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स्वाधीन वल्लभा

स्वाधीन वल्लभा

गीताश्री

प्रेम के आस्वाद के लिये शब्दों की भला क्या जरूरत? शायद दुनिया की तमाम भाषायें, प्रेम के किसी हिमनद से निकली होंगी। एक दुभाषिये के तौर पर नीलंती की जिस अस्फुट भाषा को मैने जाना और समझा उसने मेरे दुभाषिये होने के सारे मायने बदल दिये।

मुझे अच्छे खासे पैसे मिले थे, इस काम के, और साथ में सख्त हिदायतें भी कि मुझे काम को कैसे अंजाम देना है। एक प्रेम की कठिन कथा में मुझे लगभग ढकेल दिया गया था। मन कह रहा था, उस वक्त कि तुम गलत कर रही हो...दिमाग कह रहा था तुम्हें क्या, काम तो काम है, निर्मम होकर वो करो जो क्लाइंट चाहता है। मेरे द्विभाषीय जीवन का ये पहला ऐसा असाइनमेंट था जिसमें मुझे अपने आप से भी जूझना पड़ रहा था। अब तक मैं सिंहली भाषा से हिंदी और हिंदी से सिंहली में अनुवाद करने के लिए विदेशी डेलीगेशन के साथ सरकारी मेहमान बन कर जाती थी।

पहली बार किसी भारतीय प्रेमी ने मुझे अपने प्रेम कांड में उलझा दिया था। मैं मना करती रही...वो लड़का लगभग पैर पकड़ने की हालत में आ गया था। कोलंबो से ढाई सौ किलोमीटर दूर पहाड़ी शहर नुवाराएलिया में उसका ठीकठाक काम चल रहा था। चाय के बगान में एडमिन बन कर काम में और बगान में दोनों में इतना रम गया था कि फैक्ट्री में पर्यटको को चाय की खूबियां बताने वाली नीलंती से प्यार कर बैठा था। मैं भी सिंहली हूं, सिंहली युवती का भारतीय लड़के से प्रेम के कारणों को अच्छे से समझ नहीं पाई थी। शायद शासको की तरह प्रेम करने की वजह से (कुछ औरतों को उन पुरुषों से प्यार हो जाता है जो उन्हें खुद से श्रेष्ठ लगे या उन्हें शासित करे, वैसे हमारे समाज में ऐसा नहीं होता) या सिनेमाई अंदाज में प्रेम का इजहार करते हुए, अपनी बौद्धिकता का आतंक फैला कर...या लड़की को भारतीय काव्यशास्त्र की नायिकाओ से तुलना करके...तुम ऐसी, तुम वैसी...।

मुझे याद आया...मैंने नायिका भेद में पढ़ा था –पदमिनी नायिका जिससे कमल पुष्प की गंध आती हो, कमलनयनी चित्रिणी नायिका जो संगीत-नृत्य में पांरगत हो, शंखिनी और हस्तिनी नायिका की याद आते ही हंसी छूट गई मेरी। कितनी अजीब होती होगी न ऐसी नायिकाएं। नीलंती को गौर से देखा था मैंने। खोई खोई आंखों वाली , सांवली-सी लड़की किसी नायिका भेद से परे दिखी। पहली , छरहरी काया, पश्चिमी परिधान में मेरे पास प्रकट हुई थी उम्मीदे लेकर। जैसे मेरे हाथो में ही उसके संबंधों की आन-बान-शान टिकी हो। सिंहली में ही मेरा उसका संवाद होता था फिर वो अपने प्रेमी से इंगलिश में बताती थी । सिंहली में हम दोनों का संवाद सुनकर उसका भारतीय प्रेमी हकबका उठता था। एक नाउम्मीदी-सी उसके चेहरे पर तैरने लगती। फिर आंखों में उम्मीद भर कर मेरी तरफ देखता। मुझे वो सच्चा प्रेमी लगा जो अपने घरवालो और प्रेमिका के बीच पुल बनाने की कोशिश कर रहा था। वो चाहता तो घरवालो से विद्रोह करके शादी कर लेता, शादी के बारे में कभी न बताता, पैरेलल परिवार चला सकता था या कुछ भी कर सकता था...लेकिन उसे तो सिंहली लड़की से प्रेम था, इसी से शादी भी करनी है। हिंदी का एक शब्द न जानने वाली सिंहली लड़की भी आमादा थी कि पहले उसके परिवार से बात करेगी ताकि शादी में सब शामिल हों, कोई अड़चन न आए। अपने साथ वो अपनी मां को लेकर भारत जाने को तैयार थी। लड़का उसकी इच्छा के आगे नतमस्तक था। मैं तो हिंदी साहित्य में डूबी रहने वाली लड़की थी, अनेक प्रेम कथाएं पढ़ डाली थी, पहली बार एक प्रेम कथा की सूत्रधार बनने चली थी। मैं तैयार हो गई। सारी तारीखे तय, नीलंती और उसकी माता जी के साथ सारी औपचारिकताएं पूरी हो गईं।

