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फ्रैंड रिक्वैस्ट

फ्रैंड रिक्वैस्ट

मन पर दस्तक हुई .. मैंने धीरे से कपाट खोले .. गर्दन बाहर निकाली.. सामने देखा, इधर - उधर झाँका .. | कोई नहीं था .. माने प्रत्यक्ष कोई नहीं था ..पर कुछ अनुभव हो रहा था ..परोक्ष जो था वह बहुत प्यारा था .. बहुत मासूम ..। कुछ अमूर्त था .. जो छू कर बहे जा रहा था और मेरा आस पास महक उठा था |

रंग थे ..कुछ पूरे, कुछ अधूरे ..। तितलियाँ थीं .. जो इन रंगों को सृष्टि के हर छोर पर छिड़क कर चुपचाप मेरे पास आ बैठी थीं | सांझ की गोधूलि थी जिसने सुनहरे के अम्बार लगा दिए थे | समुंदर की तलहटी थी जहाँ हर कदम पर रंग बदल रहे थे और रंगों के नए अर्थ निकल रहे थे |

याद है मुझे तुम्हीं ने कहा था, कुछ रंग कुदरत ने बनाए हैं ..जो अपने आप में पूरे हैं | पर कहीं न कहीं कुदरत ही चाहती है उन रंगों का ऐसा विस्तार हो कि मन का हर रेशा रंगा जा सके | इसलिए ये रंग पूरे होते हुए भी अधूरे हैं .. ये रंग मिलकर जब एक तीसरे रंग का निर्माण करते हैं तो पता चलता है कितने अधूरे थे । लेकिन ये सिलसिला रुकता नहीं है .. रुक नहीं सकता .. जब तक जीवन है तब तक रंग बनते रहेंगे |

बस इसी तरह ढेरों रंग बनते गए और इस सृष्टि को रंगते गए.. दिलों को रंगते गए ..आत्माओं को रंगते गए ।

ये रंग न होते तो कोई चित्र न होता ..कोई कविता न होती ..कोई सुर न होता ।

याद है मुझे ..सब याद है ..एक - एक शब्द .. | हर शब्द को उच्चरित करते तुम्हारे होंठ .. शब्दों के बीच से झिलमिलाते इंद्रधनुषी अर्थ .. हर अर्थ से झड़ते रंगों के अम्बार ..किसी न किसी भाव चित्र की सृष्टि करते ये अम्बार .. तुम्हारे मन, आँखों को तृप्त करते ये अम्बार .. तुम्हारी तृप्ति के शिखर से निकलती ढेरों जीवन धाराएँ .. सब याद है मुझे |

फेसबुक पर चित्रों की प्रदर्शनी का एक पोस्ट गुज़रते - गुज़रते नहीं गुज़रा ..बस ठहरा रहा ..ठहरा ही रहा .. | कुछ कहने की कोशिश करता रहा .. कुछ अनुभूत कराने के लिए कसमसाता रहा | चित्र थे तो रंग भी होंगे.. रंग हैं तो तुम भी हो सकते हो .. ठिठक गई मैं ..। देखती रही .. सोचती रही | पोस्ट पर मेरी आँखों की कोमल उँगलियाँ ऐसे घूमती रहीं जैसे तुम्हारी पेंटिंग के रंगों को छू रही हों |

एक बात बताऊँ ? तुम्हारे साथ जिया हर रंग महफूज़ है .. संजो कर रखा हुआ .. मन के एक कोने में, एक फोल्डर में हर लम्हा संभला रखा है .. हर अहसास नत्थी है ..।

फेसबुक के झिलमिलाते कोनों में से निकलकर एक सतरंगी लहर हड़बड़ाती हुई आई और मुझे खींच कर तुम्हारे पास ले आई .. बिल्कुल तुम्हारे सामने लाकर खड़ा कर दिया | वो सतरंगी लहर अड़ियल बच्चे की तरह मेरा आँचल पकड़े रही .. उसने मुझे वहाँ से हिलने भी नहीं दिया | मैंने खुली आँखों से सब देखा था |

तुम थे .. सचमुच तुम .. मेरे वाले तुम .. सुधांशु रंजन .. | मैं क्या से क्या हो गई मुझे भी नहीं पता .. मैं तुम्हारे रंगों से भीग गई थी | भीगी हवाओं पर अति सूक्ष्म उत्सुकता की बूँद बनकर मैं उन्मुक्त गगन में उड़ रही थी ..। मैं हवा से भी हल्की हो गई थी और आसमान की परतों में विश्राम कर रहे तुम्हारी कल्पना के महलों को छूने के लिए निकल पड़ी |

सिर्फ़ तुम थे और मैं थी ..और था वो सजीला एकान्त ..। उस एकान्त की झोली में अनगिन लहरें हम दोनों को गुदगुदा कर चली जातीं और हमारी हँसी को कैद करके रख लेतीं |

