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सॉफ्ट-कोर्नर

सॉफ्ट-कोर्नर

‘‘इधर बीच मेरे कमरे में कोई आया था क्या?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘दो दिनों के लिए मैं टूर पर बाहर क्या गया, तुम लोगों ने मेरी आलमारी, उसमें रखी चीजों, किताबों आदि को ही उथल-पुथल कर दिया? कौन आया था मेरे कमरे में, कोई कुछ बोलता क्यों नहीं? ऐ घन्नू! इधर आओ, क्या तुम आये थे मेरे कमरे में?’’

‘‘घन्नू को तो जबसे आपने पिछले महीने अपना बाॅथरूम इस्तेमाल करने के लिए डांॅटा है, तब से वो आपके कमरे से अटैच बाॅथरूम में पेशाब करने भी नहीं जाता। बेचारा! आपकी अलामत-मलामत के डर से तो वो अब आपके कमरे की तरफ झांॅकता भी नहीं।’’

‘‘अब क्या मेरे पास यही काम रह गया है कि कहीं से आऊंॅ, लिखने-पढ़ने की सोचंूॅ, तो सबसे पहले अपना कमरा, अपनी आलमारी, मेज, किताबें वगैरह ठीक करता, सरियाता फिरूंॅ? तब पढ़ने-लिखने बैठंूॅ?’’

‘‘आप, दिन-भर दफ्तर में काम-काज के बाद, थकते नहीं क्या, जो घर आते ही लिखने-पढ़ने की सनक सवार हो जाती है?’’

‘‘मेरा ध्यान डाॅयवर्ट मत करो, मैं जो पूछ रहा हूँ, उसे बताओ। मेरे एबसेन्स में मेरे कमरे में कौन आया था?’’

‘‘आफत का परकाला मत बनिये। और कौन जा सकता है आपके कमरे में? मैं ही गयी थी। कल महरिन के साथ, आपके कमरे की साफ-सफाई करवा रही थी। आपकी किताबों-डाॅयरियों से तो कमरे में चलने की जगह ही नहीं बची है। कोई झाड़ू-पोछा लगाए भी तो कैसे? पूरी आलमारी, कबाड़ों से भर रखी है आपने। ये अखबारों की कतरनें, पुरानी मैगजीन्स क्यों रखे हुए हैं, इन्हें किसी कबाड़ी वाले को क्यों नहीं बेच देते? दसियों साल पुरानी इन मैंगजीन्स को जमा करके क्या करेंगे? अरे पढ़िये-लिखिए, कोई मनाही नहीं है। लेकिन इनमें से गाहे-बगाहे कुछ छांॅटते-बेचते भी रहिए। ये क्या कि कमरे की सभी आलमारियांॅ ऊपर से नीचे तलक, पत्र-पत्रिकाओं से ठसा-ठस भर लिया है। इनमें से कुछ किताबें, मैगजीन्स को तो आपने हाथ भी नहीं लगाया है। बस्स, पुस्तक मेले से खरीदी, और लाकर सजा दिया, अपनी आलमारियों में।’’

‘‘अऽरे, तुम्हें क्या पता कि लिखने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है? लिखना खिलवाड़ है क्या? अपने लिखे हुए एक-एक पन्ने को दसियों बार पढ़ते, जरूरत होने पर काटते- फाड़ते दुरूस्त भी करना पड़ जाता है। पचीसों लेखकों की पचासों किताबें, साथ ही समय≤ पर नियमित पत्र- पत्रिकाएं भी खरीदनी, पढ़नी पड़ती हैं। दसियों जगह की सैर करनी पड़ सकती है। रिफरेन्सेज आदि ढ़ंूॅढ़ने के लिए जाने कितने ही लोगों से कितनी ही बार मिलना पड़ जाता है। और-तो-और, उनसे मतलब की बात उगलवाने के लिए बहत्तरों तरह की लन्तरानियांॅ भी बतियानी पड़ती हैं। हर कविता-कहानी-उपन्यास की अपनी पृष्ठभूमि- कथाभूमि- भावभूमि होती है। पता नहीं कब, कौन सा धड़ाम- धकेल आइडिया, दिमाग में क्लिक कर जाये? ये कोई दाल-भात का कौर नहीं कि थाली सामने आयी और गप्प से लील लिया।’’

‘‘दाल-भात बनाना भी कोई खिलवाड़ नहीं है। आप तो ढं़ग की खिचड़ी भी नहीं बना पाते। सिवाय चाय-काॅफी बनाने के, आपको आता ही क्या है?’’

‘‘अच्छा, अब ज्यादा लेक्चर मत झाड़ो। ये बताओ कि तुम्हें मेरी आॅलमारी को उथल-पुथल करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी?’’

‘‘महीनों से आपकी किताबें, जमीन पर ही पड़ी थीं। टेबल पर कुछ पत्र-पत्रिकाएं भी अस्त-व्यस्त सी बिखरी पड़ी थीं। तीन दिन बाद महरिन आयी थी, तो सोचा आपके कमरे में भी साफ- सफाई करवा दंूॅ, सो झाड़ू-पोछा करवाने चली गयी। फर्श और टेबल पर अस्त-व्यस्त, बिखरी आपकी किताबों, पत्रिकाओं को आॅलमारी में लगाने वास्ते जब आॅलमारी खोला, तो क्या देखती हूँ कि उसमें तो तिल रखने की भी जगह नहीं है। किताबें, डाॅयरियांॅ, पत्र- पत्रिकाओं- अखबारों की कतरनें आदि बेतरह-बेतरतीबी से आलमारी में ठुंॅसी पड़ी थीं। मैंने उन्हें बाहर निकाला, एक-एक को करीने से लगा दिया। आॅलमारी में जगह-ही-जगह बन गयी।’’

‘‘और मेरी जो किताबें नीचे फर्श पर पड़ी थीं, उनका क्या किया?’’

