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लोहे की जालियां

लोहे की जालियां

‘‘देखिये, आप रोज कोई-न-कोई बात कह कर मुझे बहंटिया देते हैं, काम के बहाने टाल जाते हैं। कितनी बार कहा कि आॅफिस से लौटते वक्त, अपने पुराने मकान-मालिक अवनीन्द्र बाबू के घर चले जाइये। मच्छरों, कीट-पतंगों से बचने वास्ते हमने अपनी गाढ़ी कमाई के पैसों से उनके मकान के दरवाजे, खिड़कियों में लोहे की जो जालियांॅ लगवाईं थीं। उस मकान को छोड़ते, अपने इस नये मकान में आते वक्त तत्काल कोई मिस्त्री न मिलने के कारण हम वो जालियांॅ निकलवा नहीं पाये थे। लोहे की उन जालियों के बारे में अवनीन्द्र बाबू का क्या कहना है...? यही पूछ आते।’’

‘‘अऽरे भई, मुझे अच्छी तरह याद है। हमने अपनी गाढ़ी कमाई के पैसों से ही वो जालियांॅ लगवाईं थीं। अवनीन्द्र बाबू से तो मैंने एक-दो बार बात भी चलाई थी कि मकान छोड़ते समय हम वो जालियांॅ निकलवायेंगे नहीं, बशर्ते कि वो उन जालियों के पैसे मकान किराये में एडजस्ट कर लें। लेकिन उन्होंने मेरे इस प्रस्ताव पर कोई अभिरूचि ही नहीं दिखाई। जब मकान-मालिक ने किराये में एक पैसे की रियायत नहीं दी तो हम क्यों रियायत दिखाने लगे...?’’

‘‘तो उन जालियों को निकलवाने के बारे में आप रोज-रोज नये प्रवचन ही देते रहेंगे, या इस दिशा में कुछ फलदायक, रचनात्मक काम भी करेंगे...? आपको याद होगा...अवनीन्द्र बाबू का वो मकान जब हमने किराये पर लिया था, तो उस मकान की क्या दशा थी? बिजली की सारी वाॅयरिंग-फिटिंग और बिजली के बोर्ड तक उखड़े पड़े थे। गरज हमारी थी, सो हमने ही सारी वाॅयरिंग-फिटिंग और बोर्ड आदि अपने पैसे खर्च कर लगवाए थे। तब कहीं जाकर वो मकान रहने लायक हुआ था। वो तो शुक्र मानिए मकान मालकिन का कि उनसे चिरौरी-विनती पर वो किराए के पैसों में, वाॅयरिंग-फिटिंग और बोर्ड के खर्चे को एडजस्ट करने के लिए तैयार हो गयीं थीं। आप हैं कि अपनी गाढ़ी कमाई के पैसों से लगवाई गयी उन जालियों को निकलवाने में भी संकोच कर रहे हैं।’’

‘‘अऽरे भई, उधर जाना चाहता तो मैं भी हूँ, पर क्या करूंॅ, ये मार्च का जो चक्कर है, दम लेने की भी फुर्सत नहीं है। तिस पर अभी नया-नया प्रमोशन है, छुट्टी लेना भी ठीक नहीं है। किसी सण्डे वाले दिन ही उधर जाना हो सकेगा। वो लोहे की जालियांॅ तो हमारे गले की तौक हो गयी हैं।’’

‘‘आप ऐसा क्यों नहीं करते, अवनीन्द्र बाबू से फोन पर ही बात कर लीजिए कि वो जालियांॅ अब आपके किसी काम की नहीं रहीं। अपने मकान में तो हमने सभी दरवाजे, खिड़कियों पर जालीदार पल्ले आदि लगवा ही रखे हैं। अगर वो उन जालियों के पैसे नहीं दे सकते तो, उस मकान में उन्होंने जो नया किरायेदार रखा हो, उसी से हमें पैसे दिलवा दें, और उसे अपने किराये में एडजस्ट कर लें।’’

‘‘अवनीन्द्र बाबू को तो तुम अच्छी तरह जानती हो कि वे कितने काइयांॅ किस्म के इन्सान हैं। टूटी-फूटी सड़कें, बजबजाती नालियों, संकरी गली वाले उस बदबूदार मुहल्ले में हमने सात साल कैसे काटे हैं, ये हमसे बेहतर कौन जानता होगा। मच्छर, कीट-पतंगों के आतंक की ओर बार-बार ध्यान दिलाने पर भी अवनीन्द्र बाबू के कान पर जंू नहीं रेंग रहे थे। अन्ततः थक-हार कर हमें ही अपने पैसों से उस मकान के सभी खिड़कियांॅ, दरवाजों पर लोहे की जालियांॅ लगवानी पड़ी थीं। पूरे पांॅच हजार खर्च हुए थे।’’

‘‘आप उनसे इस बारे में किसी दिन उनके घर जाकर इत्मिनान से बात कर लीजिए। अऽरे, चार हजार ही दे दें, या उनके नये किरायेदार को ही सारी बातें बताते इस बारे में बात कर लीजिए। क्या पता, उनके नये किरायेदार से बात करने में ही कोई समाधान निकल आये...?’’