मैं एक ही बात सोच रही थी ..इतने सालों बाद तुम मिले हो..| चौदह साल बाद.. | तुम्हारे साथ कुछ सुगन्धित आवारा लम्हे तो बनते हैं। जी चाह रहा था कॉलिज की तरह किसी अकेले कोने की लय को पकड़ कर हम उसके पीछे - पीछे दूर तक निकल जाएँ | ऐसे लोक में पहुँच जाएँ जहाँ हम बीते समय को लौटा सकें और उसकी ऊष्मा को अपने अन्दर उतार सकें |

चौदह साल पहले मैंने कहा था तुम्हें – “चलो, भाग चलें।” घास के बड़े से टुकड़े को टुकड़े-टुकड़े करते हुए मैं बोल गई थी। याद है मुझे कॉलेज के पीछे वाले ग्राउण्ड के कोने में पीरियड बंक कर के बैठे थे हम दोनों। तुमने पहले थोड़ी देर मुस्कराते हुए लाड से मुझे देखा और फिर घास के उन टुकड़ों को मेरे हाथ से लेकर मेरे ऊपर उछालते हुए बोला था -

“वाह, क्या आइडिया है ?.....अपने-अपने घर से कैश और गहने चोरी करते हैं और भाग चलते हैं।”

मैं आँखें फाड़े तुम्हें देख रही थी।

“क्या?” मैंने हैरान होकर पूछा था क्योंकि मैं समझ नहीं पा रही थी तुम मज़ाक कर रहे हो या सीरियस हो।

“तो और क्या? होटल का खर्चा कम नहीं है। दोनों को चोरी करनी पड़ेगी।”

“चोरी?”

मैं सकपका गई।

“तू झल्ली ही रहेगी।”

“झल्ली मत कहो मुझे।”

“तो और क्या कहूँ।”

“तुझे पता है आजकल प्रेमियों के भागने का स्कोप बहुत कम हो गया है। माँ-बाप बड़े स्मार्ट हो गए हैं। माएँ सारे गहने लॉकर में रखती हैं और बापू जेब में कार्ड ले के घूमते हैं।” चेहरा दाईं ओर को झटक दिया था तुमने । तुम वहीं घास पर सीधे लेट गए थे और दोनों हाथ तुमने अपने सिर के नीचे टिका लिये थे | पेड़ों के बीच से झाँकते आसमान पर तुम्हारी नज़र स्थिर हो गई थी |

“क्या कह रहे हो दिमाग तो ठीक है ? ” मैंने तुम्हारी बाँह पर हल्के से अपना हाथ दे मारा था |

“सच कह रहा हूँ।”

तुमने हल्की सी चपत मारी थी मेरे सिर पर।

“कुछ बन जाऊँ..कुछ कमाने लगूँ तो तेरे माँ-बाप के घर से इज़्ज़त से ले जाऊँगा तुझे । तब तक तुझे इंतज़ार करना पड़ेगा।” थोड़े गम्भीर हो गए थे तुम |

“तुम अपनी पेंटिंग्स बेचना। आजकल तो हज़ारों-लाखों में बिकती हैं।” मैंने चुहल की थी |

“मेरी नहीं बिकेंगी। मैं न एम.एफ.हुसैन हूँ न ब्रूटा। न फेरी हूँ न मिकलेन थॉमस।” चेहरे पर निराशा के भाव नहीं थे बस थोड़ी चुहलबाज़ी थी ।

“ज़मीन पे आ जा। ये जुगनू पकड़ना बंद कर।” मुझे सचमुच ज़मीन पर खड़ा कर दिया तुमने और ख़ुद भी उठकर बैठ गए |

“मैं अब हर पल तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ। हर पल काले डरावने डर के साये में जीना बहुत मुश्किल लगता है। किसी को पता लग गया तो..? बस इसी धुंध में घिरी रहती हूँ हर वक्त।” और तुम "मैं समझता हूँ । "कहकर उठकर चले गए थे । थोड़े परेशान हो गए थे । मैं तुम्हें जाते हुए देखती रही थी |

मैं तुम्हें कहना चाहती थी सुधांशु तुम पेंटिंग्स बनाना। तुम टायटैनिक के लियोनार्डो डि कैपरिओ हो जाना और मैं केट विंज़लेट हो जाऊँगी। मैं अनावृत्त होती जाऊँगी और तुम अपनी कूची के रंगों की चादर से मुझे आवृत्त करते जाना..मैं देह होती जाऊँगी तुम प्राण होते जाना..मैं तुम्हारी साँसों में घुलती जाऊँगी और तुम बादल बनकर मुझे भिगोते रहना..मैं सोंधी हवा बनती जाऊँगी तुम तूफान बन कर मुझे घेर लेना..मैं सुबह की गुनगुनी धूप का एक टुकड़ा बन कर तुम्हारे जीवन में आऊँगी और तुम लकदक चमकता सूरज बन जाना..तुम मुझे स्पर्श भर कर लेना और मैं तुम्हारे वजूद को ओढ़नी बनाकर पहन लूँगी।