‘‘काऽहे एतनाऽ अलफ हो रहे हैं? उन्हें भी आलमारी के निचले खानों में लगा दिया है, जाकर देख लीजिए।’’

‘‘कितनी बार कहा है कि मेरी चीजें मत छुआ करो। इधर-उधर हो जाने से मुझे असुविधा होती है। चीजों को ढंूॅढ़ने-खोजने में समय की बरबादी अलग से होती है। मुझे पता रहता है कि मेरी चीजें, किताबें, कापियांॅ कहांॅ रखी हैं, ऐसे में नाहक खोजबीन में मेरा बहुमूल्य समय बर्बाद होता है। प्लीज मेरे सामान वगैरह जहांॅ हैं, वहीं रहने दिया करो।’’

‘‘तो क्या घर में झाड़ू-पोछा भी न करवाऊंॅ? आपसे कितनी बार कहा कि अपनी इन पुरानी किताबें-मैगजीन्स आदि को ठिकाने लगा दीजिए, लेकिन आपके कानों पर जंू रेंगते ही नहीं। इन्हें कबाड़ी के हाथों बेचने के नाम पर अगिया-बैताल हो, अलबी-तलबी छांॅटने लगते हैं। ’’

‘‘मेरे कमरे को छोड़ कर भी तो, साफ-सफाई का ये काम हो सकता है?’’

‘‘अऽरे वाह! महरिन से हफ्ते में दो दिन, सभी कमरों में झाड़ू-पोछा लगवाने की बात तय हुई है। फिर, झाड़ू़-पोछा करवाऊंॅ या नहीं, पैसे तो वो पूरे ही लेगी न?’’

‘‘ठीक है। मुझे तुम्हारे झाड़ू-पोछे से एतराज नहीं है। बस्स, जब मैं घर में रहा करूंॅ, तभी मेरे कमरे में साफ-सफाई करवाया करो। अब ये क्या सुबह-सुबह छुट्टी के दिन झाड़ू लेकर बैठ गयी, देखो तो कितना धूल उड़ रहा है? दो घड़ी चैन से बैठना चाहूँ, तो वो भी सम्भव नहीं।’’

‘‘कल रात, तेज अंधड़ में आपके कमरे की खिड़की खुली रह गयी थी। दो दिन की सारी साफ-सफाई बेकार हो गयी। आप जरा ये अखबार लेकर बाहर धूप में बैठिये, तब-तक मैं इस कमरे में झाड़ू लगा देती हूँ।’’

‘‘अऽरे ये देखो, अखबार में क्या छपा है? ‘ज्यादा साफ-सफाई से मनुष्य, एलर्जी के प्रति संवेदनशील हो जाता है, जो कहीं-न-कहीं उसके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।’ और जो तुम मुझे ज्यादा चाय पीने के लिए रोकती-टोकती हो न! देखो क्या छपा है...? ‘चाय पीने से तन-मन में नई ऊर्जा और ताजगी का संचार होता है।’

‘‘ठीक है, तब आप अपने आप ही अपने कमरे की साफ-सफाई कर लीजिए, मैं भी बाहर धूप में बैठने जा रही हूँ। तीन दिन बाद सुनहली धूप खिली है। धूप सेंकने का मन करे तो कुर्सी लेकर आप भी बाहर आ जाइयेगा। और हांॅ, फ्रिज में एक कटोरे में धुल कर अंगूर रखा है, वो भी लेते आइयेगा। बड़े आये पढ़वइय्या- लिखवइय्या की दुम, कहीं के?’’

‘‘चलो, आज मैं भी तुम्हारे साथ थोड़ी देर धूप सेंक लेता हूँ।’’

‘‘फिर, बाहर आ जाइये। मैं कुर्सी लेकर चल रही हूँ।’’

‘‘वैसे आज, धूप तो बहुत अच्छी निकली है।’’

‘‘कल-परसों जब आप टूर पर गये थे, तब धूप नहीं निकली थी। आज आप घर पर हैं, तो धूप भी बहुत अच्छी खिली है। वैसे भी, जाड़ों में धूप में बैठना, सेहत के लिए बहुत अच्छा होता है।’’

‘‘इससे दिल और दिमाग, दोनों दुरूस्त रहते हैं।’’

‘‘तब तो आपके लिए ये धूप ज्यादा उपयोगी है...हें-हें-हें।’’

‘‘हें-हें-हें...ये अंगूर तो बहुत मीठे हैं, कहांॅ से खरीदा इन्हें?’’

