के शब्दों की सच्चाई जानने की चेष्टा कर ही रही थी कि अंकुर और अंकिता आकर बोले,‘ ममा, पापा आप अभी यहीं है बाहर मेहमान भी आने शुरू हो गये हैं । ’
‘ बस चलते हैं बेटा, तुम्हारी मम्मी का फिनिंशिग टच समाप्त ही नहीं हो रहा है ।’
बाहर आकर कार्तिकेय और करीना मेहमानों का गर्मजोशी से स्वागत करने लगे । उसे देखकर कुसुम भी हैरान थी । उसे लग ही नहीं रहा था कि यह वही करीना है जिससे वह दस दिन पूर्व मिली थी तथा जो उसकी बात सुनकर हैरान परेशान थी ।
उन दोनों को बधाई देते हुए जब लोगों ने कहा....रियली बोथ आफ यू आर मेड फार ईच अदर...या आप दोनों को देखकर लगता ही नहीं है कि आपके विवाह के पच्चीस वर्ष हो गये हैं या आज तो आप बहुत सुंदर लग रही हैं । लोगों के टिप्पणी सुनकर करीना अत्यंत ही प्रफुल्लता महसूस कर रही थी । सबको धन्यवाद देते हुए उसकी प्रसन्नता...प्रफुल्लता उसके अंग-अंग से प्रकट हो रही थी । एक नया तेज उसके चेहरे पर दृष्टिगोचर हो रहा था जिसने उसके व्यक्तित्व में चारचाँद लगा दिये थे ।
वीडियो फोटोग्राफर प्रत्येक क्षण को कैमरे में कैद करता जा रहा था । सबके साथ फोटो खिचाने के पश्चात् नंदिता को फोटो के लिये बुलाया तो वह झिझकते हुए बोली, ‘ रहने दीजिए दीदी, मैं अकेली आप लोगों के बीच अच्छी नहीं लगूँगी ।’
करीना के आग्रह पर नंदिता ने फोटो तो खिंचवा ली थी किंतु उसके स्वर में छाई झिझक तथा निराशा देखकर वह भी आश्चर्यचकित थी वरना नववर्ष पर आयोजित पार्टी में तो नंदिता अपने स्वच्छंद विचारों एवं वाकपटुता के कारण छाई रही थी ।
दो घंटे चली इस पार्टी में सबके आकर्षण का केंद्र बिंदु बनी करीना ने अपना आत्मविश्वास पा लिया था । वैसे प्रत्येक दिन सुबह बीस मिनट के योगाभ्यास के कारण उसका शरीर अन्य हम उम्र महिलाओं की तरह ढीला नहीं पड़ा था । उसमें आज भी आकर्षण है यह वह जानती थी, किंतु कुसुम की बात ने उसे बेहद डरा दिया था यद्यपि कार्तिकेय के व्यवहार से उसे अभी तक ऐसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ था ।
दूसरे दिन नंदिता को धन्यवाद देने के लिये फोन किया तो पता चला कि वह आज आफिस आई ही नहीं है । कार्तिकेय से पूछा तो बोले,‘ वह छुट्टी लेकर घर चली गई लेकिन तुम एकाएक उसमें दिलचस्पी क्यों लेने लगी हो ?’ उसके प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रतिप्रश्न पूछा ।
‘ बस ऐसे ही । अकेली रहती है । दिल की अच्छी है और फिर हमारी पार्टी को सफल बनाने के लिये उसने पूरे मनोयोग से काम किया था अतः धन्यवाद देने के लिये फोन किया था । नहीं मिली तो आपसे पूछ लिया ।’ सहज स्वर में करीना ने कहा था ।
अंकुर और अंकिता चले गये थे । अभी हफ्ता भर ही बीता था । डाक मे आये एक पत्र को देखकर चौक गई । आज के युग में पत्र...उससे भी अधिक प्रेषक की जगह नंदिता का नाम देखकर आश्चर्य से भर गई । उत्सुकता से पत्र खोला, लिखा था....