पर मैं कह नहीं पाई तुमसे। बस डबडबाई आँखों से तुम्हें जाते देखती रही। मन ऊपर-ऊपर तक भर आया। मैं तुम्हें हग करना चाहती थी पर तुम अपनी सोच में चले जा रहे थे |

हर पल डर लगता समय से, घर वालों से, दुनिया से, स्थितियों-परिस्थितियों से। पर ये सब तुम जाने क्यों समझते नहीं थे ? कभी कोई हम दोनों के बीच में ऐसे आगत के रूप में आकर खड़ा हो गया जिसका रास्ता हम नहीं मोड़ पाए तो.....?

एक अनजाना, अनचाहा, अप्रत्यक्ष भय अपनी नुकीली नोकों को मेरी ओर बढ़ाने लगता था। मैं घबराकर रातों की दीवारों के पीछे छुप जाती थी .. घण्टों दुबकी रहती थी | फिर जब साँस धीमी हो जाती तो मैं लौट आती |

मैंने भरसक कोशिश की थी तुम्हें समझाने की पर तुम थे कि कुछ समझना ही नहीं चाहते थे..हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाते चलते थे और वह सारा धुआँ मेरी साँसों में भर जाता था और फ़िक्र का एक घेरा बन कर मुझे चारों ओर से घेर लेता था।

तुम मस्त थे और मैं त्रस्त.. तुम्हें अहसास करा-करा कर पस्त। मेरा लरजता-परजता मन हर पल ऊँचाई से फेंके मिट्टी के ढेले की तरह लुढ़कता रहता। या शायद तुम मस्त नहीं थे .. कहीं व्यस्त थे .. या फिर बेबस |

एफ०बी० पर तुमसे मिलकर स्तब्ध भी थी और खुश भी । मन उड़ान भरने को बेचैन हो उठा | मैंने प्यार से .. हौले से तुम्हारे चेहरे को छुआ था .. तुम्हारी दाड़ी अब भी चुभी थी | शायद तुम अभी भी शेव करने के आलसी हो | तुम पहले मुस्कराए थे .. फिर हँस दिए | वही निश्छल हँसी | सारा ब्रह्माण्ड तुम्हारी हँसी से भर गया था |

पर एक प्रश्न भी था....बड़ा सा उलझा हुआ प्रश्न..मकड़ी के जालों में कैद..। निश्चित रूप से तुम अब किसी और के हो चुके होगे। समय का प्रवाह भी तो रुकता नहीं।

तुम्हारी वॉल पर व्यू प्रोफाइल में एक स्कैच था..एक पेंटिंग..ओझल होते अहसास में डूबी नायिका, रोम-रोम अवसाद में डूबा हुआ। पल भर को लगा मैं ही तो नहीं।

जैसे ही एफ.बी. पर मैंने तुम्हें पा लिया तो मुझे लगा इस बार भागी नहीं तो इस बार भी खो दूँगी तुम्हें। घर में रहूँगी तो हर भाव सास-ससुर, नौकरों की आँखों में किर-किर करता रहेगा। मन के आवेगों के उतार-चढ़ाव को घर में नियंत्रित करना और छुपाना कठिन होगा। सब कुछ उघड़ने भी तो नहीं दे सकती थी | अपनी सीमाएँ भी पता थीं |

सीवन उधड़ेंगे, तुरपाइयाँ खुलेंगीं, भीतर कितना कुछ उमड़ेगा..पता नहीं मैं क्या से क्या हो जाऊँ ? मैं तुम्हारे साथ कोई भी पल किसी आशंका में नहीं बिताना चाहती थी..तुम्हारे भीतर उतरना चाहती थी पर किसी के सामने नहीं।

फोन बज उठा।

नीरज था।

मैंने फोन नहीं उठाया।

बड़े सालों के अन्तराल के बाद मैं तुम्हारे साथ थी इसलिए कोई व्यवधान नहीं चाहती थी। तुम्हारी याद के साथ एकात्म होना मेरी इच्छा भर नहीं थी .. मेरी ज़रूरत भी थी |

मैंने फोन नहीं उठाया तो नीरज का मैसेज आया।

“शाम को कलकत्ता जाना है। कल कोर्ट में कोई पैटिशन फाइल होनी है। दो दिन का टूर है .. पैकिंग कर देना। शाम सात बजे की फ्लाइट है। मैं पाँच बजे तक घर आ जाऊँगा।”

मैंने पढ़ लिया था।

अभी तो सुबह के दस बजे थे बहुत टाइम था । मैं आराम से कुछ समय तुम्हारे साथ रह सकती थी । सैक्टर छः के चौराहे पर मैं खड़ी थी।

कहाँ जाऊँ?