‘‘पता नहीं, आप कहांॅ से अंगूर खरीदते हैं, मीठे निकलते ही नहीं। आपको मीठे अंगूरों की एकदम पहचान नहीं है। आज सुबह ही ठेले पर एक आदमी अंगूर बेचते हुए इधर से निकला था, उसी से पाव-भर खरीदा है।’’

‘‘वाकई भई! तुम्हारी पसन्द तो लाजवाब है। काफी मीठे अंगूर हैं। मजा आ गया। आधा किलो खरीद लेना चाहिए था।’’

‘‘कल कबाड़ी वाले को कुछ रद्दी पेपर्स आदि बेचा था, उन्हीं पैसों से खरीदा है।’’

‘‘अऽरे! मेरे किसी कागज-पत्तर को रद्दी समझ कर बेच तो नहीं दिया न?’’

‘‘किसकी शामत आयी है?’’

‘‘समय मिलता नहीं, काम बहुत ज्यादा है। मैं तो खुद चाहता हूँ कि किसी दिन अपनी पुरानी किताबें, मैंगजीन्स, डाॅयरियों को छांॅट कर अलग कर दंूॅ, लेकिन मौका ही नहीं मिल रहा। बड़ी दिक्कत है।’’

‘‘ए जी, एक बात कहूँ?’’

‘‘हांॅ, कहो।’’

‘‘कल दोपहर में मैं आपकी एक पुरानी डाॅयरी पढ़ रही थी। उसमें आपने अपने स्कूली दिनों की किसी लड़़की का जिक्र करते, बल्कि उसी को लक्ष्य करते, दो-तीन कहानियांॅ लिखने की बात कही है। हालांकि एक कहानी में आपने ये बात स्वीकारी भी है कि वो आपकी एक-तरफा मुहब्बत थी। लेकिन जो भी हो, डाॅयरी पढ़ने से तो ऐसा लगा कि आप उसको बहुत चाहते थे। क्या अभी भी उसके लिए आपके मन में जगह है?’’

‘‘अऽरे भई! तुम भी कहांॅ की, कब की, किसकी बातें लेकर बैठ गयीं? वो तो तीसेक साल पुरानी बातें हैं। अब तो वो दो-चार बच्चों की अम्मा भी हो गयी होगी। हांॅ...चाहता तो था...पर वो काॅलेज के दिनों की बातें हैं। फिर ऐसा दौर तो लगभग हर व्यक्ति के जीवन में आता होगा। मेरी समझ से ऐसा लगाव शायद...उम्र के तकाजेवश होता हो? फिर आदमी कब घर-परिवार, दाल-रोटी, जीवन की आपाधापी के चक्कर में पड़ जाता है? इश्क-विश्क का भूत कब उतर जाता है? पता ही नहीं चलता।’’

‘‘फिर भी, ऐसी पुरसुकून बातें, पुराने दिनों की यादें ताजा हो जाना, अच्छा तो लगता ही है। देखिये न! जिक्र छिड़ते ही, आपका चेहरा भी खिल उठा। चेहरे की रंगत ही बदल गयी। मधुरे-मधुरे मुस्कियाने लगे। चेहरे पर एकदम से हरियाली छा गयी।’’

‘‘बेशक, स्कूल-काॅलेज के दोस्त, उन संग बिताये खट्टे-मीठे पल, अलल-बछेड़ों से दिन भी भला कभी भूलते हैं? अतीत की वो यादें, वो अनुभव तो गंूॅगे के गुड़ के मानिन्द अवर्णनीय हैं। ऐसी बातें किसे अच्छी नहीं लगेंगी? पर अब तो ये सब बीते दिनों की बातें हैं।’’

‘‘आज भी वो लड़की अगर, राह चलते आपको कहीं अचानक बाजार, दफ्तर, ट्रेन या बस में दिख जाये, तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या होगी?’’

‘‘ऐसा खयाल, पहले कभी जेहन में नहीं आया। फिर, अब इस उम्र में ऐसा सोचना ही बकवास लगता है। लोग क्या कहेंगे, और फायदा भी क्या? वो जहांॅ रहे खुश्श रहे, यही दुआ है। मैं तो वैसे भी इस बात का पक्षधर हूँ कि इन्सान स्नेह चाहे किसी से करे, अन्ततः...प्यार तो पत्नी से ही करेगा न?’’

‘‘इसमें भला क्या शक है! लेकिन, आप तो एकदम्मैऽ इमोशनल हो रहे हैं? भई! गजब का त्याग, प्यार और झुकाव है, उसके प्रति। होंठो से अभी भी उसकी खुशी के लिए स्नेहासिक्त सी...दुआ ही निकल रही है। वैसे इसमें फायदे-नुकसान या लोगों के परवाह जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। आज किसके पास टाइम है, फटे में टांॅग अड़ाने की? बहरहाल...गौरतलब बात तो ये है कि आपके दिल के किसी कोने में अभी भी उसके लिए ‘साॅफ्ट-काॅर्नर’ मौजूद है?’’