मुझे पहला धक्का तब लगा जब मुझे रवानगी से एक दिन पहले नीलंती ने ही बताया- “अथिरा, हमें दिल्ली से पटना की फ्लाइट लेनी होगी।“

“क्या...?” मेरे मुंह से जोर से निकला।

“तुम्हारा ससुराल बिहार में है...?”

मेरी आंखें फैल गई थी।

“पटना से आगे जाना है, गंगा उस पार, वैशाली जिला है कोई, सब डिटेल ले लिया है...टैक्सी कर लेंगे...अरुण ने सारा इंतजाम कर दिया है। सबकुछ फिट मिलेगा हमें...बस ध्यान रहे , हमें गांव जाना है और वो गांव के लोग हैं...हमें उसी तरह उनको हैंडिल करना है...”

मैं भारत में पढ़ाई की, शोध किया, कभी बिहार जाना न हुआ। वहां के किस्से बहुत सुने थे। मेरे मन पर कुछ अच्छी छाप नहीं थी। मैंने उस दौर में पढ़ाई की थी जब दिल्ली विश्वविधालय में बिहारी लड़के बहुत डिमांड में थे और मेरी पंजाबी सहेली कंवलजीत कहा करती थी- “बिहारी लड़के बड़े टिकाऊ होते हैं, फैमिली मैन...शादी के लिए परफेक्ट मेटेरियल...”

इन लड़कियों का मोहभंग होते भी देखा जब पंजाबी-बिहारी शादियां टूटती पाई गईं। अब मेरे देश की एक लड़की बिहारी लड़के के फेर में पड़ गई थी और मुझे अपने जमाने की वो सफल-विफल जोड़ियां याद आने लगी थीं। मैं कोई सलाह देने की स्थिति में न थी। मैं प्रोफेशनल द्विभाषिया थी और मुझे अपना काम करना था। बस बिहार के नाम पर जाने क्यों, खटक रहा था भीतर। पैसे वाला काम था, मुफ्त की भारत यात्रा। भला कौन छोड़े। नीलंती का प्रेमी नहीं आया। उसे छुट्टी नहीं मिली थी। मुझे लगा, वो जाना नहीं चाहता था। बच रहा था इस स्थिति से। नीलंती और उसकी मां की जिद के आगे झुक-सा गया था।

रास्ते भर नीलंती बिहार पर बने तमाम वीडियोज देखती रही, गूगल पर कुछ कुछ सर्च करती रही। पटना और उसके आसपास का सारा भूगोल गूगल पर छान मारा। उन्हें देखते हुए उसके मुंह से दो बातें निकली- बोधगया और वैशाली।

मैं चौंकी- उसके प्रेम का धागा कहां से जुड़ता है।

......

कस्बे का वह व्यस्तम चौराहा था जहां से एक रास्ता उसकी गली के पास जाकर खत्म हो जाता था। वहां से फिर कई पतली गलियां निकलती थीं। सारी गलियां संकरी इतनी कि बड़ी गाड़ी तो जा ही नहीं सकती थी। हम सबको गाड़ी मुहाने पर ही छोड़नी पड़ी और पैदल अंदर जाने को कहा गया। गली के मोड़ पर दो लोग खड़े थे जो हमें आगे का रास्ता दिखाने वाले थे। हम तीन और एक अरुण का दोस्त, चार लोग उनके पीछे पीछे चुपचाप चलने लगे। गली के मुहाने से ढोर ढंगर दिखाई देने लगे थे। गंधाती हुई गली में हम चारों ने नाक पर रुमाल रख लिए थे। दो लोग जो हमें रास्ता दिखाने आए थे, वो स्थानीय भाषा में चुहल करते हुए चले जा रहे थे। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।