‘‘तुम्हारा ये सुझाव तो ठीक है। अगर वो इस पर भी नहीं माने तो मैं किसी दिन कोई लोहार या मिस्त्री लेकर जाऊंॅगा, और लोहे की अपनी वो सभी जालियांॅ उखड़वा ले आऊंॅगा।’’

‘‘हांॅ, अब आपने मेरे मन की बात कही। मैंने तो कितनी बार कहा कि आपकी अकल जब चरने चली जाय तो कभी-कभी मुझसे भी थोड़ी अकल उधार ले लिया कीजिए। हांॅ, एक बात और...अगर आपसे इस मुश्किल का समाधान न निकल सके तो बताइयेगा, मैं ही चल कर अवनीन्द्र बाबू की पत्नी से बात कर लंूॅगी। पर...एक बात और भी गौरतलब है। अब उन जालियों की हमारे लिए कोई उपयोगिता नहीं है, ऊपर से लोहार या मिस्त्री की दिहाड़ी अलग से देनी पड़ जायेगी। आप कोशिश कीजियेगा कि किरायेदार या मकान-मालिक में से किसी से भी, हमें हमारे पैसे ही मिल जायें।’’

‘‘ठीक है। मैं कुछ करता हूँ। वैसे भी कल छुट्टी है, और संजोग से भइय्या के काम से कल उधर ही जाना भी है।’’

............................

पत्नी संग उपरोक्तानुसार बातचीत के उपरान्त मैं अगले दिन शाम को मकान-मालिक, अवनीन्द्र बाबू के घर पहुंॅचा, और उनके दरवाजे पर दस्तक दी।

‘‘कौन है वहांॅ, दरवाजे पर...?’’ कमरे के अन्दर से अवनीन्द्र बाबू ने आवाज दी थी।

‘‘अवनीन्द्र बाबू, दरवाजा खोलिए। मैं सत्यजीत हूँ। आपका पुराना किरायेदार।’’

‘‘अच्छा! आप हैं, सत्यजीत बाबू। बहुत दिन बाद दिखाई दिये। अचानक...इधर कैसे आना हुआ...? बहू कैसी है, और बच्चे कैसे हैं...? छोटा वाला लड़का तो अब बड़े क्लाॅस में चला गया होगा, और डाॅली बिटिया के तो इण्टर के रिजल्ट भी आ गये होंगे?’’ अवनीन्द्र बाबू ने दरवाजा खोलने के साथ-साथ ही, अपनी आदत के अनुरूप यके-बाद-दीगरे, मुझसे ढ़ेर सारे प्रश्न कर डाले।

‘‘अऽरे, भई सत्यजीत बेटे को अन्दर बुलाकर बिठायेंगे भी कि दरवाजे पर खड़े-खड़े ही पूछताछ करते रहेंगे? रिटाॅयर हो गये हैं, लेकिन मास्टरी की आदत अभी तक गयी नहीं।’’ मैं उनकी बातों का कुछ जवाब देता कि अन्दर आंॅगन से अवनीन्द्र बाबू की पत्नी, सुरेखा जी ने आवाज दी।

‘‘आओ-आओ भई। अन्दर आ जाओ। बताओ कैसे आना हुआ?’’ अवनीन्द्र बाबू ने दरवाजे के एक तरफ हटते, मुझे अन्दर कमरे में बुला कर बिठाया।

‘‘बड़े भाई साहब का कुछ काम था, यहांॅ अमीनाबाद में। इधर आया तो आप लोगों की भी याद आ गयी। सोचा, क्यों न आप लोगों से मुलाकात कर ली जाय। काफी समय हो गया था मुलाकात किये। सोचा, इसी बहाने आप लोगों का हाल-चाल भी लेता चलंूॅगा।’’ मैंने मेहमानखाने में रखे, टीक के पुराने, जाने-पहचाने सोफे पर बैठते हुए कहा।

‘‘बहुत अच्छा किया भई। तुम लोग आते रहा करो। तुम तो जानते हो, बिन्नू हमारी इकलौती बेटी थी। उसकी शादी के बाद, अब घर का सूनापन काटने को दौड़ता है।’’

‘‘सत्यजीत को अपनी राम कहानी ही सुनाते रहेंगे कि उसे चाय-वाय के लिए भी पूछेंगे?’’ आंॅगन से ही अवनीन्द्र बाबू की पत्नी ने उन्हें एक बार फिर टोका।

‘‘हांॅ भई, चाय-वाय तो पियोगे न? जल्दी में तो नहीं हो?’’ पत्नी के टोकने पर अवनीन्द्र बाबू ने मुझसे पूछा।

‘‘जी! लेकिन, मेरी चाय में शक्कर की मात्रा कम ही रहेगी।’’

‘‘सुरेखा, जरा कम शक्कर वाली चाय, और उसके साथ थोड़ी नमकीन भी ले आना।’’ अवनीन्द्र बाबू ने मेहमानखाने से ही पत्नी को आवाज दी।

‘‘आपने आज फिर अपनी सुनने वाली मशीन आंॅगन में ही तिपाई पर छोड़ दिया है। इसे लगा लीजिए, नहीं तो सत्यजीत की आधी बातें सुनेंगे, आधी बातें अनसुनी करते...आंॅय-आंॅय करते रहेंगे।’’ अवनीन्द्र बाबू की बातों की अनसुनी करते उनकी पत्नी ने पुनः आवाज दी।