‘‘ठीक से कुछ कह नहीं सकता। पर...तुम्हें आज इतने वर्षों बाद क्या सूझी, जो ऐसी दिलफरेब बातें कर रही हो? तुम्हारा मगज तो ठीक है न?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मेरा मगज एकदम दुरूस्त है। लेकिन आपके चेहरे पर बारहा आ रही नीलिमा- लालिमा- हरीतिमा आदि बता रही है कि आपको इन बातों में मजा आ रहा है।’’

‘‘विषय ही ऐसा छेड़ दिया तुमने। फिर ऐसी बातों में किसे मजा नहीं आयेगा? खैर, ये सब छोड़ो, मेरी जिन्दगी तो खुली किताब के मानिन्द है। अपने और अपनी बीती जिन्दगी के बारे में ढ़ेरों किस्से-कहानियों के माध्यम से तो मैं कुछ-न-कुछ अपनी डाॅयरी में लिखता- जोड़ता- घटाता, तुम्हें बताता ही रहता हूँ, जिन्हें गाहे-बगाहे तुमने पढ़ा-सुना भी है। पर देखा जाय तो आज तुमने मेरा अच्छा-खासा इण्टरव्यू ले लिया। अब ये बताओ कि स्कूल-काॅलेज के दिनों में तुम्हारा किसी से कोई चक्कर-वक्कर था कि नहीं? या झुट्ठैं, खाली-मूली मेरा इण्टरव्यू लिये जा रही हो?’’

‘‘अऽरे भाई, मेरा किसी से कोई चक्कर-वक्कर नहीं था। मैं तो बिलकुल सीधी-सादी लड़की थी। मम्मी की कड़ी नजर, मुझ पर हमेंशा ही बनी रहती थी। सुबह बस्स, काॅलेज जाना। काॅलेज छूटते ही सीधे घर आना। बाजार जाना होता तो भी मम्मी साथ ही जातीं।’’

‘‘क्या कोई सहेली-वहेली नहीं थी? उसके घर भी तो कभी-कभार आना-जाना होता होगा? कभी कुछ खेलने, एक्स्ट्रा-क्लाॅस, या नोट्स वगैरह मांॅगने, सिलाई-कढ़ाई, क्रोशिया आदि सीखने-बुनने, किसी सहेली के घर जाना तो होता ही होगा?’’

‘‘लड़कियों के बारे में, काफी सूक्ष्मतम, गहनतम के साथ अधुनातन जानकारी भी रखते हैं आप...? सहेलियांॅ थी क्यों नहीं! एक तो बिलकुल पड़ोस में ही रहती थी। उसके यहांॅ जाना क्या होता, वो तो अक्सर ही मेरे घर आ जाती। खाली समय में हम-लोग, लूडो, सांॅप- सीढ़ी या ओक्का- बोक्का खेलते, या वी.सी.आर. पर कोई पिक्चर देखते। इनके अलावा और कोई खेल जानते ही नहीं थे हम-सब। बाकी समय भाई-बहनों के साथ खेलते-पढ़ते ही बीत जाता।’’

‘‘मेरा आशय नैन-मटक्का वाले खेल से था। किसी से प्यार हुआ था? किसी को चाहती थी? खैर...छोड़ो, ये बताओ, शादी से पहले तुम्हें कितने लड़कों ने देखा था? ये तो तुम भी जानती हो कि मैंने सिर्फ तुम्हें ही देखा था, और शादी भी तुम्हीं से हो गयी।’’

‘‘आपने सिर्फ मुझे ही देखा, या आपको दूसरी लड़की देखने का अवसर ही नहीं मिला?’’

‘‘यही समझ लो। तुम्हें देखने के बाद भला, किसी और के बारे में सोचा भी कैसे जा सकता था?’’

‘‘ऐसी बात तो नहीं है। मुझमें ऐसा क्या है, जो औरों में नहीं था। मैं भी तो बाकियों जैसी ही थी। लेकिन मैंने तो सुना था कि आपको देखने, ज्यादा वरदेखुआ आये ही नही, ंतो अम्मा ने ही एक दिन कहा कि...‘बेटा यहीं शादी कर लो, नहीं तो कहीं...वही वाली कहावत चरितार्थ न हो जाये...‘आधी छोड़ पूरी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे।’’

‘‘तुम्हें, ये सब बातें किसने बताई?’’

‘‘अम्मा ने, और कौन बतायेगा?’’

‘‘तब तो ठीक ही बताया होगा। टाइम-टाइम की बात है।’’

‘‘अच्छा छोड़िये, ये बताइये, जिस दिन आप मुझे पहली बार देख कर गये थे, उस शाम आप मेरे बारे में क्या सोच रहे थे? मुझसे शादी करने के प्रति कोई धारणा तो बनाई ही होगी?’’

‘‘सच बताऊंॅ तो...उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाया था। नजरें झुकाए, बीच-बीच में मुस्कियाते, तनिक शरमाते, मुझसे बतियाते, तुम्हारा मासूम चेहरा बार-बार मेरी आंॅखों के आगे आ-जा रहा था। रात-भर तुम्हारे ही बारे में सोचता रहा। उस रात नींद तो कोसों दूर थी। पर तुम बताओ, मुझे लेकर तुम्हारे दिमाग में क्या-क्या चल रहा था?’’

