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गवाक्ष - 3

गवाक्ष

3 ==

मंत्री जी के आदेशानुसार वह गुसलखाने से निकल आया था और उनके सुन्दर, व्यवस्थित 'बैड रूम' का जायज़ा लेने लगा था । मंत्री जी के बड़े से सुन्दर, सुरुचिपूर्ण कक्ष में कई तस्वीरें थीं, जिनमें कुछ दीवार पर और कुछ पलंग के दोनों ओर पलंग से जुड़ी हुई छोटी-छोटी साफ़ -सुथरी सुन्दर मेज़ों पर थीं । कॉस्मॉस ने ध्यान से देखा एक सौम्य स्त्री की तस्वीर कई स्थानों पर थी। किसी में वह मंत्री जी के साथ थी, किसी में पूरे परिवार के साथ, किसी में एक प्रौढ़ा स्त्री के साथ और उसी सौम्य, सरल दिखने वाली स्त्री की एक बड़ी सी तस्वीर ठीक मंत्री जी के पलंग के सामने थी। उस तस्वीर में उस सुन्दर सौम्य स्त्री के हाथों में एक वाद्य था और माँ सरस्वती के सौम्य रूप की छटा से उसका चेहरा आच्छादित था । एक तरल, सौम्य मुस्कराहट से उसका चेहरा प्रदीप्त था। कॉस्मॉस सभी चित्रों के समक्ष से गुज़रता हुआ उस तस्वीर के समक्ष आकर गया था । वह उस तस्वीर की ओर ऐसे खिंचा था जैसे कोई चुम्बक उसे अपने पास खींच रहा हो।

कुछ देर स्नानगृह में शांति पसरी रही, अनुमानत:अंदर जो कोई भी था वहाँ से चला गया था । मंत्री महोदय 'बाथ-टब' में से निकले, स्टैंड पर टँगे श्वेत रूएँदार गाऊन को देह पर लपेटते हुए उन्होंने अपने पैरों को मुलायम स्लीपरों के हवाले किया और शयन कक्ष का द्वार खोलकर कई प्रश्न एकसाथ ही वातावरण में फैला दिए ।

" अब बताओ कौन हो तुम ? कहाँ से और क्यों आये हो? यहाँ तक कैसे पहुंचे ?"वे अपने पलंग तक पहुँच गए थे और थके हुए से उस पर बैठ गए थे । अब तक वे काफ़ी हद तक सामान्य होने का प्रयास कर चुके थे । " क्या आप मेरा वास्तविक रूप देखना चाहते हैं ?" कक्ष के पलँग के ठीक सामने से आवाज़ उभरी।

" बिलकुल ! मुझे सब कुछ सत्य बताओ और सबसे पहले मेरे समक्ष आओ । " उन्होंने स्लीपर गलीचे पर उतारकर अपने पैरों को पलंग पर लंबा करके लेटने की स्थिति मेंअपना सिर तकियों के सहारे टिकाते हुए कहा, वे संयमित किन्तु क्लांत दिख रहे थे !

एक शुभ्र ज्योत्स्ना से कक्ष के पलँग के ठीक सामने का भाग जगमगा गया। जैसे कक्ष के पटल पर कोई सुन्दर प्रतिमा उभरने लगी हो। एक सुदर्शन युवक का मासूम, कोमल स्निग्ध चेहरा उस ज्योत्सना से प्रस्फुटित हो बाहर निकलकर उनके समक्ष प्रस्तुत हो रहा था । शनैःशनैःवह चेहरा आदमकद रूप में उनके समक्ष स्थापित होकर नतमस्तक हो गया।

" तुम ?" सत्यव्रत जी को उससे वार्तालाप करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे ।

" कौन हो और क्यों आए हो यहाँ?" वे समझ चुके थे वह कोई साधारण व्यक्ति तो था नहीं जो इस प्रकार उनके कक्ष में प्रवेश कर सका था ।

" जी ---आपको लेने "युवक ने उत्तर दिया । उसके हाथ में एक काँच का बड़ा सा समय-यंत्र था जिसके एक भाग में रेती भरी हुई थी ।

