mansik rog - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

मानसिक रोग - 4

बचपन से पढ़ाई-लिखाई में तेज श्लोका आज अपना आत्मविश्वास खो चुकी थी। उसने ठान तो लिया कि फिर से सब ठीक करेगी परन्तु प्रश्न था कैसे? उसने धीरे-धीरे खुद को सकारात्मक बनाने की कोशिश की। पहले जिसे हर चीज में ग़लत ही नज़र आता था, अब वह उनमें अच्छा खोजने लगी। ऐसा करने से श्लोका को थोड़ी हिम्मत तो मिल रही थी परंतु मन के ज़ख्म अब भी न भर रहे थे। ऐसे में उसने प्रतीत किया कि ज़िन्दगी के इस उतार चढ़ाव के कारण वह बाइपोलर डिसऑर्डर से ग्रसित हो गई।
जो माता पिता मानसिक रोग न समझ पाए वो बाइपोलर डिसऑर्डर को कैसे समझते। श्लोका अंदर तक झकझोर गई थी। उसे समझ ही नहीं आ रहा था वो क्या करे अब कैसे सामना करे इसका, किसको बताए इसके बारे में और इसके साथ भविष्य में कैसे जी पाएगी। न जाने ऐसे कितने ही प्रश्नों ने श्लोका को घेर लिया था।
श्लोका को लगने लगा अब उसको आत्महत्या कर लेनी चाहिए जिससे उसके सारे कष्ट खत्म हो जाएंगे। बाहर से स्वस्थ दिखने वाली श्लोका मन ही मन खोखली हो रही थी। बस जीये जा रही थी ज़िंदा लाश की तरह, न किसी से कुछ कह पा रही थी न कोई समझ पा रहा था। श्लोका एक बार फिर टूट गई और ज़िन्दगी के आगे हाथ खड़े कर दिए। अब वह जी तो रही थी पर बिना किसी सपने के, जैसे बोझ सा हो जीना। बस साँसे चल रही थी, मन में आँशु का तूफान था। उसका मन कर रहा था कहीं दूर जाकर जहाँ कोई न हो जोर- जोर से चिल्लाये, फूट-फूट कर रोये परन्तु उसके बस में कुछ न था। अब श्लोका एक ऐसी ज़िंदगी जी रही थी जहाँ अंदर कुछ बहार कुछ था। ये दोहरी ज़िन्दगी बोझ बन रही थी उस पर। महीने बीतने लगे पर श्लोका वही रुक सी गई। उसके सपने सब टूट चुके थे, हिम्मत नहीं हो रही थी फिर से खड़े होने की। श्लोका न तो रो पा रही थी, न आत्महत्या कर पा रही थी और न ही अपनी बात किसी को समझा पा रही थी। दुविधा अत्यधिक बड़ चुकी थी। वह खुद को शून्य समझने लगी थी। वक़्त अपनी रफ्तार से चल ही रहा था
एक दिन श्लोका अपने घर पर पौधों को एकटक देखे ही जा रही थी। उसने सोचा पौधा झट से पौधा नहीं बन जाता, बीज बनकर अंकुरित होना ही उसकी पहले परीक्षा है। फिर सर्द मौसम में हवाओं के बीच उसको डटे रहना पड़ता है। धीरे-धीरे सबसे लड़कर नन्हा बीज पौधा बनता है। तब जाकर उस पर फूल खिलते हैं जो आगे जाकर फल बनते हैं। एक पौधे को कितनी सारी परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है फल देने के लिए। फिर उसने खुद में हिम्मत बाँधी और सोचा फिर से सब शून्य से ही शुरू करते हैं। सबसे पहले श्लोका ने एक डायरी में अपनी समस्याएं लिखना शुरू किया। धीरे- धीरे उनके हल खोजने शुरू किए। श्लोका अब सकारात्मकता की ओर बढ़ने लगी थी। अपने अंदर आत्मविश्वास जगाती श्लोका समाज के सामने चुनौती दे रही थी। उसके पास दो ही रास्ते थे या तो समाज के साथ चलना शुरू करे और अपने सारे सपने भूल जाये और शादी करके गृहस्त जीवन की शुरुआत करे। दूसरा रास्ता था समाज के विरुद्ध जाकर अपने सपनों को पहचान दे।
श्लोका ने कौनसा रास्ता चुना जानने के लिए पढ़िये कहानी का अगला भाग।