‘‘इतना तो था ही कि आपको देखने, आपसे बतियाने के बाद पहली बार किसी की छवि मेरे भी मन-मस्तिष्क में गहरे उतर गयी थी। मुझे तो आज भी याद है, जब आप मेरे सामने सोफे पर बैठे, सिर झुकाए, एक हाथ अपनी ठुड्ढ़ी पर तो एक हाथ सोफे पर टिकाए हुए थे। आपने कलाई पर गोल्डेन कलर की चैकोर फे्रम की, लेदर पटटे वाली घड़ी पहन रखी थी। हांॅ, आपने उस समय क्या-क्या पूछा था, आज की तारीख में तो कुछ भी याद भी नहीं। आपके बतियाने का अंदाज मुझे बहुत पसन्द आया था।’’

‘‘हांॅ, एक बात तो बताना मैं भूल ही गया। मुझे तुम्हारी आगे की तरफ लटकती दोनों चोटियांॅ बहुत भायीं थीं।’’

‘‘हांॅ, तब मेरे बाल बहुत बड़े-बड़े, काले, घनेरे से थे। अब तो ये सब बीते दिनों की बातें हैं। पर एक बात है, जब आप मुझे देख कर गये थे, और मैं पसन्द थी, तब भी आपके घर वाले अपनी मंशा जाहिर करने में एक महीना से ज्यादा समय लगा दिये थे।’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी। घर वाले तो तैयार थे। मैं ही अपने कैरियर को लेकर बहुत चिन्तित था। मुझे ऐसा लग रहा था कि शादी के बाद कहीं मेरी पढ़ाई-लिखाई न प्रभावित हो जाय। इसी उहापोह में मैं किसी निर्णय पर नहीं पहुंॅच पा रहा था। देखा जाय तो, रूप-लावण्य-माधुर्य में तुम्हारा सानी, न तब कोई था, न अब कोई है। अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊंॅ, बताऊंॅ भी तो क्या? बस्स ये समझ लो, तुम मेरे लिए बेहद खास रही, और भाग्यशाली भी। हांॅ...मगर तुमने नहीं बताया कि मुझसे पहले तुम्हें और किस-किस ने देखा? उनसे क्या-क्या बातें हुईं, कुछ इस बारे में भी बताओ?’’

‘‘अब, जब आप इतना जोर दे ही रहे हैं तो बताये देती हूँ। आप से पहले मुझे देखने, तीन लड़के आये थे। एक तो...जब मैं इण्टर में थी, तब देखने आया था। मेरे घर में उस समय कोई शादी-वादी के लिए तैयार नहीं था, लेकिन पापा को जानने वाले एक अंकल जी थे। वे पापा से भी ज्यादा मेरी शादी के लिए परेशान रहते थे। वही ढंूॅढ़ कर लाये थे। पर कुछ बात बनी नहीं। और दो लड़के तब आये थे, जब मैं ग्रैजुएशन में थी। पर, जब वो मुझे देखने आये थे तो...उनके साथ क्या-क्या बातें हुईं थीं, अब कुछ ठीक से याद नहीं। काफी पुरानी बातें हैं। मैं भी नादान ही थी, और वो लड़के भी बेवकूफों की तरह ही बतियाते लग रहे थे।’’

‘‘उनकी कुछ बातें तो...याद ही होंगी?’’

‘‘हांॅ...थोड़ा-थोड़ा याद है। पहले ने मेरा नाम पूछा था। फिर, किस कक्षा में पढ़ती हैं? क्या-क्या विषय ले रखा है? और आगे, जिस विद्यालय में पढ़ती थी, उसका नाम भी पूछा था।’’

‘‘और कुछ नहीं पूछा था? जैसे कोई हाॅबी-वाबी...?’’

‘‘वैसे इस बारे में ठीक-ठीक कुछ याद नहीं। वैसे आपको काफी मजा आ रहा है न?’’

‘‘प्रसंग ही इतना मजेदार है। अच्छा, दूसरे के बारे में ही कुछ बताओ?’’

‘‘दूसरा लड़का तो अपने दोस्त के साथ मुझे देखने आया था। मुझे याद है, मेल-मिलाप, चाय-पानी के बाद जब हम-लोगों का परिवार मेहमानखाने में बैठा था, तो मैंने गौर दिया कि उस लड़के का दोस्त बीच-बीच में अपनी जेब से कण्घी निकालकर, पूरे समय अपने बाल ही ठीक करता रहा। उसकी इस हरकत पर मुझे बार-बार हंॅसी छूट जाती। जिसके लिए मम्मी भी मुझे बीच-बीच में घूर लेतीं।’’

‘‘अच्छा ये बताओ, दूसरा वाला दिखने में कैसा था? किसी गाड़ी में आया था, या रिक्शा, टैम्पों में? उसके साथ, उसके घर-परिवार के और कौन-कौन थे?’’

‘‘बताती हूँ। बताती हंॅू। काहे पोंछियाझार...बगछुट से हो रहे हैं? वो बांका सजीला नौजवान था। मौंके अनुसार सुरूचिपूर्ण कपड़े भी पहन रखा था। वो लोग एक कार में आये थे। लड़के के साथ उसके मांॅ-बाप, और बुआजी भी थीं। हम भाई-बहनों ने सबसे पहले, कार से उतरते उस लड़के को खिड़की से ही देख लिया था।’’

‘‘अच्छा! और कुछ बताओ उसके बारे में। कुछ बातें-वातंे भी तो की होगी उसने?’’

‘‘बड़ा मजा आ रहा है न? तो सुनिये। उस लड़के ने चाय पिया, फिर पूछा क्या मैं आपको पसन्द हूँ?’’

‘‘आप’ लगा कर बात किया था?’’

‘‘अउर नहीं तऽ काऽ? रेलवे में अच्छी-खासी नौकरी थी उसकी।’’

‘‘कद-काठी में कैसा था?’’