मेरे पीछे चल रही नीलंती और साथ में उसकी फैशनेबल माता थोड़ी परेशान दिखाई देने लगी थीं। पूरा सज संवर कर, श्रीलंकाई पोशाक “ओसरिय ” पहने हुए, जो बिल्कुल साड़ी की तरह होती है, सोने के गहने से लदी हुई। मानो अपने वैभव का प्रचार करना चाहती हों। उनके चेहरे से लग रहा था कि न उन्हें यह गली भा रही थी न वहां की हवा में फैली बदूब। हाईहील की वजह से नीलंती बार बार लड़खड़ा जाती। कभी सलवार ऊपर चढ़ाए तो कभी चुन्नी कंधे पर खींचे। भारी भरकम चुन्नी कंधे से सरक सरक जाती थी। मैंने जितनी बार मिली, इसे पश्चिमी परिधान में देखा था। गुलाबी-सुनहरे रंग के सलवार कुर्ते में वासकसज्जा नायिका-सरीखी लग रही थी। कान में सोने की बूंदे चमक रही थीं। गले में पतली –सी सोने की चेन, हल्का सिंगार चेहरे पर। कभी कभी शिफॉन दुपट्टे को सिर पर ओढ़ लेती फिर हवा उसे नीचे गिरा देती। उसे गले में लपेट लेती। दोपहर का वक्त था, मार्च के पहले सप्ताह की मीठी धूप उसके चेहरे पर उतर आई थी। जाने भीतर की धूप थी या बाहर की, चेहरे का सांवर रंग सुनहरा हो गया था। यात्रा की तकलीफो और संभावित मुलाकातों के संशय के वाबजूद कमल नयनी की आंखों में स्वप्न झिलमिला रहे थे। उसके कदम खराब रास्तों की वजह से नहीं, प्रेमी की याद में लड़खड़ा रहे थे, ससुराल से मिलने के रोमांच में।

मुझे नीलंती पूरी तरह अलग लोक की स्त्री लग रही थी, मोहक, मैंने बार बार उसे घूरा। वह समझ गई थी कि मैं उसे निहारती चल रही हूं। उसने बताया- “ये ड्रेस इन्हीं लोगो ने भेजी थी और सख्त हिदायत के साथ कि यही पहन कर आना है।“

प्रेम में आकंठ डूबी वो गली में लड़खड़ाती हुई अपनी मां को निहोरा वाले अंदाज में देखतीं। मां कुछ बड़बड़ा रही थीं- “जाने किस लोक में प्रवेश करने करने जा रहे हैं..।“

“हम पटना में भी उन्हें बुलाकर मिल सकते थे, गांव जाना जरुरी था क्या ?”

मैंने नीलंती की माता जी से पूछा।

“हमें देखना जरुरी है कि मेरी बेटी कैसे घर में जा रही है, परिवार के लोग कैसे माहौल में रहते हैं, गांव बुरा नहीं होता, हम भी गांव मे ही रहते हैं, मगर ऐसा नहीं है...”

चेहरे पर हिकारत के भाव उभरे।

“वैसे भी, नीलंती को कौन-सा यहां रहना है, परिवार से तो मतलब रहेगा न, चाहे कहीं रहे, एकलौता बेटा जो ठहरा...”

नीलंती कच्ची सड़क की बदहाली से उतनी परेशान नहीं थी जितनी उसे अपनी ड्रेस से हो रही थी।

“पता है, चलते हुए अरुण ने मुझे बहुत समझा कर भेजा है कि पहली बार वही ड्रेस पहन कर जाना जो हमेशा पहन सको...मेरी तरफ से कोई दबाव नहीं, न ही तुम उनके दबाव में आओ...जो मन हो पहन कर जाओ...बस ध्यान रहे, फिर आगे निर्वाह करना पड़ेगा...बहुत पारंपरिक परिवार है मेरा... और मैं उन्हें नहीं बदल सकता। न परिवार न उनका स्वभाव...”

