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गवाक्ष - 9

गवाक्ष

9=

प्रथम मिलन की रात्रि में स्वाति ने अपने संस्कारों के तहत पति के पैर छुए ;

"यह क्या बकवासबाज़ी है ----यह मत समझना इन दिखावटी बातों से मैं तुम्हारे प्रभाव में आ जाऊँगा ---" और वह झल्लाकर कमरे से बाहर निकल गया । स्वाति चुपचाप उसे देखती रही थी । वह पुरातन अंधविश्वासी परंपराओं से जकड़ी हुई नहीं थी ।

सब कुछ जानते, समझते, बूझते उसने सत्यव्रत जैसे लड़के को पति के रूप में स्वीकार किया था । विवाह उसके लिए चुनौती था तो पति को सदमार्ग पर लाना, माँ व पुत्र के बीच सेतु बनना, सत्यप्रिय के ह्रदय में माँ के प्रति आदर व मान-सम्मान को प्रस्थापित करना और भी बड़ी चुनौती थी। उसे सोचना यह था कि किस प्रकार से अपने अड़ियल पति को हितकारी मार्ग पर लाया जा सकता था ?

उसने स्वाति को नक्षत्र की पवित्र बूँद के रूप में स्वीकार नहीं किया था वरन अपना आसमान तलाशती एक कोमल चिड़िया के पँख कतरकर उसे सोने-जवाहरात के जगमगाते पिंजरे में कैद कर दिया था। सैवी ने अपना बदला बहुत उस्तादी से ले लिया था। स्वाति बहुत गंभीर व बुद्धिशाली थी, सब कुछ समझते हुए भी विरोध न करने वाली लड़की ने अपनी सास के साथ रहकर उनके जीवन का एकाकीपन समाप्त कर दिया था।

" अपने भीतर के मित्र के साथ आनंद करो और मुझे अपने मित्रों के साथ मस्ती करने दो। " विवाह के पश्चात सैवी फिर से बनावटी मित्रों की दुनिया में अपने ‘आउट-हाऊस’ में लौट गया था।

"ये ही आपकी दिवंगत पत्नी हैं न?" कॉस्मॉस ने मंत्री जी के पलँग के ठीक सामने की दीवार पर लगी उस सौम्य महिला की तस्वीर को आदर की दृष्टि से देखते हुए पूछा ।

" हाँ, कॉस्मॉस ! तुमने ठीक पहचाना । वास्तव में चेहरे का दर्पण मनुष्य के भीतर की सादगी प्रतिबिम्बित कर ही कर देता है किन्तु मैं तो महामूर्ख व अहं से भरा हुआ था । मैं कहाँ उस समय जानता था कि मैं जिसे धूप में चमकता हुआ काँच का टुकड़ा समझ रहा हूँ, वह तो एक नायाब हीरा है!"मंत्री जी ने अपनी पलकों पर आए आँसू पोंछ लिए । आँसुओं को अपनी हथेलियों में समेटते हुए मंत्री जी के काँपते हाथों को कॉस्मॉस ने देखा ।

"वह एक अलग ही दौर था कॉस्मॉस ! उस समय मैं इंसान को इंसान कहाँ समझता था । कहाँ इस संवेदन को महसूस कर पाता था कि सबके भीतर एक जैसी ही तो भावनाएं हैं, संवेदनाएं हैं । मुझ जैसे ही प्राण उसके भीतर भी है, उसकी भी कुछ इच्छाएँ हो सकती हैं, सपने हो सकते हैं। मैं तो अपने ही जवानी व पैसे के गुरूर में भीतर तक डूबा हुआ था। लेकिन हर बार तो आपकी ही तूती नहीं बोल सकती? कभी न कभी सबको कड़वा स्वाद भी चखना पड़ता है। " मंत्री सत्यव्रत जी के मन के आँगन में न जाने कितने धुंध भरे द्वार खुलने लगे थे ।

"स्वाति को मैं एक मिट्टी का लौंदा समझकर लाया था जहाँ बैठा दो, वहीं बैठ जाएगी, यह कहाँ सोचा था कि वह मिट्टी की माधो नहीं थी ! कभी-कभी मनुष्य सब कुछ जानता, समझता है, सब बातों से सुपरिचित भी होता है किन्तु उसकी 'अकड़', उसका बेतुका 'अहं'उसका पीछा छोड़ता ही नहीं। बस कुछ ऐसी ही परिस्थिति से मैं उस समय गुज़र रहा था। धन की गरमी के आगे तो अच्छे अच्छे पिघल जाते हैं लेकिन यह स्वाति थी, अपने स्वयं के संस्कारों में रची-बसी, कर्तव्यों तथा अधिकारों के प्रति भी खूब चैतन्य!वह समय को अपने श्रम व गंभीरता से जीतना जानती थी। अपने कर्तव्य करने के पश्चात ही अधिकार समक्ष रखती व उन्हें प्राप्त करती थी । "

मंत्री जी अपने जीवन की पुस्तक के कई दीमक लगे पृष्ठ पलटने लगे थे ।

क्रमश..