‘‘सो-सो’, बहुत बुरा भी नहीं था। लम्बाई, कुछ-कुछ आपके जैसे ही थी। मुझे देख कर वापस घर जाने के बाद, उसने मुझे एक ठो चिट्ठी भी लिखी थी।’’

‘‘कहीं एक मासूम सी नाजुक सी लड़की, बहुत खूबसूरत मगर सांॅवली सी...’ कुछ इसी टाइप की, फिल्मी अन्दाज में चिट्ठी लिखी होगी उसने?’’

‘‘जी नहीं, कोई फिल्मी-विल्मी अंदाज में नहीं लिखा था। लेकिन...अभी कुछ भी याद नहीं आ रहा कि उसने चिट्ठी में क्या लिखा था?’’

‘‘कितनी बड़ी चिट्ठी थी? एक पेज की, दो पेज की, या और बड़ी, तीन-चार पेज की?’’

‘‘अऽरे, पेज-वेज कुछ नहीं था। किसी डायरी-वाॅयरी का पन्ना फाड़ कर लिखा था।’’

‘‘चिट्ठी किसके नाम लिखी थी उसने?’’

‘‘जाहिर है, मेरे नाम।’’

‘‘जानेमन...सपनों की रानी...मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता...कब होगा हमारा मिलन...चलो भाग चलें’...कुछ ऐसा ही लिखा था न?’’

‘‘बता रही हूँ न! जरा याद करने दीजिए। अब ठीक-ठीक कुछ याद नहीं आ रहा...। हांॅ...लेकिन ऐसी ऊल-जलूल बातें...नहीं लिखा था।’’

‘‘वो चिट्ठी कहांॅ है?’’

‘‘अऽरे, आप तो उस चिट्ठी को लेकर एकदम्म् से सीरियस हो गये? कुछ-कुछ नर्भसाऽये से भी दिख रहे हैं। उस चिट्ठी को तो घर में सभी छोटे-बड़ों ने भी पढ़ा था। फिर, उसे तो मैंने उसी दम फाड़-फूड़ भी दिया था। लेकिन, आपने ये ऊल-जलूल की भाषा कहांॅ से सीखी? इतना सब-कुछ आपको कैसे पता है?’’

‘‘एक्चुवली, हमारे खानदान में सभी छोटे-बड़ों को, बिना मांगे ही परामर्श आदि देने की पुरानी आदत है। जाहिर है, उसी समृद्ध परम्परा का वाहक होने के नाते, कुछ असर मुझ पर भी होना लाजिमी था। यार-दोस्त, जब कभी भी पढ़ाई-लिखाई से दीगर मामलात? लेकर हमारे सम्मुख हाजिर होते, तो ऐसे दुर्लभ मौंकों पर, आदतन-फितरतन या समझ लो इरादतन...,सम्बन्धित पक्ष को हम कुछ ऐसी ही चिट्ठियांॅ लिखने का सुझाव दे डालते। प्रकारान्तर से शनैः-शनैः...जानकारी में भी इजाफा होता चला गया।’’

‘‘जिससे, कालान्तर में आप, लिखने-पढ़ने-गढ़ने भी लगे?’’

‘‘जाहिर है। अच्छा, ये बताओ जब मैं तुम्हें देखने गया था तो एक सांवले रंग के सज्जन, जिन्हें तुम लोग बार-बार चाचा जी- चाचा जी, कह कर सम्बोधित कर रहे थे, मेरे बगल ही बैठे थे। किसी बात पर मुझसे कहा था कि उन्होंने तो इण्टर में ही रेस्निक हेलीडे, यूरोडोव, फिनार, लूनी की किताबें रिवाइज कर लीं थीं, आजकल वो कहांॅ हैं?’’

‘‘वो शुक्ला जी थे। उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा था। वो अपने जमाने के एम.एस.सी. टाॅपर रहे हैं। बड़ी मुश्किलों से उन्होंने अपने बलबूते ही छः बहनों की शादियांॅ की। उनके दो लड़के हैं। एक इन्जीनियर, तो दूसरा डाक्टर है।’’

‘‘अऽरे भई मैं तो ये बातें उनकी तारीफ में ही कह रहा था।’’

‘‘तारीफ में! अपनी उम्र से आधा से ज्यादा का समय तो मैंने आपके साथ गुजार दी है। क्या मैं आपकी ‘बाॅडी-लैंग्वेज’ नहीं समझती? मैं तो आपकी रग-रग से भली-भांॅति वाकिफ हूँ। बड़े आये खींसे काढ़ते, निपोरा बतियाने वाले।’’

‘‘खैर...छोड़ो। ये बताओ, वो चिट्ठी लिखने वाला लड़का अगर आज भी तुम्हें कहीं भूले-भटके मिल जाये, तो तुम्हारा क्या रेस्पाॅन्स होगा?’’

‘‘किसके प्रति?’’

‘‘जाहिर है, उस लड़के के प्रति।’’

‘‘मुझे तो अब ठीक से उसका चेहरा भी याद नहीं। उस लड़के से लगभग पन्द्रह-बीस मिनट की मुलाकात में एक-दो बार ही निगाह मिली होगी। ऐसे में भला मुझे कहांॅ उसकी सूरत याद होगी?’’