मैं स्पोर्ट्स कॉम्पलैक्स की ओर बढ़ चली।..लोग घर जा रहे थे और मैं घुस रही थी। मैं जानती थी मई की गर्मी में दिन में स्पोर्ट्स कॉम्पलैक्स में भयंकर एकांत होता है। बस कॉम्पलैक्स के कर्मचारी होते हैं और चलती लू से जूझते पंछी | नई नवेली कोंपलें बड़ी आस से मालिन के हाथ में पानी की पाइप की ओर देखती रहती हैं |

या फिर होती है तो नहाती दूब, पुलकित गिलहरियाँ, गरम हवा से लड़ती-भिड़ती फूल पत्तियाँ, बदन को गरमाती हवा। पर इनसे तो मेरा नाता है। कॉलेज में भी तो इस गर्मी में हम घण्टों पार्क में बैठे रहा करते थे। ये जानते हैं कि मैं तुम्हारे साथ कुछ पल गुज़ारना चाहती हूँ। मैं भी जानती हूँ ये उन पलों के साक्षी होंगे व्यवधान नहीं।

मैं ऊँची उन्मुक्त उड़ानों पर थी ..प्रफुल्ल मन से तुम्हारे साथ उड़ना चाहती थी।

मैं सीधे बच्चों के झूले वाले पार्क में रखे बैंच पर बैठ गई।

मैंने फटाफट एफ.बी. खोला।

ध्यान से तुम्हें नज़र भर देखा..प्रयास करके आँखों को नदी नहीं बनने दिया।

मैं तुम्हें आँखों में भरती रही और हृदय में उतारती रही.. तुम्हें कहती रही तुम पीछे नहीं छूटे.. चौदह साल बाद भी मेरे साथ मेरी साँसों के साथ-साथ चल रहे हो..तुम मेरा अतीत नहीं हो गए बल्कि सहेज कर रखे गए वर्तमान हो..आज भी उतने ही अपने हो..उतने ही..हमेशा उतने ही अपने रहोगे..तुम आज भी मुझे दूर से निहारते हुए टकटकी लगाए देखते रहते हो..तुम अभी भी मेरे हृदय में ऐसी पेंटिंग्स बनाते हो जिनमें मेरे हर अहसास को मेरे भीतर बहुत गहरे से पकड़ कर .. तुम अपनी उंगलियों में थामे मेरे सामने आ खड़े होते हो..आज भी तुम पतंग उड़ाते हो और मैं डोर थामे खड़ी रहती हूँ..आज भी तुम्हारे हाथ की रेखाओं में मैं अपने आपको ढूँढ सकती हूँ..आज भी तुम मेरी रूह की तरह मेरे भीतर साँस लेते हो। आज भी तुम मेरे हृदय की पगडंडियों में बेहिचक घूमते हो।

नीले रंग की एक चिड़िया साथ के बैंच पर आ बैठी है .. वह मुझे उकसा रही है मैं तुम्हें फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दूँ। मैं तुम्हारे प्रोफाइल में घुस कर बैठी हूँ। तुम्हारा परिवार ढूँढ रही हूँ। मुझे कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।

बस तुम्हारी कृतियाँ हैं। बीच-बीच में हमारे काॅलेज के दोस्त सिर निकाल कर झाँकने लगते हैं। मैं तुम्हारी कूची के हर रंग में अर्थ भी ढूँढने लगी हूँ। तुम एक सवाल बन कर नहीं प्यारी सी, मासूम सी अनगढ़ जिज्ञासा बन कर मेरे सामने हो। वो जिज्ञासा जिसे मैंने चौदह साल सहला-सहला कर संजों कर अपने तकिए के नीचे रखा है। हर पल उठते-बैठते तकिया हटाकर देखती रही हूँ। मैं समझ गई हूँ , चले गए पल भी कभी नहीं जाते, रोम छिद्रों में छुप कर बैठे रहते हैं।

भरे-पूरे घर में सास-ससुर, पति - बच्चों के साथ रहते हुए भी मैंने अपनी एक अलग दुनिया रचा रखी है .. जिसमें तुम्हारी कूची के रंग होते हैं और मैं होती हूँ। उन रंगों में इधर-उधर बिखरे लम्हे मैं चुन लेती हूँ और उन्हें तरतीब देती रहती हूँ। जितना सुख मुझे इसमें मिलता है उतना और किसी चीज़ में नहीं। बस यहीं मैं जीवन के सारे सुख पा लेती हूँ |