‘‘यहीं लाकर दे दो। आज सुबह से ही घुटनों में बहुत दर्द है। बार-बार उठने-बैठने, चलने-फिरने में दिक्कत हो रही है।’’

‘‘हांॅ-हांॅ क्यों नहीं? मेरे घुटने तो अभी भी सोलह साल की उम्र वाले हैं। मुझे तो कोई परेशानी होती नहीं। अन्दर किचन में आइये। चाय, खुद से ले जाइये, और आंॅगन से अपनी कान में लगाने वाली मशीन भी।’’ अवनीन्द्र बाबू की पत्नी ने उन्हें एक बार फिर से प्यार भरी झिड़की देते टोका।

‘‘अच्छा भई...आता हूँ।’’ कहते, थोड़ी मुश्किल से कुर्सी से उठते, मुझे मेहमानखाने में अकेला छोड़, अवनीन्द्र बाबू अन्दर किचन में चले गये। अवनीन्द्र बाबू के वहांॅ से जाने के बाद मैंने मेहमानखाने में एक उड़ती निगाह डाली। अवनीन्द्र बाबू के मेहमानखाने में मैंने पिछले सात-आठ सालों में कोई खास तब्दीली नोटिस नहीं की थी।...‘उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत...’...के मानिन्द हर आगन्तुक को प्रेरित करती, मेरे सामने की दीवाल पर स्वामी विवेकानन्द जी की फोटो आज भी बदस्तूर, लगी दिखी। वर्षों पुराने टीक के सोफे पर गहरे भूरे रंग के कपड़े का कवर, अभी भी दिख रहा था। सामने नक्काशीदार गोल-मेज पर, एक कोने से हल्का टूटा ग्लाॅस भी वैसे ही रखा था।

मुझे याद है, तब मेरी बेटी छोटी ही थी। एक बार, अवनीन्द्र बाबू के मेहमानखाने में पेपरवेट से खेल रही थी। साथ ही टी.वी. पर आ रहे गाने...‘‘हिन्द देश के निवासी सभी जन एक हैं। रंग-रूप वेश-भाषा चाहे अनेक हैं।।’’... को तोतली भाषा में, गुनगुनाते, सस्वर अभिनय करती जा रही थी कि अचानक लड़खड़ा जाने पर उसके हाथ से पेपर-वेट छूट कर इस टेबल पर गिर गया था, जिससे ग्लाॅस का एक कोना हल्का सा टूट गया था, जो बतौर निशानी, आज भी मौजूद है।

इसी बीच मुझे अन्दर के कमरे से कुछ खुसर-फुसर सी आवाजें सुनाई दी। मैं सचेत हो गया, और उधर ही कान लगाकर सुनने लगा। ‘‘पता नहीं ये अब यहांॅ क्या लेने आया है?’’ मैंने ध्यान दिया, आवाज अवनीन्द्र बाबू की ही थी, जो अपनी पत्नी से फुसफुसाते हुए बतिया रहे थे। ‘‘आप तो बिलावजह ही सभी पर शक करते रहते हैं। अऽरे, चैक वाले हमारे मकान में ये लोग लगभग सात साल किराये पर रहे हैं। अभी नई जगह पर एडजस्ट करने में दिक्कत हो रही होगी। क्या पता इसे हमारी याद आ रही हो, तभी तो ये हमसे मिलने आया है। आप ये चाय ले जाइये और कोई आशंका-वाशंका मत पालिए। निश्चिन्त रहिए।’’ कहते अवनीन्द्र बाबू की पत्नी ने उन्हें आश्वस्त किया।

चाय तैयार हो गयी थी। अगले पांॅच-छः मिनट बाद, अवनीन्द्र बाबू एक टेª में दो चाय के भरे कप और भुनी हुई मंूॅगफलियों के एक प्लेट के साथ मेहमानखाने में नमूदार हुए। मैंने ध्यान दिया, उन्होंने अपने दाहिने तरफ वाले कान के पीछे सुनने वाली मशीन भी लगा रखी थी।

‘‘लो भई, चाय पियो और बताओ, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे हैं?’’

‘‘जी, आप लोगों के आशीर्वाद से सभी ठीक-ठाक, स्वस्थ हैं। आॅण्टी जी को भी बुला लीजिए। उनसे भी मुलाकात हो जाये।’’ अपने मुद्दे पर विचार साझा करने के तईं मैंने उनकी पत्नी को भी इस बातचीत में शामिल करना उचित समझा।

‘‘अऽरे भई सुरेखा, तुम भी आ जाओ।’’ अवनीन्द्र बाबू ने पत्नी को आवाज दी। अगले दो-चार मिनट बाद अवनीन्द्र बाबू की पत्नी सुरेखा जी भी, अपने हाथ पल्लू में पोंछते, मेहमानखाने में हाजिर हुईं।

‘‘अऽरे! तुमने तो कुछ खाया-पिया ही नहीं?’’ मेहमानखाने में हाजिर होते ही उन्होंने मुझे टोका।