नीलंती को अरुण का प्रेम साहस दे रहा था, तभी इतनी दूर वह मुझे साथ लेकर चली आई थी। पहले अरुण भी हौरान हुआ था। हतोत्साहित करने की बहुत कोशिश की। हर तरह से डराया, समझाया। प्रेम दीवानियां कहां मानती हैं। स्त्रियों को प्रेम जहां साहसी बना देता है वहीं पुरुषों को डरपोक। वो छुपाना चाहते हैं। बचना चाहते हैं अप्रिय स्थितियों से। जब तक बहुत जरुरी न हो, मुखर नहीं होते प्रेम को लेकर। जबकि स्त्रियां शुरु में ही मुखर हो उठती हैं, टकरा जाती हैं, टकराने को तैयार रहती हैं। प्रेम उनके भीरु मन के लिए आश्वासन की तरह होता है।

नीलंती में मुझे वही साहस दिखाई दे रहा था। अभी तक तो साहस दिखा रही थी। उसके घरवालो से मिलने के बाद क्या फैसला होगा, उसके बारे में मेरी अंतिम राय तभी बनेगी। अरुण के घरवालों को लेकर मैं बहुत शंकित थी। मुझे बार बार अरुण की बातें याद आ रही थी जो उसने अकेले में मुझे समझाई थीं। मुझे उसी को ध्यान में रखते हुए बातचीत करनी थी। कठिन था मगर काम तो काम है, जैसा क्लाइंट बोले, चाहे।

जब तंग गलियां खत्म हुईं तो खुले खेत शुरु हो गए। सबने राहत की सांस ली। ज्यादा दूर नहीं चलना पड़ा। पतली-सी पगडंडी जहां खत्म होती थी, वहीं पर एक बड़ा-सा घर दिखाई दे रहा था। साथ में अरुण का दोस्त गांव के बारे में बताता जा रहा था। थोड़ा बहुत मैंने सुना जिससे अंदाजा हुआ कि अरुण के घरवाले संपन्न किसान हैं, गांव में काफी खेती बाड़ी, अपना पोखर और ट्रैक्टर भी है। अरुण के पिता तीन भाई हैं, बंटवारे के वाबजूद सब एक ही घर में रहते हैं। नीलंती खेतों में रब्बी की लहलहाती हुई हरी फसले देखीं, उसे चाय के बगान याद आ गए। सरसों के पीले पीले फूलों को देख कर उसे अपना देश याद आया। जिस शहर में रहती है, वहां सालो भर ठंड पड़ती है, समुद्र दूर है वहां से। उसने पहली बार भारत का वसंत देखा। उसका तन-मन दोनों पियराने लगे थे, सरसो के फूल-से। शोड़े –से सरसो के फूल ले जाएगी अपने बुरबक के लिए...। चेहरा रक्ताभ हो उठा। मन में पहले से ही धुकधुकी लगी थी। अनेक तरह की शंकाएं घेर रही थीं, लगा अरुण साथ चल रहा है पगडंडी पर हाथ थामे, दोनों हथेलियों के बीच सरसो की फूल भरी डालियां झूल रही हैं। सब ठीक होगा...जैसे कान में कोई फुसफुसाया।

“तुम मेरी माता जी को तरह तरह की चाय बना कर पिला देना...वो मुरीद हो जाएगी तुम्हारी...”