तुम्हारे प्रोफाइल में एक पेंटिंग में मैं अटक गई हूँ..आकाश रो रहा है मोटे-मोटे आँसुओं से..इन आँसुओं का रंग कहीं लाल है कहीं नीला। मेरा दिल कह रहा है यह तुमने उसी दिन बनाई होगी जिस दिन तुम मुझे ढूँढते हुए मेरे घर तक पहुँच गए थे। छोटी बहन ने बताया था तुम पगला से गए थे..रोने लगे थे। ज़मीन पर बैठकर बड़ी देर सामने शोकेस में रखी मेरी और नीरज की तस्वीर को देखते रहे थे |

तुम्हारे जर्मनी प्रवास के दौरान ही मेरे ससुराल वाले मुझे देखने आए थे। साथ ही चुन्नी चढ़ा के ले गए। मैं तुम्हें फोन करती रही तुम पहुँच से बाहर थे। मैं इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई कि कह पाती अभी मुझे इंतज़ार करना है। बस वही चुप्पी मुझे निगल गई।

तुरत फुरत एक जोड़े में मैं ससुराल पहुँच गई और इन सबके प्यार में आज भी बंधी हूँ।

लेकिन ये भी सच है इस समय मैं तुम्हारे साथ हूँ। ऊपर से एक लाल रंग का फल ठीक मेरी झोली में आकर गिरा है जैसे कह रहा हो इस फल को मत खाना यह वर्जित फल है। पर वर्जनाओं के बीच भी एक दूसरे का सान्निध्य हमें सक्षम बनाता रहा है कि हम सितारों को छू सकें..त्रिकोणीय रास्तों पर भी सुगमता से चल सकें..उलझी हुई उलझनों को सुलझा सकें।

तभी तुमने मुझे लहलहाता हुआ एक निमंत्रण भेजा। मेरी आँखों के सामने गुनगुनाते शब्द थे..चमकीले शब्द..तुम्हारी कूची के रंग में रंगे शब्द..प्यार की मिठास से लकदक चमकते शब्द।

“कल दोपहर बारह बजे से शाम पाँच बजे तक कला दीर्घा में मेरी पेंटिंग्ज़ की प्रदर्शनी में आप सादर आमंत्रित हैं।” मैं खिल उठी |

मुझे लगा तुम्हारी किसी अदृश्य आँख ने देख लिया है मुझे प्रतीक्षा रत। एक-एक शब्द को मैं किसी अदृश्य सीढ़ी से भीतर उतरता अनुभव कर रही थी। मैंने अन्तर्मन की उंगलियों की पोरों से छुआ था हर शब्द को |

मैं भला कैसे रुक सकती थी। मैंने खुशी से हग किया था तुम्हें । मैं वही कॉलिज वाली कविता हो गई थी। मैंने तुम्हें कस के हग कर लिया और कस के, और कस के। तुमने चाहकर भी रोके रखा था अपनी बाहों को और चुपचाप ख़ुद ही मेरे दूर हटने का इंतज़ार किया था |

मैंने महसूस कर लिया था तुम आत्मसात कर रहे हो मेरे हर अहसास को..मेरी हर प्रत्याशा को। नहीं, मुझे प्रतिदान नहीं चाहिए .. मुझे अपनी सीमाओं में रहना आता है |

सामने माली पौधों को नहला रहा था। मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक हम दोनों के नथुनों को स्पर्श कर रही थी। कोंपलें खुश थीं हमें आलिंगन बद्ध देखकर..दूब चिकोटी काटने को तैयार थी..वह नीली चिड़िया धीमा-धीमा मुस्करा रही थी।

फिर लगा कहीं प्रदर्शनी में तुम्हारे साथ तुम्हारी पत्नी हुई तो ?..उसने मुझे पहचान लिया तो ?..उसने सवाल पूछे तो ?..तुम्हारे जीवन पर कोई प्रभाव पड़ा तो ? तुम किसी उलझन में फँस गए तो ?

पल भर के लिए सब रुक गया। मैं, नीली चिड़िया, मुझे निहारती कोंपलें। सब स्थिर।

पर जाने क्या था मैं व्यग्र थी, अधीर हो चुकी थी। पैंतीस साल की दो बच्चों की माँ नहीं रही थी .. वही कालिज वाली बाइस साल की आवारागर्द कविता हो गई थी .. वही चुलबुली, झल्ली कविता। मैं बस तुम्हें, सिर्फ़ तुम्हें अपनी आँखों से अपलक देखना चाहती थी।

मैं वापिस घर आ गई। नीरज की टूर की तैयारी करनी थी। नीरज समय का वैसे भी पाबन्द है | नियत समय पर घर पहुँच जाएगा .. इसलिए उसके आने से पहले पूरी तैयारी करनी थी |