‘‘जी, अभी अमीनाबाद की तरफ से लौटा हूँ। वहीं एक जनाब के पास चला गया था। उन्होंने वहांॅ की मशहूर कचैड़ियांॅ और कुल्फी खिला दी। पेट अभी भी भरा हुआ है। कुछ खाने का मन नहीं कर रहा। आपके हाथ की अदरक-कालीमिर्च वाली चाय पिये बहुत दिन हो गये थे, सो मैं ये चाय ही पी लेता हूँ।’’

‘‘इतने दिनों बाद हमारी याद कैसे आयी?’’ अवनीन्द्र बाबू की पत्नी ने सामने की कुर्सी खींच कर बैठते हुए पूछा।

‘‘जी, आपको ध्यान होगा, आपके चैक वाले जिस मकान में हम किराये पर रहते थे, आप लोगों की अनुमति लेकर, मच्छर, कीट-पतंगों से बचाव वास्ते हमने उस मकान के सभी दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों पर लोहे की जालियांॅ भी लगवाईं थीं।’’

‘‘हांॅ-हांॅ, हमें अच्छी तरह याद है। आपने अपने हाथों ही उनकी पेण्टिंग भी कर दी थी, ताकि उन पर जंग न लगे। आपने बहुत अच्छा काम किया था। ये काम तो हमारे वश का था ही नहीं।’’

‘‘अभी वहांॅ, क्या कोई किरायेदार रहता है?’’

‘‘हांॅ-हांॅ, एक मिस्टर सक्सेना जी रहते हैं। यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं। सपरिवार रहते हैं। अभी बाल-बच्चे नहीं हैं। उनकी नई-नई शादी हुई है। हम लोगों से तो महीने-पन्द्रहियन...मिलने आते ही रहते हैं।’’

‘‘जी, आपको तो पता ही है, उस मकान के सभी दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों पर लोहे की जालियांॅ लगवाने में हमारे लगभग पांॅच हजार रूपये खर्च हो गये थे। अब उन जालियों को निकलवाने में मिस्त्री का खासा खर्च भी आ जायेगा। पत्नी, माधुरी भी जालियांॅ निकलवाने के पक्ष में नहीं है। यदि आप लोगों की अनुमति हो तो मैं आपके नये किरायेदार से इस विषय पर बात कर लंू कि वो हमें उन जालियों के पैसे दे दें, और आप उन्हें किराये में एडजस्ट कर लें। अथवा यदि उचित समझें...तो मुझे उन जालियों के वाजिब पैसे आप ही दे दें। आजकल पैसे की बड़ी किल्लत हो गयी है। इधर बीच बिटिया को कोचिंग-क्लाॅस ज्वाॅइन करवाया है। उसी में हमारे काफी पैसे खर्च हो गये।’’ अवनीन्द्र बाबू की पत्नी की सहृदयता को देखते, मैंने तनिक झिझकते-अटकते अपनी बात पूरी की।

‘‘पर आपको देने के लिए इतने पैसे हमारे पास कहांॅ? हांॅ, जहांॅ तक किरायेदार से पैसे लेने की बात है, तो पैसे देने या जालियांॅ निकलवाने का निर्णय, किरायेदार महोदय को ही लेना होगा। फिर, ये आपके और उनके बीच का मामला है। भला इसमें हम क्या कर सकते हैं? किरायेदार महाशय यदि उन जालियों के बदले आपको पैसे देना चाहें, तो ले लीजिए, या यदि निकलवाने को कहें, तो निकलवा लीजिए। बेहतर होगा कि इस बारे में आप उन्हीं से बात कर लें। हमारी तरफ से कोई आपत्ति नहीं है।’’ इस बार तनिक अन्यमनस्कता दिखाते, अवनीन्द्र बाबू ने हस्तक्षेप किया।

‘‘जी ठीक है। अब मैं निकलंूॅगा। कभी चैक की तरफ जाना हुआ तो आपके किरायेदार से इस बारे में अवश्य बात कर लंूॅगा। अभी तो देर शाम हो गयी है। वैसे भी इस तरह के कामों के लिए किसी के घर शाम के समय जाना उपयुक्त नहीं रहता। नमस्ते।’’

‘‘जैसी आपकी मर्जी। नमस्ते।’’ मैंने अवनीन्द्र बाबू से घर जाने की इजाजत मांॅगी। मेरा अनुमान ठीक निकला। हमेशा की तरह अवनीन्द्र बाबू ने आज भी टाल-मटोल वाला ही रवैय्या अपनाया था।

..................

अवनीन्द्र बाबू के घर से लौटने के बाद जाहिरन तौर मैंने पत्नी से आद्योपान्त पूरा वाकया कह सुनाया। तत्पश्चात् पत्नी के सुझावानुसार बिना किसी बिलम्ब के मैं अगले इतवार अवनीन्द्र बाबू के चैक स्थित नये किरायेदार से मिलने, उस मकान पर जा पहुंॅचा।

मकान का दरवाजा खटखटाने से पहले स्वाभाविक तौर मेरी निगाह दरवाजे-खिड़कियों पर लगी उन जालियों पर भी चली गयी। दरवाजे, खिड़कियों की जालियों को, जिन्हें मैंने कभी खुद अपने हाथों पेण्ट किया था, देखा कि उनके रंग तनिक धुंॅधला से गये हैं।

‘‘कौन है...?’’ दरवाजा खटखटाने पर, प्रश्न करने के साथ ही अन्दर से एक महिला निकली, उसी ने दरवाजा खोला था।