दीदी, मैं प्रशांत के पास लौट आई हूँ । अभी निश्चय नहीं किया है कि नौकरी करूँगी या नहीं लेकिन इतना तय है कि अब जो भी करूँगी वह प्रशांत के साथ रहकर, उसके सहयोग से ही करूँगी । जीवन एक समझौता है, अगर समझौते करने ही है तो उसी के साथ क्यों न करूँ जिससे मैंने प्यार किया, जिसके साथ अग्नि के समक्ष जीवन भर साथ निभाने का वचन लिया था । मानती हूँ मैं प्रशांत के डोमीनेटिंग व्यवहार से परेशान हो गई थी पर आज उसका व्यवहार देखकर मुझे लग रहा है कि वह मुझे लेकर थोड़ा ज्यादा ही पोजैसिव हो गया था ।
प्रशांत से इतने दिन अलग रह कर यह भी अच्छी तरह समझ गई हूँ कि सच्ची मानसिक शांति घर, परिवार में रहकर ही पाई जा सकती है । स्वतंत्र रहना, ऐच्छिक जीवन जीना यह सब नारी मुक्ति के नाम पर की जा रही बड़ी-बड़ी बातें हैं जिससे मेरे जैसी नारियां अक्सर भ्रमित हो जाती है । सिर्फ ईट, पत्थरों की दीवारों से ही घर नहीं बनता । घर बनता है लोगों से, जो अपने हों...दुख-सुख में काम आ सकें । जिसके कंधे पर सिर रखकर रोया भी जा सके और कहकहे भी लगाये जा सकें...।
दीदी, उस दिन आपने मुझे समझाना चाहा था किंतु मैं अपने अंतःकवच में कैद आपकी बातों को समझ नहीं पाई थी । आज सोचती हूँ मेरी जिद और स्वच्छंदता ने मुझे क्या दिया...? अकेलापन ,सूनापन और इससे भी बड़ा आरोप लगा चारित्रिक पतन का । आज मैं निःसंकोच कह सकती हूँ...आफिस के ही एक सहकर्मी ने मेरे ही घर में घुस कर एक रात मेरे साथ गुजारने की पेशकश की थी । उसके आग्रह को ठुकराने पर उसने जबरदस्ती बल प्रयोग करने का प्रयत्न भी किया किंतु उसमें भी असफल रहने पर उसने मेरे और सर के बारे में दुष्प्रचार किया । मेरी गलती सिर्फ इतनी थी कि अकेले होने के कारण मुझे घर जाने की जल्दी नहीं रहती थी जिसके कारण आवश्यकता पड़ने पर देर रात तक सर के साथ काम करने में मुझे न अनुचित लगता था न ही हिचकिचाहट होती थी । दीदी, यह सच है कि एक साथ काम करने के कारण मेरा सर के साथ मानसिक और भावात्मक लगाव हो गया था । वह मुझे अच्छे लगते थे लेकिन सिर्फ एक कार्यकुशल, परिश्रमी अधिकारी के रूप में, जो अपने मातहतों से काम लेने के साथ-साथ सम्मान देना भी जानता है ।
दीदी, उस रात पार्टी में सभी लोग अपने परिवारों में मस्त थे । वहाँ मैं ही अकेली थी । लोग सिर्फ बेतुके मजाक या फ्लर्ट के उद्देश्य से मेरे पास आते थे । उनके लिये मैं सिर्फ वस्तु थी । एक ऐसी वस्तु जिसे आसानी से प्राप्त किया जा सकता है । इससे भी अधिक दुख मुझे उन स्त्रियों की मानसिकता पर होता था जो अपने पतियों को मुझसे बात करते देखकर, अजीब नजरों से मुझे देखने लगती थी मानो मैं उनसे उनके पतियों को छीन लूँगी ।