‘‘अच्छा ये बताओ, अगर ईमानदारी से पूछंूॅ। शादी से पहले तुम्हें देखने जितने भी लड़के आये थे, उनमें कोई तो ऐसा होगा, जो तुम्हें बेहद पसन्द होगा? क्या उनमें मैं भी कहीं था?’’

‘‘अगर ईमानदारी की बात कहूँ, तो उस समय पसन्दगी-नापसन्दगी जैसी कोई बात, मेरे जेहन में थी ही नहीं।’’

‘‘और, मुझसे मुलाकात के बाद?’’

‘‘तब तक तो मैं काफी समझदार हो गयी थी। अपना अच्छा-बुरा सोचने-समझने की क्षमता भी मुझमें आ गयी थी।’’

‘‘ये बातें तुम मुझे खुश्श् करने वास्ते कह रही हो न?’’

‘‘जाहिर है, चिढ़ाने के लिए तो नहीं ही कह रही होऊंॅगी? सीरियसली कह रही होऊंॅगी? फिर मजाक तो आपको वैसे भी पसन्द नहीं है?’’

‘‘तुम्हें पता है! शादी है ही विपरीत धु्रवों का मिलन। ‘एक आदमी, जो खिड़कियांॅ खोल कर सोने का आदी हो, एक औरत, जो खिड़कियांॅ बन्द करके सोने की आदी हो, शादी के बाद उन्हें एक ही छत के नीचे सोना पड़ता है।’’

‘‘हांॅ, मालूम है। ‘जाॅर्ज बर्नाड शाॅ’ के विचार हैं ये।’’

‘‘जाॅर्ज बर्नाड शाॅ’ से अच्छा याद आया, अभी हाल ही में पढ़ा है। उन्होंने ‘द मैन एण्ड द सुपरमैन’ में लिखा है...‘नारियांॅ हमें खतरे में देख कर कांॅपने लग जाती हैं। हमारे मर जाने पर रोती हैं, लेकिन वे आंॅसू वस्तुतः हमारे लिए नहीं होते। परिवार के मुखिया के रूप में हमारे मर जाने से वे अपने और आश्रितों की रोटी छिन जाने की वजह से रोती हैं।’ इस कथन से तुम कहांॅ तक सहमत हो?’’

‘‘क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि बात की दिशा किसी और तरफ जा रही है?’’

‘‘चलो, खैर...छोड़ो।’’

‘‘नहीं, कुछ और भी जानकारी यदि ‘साॅफ्ट-काॅर्नर’ के बारे में चाहिए, तो लगे हाथ वो भी पूछ लीजिए?’’

‘‘अऽरे भई, नाराज क्यंूॅ होती हो, मैंने तो बस्स, तुम्हारी बात पर...यूंॅ ही बात छेड़ दी थी।’’

‘‘पर इतना तो पक्का है। मेरे अन्दर उन लड़कों के प्रति, कोई ‘साॅफ्ट-काॅर्नर’ न तब था, न अब है।’’

‘‘बेचारे लड़के! तुम भी न, बड़ी जालिम हो।’’

‘‘लेकिन, उनके मन में मेरे लिए ‘साॅफ्ट-काॅर्नर’ होगा या नहीं, कह नहीं सकती?’’

‘‘अब तुम अपने मन में ये जालिमाना खयाल लाकर, मुझ पर तो जुल्म न करो?’’

‘‘उन लड़कों के बारे में जानने की इच्छा तो आपने ही व्यक्त की थी। फिर, अब क्यंूॅ जलन होने लगी?’’

‘‘मुझे क्यंूॅ जलन होने लगी? फिर, तुम्हें भी तो अब पति-बच्चों-परिवार संग व्यस्तता में कहांॅ फुर्सत होगी, उन लड़कों के बारे में वाहियात बातें सोचने की?’’

‘‘पर कुछ भी हो, ऐसी बातें वाहियात तो नहीं ही होतीं। पड़ोसियों, रिश्तेदारों संग मीन-मेख, शिकवा- शिकायतें, सास- ननद की लगाई-बुझाई आदि बतियाने के बजाय, ऐसे विषयों पर घण्टों चर्चा करना, दिल को सुकून देने वाला तो होता ही है। बशर्ते कि ऐसी खुशनुमा, सुनहली धूप खिली हो, और हम फुर्सत में हों, जो कि आज के दौर में बमुश्किलन ही नसीब होता है।’’

‘‘देखा जाय तो...लड़कियांॅ, वक्त के साथ खुद को एडजस्ट कर ही लेती हैं।’’

‘‘सो तो है ही। पर मैं इन अन्तःसलिला बातों को लेकर, न किसी तरह की प्रश्नाकुलता से भरी हूँ, न खुद को प्रश्नांकित करती ही चलती हूँ। आपको भी देश- काल- स्थिति- परिस्थिति अनुसार ही, समझना- चलना- सोचना चाहिए। किसी तरह की असुरक्षाबोध से बचते, कम-अज-कम अंतःकरण की आवाज, अवश्य ही सुननी चाहिए।’’

‘‘तुम्हें ये कभी-कभी क्या हो जाता है? बाजदफे, अतिव्यंजनायुक्त, वाग्विदग्धतापूर्ण और शुद्ध साहित्यिक भाषा-शैली में बतियाने लगती हो? रूप-विधान और विषय-वस्तु का ऐसा मणिकांचन संयोग विरले लोगों में ही देखने को मिलता है। बाजमौंके...तुममें किस कर, यंूॅ परकाया-प्रवेश हो जाता है?’’

