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कोरोना काल में कविता से अलख जगाते मुक्तेश्वर

कोरोना महामारी में कविताओं से अलख जगाते-मुक्तेश्वर
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बिहार में 13 मार्च को वैश्विक कोरोना महामारी की रोकथाम के लिए राज्य सरकार ने गाइड लाइन्स तय किये। इसी परिप्रेक्ष्य में सर्वभाषा रचनाकार संघ -सह- अखिल भारतीय लेखक संघ के अध्यक्ष मुक्तेश्वर सिंह मुकेश ने उसी तिथि से अपनी रचनाओं से संदेश देकर आम जन को जागरुक करने की एक शुरुआत की जो लगातार लाॅकडाउन -1 से लाॅकडाउन - 4 तक आबाध रुप से चलता रहा ।उनकी कविताओं को ‘‘कोविड-19’’ की कोरोना काल में संकलित कर देखा जाय तो ऐतिहासिक घटनाक्रम का स्पष्ट प्रतिबिम्ब उन कविताओं में आनेवाले दिनों में देखा जा सकता है।
​उनकी कविताओं और कविता वाचन की तैयार विडियो क्लिपों में लाॅकडाउन के हर स्टेज के उथल पुथल पर मुक्तेश्वर मुकेश की पैनी नजर रही और समायनुकूल परिस्थितियों का वर्णन किया।
15 मार्च 2020 को उन्होंने अपनी कविता में प्रस्तुत किया -"खामोशी के आग़ोश में समाती दुनिया, कहीं माँ-बाप तो कहीं कराहती मुनियां/राष्ट्रीय नहीं अन्तर्राष्ट्रीय भय-सिसकियां, देश -देशलांघती, मौत से कराहती जिन्दगियां/हर चेहरे के ख्वाब हो रहे तार-तार, वायरस की मार चारों ओर हाहाकार/आदमी की जान संग लुढ़का बाजार, दवा की खोज और मंदी की ललकार/सरकारें परेशान मिला भारत का उपहार, बीमारी से बचाव में काम आया नमस्कार/"यह कविता अखबारों की सुर्खियां बन जन-जन तक पहुँच गयी।
24 मार्च को भारत में पहली बार लाॅकडाउन लगने पर क्रिएटिव राइटर मुक्तेश्वर को सहरसा जिला प्रशासन द्वारा कोरोना जागरुकता अभियान में शामिल किया गया, फिर तो नयी-नयी रचनाओं में जनजागरुकता, कोरोना वारियर, श्रमिकों के पलायन, कोरोना वारियर के सम्मान में मार्मिक कविताओं की विडियो फुटेज को जारी किया तो अखबारों, न्यूज चैनलों, सोशल मीडिया पर वाइरल होकर सम्पूर्ण देश में गूंजने लगा। 24 मार्च को उनकी कविता की पंक्त्यिों - ’’कोरोना, करोना, छुओ ना छुओ ना/सबको है जीना, सबको है जीना/कैसी तेरी हरकत, मौत से डरो ना/अपनों से अपनों को दूर करो ना/बड़े बेरहम हो, बड़े वेशरम हो, छोटे बड़ों के नाकों में दम हो/ओ मानव के शत्रु, मेरी भी सुनो ना/हमने ना हारा है, ना सीखा है रोना/लगा ली है कर्फ्यू अपने ही घरों में/ घरों में ही रह के कोरोना से बचके, निकलेगा भारत संकल्प है अटूट ना/
इसी समय चैत नवरात्रा, रामनवमी व चैती छठ के अनुष्ठान भी साथ-साथ चल रहे थे। तब ईश्वर अराधना से महामारी के बचाव को जोड़ने का प्रयास कवि ने किया - "जप, तप की अनगिन कड़ियाँ, छठ-नवरात्र-रामनवमी की घड़ियाँ/विपदा बीच भगवान खड़े हैं, भक्त सभी शक्तिमान बने हैं/पूजा पाठ और ईश आराधना, मंत्र-श्लोक के कवच जड़े हैं/भारत भूमि पर आकर दुष्ट, लक्ष्मण रेखा के पार खड़े है/घर में सुरक्षित अनमोल जिन्दगियां/छठ नवरात्र, राम