दीदी, न जाने क्यों लोगों में ऐसी भावना जाग्रत हो जाती है ? क्या एक अकेली लड़की, औरत सहज सामान्य जीवन नहीं जी सकती...? दीदी, मैं आज भी इन अगनित प्रश्नों के भंवर जाल में फँसी मार्ग ढूँढने का प्रयास कर रही हूँ लेकिन उस रात की पार्टी में पत्नीत्व और मातृत्व के गौरव से अभिसिंचित आपके तेज को देखकर इतना अवश्य समझ गई हूँ कि स्त्री पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं । दोनों एक दूसरे को सहयोग करते हुए अपने-अपने कर्मपथ पर अग्रसर होकर ही समाज का और अपना भला कर सकते हैं । पत्नीत्व और मातृत्व से गौरव से युक्त स्त्री ही संपूर्ण होती है और इस संपूर्णता को प्राप्त करने के लिये कुछ खोना भी पड़े तो कोई बुराई नहीं है । वैसे भी दीदी जब दो इंसान आपस में प्यार करते हैं, एक बंधन में बंधते हैं तो कभी-कभी अनबन होनी अवश्यंभावी है । अगर इंसान समझदारी से काम ले अपने झगड़े सुलझाकर सामान्य जीवन जी सकता है । मैंने अपनी जिद में प्रशांत के बार-बार लौट आने के आग्रह को ठुकराती रही थी पर बहुत सोच विचार के पश्चात् अपनी बदली सोच के तहत मैंने प्रशांत के पास लौटने का मन बना लिया । ।
इसके बावजूद कुछ प्रश्न आज भी मुझे चैन नहीं लेने दे रहे हैं । दीदी, हम इक्वकीसवीं सदी में प्रवेश करने का दंभ तो भरते हैं लेकिन आज भी हमारी मानसिकता कितनी खोखली है...ओछी है...संकीर्ण है । तभी तो किसी औरत पर लगाये लांछनों को सुनकर तिल का ताड़ बनाने की अपेक्षा हम सच्चाई जानने की चेष्टा क्यों नहीं करते...? उसे नकार क्यों नहीं पाते ? उसे अनावृत करते हुए यह क्यों नहीं सोच पाते कि वह किसी की बहन और बेटी भी है ? उसकी भी अपनी मर्यादा है...इज्जत है....सम्मान है । एक और बात जो मेरे मन मस्तिष्क में निरंतर मंडरा रही है । हमारे समाज में क्या एक अकेली औरत कभी पूर्ण इज्जत, सम्मान, गर्व और बिना डर के कभी अपना आशियाना खड़ा कर भी पायेगी या उसे सदा कभी पिता ,कभी भाई, कभी पति तो कभी पुत्र रूपी मर्दो के कंधे का सहारा लेना पड़ेगा....?
दीदी, आपने मुझे राह दिखाई, मेरे जीवन को एक नया आयाम दिया उसके लिये धन्यवाद । उचित समझें तो पत्रोत्तर अवश्य दीजियेगा, मुझे इंतजार रहेगा...।
आपकी नंदिता

अनजाने में करीना का नंदिता के साथ एक खूबसूरत अनाम सा रिश्ता कायम हो गया था इसीलिये पत्र पढ़कर करीना की आँखों में आँसू छलछला आये....। बेचारी नंदिता....न जाने कितना दर्द....गम दिल में छुपाये चली गई । लोगों ने तो क्या उसने स्वयं जिसे वह दीदी कहती थी, ने भी तो उस पर शक किया था । यह सच है कि नंदिता के पत्र ने उसके मनमस्तिष्क पर छाया बोझ हल्का कर दिया था लेकिन एक अकेली, बेबस, लाचार, और मजबूर औरत की दास्तान ने पूरे समाज के साथ-साथ उसे भी कटघरे में खड़ा कर दिया था । इसके बावजूद उसे खुशी थी कि नंदिता अपने प्यार के पास लौट गई थी । शायद इस बार वह अपने प्यार की खट्टी-मीठी नोक-झोंक में वह अपने उस प्यार में रच बस जाये जिसे वह अपनी नादानी में छोड़ आई थी...।


सुधा आदेश