‘‘आपके ऐसे सवालों में मुझे तो व्यंजना कम, लक्षणा और अभिधा ज्यादा दिख रहे हैं।’’

‘‘अऽरे भई, अब बस्स करो। तुम्हारी ये गुंजलक बातें कभी-कभी मेरी समझ से परे होने लगती हैं। मुझे पता है, गै्रजुएशन में तुम्हारा भी एक सब्जेक्ट, हिन्दी साहित्य था।’’

‘‘आखिर, एक अंॅखुआते हुए साहित्यकार की बीवी होने के नाते, मुझ पर कुछ तो असर होगा ही।’’

‘‘खैर छोड़ो। आज जब घर पर हूँ, तो सोचता हूँ, कुछ जरूरी काम-काज ही निबटा लंूॅ।’’

‘‘आपको तो, हमेशा अपने मतलब का ही काम-काज सूझता है। छुट्टी से याद आया। देखिये, सीढ़ियों पर कितनी धूल जमा है? रेलिंग्स भी गन्दी हो रही हैं। घुटनों में दर्द के कारण, मुझे अब सीढ़ियांॅ चढ़ने में दिक्कत होती है। सीढ़ियों और रेलिंग्स की साफ-सफाई आज आप ही कर दीजिए, मैं पानी और कपड़ा लेकर आती हूँ।’’

‘‘अऽरे भई, छुट्टी का मतलब सिर्फ छुट्टी होता है। काम-वाम कुछ भी नहीं। सिर्फ आराम।’’

‘‘और हम लोगों की भी कोई छुट्टी होती है कि नहीं?’’

‘‘जाहिर है, ये सवाल, सिर्फ सवाल के लिए किया गया सवाल होगा। मुझसे किसी जवाब की दरकार नहीं होगी?’’

‘‘अच्छा! अब अपनी बारी आयी, तो कुबोल बतियाते, बहंॅटियाने लगे। जनाब...मेरा ये सवाल, जवाब की दरकार के लिए ही था। ये रहा बाल्टी में पानी, और पोंछे वाला कपड़ा। अब फौरन-से-पेशतर शुरू हो जाइये।’’

‘‘कहांॅ से शुरू करूंॅ?’’

‘‘जियादा चोऽना मत बतियाइये...छत वाली सीढ़ी से शुरू कीजिए, और कहांॅ से? पता नहीं दफ्तर में क्या काम-काज करते होंगे? इतनी छोटी सी बात भी नहीं समझ पाते?’’

‘‘वहांॅ, समझाने वाले तुम्हारे जैसे नहीं होते न?’’

‘‘अच्छा, अब ये अखबार मुझे दीजिए, और शुरू हो जाइये। सुबह से ही अखबार में पता नहीं क्या-क्या चाट रहे हैं? जबकि मैं अभी तक हेडलान्स भी नहीं देख पायी हूँ।’’

‘‘अऽरे हांॅ! मैं तो तुम्हें बताना ही भूल गया। देखो ये खबर तुम्हारे मतलब की ही है। ये हेडिंग पढ़ो...‘सम्बन्धों में कैसे मधुरता लायें?’’

‘‘लाइये, अखबार इधर दीजिए, मैं खुद पढ़ लंूॅगी। अब इस उम्र में सम्बन्धों में मधुरता लाने की कोशिश में, बिलावजह...कहीं सुगर-लेबल ही न बढ़ जाये? आप तो बस्स, ये बाल्टी उठाइये, और काम पर लग जाइये।’’

‘‘तुम भी न! किस कदर निर्दयी-कठकरेजी-पथरकरेजी हो, ये कोई मुझसे आकर पूछे? लेकिन...मुझे तो दो दिन के टूर के बाद थकान सी लग रही है, और नींद भी आ रही है।’’

‘‘अऽरे, आपसे आज जरा घर का काम करने के लिए क्या कह दिया, आप तो ऐसे हिम्मत हार बैठे, जैसे धनुष-यज्ञ में आये राजा गण, धनुष न उठा पाने पर, थक-हार कर अपने आसन पर जा बैठे थे। ‘श्रीहत भए हारि हिय राजा। बैठे निजि निज जाइ समाजा।’...अब उधर किचन की तरफ कहांॅ चले?’’

‘‘अऽरे भई, काम-काज से पहले, तन-मन में फुर्ती जगाने वास्ते, अदरक- कालीमिर्च- इलायची वाली एक ठो कड़क चाऽह तो पीना ही पड़ेगा न?’’

‘‘अच्छा, अब जब बना ही रहे हैं तो एक कप और बढ़ा लीजिएगा, मेरे लिए भी।’’

‘‘जो हुक्म मेरे आका...!’’

‘‘और सुनिए, वहीं किचन में मेरी थाॅयरायड वाली दवा है। वो भी लेते आइयेगा। आपसे गुल-गपाड़ा बतियाने के चक्कर में सुबह, दवा खाना ही भूल गयी...हें-हें-हें।’’

‘‘और, मैं भी तुम्हारे इस ‘साॅफ्ट-काॅर्नर’ के घनचक्कर में आज अपनी बी.पी. की दवा लेना भूल गया...हें-हें-हें।’’

(राम नगीना मौर्य)

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