‘‘जी, मैं सत्यजीत। पहले मैं इसी मकान में किरायेदार था।’’

‘‘ठीक है। आप अन्दर आ जाइये, बैठिये। मैं सुशान्त को बुला रही हूँ।’’ कहते उस महिला ने मुझे ड्राइंगरूम में बिठाया, और अन्दर चली गयीं। मैं भी आदतन ड्राइंगरूम का मुआयना करने लगा। फर्नीचर के नाम पर कमरे में मात्र चार कुर्सियांॅ और उनके बीच एक तिपाई रखी थी। बगल में छोटा सा दीवान, जिसके ऊपर साफ-सुथरा गावतकिया भी रखा था। मध्यम आय वर्ग वाले लोग लग रहे थे। मेरे द्वारा अपने पीछे की दीवाल पर पेंसिल से यंूॅ ही कभी किसी समय मजाहिया मूड में लिखा वो गाना...‘‘खरखुट करती टमटम करती, गाड़ी हमरी जाये/ फरफर दौड़े सबसे आगे कोई पकड़ न पाये।’’...जिसे मिटाने की असफल कोशिश की गयी थी, पर पठनीय था, हल्के धब्बे की तरह बदस्तूर कायम दिखा। छत का प्लाॅस्टर अभी भी जगह-जगह से उखड़ा हुआ था, जिसकी रिपेयरिंग के लिए बार-बार अवनीन्द्र बाबू का ध्यान आकृष्ट कराने पर भी उनके कानों पर जंू नहीं रेंगते थे।

‘‘जी मैं सुशान्त, और आप?’’ मेरे पीछे से आकर नये किरायेदार ने नमस्ते करते मुझसे हाथ मिलाया। उसे देखते ही मुझे नये किरायेदार का चेहरा कुछ-कुछ जाना-पहचाना सा लगा।

‘‘अऽरे सुशान्त! मैं सत्यजीत। पहचाना मुझे?’’ मैंने अपने जूनियर सुशान्त को फौरन पहचान लिया, उसने भी इकनाॅमिक्स डिपाॅर्टमेण्ट में मेरे गाइड के अण्डर में ही पी.एच.डी. के लिए एनरोलमेण्ट कराया था।

‘‘अऽरे सर, कैसे नहीं पहचानंूॅगा आपको? आपने तो गाहे-बगाहे, मुझे गाइड सर से भी ज्यादा गाइड किया था। मुझे हाॅस्टल मिलने तक आपने अपना रूम, लगभग छः महीने तक मेरे साथ शेयर भी किया था। यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद आप तो नैनीताल निकल गये थे, लेकिन मैंने अपनी पी.एच.डी. पूरी की थी।’’

‘‘व्हाट ए प्लीजेण्ट सरप्राइज? हमारी मुलाकात इतने समय बाद, इस तरह होगी, मैंने तो कल्पना भी नहीं की थी।’’

‘‘मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा है सर।’’

‘‘पर, तुम यहांॅ कैसे?’’

‘‘जी, मैं यहीं यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हूँ। यूनिवर्सिटी के पास ही कोई सस्ता सा किराये का मकान ढ़ंूॅढ़ रहा था। घूमते-घामते एक दिन इधर चैक की तरफ निकल आया। इस मकान के आगे ‘टू-लेट’ का बोर्ड दिखा। नीचे मकान-मालिक का मोबाॅयल नम्बर भी था। मैंने फौरन ही उस नम्बर पर फोन मिलाया। बातचीत में हमारे बीच थोड़ी-बहुत औपचारिक जानकारी के आदान-प्रदान के बाद, मकान-मालिक हमें ये मकान किराये पर देने के लिए राजी हो गये। हालांकि बातचीत में किराये को लेकर वो थोड़ा कंजूस और खड़ूस भी लग रहे थे, लेकिन बात बन गयी। फिर अगले हफ्ते ही अपने सगरो साज-सामान के साथ मैं सपत्निक यहांॅ आकर रहने लगा। बड़े मौंके से मुझे ये मकान मिल गया।’’

‘‘अभी जिसने दरवाजा खोला था, वो तुम्हारी पत्नी ही थीं न?’’

‘‘जी सर।’’

‘‘अगर मैं गलत नहीं हूँ, तो ये वही सुनैना है न, जिसे तुम स्टैटिस्टिक्स का ट्यूशन देने जाते थे, और इस पर अपना रौब जताने के लिए बाजदफे मुझसे ‘मीन-मिडियन-मोड’ और ‘को-रिलेशन’ के कुछ कठिन सवालों पर डिस्कशन भी करते थे। राह चलते-चलते कभी-कभी इससे सामना होने पर इसे देखकर तुम अक्सर ही मजाहिया मूड में...‘‘फुलगेंदवा न मारो...लगत करेजवा में तीर’’...गुनगुना लेते थे?’’

‘‘अऽरे सर, वो भी क्या दिन थे। अब तो न वो फूल रहा, न वो गेंदा ही। अब तो सिर्फ चोट-ही-चोट बची है, और उसके निशान...हें-हें-हें।’’

‘‘हें-हें-हें।’’

‘‘अच्छा, आप चाय तो पियेंगे न?’’