चलते समय अरुण ने छेड़ा था।

अपने साथ ढेर सारा उपहार लाई थी जिसमें चाय की कई किस्में थीं। चाय के बारे में उन्हें अच्छे से समझा सकती थी। हवेलीनुमा घर के बाहर काफी लोग पहले से जमा थे। कुछ प्लास्टिक की कुर्सियां पड़ी हुई थीं, कुछ लकड़ी के तख्त । कुछ लोग बैठे हुए थे, औरतें दरवाजें पर खड़ी थीं। सबके सिर पर आंचल, छोटी बच्चियां उछल कूद कर रही थीं। गांव में खबर फैल गई थी, कुछ औरतें आसपास मंडरा रही थीं। घर क अंदर आने की हिम्मत न हो रही थी। हम तीनो को आंगन में ले जाया गया। नीलंती ने पहले हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, अचानक उसे कुछ ध्यान आया, उसने झट से अरुण के पिता और मां के पैर छू लिए। पिता और मां गदगद। नीलंती ने दो लाइन हिंदी सीख लिया था- बैठते ही पूछी- “कैसे हैं आपलोग ? हमलोग अच्छे हैं...आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई...” बस। उसके बाद हिंदी समाप्त। चुप्पी छा गई। किसी विदेसिनी के मुंह से हिंदी सुन कर सब लोग गदगद हो गए। सबको उम्मीद बंधी कि एक दिन हिंदी बोलने लगेगी, तब बातचीत का संकट नही रहेगा। आंगन में अरुण का पूरा परिवार नीलंती को घेर कर बैठा था। जैसे कोई अजूबा आ गया हो। उस गांव की वह दूसरी विदेशिनी बहू होने वाली थी। इसके पहले एक रुसी दुल्हन, पति के साथ आई, गई, फिर दोनों नहीं लौटे। परिवार बिसूरता रह गया। अरुण और उसका परिवार इस अंजाम से वाकिफ थे। सो सतर्क लगे। अब असली बातचीत का दौर शुरु होने वाला था। सब मेरी तरफ मुखातिब थे।

मैंने सबका परिचय पूछना चाहा तो अरुण के माता जी ने नीलंती की तरफ घूम कर पूछा- “तुम्हारा पूरा नाम क्या है?”

नीलंती नाम से समझ गई । उसने कहा- “नीलंती”

“पूरा नाम...?”

अपने सिर पर आंचल खींचती हुई माता जी मुस्कुराई। सिल्क की साड़ी में भव्य लग रही थीं। माथे पर नीली साड़ी से मैचिंग बिंदी और मांग में सिंदूर, खूब भरा भरा।

मैंने नीलंती को सिंहली में बताया कि वे पूरा नाम पूछ रही हैं।

नीलंती ने कहा- “नीलंती श्यामली साहरिका अग्रकुमारी राजपक्षा”

वहां जोर का ठहाका गूंजा। मैं थोड़ा झेंप गई। हमारे नाम होते ही इतने लंबे। इसीलिए पहला नाम ही बताते हैं। न कोई याद कर पाएगा न हमें पुकार पाएगा।

“और पिता जी का नाम ?” अरुण के पिता थे, जो अपनी हंसी रोक कर पूछा। शायद नामों में दिलचस्पी जग गई थी।

नीलंती ने मेरे कहने पर पिता का नाम बताया – “चामीडू नवासरीथ जयाथिलाका”

इसके बाद तो ठहाको के जो दौर चले, उसने हम तीनों को बेहद असहज कर दिया। हम ठहाको के थमने का इंतजार करते रहे । उसके बाद ही असली बातचीत शुरु होनी थी। वहां का जो माहौल लग रहा था, या जो लोगो के हावभाव थे, मुझे खटका-सा महसूस हो रहा था। मगर हर हाल में मुझे अपनी भूमिका सही सही निभानी थी।

ठहाको के दौर के बाद अरुण के पिता जी बातचीत का कार्यभार अरुण की माता जी को सौंप कर बाहर चले गए।

माता जी ने हौले हौले अपनी शर्ते रखनी शुरु की । जिन्हें सुन कर मेरा माथा घूमने लगा। मैं कैसे अनुवाद करके बताती। न बताऊं तो अपने पेशे से बेइमानी हो। बता दूं तो रिश्ता बनने से पहले टूटने की पूरी संभावना थी। रिश्ते से ज्यादा दो दिल टूट जाते और फिर अरुण मुझे अपराधी ठहराता।

“कहा था न आपसे...भूल गईं...मेरे माता पिता जो भी शर्ते रखें...जो अटपटी लगे...उसका उल्टा नीलंती को बताना है ....और नीलंती के खराब जवाब को अच्छा करके उन्हें बोलना है....बस इतना संभाल लीजिए...बाकी मैं देख लूंगा।“

अरुण ने चलते समय मुझे एकांत में यही तो समझाया था। शायद उसे पक्का यकीन था कि उसके माता पिता कुछ भी कांड कर सकते थे। भीतर से वह बुरी तरह डरा हुआ था। इस मुलाकात के लिए वह कतई तैयार न होता अगर नीलंती की माता जी न अड़ जाती और नीलंती खुद दिलचस्पी न लेती।