शाम को मैं नीरज को एयरपोर्ट छोड़ आई। पर तुम हर पल मेरे साथ थे।

दोपहर में बच्चों के स्टॉप पर, रसोई में, घर की हवा में, मेरी साँसों की ध्वनि के साथ एकाकार होते हुए। रात में तुम सूक्ष्मतर हो कर फिर मेरे तकिए के नीचे दुबक गए थे। तुम्हारे साथ को मैं रात भर महसूस करती रही थी |

मैंने तुम्हारा निमंत्रण सिर माथे लिया था .. आना तो था ही | कोमल दूब सी मन की तंत्रिकाओं को मुट्ठी में बंद करके मैं सारा समय अपनी हथेली पर फैलता हुआ महसूस करती रहती थी |

सुबह मैं मैट्रो में थी। मैं उड़ रही थी दिल्ली को पीछे छोड़ती हुई। एक-एक इमारत आँखों के आगे से निकल भागती जा रही थी। हम दोनों विपरीत दिशाओं में भाग रहे थे। मुझे लग रहा था मैं उड़ रही हूँ और आर्ट गैलरी पहुँचने तक अपनी यात्रा में हर चीज़ को पीछे धकेल रही हूँ। बड़ी-बड़ी इमारतों को, खम्बों को, फ्लाइओवरों को हर चीज़ को। पर मैं तुम तक की यात्रा करते हुए कुछ भी बीच में कैसे आने दे सकती थी ?

आर्ट गैलरी के बाहर बैनर पर तुम्हारा नाम मुझे विचलित करने लगा। जाने क्यूँ बार-बार विचार आ रहा था जाऊँ या नहीं..यहीं से वापिस चलूँ..कहीं कुछ गलत तो नहीं कर रही..कहीं तुम्हारी शान्त साधना में कोई खलल तो नहीं डाल रही..कहीं ठहरे सरोवर में कंकड़ तो नहीं डाल रही। फिर कुछ अहसास चुपके से आए और मेरी उंगली पकड़ कर मुझे अंदर खींचे लेते चले गए।

मैं दरवाज़े पर ठिठकी खड़ी थी।

चारों ओर नज़र दौड़ाई और तुम नहीं दिखे तो मैंने चैन की साँस ली।

मुझे अजीब लग रहा था। तुम्हीं से तो मिलने आई हूँ .. फिर क्यों चाह रही हूँ तुम न दिखो। लगा क्षण भर में मन कैसी अबूझ पहेली हो गया है। जिस चाहना ने यहाँ लाकर खड़ा किया अब एकाएक विमुख क्यों हो रही है ?

पल भर को लगा ऐसे ही आई। एफ.बी. पर मिल तो ली थी..तुम्हारे साथ समय भी बिता चुकी थी..तुम्हें हग भी कर लिया था..स्पोर्ट्स कॉम्पलैक्स में जी भर कर एफ.बी. पर देख लिया था..तब से अब तक हम साथ ही तो थे..बस देह ही तो नहीं थी..अब तुम मिल भी गये तो आँखें फाड़ कर तुम्हें देख भी नहीं सकती..तुम्हारी पत्नी..?

कहीं स्थिति नाज़ुक न हो जाए ?

तुम ठीक कहते थे हर स्थिति में बहती जाती हो। कभी-कभी रुक कर देखना ज़रूरी होता है। आगे - पीछे देखना और थोड़ा विचार कर लेना ज़रूरी होता है | तनिक परिपक्वता से निर्णय लेना होता है | तुम्हारी ये डाँट मुझे आज भी याद आती है | जल्दबाज़ी में लिए हर गलत निर्णय पर भी नीरज बस प्यार से मुस्करा कर रह जाते हैं .. मुझे कभी डाँट नहीं पाते | बड़े से बड़े नुकसान पर भी बस गर्दन झटकते हैं .." इट्स ओके " कहकर मुझे गिल्ट से भी निकाल लेते हैं | ऐसे हर समय पर भी तुम्हारी डाँट मुझे समझाने आ जाती है |

मैंने डरते-डरते पेंटिंग्स देखनी शुरु कीं । वही स्टाइल, वही रंग, वही आग, वही अवसाद, वही संघर्ष, वही आक्रोश। ‘अन्तर्निहित’ नामक पेंटिंग पर आकर मैं ठहर गई। कदम आगे बढ़े ही नहीं .. पैरों में अनुभूति की बेड़ियाँ रोके थीं |

दो रहस्यमयी बड़ी-बड़ी गहरी आँखें..सारे ज़माने की ताब भीतर छुपाए..कितने रेगिस्तानों, कितने समुंदरों को थामे..अनगिनत अहसासों को तर्जनी पर उठाए।

मैं वहीं ठहर गई।

“तुम्हीं हो।”