" इस पृथ्वी पर आपका समय समाप्त हो गया है । अपने स्वामी की आज्ञा से मैं आपको ले जाने के लिए आया हूँ । "

"परन्तु मैं तुम्हारे साथ कैसे चल सकता हूँ ? यहाँ अभी मेरे बहुत से कार्य शेष हैं, बहुत से लोगों को मेरी आवश्यकता है, बहुत से लोगों को सीधे रास्ते पर लाना है ---"

" आप बहुत थके हुए लग रहे हैं, आप मृत्यु को पुकार रहे थे ---मुझे लगा -- "

" हम धरती के प्राणी अपने जीवन में किसी भी भटकाव की अवस्था में न जाने कितनी बार मृत्यु को पुकारते हैं लेकिन मृत्यु के आलिंगन में जाना कौन चाहता है --?" उन्होंने अपने चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट फैलाई और सहज रूप में प्रश्नकर्ता को उत्तर प्रश्न सहित उत्तर परोस दिया।

" ओह ! तो क्या शाश्वत मृत्यु से भी पृथ्वी का मनुष्य आँख-मिचौनी खेलता है?" उसने अपने नेत्र आश्चर्य में गोल-गोल घुमाए ।

" तुम क्या जानो पृथ्वी के मनुष्य की फ़ितरत ! वह कुछ भी कर सकता है। ये सब छोड़ो, तुम बताओ ---और मेरे कक्ष में ---! अरे भई !कहीं तो मुझे अकेला छोड़ दो । " वे बहुत खिन्न दिखाई दे रहे थे।

वह बेचारा भी क्या करता ? एक दूत भर ! जिसको केवल कर्तव्य करने छूट थी, अधिकार किसको कहते हैं, वह जानता ही नहीं था ।

"देखिये, मेरे हाथ में यह 'समय-यंत्र' है, मैं इसे स्थापित करता हूँ, इसकी रेती जितनी देर में नीचे के भाग में पहुंचेगी, आपके पास केवल उतना ही समय रहेगा, उस समय तक आप जो भी कर सकें, कर लें, उसके पश्चात आपको मेरे साथ चलना होगा। "

"क्या --नाम बताया था तुमने अपना ?"उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा। उन्हें यह सब कुछ खेल सा लग रहा था ।

"जी, अभी बताया नहीं --मैं कॉस्मॉस हूँ --" विनम्र उत्तर था ।

"कहाँ से आए हो ?"उनका दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न था ।

"जी, गवाक्ष से ---"

" गवाक्ष ?यह किस स्थान का नाम है ?"

" धरती पर इसे 'वेंटीलेटर' के नाम से जाना जाता है अर्थात रोशनदान !परन्तु हमारे 'कॉस्मिक-वर्ल्ड'में हम इसे गवाक्ष कहते हैं।

" ओह! इसीलिए तुम कॉस्मॉस हो?तो यह कहो न तुम मृत्यु-दूत हो ??"

"जी, क्या अब मैं इस यंत्र को स्थापित कर सकता हूँ ?"

सत्यव्रत जी को यह सब रुचिकर लग रहा था ।

" खड़े क्यों हो ? बैठ सकते हो। " इसके बारे में जानने की उत्सुकता से मंत्री जी के मन में बेचैनी होने लगी, जैसे कुछ क्षणों के लिए वे भूल से गए कि वे कितनी कष्टकर स्थिति से गुज़र रहे थे । उनके अपने पुत्र ही किसी और को मध्यस्थ बनाकर उनका उपयोग करना चाहते थे । दूत भी उनसे वार्तालाप करने के लिए व्याकुल दिखाई दे रहा था । उसने मंत्री जी के सामने की मेज़ पर अपना यंत्र स्थापित कर दिया और स्वयं एक कुर्सी खिसकाकर उनके पलँग के पास जा बैठा ।

" महोदय! क्या मैं आपके बारे में कुछ जान सकता हूँ ? आप कितने प्रसिद्ध हैं! बाहर कितने व्यक्ति आपकी प्रशंसा कर रहे हैं । मैं आपसे प्रभावित हो गया हूँ । "

क्रमश..