मैं बीच में थी और दोनों तरफ से सारी बातें उल्टी दिशा में चल रही थीं। तरह तरह के पकवानों से भरा नाश्ता, हलवा भी था, पूरियां भी तली जा रही थीं, कई तरह के नमकीन, और फिर चाय । बार बार खाने का प्रेमिल आग्रह। इसके बाद बातचीत का दौर।

अरुण की माता जी कह रही थी-

“शादी के बाद तीन महीने गांव में रहना होगा। पहला बच्चा मायके में होगा...हमारे यहां बहुओं को साड़ी पहनना पड़ता है, सिंदूर, चूड़ी, सारे सुहाग चिन्ह अपनाना होगा..साल भर कहीं रहो, हरेक साल छठ में गांव आना पड़ेगा...शर्ट पैंट ड्रेस एकदम नहीं चलेगा...घर का सारा काम करना पड़ेगा...बहूएं संभालती हैं...शहर वाली आजाद यहां नहीं मिलेगी...सिर पर आंचल हरदम...अरुण को हमलोग ये सब बात बता दिए हैं, पूछ लेना...”

उनके हर वाक्य में “अरुण” का नाम होता...मुझे लगा, ये टिपिकल मां की तरह हैं जो अपने बेटे को लेकर बहुत “ऑब्सेस्ड” होती हैं। ऐसी मांएं वरदान भी हैं और अड़चन भी। जाने आगे क्या बोलने वाली हैं।

चिंता की लकीरें मेरे चेहरे पर खींच आईं थीं।

“और एक सबसे बड़ी बात- हमलोग जाति से ब्राम्हन भूमिहार हैं, मीट मछली नहीं खाते। हमारे घर में शुरु से कोई नहीं खाया। इन्हें भी छोड़ना पड़ेगा...अपने देश जाना तो खा सकती हो...मेरे बेटा को भ्रष्ट नहीं करना...वो बचपन से कंठी माला पहनता है...तीज त्योहार करना पड़ेगा...

हमारा कल्चर है, उसमें रमने को तैयार हो तो शादी होगी नही तो हमारी तरफ से मना है...”

वे लगातार बोले जा रही थी, मुझे अनुवाद का मौका ही नहीं दे रही थीं. उनके चेहरे के हाव भाव देख कर नीलंती और उसकी मां कुछ कुछ परेशान से हो गए थे। उन्हें लगा कि मामला कुछ पेंचीदा है। दोनों बार बार मेरी तरफ देखे चली जाएं। अब माता जी चुप हों तो कुछ बोलूं। मैं तो सिर्फ सिर हिलाती जा रही थी।

अचानक वे रुकी- “हां जी, इनसे पूछिए और पूछ कर बताइए, क्या जवाब है...शादी हमारे देश में होगी..पटना में कर सकते हैं ..हमारी तरफ से तीन सौ बाराती होंगे...सारा खर्चा आप लोगो को करना होगा। बाकी सामान का कैश ही दे देना आप...”

“बारातियों के स्वागत के बारे में भी तो बोल दो, अरुण की मां...बारातियों को ले जाने के लिए बस करना पड़ेगा, दस तरह का खर्चा होता है, रिश्तेदारों को भी लेना देना पड़ता है, उन्हीं लोगो को निर्वाह करना पड़ेगा।. हम तो कर ना पाएंगे ।“

थोड़ी देर वे रुके फिर बोलना शुरु-

“एक बेटा होता है जो कमा कर घर में देता है, तो मां बाप तो भी लगता है, चलो भाई, इसकी शादी में कुछ खर्च कर दो।“

दूर से पिता जी की आवाज आई।

“हां, हम अभी बात करिए न रहे हैं...लड़की की मां हैं न, इनसे सब बात हो ही जाए...इनके बाबूजी होते तो आप बात कर लेते, मरद मरदी की बात होती को ठीक होता, हम जेतना कर सकते हैं, कर रहे हैं...”