तुम्हारी आवाज़ थी। मैं पूरी हिल गयी थी । फिर सचेत हो गई थी |

मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो सचमुच तुम ही थे। पल भर को सृष्टि थम गई थी..सब ठहर गया था। हमारी साँस, हमारे प्राण ..| हम चुप थे .. बस हमारा प्यार गतिमान था .. हवा के साथ घुली मिली खुशबू की तरह .. आसमान की परतों में उड़ते रंगों की तरह सारी सृष्टि में तैरता |

हम दोनों एक दूसरे से मिल रहे थे। क्षितिज हो गए थे। आस - पास सब मुखरित हो रहा था पर हम तक कुछ नहीं पहुँच रहा था | नदी मुहाने पर ठहर गई थी और कौतुक से हमें निहारने लगी थी |

तुम्हारी चश्मे में से झाँकती आँखों की मासूमियत परिपक्वता की पीली झिल्ली के पीछे छुप गई थी। मुस्कराहट वैसी ही निश्छल, अबोध थी। बस माथे पर तीन रेखाएँ बन गई थीं और मन का ठहराव तुम्हारी चाल में भी झलक रहा था |

“पाँच साल से तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ। जब से तुम एफ.बी. पर आई हो रोज़ सुबह तुमसे मिलता हूँ। रोज़ तुम्हें फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजने के लिए बढ़ा हाथ जाने कौन पकड़ लेता है ? पता नहीं तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी ? पर मन कहता था एक न एक दिन तुम ज़रूर आओगी। इस विश्वास को मैंने धारण कर लिया था। तुम लॉ ऑफ़ एट्रैक्शन की बात करती थीं न। यकीन मानो एक बार भी संशय के सुराख का बुलबुला नहीं फूटा। तुम सही कहती थीं।”

मैं बस चुपचाप तुम्हारे हिलते होंठों को देखती रही। मेरी सम्पूर्ण चेतना उन हिलते होठों में समा गयी थी। मेरा अस्तित्व तुमसे उच्चरित हर शब्द की उंगली थामे आगे बढ़ने को तैयार था | मेरा अवचेतन सक्रिय हो गया था तुम्हारे स्वरूप को अंश दर अंश भीतर समेटने |

“मिस्टर सुधांशु, कमाल कर दिया। ये पेंटिंग अंतर्निहित, वो आँखें.....सच लाजवाब।”

“थैंक्स, वो आँखें.....।”

फिर मेरी ओर देखकर तुम कुछ कहते-कहते रुक गये। वह प्रशंसक हाथ मिलाकर चला गया। तुमने अपनी नज़र मुझ पर टिका दी .. फिर अपनी कमीज़ का कफ़ फोल्ड करते - करते रुक गए |

" फोल्ड कर लो .. अब मैं कुछ नहीं कहूँगी | " मैंने नज़र झुकाते हुए कहा था |

" तुम्हें अभी भी कहने का हक है और हमेशा रहेगा | " फिर थोड़ा ठहर कर बोला -

" तुम आज तक भी हमेशा ये फोल्ड करने से मुझे रोकती रही हो .. और मैं रुकता रहा हूँ | "

मेरी आँखें भर आई थीं इसलिए मैंने नज़रें झुका लीं |

पल भर हम दोनों खामोश खड़े रहे .. | फिर वही बोला -

“बहुत बदल गई हो।”

“नहीं।”

“वो उन्मुक्तता कहीं गायब हो गई है। वो हर पल हवाओं के टुकड़ों को पकड़ना, उछल-उछल कर तितलियों के रंगीन पंखों को छूना, जुगनुओं के पीछे भागना, केले के पत्तों पर फिसलती शबनम से खेलना, दूब से तुम्हारा बहनापा, मिट्टी से रिश्ता, चिड़ियों की चिन्ता, संध्या से मोह ।”

तुम बोलते बोलते रुक गये।

दो कदम आगे बढ़ आये।

मेरे और पास आ गये।

तुम मुझे छूना चाहते थे और मैं तुम्हें।

हम दोनों एक दूसरे को छू रहे थे।

देह से नहीं ..प्राण से।

क्षण भर में तुम प्रशंसकों से घिर गये जैसे सावन में आसमान बादलों में घिर जाता है .. जैसे छुट्टियों में दादा-दादी, नाना-नानी बच्चों से घिर जाते हैं .. जैसे सालों बाद मिली सहेलियाँ बातों में घिर जाती हैं .. जैसे सर्दियों की दोपहर ऊन के रंगों में घिर जाती है |

मैं फिर उसी पेंटिंग को देखने लगी।

तुम प्रशंसकों के बीच होते हुए भी मेरे साथ थे। तुम लगातार मुझे ही देख रहे थे और बराबर मेरे साथ बने हुए थे |

मैं घड़ी देखने लगी तो तुम एकदम मेरे पास आ गये। तुम्हारी साँसें मुझे छू रही थीं | तुम्हारे शरीर की गंध मुझे सम्मोहित कर रही थी | तभी एकदम मैंने कहा था -

“अब मैं चलती हूँ।”

“आधा घण्टा रुको। समीर और रूपा आने वाले हैं।”

“समीर और रूपा?”