‘‘नहीं, आज सुबह से ही पांॅच चाय हो गयी है।’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है सर, आपसे इतने सालों बाद मुलाकात हुई है, और आप मेरे घर पर चाय-पानी भी नहीं लेंगे?’’

‘‘अच्छा, अगर ऐसी बात है तो तुम मुझे एक गिलास ठण्डा पानी ही पिला दो।’’

‘‘आप बैठिये, मैं आपको अपनी मांॅ के हाथों बनाया बतीशा-मिठाई खिलाऊंॅगा। खालिस देशी घी में बना।’’

‘‘ठीक है भई। जैसी तुम्हारी मर्जी। तुम्हें पता है, बतीशा मेरी प्रिय मिठाइयों में से है?’’

‘‘मेरी भी। मांॅ तो अक्सर ही मेरे लिए बनाती है। आप भी खा कर देखिये।’’ कहते सुशान्त ने फ्रिज में पहले से ही सजा कर रखी मिठाइयों की प्लेट मेरे सामने रख दी।

‘‘हांॅ वाकई! बहुत स्वादिष्ट हैं ये मिठाइयांॅ। वैसे कितने दिन हो गये तुम्हें यहांॅ रहते?’’ मिठाई खा कर पानी पीते, मैंने बात आगे बढ़ाई।

‘‘अभी पिछले अक्टूबर में ही तो आया हूँ सर। पांॅच-छः महीने तो हो ही गये होंगे।’’

‘‘जरा पंखा तेज कर दो, और खिड़कियांॅ भी खोल दो, ताकि प्रकाश आये। आज काफी गर्मी है। चैत-बैशाख में ही ये हाल है तो पता नहीं जेठ-आषाढ़ में क्या हाल होगा?’’

‘‘अब पेड़-पौधे भी तो नहीं रहे सर। शहरीकरण की आपाधापी में चहुंॅओर क्रंक्रीट के ही जंगल दिखते हैं। वाबजूद इसके, गांॅवों से शहरों की तरफ लोगों का पलायन इतनी तेजी से हो रहा है कि यहांॅ रहने के लिए दो कमरे का ढं़ग का मकान भी मिलना मुश्किल है। लोग दड़बेनुमा मकानों में रहने के लिए मजबूर हैं। लेकिन मैं इस मामले में थोड़ा भाग्यशाली हूँ। इस मकान के दरवाजे, खिड़कियों में जालियांॅ लगे होने के कारण सुबह-शाम हम दरवाजे और खिड़कियों के पल्ले खोल देते हैं। इससे अच्छी हवा तो आती ही है, और मच्छर, कीट-पतंगे आदि भी नहीं आ पाते। इस मकान में यही एक अच्छी सुविधा है।’’

‘‘हांॅ...सो तो है...।’’ मैं उन जालियों के बारे में कुछ कहते-कहते रूक गया।

‘‘मकान-मालिक ने बताया था कि उनके किसी पुराने किरायेदार ने ये जालियांॅ लगवाई हैं। वो उन पुराने किरायेदार की बड़ी तारीफ कर रहे थे। आप इस मकान में कब रहे थे सर?’’ अपनी बातों के क्रम में ही सुशान्त ने मुझसे ये प्रश्न किया।

‘‘सात-आठ महीनें पहले रहता था मैं यहांॅ।’’

‘‘अभी आप कहांॅ रह रहे हैं?’’

‘‘अब तो मैंने अपना मकान बनवा लिया है। यहीं अली नगर में।’’

‘‘ये तो बड़ी अच्छी बात है सर। मुझे तो अभी भी यकीन नहीं हो रहा कि वर्षों बाद आपसे मेरी मुलाकात इस तरह होगी। मैं आपका हमेंशा एहसानमन्द रहूँगा।’’

‘‘क्यों भइय्या? मैंने तुम पर कौन सा एहसान किया है?’’

‘‘अऽरे सर, आप भूल सकते हैं, मैं नहीं। बनारस में मुझे हाॅस्टल मिलने तक, कहीं और ठौर-ठिकाना न मिलने पर मुझे हैरान-परेशान देख, आपने अपने हाॅस्टल का कमरा मेरे साथ लगभग छः महीने तक शेयर किया था। कौन ऐसा करता है सर?’’

‘‘पर, तुम्हारे कुछ एहसान तो मेरे ऊपर भी हैं।’’

‘‘भला...मैं क्या किसी पर एहसान कर सकता हूँ सर?’’

‘‘शायद, तुम भूल रहे हो। तुम्हें याद होगा। उन्हीं दिनों मुझे परिवहन विभाग के एक इण्टरव्यू में शामिल होना था। मेरे पास ढं़ग के जूते नहीं थे। मैंने तुम्हारे ही जूते पहन कर वो इण्टरव्यू दिया था। मैं उसमें सफल भी हुआ। तुम्हारे जूते मेरे लिए बहुत लकी साबित हुए थे। ये अलग बात है कि कालान्तर में मैंने वो नौकरी छोड़ दी थी। लेकिन पहली नौकरी के रूप में उसकी याद तो दिलो-दिमाग में अभी भी रची-बसी है। और-तो-और मैंने अपनी बहन की शादी में पहनने के लिए तुम्हारा ही कोट उधार लिया था। पता नहीं तुम्हें याद है कि नहीं?’’