पिताजी की बोलती बंद हो चुकी थी। आंगन में जितनी औरतें थीं, उनमें खुसुर फुसुर शुरु। नीलंती उन्हें सुनते हुए अपने प्रणय के प्रगाढ़ क्षणों में डूब गई थी जब अरुण बहुत मस्ती में होता था तो अपने घरवालों की नकल करके, स्थानीय बोली भाषा में बोल कर उसे हंसाता था। हास-परिहास का दौर ऐसे ही चलता था। अरुण की माता जी जो बोल रही थी, उसमें कुछ कुछ कई बार अरुण बोलता था- वो कानों में बजने लगे थे।

“ऐ दुल्हिन...सिर पर अंचरा रखो, बूझी...चलो, भात दाल पकाओ, इडली, सांभर, मछली भूनने से कुछ न होगा..पति...प्रेमी की सेवा करो...हम परमेश्वर हैं तुम्हारे., बुरबक कहीं की..एकदमे बताह मिल गई हमको...”

“ई बुरबक , बताह का क्या अर्थ...?” वह पूछती।

“मतलब तुम बहुत सुंदर हो...”

अरुण जोर से ठहाका लगाता। फिर सही अर्थ बताता। बदले में वो भी प्रेम के गहन क्षणों में .. “ऐ मेरे बुरबक...बताह...” बोलने लगी थी। दो भिन्न लोगो के बीच प्रेम का सबसे सुंदर संवाद इन दो शब्दों के माध्यम से होता था।

अरुण चुहलबाज था। अपनी भाषा में ससे खूब चुटती लेता था।

“अउर हम तुमको फ्री में नहीं मिलेंगे...कैश लगेगा...दूल्हा बिकता है, बोलो खरीदोगे...?”

चुटकियों से कैश गिनने का अभिनय करता। अरुण का हंसोड़, मजाकिया स्वभाव, अपना ही मजाक बनाना, नीलंती को बहुत भाता था। जितनी देर साथ रहता, वह हंसती रहती थी। सारे तनाव से दूर, चाय की पत्तियों की गंध से दूर, प्रेम-गंध में डूब जाती। उसके प्रेमी की मां भी खर्चा-पानी की बात करती हुई चुटकियों से कैश गिनने लगी थीं। अरुण के चेहरे पर इंकार के भाव कई बार इसी तरह आते, जैसे माता जी के चेहरे पर आ जा रहे थे। उसका धीर-ललित प्रेमी , सख्त एडमिन भी था। वह उसकी देह-भाषा को बूझने लगी थी। यहां भी देह-भाषा बूझ रही थी। उनकी पूरी बात तो नहीं समझ पाई थी लेकिन कुछ सूत्र जरुर पकड़ में आ गए थे। शायद वह मुझसे पूरी बातचीत सुन कर रिएक्ट करना चाहती थी। माता जी को समझ में आया कि कुछ अप्रिय संवाद हुए हैं जो शायद काम बिगाड़ भी सकते हैं। वे मेरा मुंह जोह रही थीं।

मैंने बोलना शुरु करती इसके पहले माता जी फिर बोल पड़ी- लड़की को कह दीजिएगा, हिंदी सीखना पड़ेगा...गांव में कैसे रहेगी फिर...हम लोग बात कैसे करेंगे, यहां किसी को इंगलिश नहीं आती है...भुच्च गांव है...नया बच्चा सब इंगलिश स्कूल में पढ़ रहा है...

थोड़ी झेंपी हुई हंसी थी।

“हिंदी तो मैं सीखा दूंगी, इसकी चिंता मत करिए, मैं आपकी बात इन तक पहुंचा कर आपको इनका जवाब बताती हूं...

हां तो, अरुण के घरवालो की कुछ शर्ते हैं, जिन्हें आप मान लें...तो शादी संभव है, जैसे शादी पटना में होगी, खूब धूमधाम से, तीन सौ से ज्यादा लोग आएंगे...इनके परिवार का रुतबा बड़ा है तो लोग भी इसी हिसाब से आएंगे, और इन्हें लड़की पसंद है, यहां आना जाना रखे, बेटे को खुश रखे, खुश रहे, जहां रहे, हमें इनसे कुछ नहीं चाहिए, अपना घरबार बसाएं...फले फूले...जैसी हैं, वैसी रहें, हमारी खातिर अपने को न बदलें, जो चाहे, खाएं, पीएं, पहने...जिंदगी तो बेटे के संग बितानी है न दुल्हिन को...हमने तो उसी दिन बहू मान लिया जिस दिन अरुण ने बताया...हमारा आशीर्वाद साथ में हैं...जाओ शादी की तैयारी करो...”