मैं हैरान थी। हम एक साथ कॉलेज में थे।

“हाँ, दोनों ने शादी कर ली। दोनों दिल्ली में ही हैं। " मुझे समझ नहीं आ रहा था खुश होंऊँ या उदास। हम दोनों कॉलेज के फेमस कपल थे पर साथ नहीं आ सके और वो दोनों साथ आ गए |

मेरा मन ईर्ष्या से भर उठा |

“फिर कभी मिल लूँगी। बच्चों की बस का टाइम हो जाएगा .. अभी भी जाने में मुझे एक घण्टा लगेगा।” मेरी नज़र फिर घड़ी की ओर बढ़ चली |

तुमने मुझे रोका नहीं।

हम दोनों साथ-साथ गेट की ओर बढ़ रहे थे।

“बहुत अच्छी पेंटिंग्स हैं।” मैंने तुम्हें देखते हुए कहा था ...। क्षण भर मेरी नज़रें तुम्हारे चेहरे पर टिकी रही थीं ।

“हर पेंटिंग में कहीं न कहीं तुम हो।”

मैं तुम्हारी इस सदाशयता पर सदा से मोहित रही हूँ। हमेशा से इसी तरह अपना सब कुछ मुझ पर लुटाते आए हो | जितना सुख तुम्हें लुटाने में मिलता है उतना समेटने में पाते तो शायद इतना नहीं दे पाते |

“कविता, तुम खुश हो अपनी फैमिली में?”

“हाँ” मैंने मुस्कराते हुए कहा था |

“और तुम ? ”

“मैं भी खुश हूँ।” तुमने गहरे संतोष से कहा था |

तुम एक दम बच्चे की तरह प्रफुल्लित हो उठे थे।

जैसे तुम्हें बस मेरी खुशी ही जाननी थी।

“कविता, तुम्हें फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज सकता हूँ।”

“हाँ।”

मैंने गर्दन हिला दी थी।

तुम्हारे मुँह से अपना नाम सुनना मुझे सुकून से भर गया था शायद तुम्हें भी। ये आवाज़ तुम्हारे हृदय से निकल रही थी। जैसे मैं तुम्हारे भीतर कहीं गहराइयों में मौजूद हूँ और तुम मेरे भीतर।

मुझे लग रहा था तुम बार-बार मेरा नाम बोलकर मुझे अपने करीब अनुभव कर रहे हो।

मैं वापिस चलने को मुड़ी तो-

“कविता, आती रहना।”

मैंने स्वीकृति में गर्दन हिला दी।

मैं चलने को हुई।

“कविता, थैंक्स।”तुम बच्चों की तरह मचल उठे थे।

“अंतर्निहित के लिए थैंक्स।” मैंने कहा तो तुम शरमा गये। तुम आज भी वैसे ही शरमाते हो कि देखने वाला कभी भुला ही न पाए |

“सब तुम्हारा ही है।” तुमने एक अनमोल वादे की तरह कहा था |

मैं लौट आई।

मैंने तुम्हारी एकटक देखती आँखों को अपनी पीठ पर महसूस किया था। मैंने मुड़कर नहीं देखा। ये महसूसना आज की उपलब्धि थी .. इस पूँजी को मैंने संभाल लिया | मन की सीढ़ियाँ उतर गई फौरन और वहाँ सुरक्षित कर लिया |

लग रहा था आज तक कितनी रिक्त थी.. इस अप्रत्याशित सम्पन्नता के बाद भीतर का उजास अंग - प्रत्यंग को भी उजास से भर रहा था |

मैं मैट्रो में थी पर तुम साथ थे।

मैं बच्चों के स्टॉप पर थी पर तुम साथ थे।

मैं घर आ गई तब भी तुम साथ थे।

तुम हर पल एक खुशबूदार याद बन कर मेरे तकिए के आसपास दुबके रहते हो और मेरे मन के कुँए को तसल्ली के पानी से भरे रहते हो | तुमने अपनी आश्वस्ति से भरी नज़र में मुझे भरकर बेशकीमती तोहफों से मेरी झोली भर दी |

तुमने फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी और मैंने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।

मुझे लगता है हम किसी बर्तन में तैरते उस तेल और पानी की तरह हो गए हैं जो न कभी मिलेंगे न दूर होंगे। अलग होते हुए भी साथ रहेंगे.. बिल्कुल करीब रहेंगे। पर अपनी सीमा रेखाओं के बीच.. और इन सीमा रेखाओं के बीच न कोई झाँक पाएगा न कोई स्पर्श कर पाएगा। कोई नहीं, कभी नहीं।

-प्रतिभा