जनम की घड़ियां/"इन पंक्तियों में भारत के प्रधानमंत्री का वह आह्वान कि घर के लक्ष्मण रेखा से बाहर ना निकले, कविता की पंक्तियों में स्पष्ट दिखती है। इसी दिन रचित दूसरी कविता में लाॅकडाउन, आइसोलेशन, सोशल डिस्टेंशिंग का वर्णन करते हुए जागरुकता को गति दी - ‘‘पहचाना डर, पहचाने लोग/आया कहाँ से लगकर ये रोग/रहें दूर-दूर, अपनों को छोड़/ आइषोलेषन करता भैया निरोग/लाॅकडाउन जाना होता है क्या/ कोरोना वाइरस खाता है क्या/भारत में हो रहा बहुविध उपाय/ जनता सतर्क रोग लगने ना पाये/कोरोना की तबाही, ताने कृपाण/घर की चार दीवारी बचायेगी जान/घरों से ना निकलें, ना खाने जायें पान/पीएम की अपील हर नागरिक लें मान/"अनेक न्यूज पोर्टल पर वायरल हो गया।
प्रथम लाॅकडाउन जब अपने मध्य में पहुँचा तो सड़कें और बाजार वीरान हो गये।चारों ओर सन्नाटा छा गया।घरों में बंद लोग वातावरण की उदासी से ऊबने लगे, तब मुक्तेश्वर ने उस वातावरण को अपनी कविता से 02 अप्रैल को कुछ यों उकेरा - ‘‘काटे ना कटे पल क्षण/हँसे ना हँसे मन/उदास-उदास मौसम,उदास उदास उपवन/पशु पक्षियां मौन,सुलझे ना उलझन/घरों में कटते दिन,झरोखों के पार गगन/सूनी-सूनी सड़कें,निर्भय विचरते हिरण/थरथराते लैम्प पोस्ट,ठिठके-ठिठके पवन/आफत का समय ,अफवाहों का चलन/अस्पताल बना वरदान, डाक्टर हैं भगवन/"
जब लाॅकडाउन में दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज के जमातियों द्वारा कोरोना फैलाया गया,फिर जमात के सिरफिरे द्वारा अस्पतालों में चिकित्सकों, नर्सों के साथ बदसलूकी एवं पुलिस के साथ पत्थरबाजी की जाने लगी तब कलम की धार उन नासमझ शत्रुओं के ऊपर भी चल पड़ी। 12 अप्रैल को उनकी कविता की पंक्तियां संचार तंत्र में जनमानस को भावुक कर दिया - ‘‘ये कैसा प्रहार है, ये कैसा दुव्र्यवहार है/जिनकी सेवा पर निर्भर, रोगग्रस्त मानव जीवन/कोरोना से भी घातक शत्रु, कोरोना के योद्धाओं पर छिपकर करता वार है/वह दुश्मन खूंख्वार है/लाॅकडाउन है दवा हमारी, घरों के अन्दर बंद रहें/बाहर कोविड योद्धा को शत्-शत नमस्कार है/’’
कोरोना की दहशत से जब लोग शुष्क एवं उदास रहने लगे तब लोगों में स्नेह, प्रेम, प्यार के भाव को संचारित करने हेतु श्रृंगार रस की कविताओं को महामारी की वेदना से मुक्ति दिलाने का साधन बनाया । लाॅकडाउन में पर्यावरण भी शुद्ध हो गये, रातों में चाँदनी भी मुग्ध करने लगी। तब कवि ने अपनी पंक्तियों से जन-जन में प्रेम रस घोल दिया। "खिल खिलाती धूप है और चांदनी रातें/करो फिर प्यार की बातें, करो फिर प्यार की बातें/हवाएं मंद-मंद चलती, पुष्प मकरंद की मस्ती/सजन की याद ताजी है, मचल उठती है जज्बातें/ ... सुबह से शाम अच्छी है, पिया की याद सच्ची है/सनम कोविड के हैं प्रहरी, मधुर होगी मुलाक़ातें /वहीं दूसरी कविता में भी रोमांटिक दृश्य पैदा करने की कोशिश की गयी है - "हर आती जाती सांसों में, तेरी ही खुश्बू आती है/वह बार-बार तड़पाती है, यादों की धुंध मिटाती है/सूखी-सूखी तेरे ओठों पर, जब खुशी की लाली छाएगी/तब दौड़कर तू आ जाएगी, यह स्वप्न एहसास कराती है/"