मैं सिंहली में अनुवाद करती जा रही थी। मेरा हलक सूख रहा था। अरुण का दबाव मेरे ऊपर बढ़ता चला जा रहा था।

नीलंती की मां थोड़ी असमंजस में दिखीं, क्योंकि जो मैं बोल रही थी, वो बातें माता जी की देह-भाषा से, हावभाव से कतई मैच नहीं कर रहा था। लेकिन चारा क्या था? मैं उत्साह में कुछ और बोलने जा रही थी कि नीलंती अचानक उठ खड़ी हुई।

“मैं सबकुछ समझ गई अथिरा। मुझे बरगलाने की कोशिश मत करो…”

नीलंती की भवें तन गईं थीं। उसके माथे की सलवटें उसकी अचेतन ऐंद्रिकताओं का सहज केंद्र बन गईं थीं जो इस भाषाई आसमझ के दरम्यान उन ठूंठ शब्दों से भी सटीक अनुमान लगा रही थी जो उसके प्रेम की गाथा की दिशा तय करने वाले थे। नीलंती की आवाज में यकीन से लबरेज विस्फारित कर देने वाली अजीब-सी ढृढता थी। सब अवाक उसकी ओर देख रहे थे और उसकी आवाज जैसे वशीभूत वर्जनाओं को तोड़ रही थी।

“क्या आप सब सोच रहे हैं कि मेरे जीवन और मेरे प्रेम से जुड़े इस खास मसले पर आप सबकी बातें मेरे पल्ले नहीं पड़ रहीं ? अगर ऐसा है तो आप सब एक खुशफहमी में, एक मुगालते में ये बातचीत कर रहे हैं। जो मेरे जीवन का हिस्सा बनने वाला है, उसके हिस्से की कुछ चीजें को मैं भी साझा करती हूं। अरुण की भाषा न सही पर कुछ शब्दों को लगातार सुनते उनके आशय उनके वाक्यों को अनगढ़ सा ही सही, समझ तो लेती ही हूं..

अभी माता जी से सुना कि शर्ट पैंट पहनने की आजादी नहीं होगी। बुरबक है, वो लड़का वो जो दहेज ना ले। अरूण जब भी हंसी ठिठोली करता है ये वाक्य मैने सुना है। इन शर्तों का कोई मतलब नहीं। देखेंगे...

“अथिरा, तुमने सोचा कि एक दुभाषिये के तौर पर तुम्हारे झूठ हमारी समझ में नही आएंगे। दुनिया की कोई भाषा कोई भी झूठ प्रेम के संघर्ष को कमतर नहीं कर सकती। मैं आप सब को साक्षी मान कर पूरी बेबाकी से ये कहना चाहती हूं कि दुनिया की कोई ताकत कोई भी बाधा मुझे और अरूण से एक होने से नहीं रोक सकती।“

“अथिरा, शायद तुमने अपने दुभाषिये होने का धर्म ही नहीं निभाया पर रिश्तों को किसी कलह से बचाने के तुम्हारे आशय और तुम्हारी कोशिशों को मैं सैल्यूट करती हूं...

“चलो, मैं हम वैशाली और बोधगया चलें।“

वह अंग्रेजी में बोल रही थी, सिंहली जैसे विस्मृत हो गई हो।

मैं हैरानी से उस स्वाधीन वल्लभा नायिका को देख रही थी जो अपने प्रेमी के अविभाजित प्रेम की अनन्य अधिकारिणी है, जो इसके दिल पर एकक्षत्र राज करता है। जो अपने फैसले पर दृढ़ निश्चय है।

थोड़ी थोड़ी झेंप, थोड़ी लज्जा से भरी हुई मैं, उस वक्त सिर्फ 18वीं शताब्दी के कवि कुमार आशान की दृढ़-प्रतिज्ञ नायिका लीला की काव्य-पंक्तियां याद कर पाईं, जिसका अनुवाद मैंने अपने केरल प्रवास के दौरान किसी से सुना था -

“ललनाओं का भाग्य वैसे ही घूमता है

जैसे घूमे उनकी मनोवृति...।“

......