‘‘आप मुझे शर्मिन्दा कर रहे हैं सर। आपको पढ़ता देख कर ही तो मैं अपने कैरियर को लेकर संजीदा हुआ था, वरना तो उस वक्त मैं यूनिवर्सिटी में लाखैरा नम्बर वन ही माना जाता था। आज मैं जो कुछ भी हूँ, जहांॅ तक भी पहुंॅचा हूँ, सिर्फ आपकी ही बदौलत।’’

‘‘तुम्हें बताऊंॅ? मैं जब भी अपने बहन की शादी का एलबम देखता हूँ, तुम्हारी याद आ जाती है। उस एलबम में ग्रुपिंग के समय, अपने परिवार के सभी सदस्यों संग मैं वही कोट पहने खड़ा हूँ। तुम्हें ये जानकर आश्चर्य होगा कि ये बात, मेरे घर-परिवार के सदस्यों, यहांॅ तक कि मेरी पत्नी को भी नहीं पता।’’

‘‘क्यों शर्मिन्दा कर रहे हैं सर। पढ़ाई के दिनों में तो ये सब उधार लेना-देना चलता ही रहता है। पर आपने बताया नहीं कि आप, इधर कैसे आये थे?’’

‘‘कुछ नहीं बस्स...सिलाई-कटाई से सम्बन्धित एक ठो कैंची खरीदने के लिए इधर चैक की तरफ आया था। कैंची खरीदने के बाद सोचा, अपने पुराने मकान को भी देख लिया जाय, और उत्सुकता ये भी थी कि देखा जाय, अब इस मकान में रहने के लिए कौन आये हैं। लगे हाथ उनसे भी मुलाकात कर ली जाये। यही सोच कर इधर चला आया था।’’

‘‘बड़ा अच्छा हुआ सर। हमें दुबारा मिलना लिखा था। ये मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। आप अक्सर किसी विद्वान की वो प्रसिद्ध उक्ति कहते रहते थे न...’मनुष्य पैदा तो स्वतन्त्र हुआ है, मगर हर जगह जंजीरों में जकड़ा हुआ है।’’

‘‘ये बात तो सार्वकालिक है। सार्वभौमिक है। इससे भला किसे इन्कार होगा...? अच्छा, अपनी पत्नी सुनैना से नहीं मिलवाओगे...?’’

‘‘जी, वो छत पर कपड़े सुखाने वास्ते, उन्हें अलगनी पर फैलाने गयी है। छत पर गीले कपड़े ले जाते समय वो कपड़ों के पिन ले जाना भूल गयी थी, वही लेने नीचे आयी थी कि दरवाजे पर आपने दस्तक दे दी। दरवाजा उसी ने खोला था। मैं उस समय ‘शेव’ बना रहा था।’’

‘‘ठीक है, अब देर हो रही है। मैं चलता हूँ। किसी दिन अपनी पत्नी को लेकर घर आना।’’

‘‘जी, बिलकुल। आप अपना नम्बर बताइये मैं ‘सेभ’ कर लेता हूँ। आने से पहले फोन कर लंूॅगा।’’

‘‘हांॅ, नोट करो...नाइन फाइव...अच्छा छोड़ो, ऐसा करो तुम मुझे अपना नम्बर बताओ, मैं मिस्सड-काॅल मार देता हूँ।’’

‘‘जी, नोट करिये...एट सिक्स जीरो...।’’

‘‘ठीक है, अब मैं चलता हूँ। घर जरूर आना।’’

‘‘जी बिलकुल। नमस्ते सर।’’

‘‘नमस्ते।’’ सुशान्त से इस संक्षिप्त मुलाकात के बाद मैं घर आ गया।

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‘‘क्या हुआ? आज लौटने में इतनी देर कैसे हो गयी?’’ उस शाम घर पहुंॅचने पर पत्नी ने पूछा।

‘‘चैक की तरफ गया था। बहुत दिनों से तुम्हारी इच्छा थी न! सिलाई-कटाई वाली एक ठो बड़ी सी कैंची खरीदने की। मैंने सोचा कि क्यों न इसे बनाने वाली फैक्ट्री से ही खरीदी जाय? सस्ती रहेगी और मजबूत, टिकाऊ भी। उसके बाद चैक वाले किराये के अपने पुराने मकान की तरफ भी चला गया था।’’

‘‘अऽरे वाह! तब तो उस मकान के दरवाजे, खिड़कियों पर लगी जालियों के बारे में भी बात हुई होगी...?’’

‘‘जरा आराम से बैठने तो दो। सब बताता हूँ। एक गिलास ठण्डा पानी दे जाओ, और जरा कम चीनी, अदरक, कालीमिर्च वाली एक ठो चाय भी बना देना। तब-तक मैं हाथ-मुंॅह धो लेता हूँ।’’

‘‘ये रहा ठण्डा पानी। पर...अब तो खाना खाने का टाइम हो गया है। फिर चाय क्यंूॅ?’’

‘‘अरे भई, मन कर रहा है। अभी भूख नहीं लगी है। और हांॅ! जरा दीदी की शादी का वो एलबम तो लाना।’’

‘‘एलबम क्यों?’’