अचानक फिर कवि ने लाॅकडाउन - 02 को कोरोना वारियर के लिए अपनी लिखी कविता को सोशल मीडिया पर डाला तो हजारों लोगों ने लाइक किया और अखबारों में चर्चाएं गूंजती रही। इस कविता की पंक्तियां - "पैगाम है तुम्हें, सलाम है तुम्हें/ना हारा है ना हारेगा, प्रणाम है तुम्हें/दिन रात एककर, खतरों से खेलकर/कोविड का नहीं डर, रोगी पर है नजर/नेक नाम है तुम्हें, सलाम है तुम्हें/कोरोना के वारियर हो, माँ-बाप से दूर हो तुम/नहीं फिक्र अपने घर का, रक्षक मनुज के तुम/वरदान है तुम्हें, सलाम है तुम्हें/"
सिर्फ यहीं नहीं रुकी कवि की कलम। जब अन्य राज्यों से गृह राज्यों तक आने के लिए हजार कि0मी0 की यात्रा पर पैदल ही श्रमिक चल पड़े, कोई बच्चों को गोद में लिए, कोई सिर पर गट्ठर और बैग लिए ।कुछ रास्ते में ही दुर्घटना ग्रस्त होकर मौत की गोद में चले गये। तब करुण दृष्य से मन चित्कार उठा। 17 मई को उनकी रुलाने वाली कविता सामने आयी-"निकल पड़े हजारों पग, लांघने लम्बी डगर/पेट की आग में, झुलस गये नगर-नगर/गोद में अबोध शिशु ,माथे पर लिए गठ्ठर ,डगमगाती चल रही, लक्ष्य का नहीं खबर/संभाले ना संभल रहा, पलायन श्रमिक का/उजड़ने लगी बस्तियाँ, सूना है शहर-शहर/हाथों को ना काम है, बहुत कठिन शाम है/गाँव में ही छांव मिले, वहीं हो जीवन बसर/"
पलायन की घटना घट ही रही थी कि बंगाल-उड़ीसा में आये ’’अम्फान’’ ने सब कुछ उजाड़ दिया। लाॅक डाउन में भूकंप, सीमा पर आतंकी हमला, मोब लीचिंग में साधुओं की जान लेने जैसी घटनाएं कवि को विचलित कर दी। फिर क्या था। कवि की संवेदना दिनांक 22 मई को कागज पर अंकित हो गयी।इन पंक्तियों में मनुष्य की लाचारी का वर्णन यों मिलता है-"क्या करे इंसान, जब बिगड़ जायें भगवान/तिनका जैसे हवा में उड़े, छोटे बड़े मकान/कोरोना की जाल में, ये विश्व बना श्मशान/महामारी से उबर ना सका,आ गया अम्फान/साल दो हजार बीस के, अजब गजब निशान ,विनाशऔर विध्वंश से होगी इसकी पहचान/"
लाॅकडाउन -4 में जब लोग "गाइड लाइन्स "का खुलेआम उल्लंघन कर सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ाने लगे और जगह-जगह भीड़ बनने लगी ,तब आगे आने वाले दिनों में कोरोना संक्रमितों की बढ़ती संख्या की संभावना देख, अपनी कविता में कवि/कथाकार मुक्तेश्वर ने तल्ख शब्दों का प्रयोग कर चेतावनी दे डाली - ’’सोशल डिस्टेंसिंग की बार-बार अपील/फिर भी लोगों की लगती भीड़/क्या प्रशासन ही जिम्मेवारी निभाएं ? लाॅकडाउन में पब्लिक सिर्फ इतराएं/डिस्टेंसिंग बताने, मास्क और सेनिटाजर लगाने/मेडिकल टीम और प्रशासन घर-घर जाएं/पर हम उनकी सलाहों की खिल्ली उड़ाएं/जान है तो जहान है, लाॅक डाउन में अपनी जान बचाएं/और सरकारी तंत्र के संग कदम बढ़ाएं/"
एक कवि की कलम अपनी कविता से लाॅकडाउन - 01 से 04 तक पूर्ण सक्रिय रहकर अलख जगा रहे हैं। जिन्हें कोरोना वारियर के रुप में सम्मानित किया जा रहा है।