‘‘क्या सारे सवालों के जवाब अभी चाहिए? एलबम ले आओ, फिर इत्मिनान से बैठ कर बताता हूँ।’’

‘‘ये लीजिए चाय, अभी शाम को ही बनायी थी। ज्यादा बन गयी थी तो आपके लिए ढंॅ़क कर रख दिया था। गरम कर दिया है। और ये रहा एलबम। अब बताइये, नये किरायेदार से उन जालियों के बारे में आपकी क्या बातचीत हुई?’’ पत्नी ने सामने डाइनिंग-टेबल पर चाय का प्याला और एलबम रखते फरमाया।

‘‘कौन सी जालियांॅ?’’

‘‘अऽरे, क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं? आप भूल गये? हमने उस मकान के दरवाजे और खिड़कियों पर मच्छर, कीट-पतंगों से बचने वास्ते लोहे की जो जालियांॅ लगवा रखीं हैं, उनके बारे में नये किरायेदार से बात करनी थी। अगर नया किरायेदार पैसे नहीं देगा तो हम उन जालियों को किसी दिन उखड़वा लायेंगे। आपने ये भी कहा था?’’ पत्नी ने जैसे मुझे याद दिलाने की पुरजोर कोशिश की। जबकि मुझे वो जालियांॅ, अच्छी तरह याद थीं।

‘‘पर, वो जालियांॅ अब हमारे किस काम आयेंगी?’’ मैंने तनिक अन्यमनस्कता सी जताई।

‘‘काम तो नहीं आयेंगी। कबाड़ में ही बिकेंगी। लेकिन हम अपनी चीज छोड़ें क्यों? अवनीन्द्र बाबू भी तो उनके पैसे देने को तैयार नहीं।’’

‘‘हांॅ...मैं तुम्हें बताना चाह रहा था। ये जो दीदी की शादी में मैंने कोट पहन रखा है न! ये मेरा नहीं है।’’ मैंने एलबम, जो जगह-जगह से फट गया था, के पन्नों को संभालते, उलटते, एक फोटो पर उंॅगली रखी।

‘‘किसका है?’’

‘‘तुम्हें जानकर शायद आश्चर्य हो। ये कोट उसी आदमी का है, जो आज अवनीन्द्र बाबू के उस चैक वाले मकान में किरायेदार है।’’ चाय पीने के बाद एलबम खोलते, मैंने दीदी की शादी के समय खिंचवाये गये अपने परिवार संग उस तस्वीर में कोट पहने खुद को दिखाते हुए कहा।

‘‘अच्छा...!’’

‘‘एक बार तो इण्टरव्यू देने के लिए मैंने उससे जूते भी उधार लिये थे।’’

‘‘आप उसे कैसे जानते हैं? क्या नाम है उसका?’’

‘‘सुशान्त। यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दिनों में वो हाॅस्टल में मेरा रूम-पाॅर्टनर था। वो मेरे लिए बहुत लकी था। उसके, मुझ पर काफी एहसान हैं। आज वो यहीं यूनिवर्सिटी में लेक्चरर है। उससे यूनिवर्सिटी के दिनों के बारे में ढ़ेर सारी बातें हुईं। किसी दिन पत्नी सहित घर आयेगा तो तुम खुद मिल लेना। देखना, कितना अच्छा लड़का है।’’

‘‘यानि, उन लोहे की जालियों को अब हम भूल जायें?’’

‘‘वहांॅ बैठे-बैठे, थोड़ी देर के लिए बिजली चली गयी, तो सुशान्त ने दरवाजे, खिड़कियांे के पल्ले खोल दिये। जिससे जरा भी सफ्फोकेशन महसूस नहीं हुआ। बढ़िया हवा आने लगी। दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों पर जाली होने के कारण मच्छर, कीट-पतंगे भी नहीं आ रहे थे। वो तो खुले हृदय से जालियांॅ लगवाने वाले किरायेदार को धन्यवाद दे रहा था। उस बेचारे को तो ये तक नहीं पता है कि उस मकान के दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों पर लोहे की जालियांॅ हमने लगवाई हैं।’’

‘‘चलिए, ये भी ठीक है। छोड़िये, जाने दीजिए। मैं आपकी मजबूरी समझ सकती हूँ। ’मनुष्य पैदा तो स्वतन्त्र हुआ है, मगर हर जगह जंजीरों में जकड़ा हुआ है।’ आप तो अक्सर ही ये उक्ति दुहराते रहते हैं। जाहिर है, वो लोहे की जालियांॅ, इन्सानी रिश्तों की जंजीर से कमजोर साबित हुईं। फिर...जीवन में किसका एहसान हमें किस रूप में चुकाना पड़ जाय, कौन जानता है?’’

‘‘हांॅ...हवा-प्रकाश के रूप में?’’

‘‘बेशक्...कोट और जूतों के रूप में?’’

‘‘जाहिर है...लोहे की जालियों के रूप में भी...?’’

उस रात हम पति-पत्नी के बीच, सुशान्त और उसकी पत्नी के बारे में यूनिवर्सिटी के दिनों की ढ़ेरों स्मृतियों को लेकर ये बहस-विमर्श, रात कितनी देर तक चलता रहा, आज की तारीख में बिलकुल भी याद नहीं।

(राम नगीना मौर्य)

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