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महामाया - 26

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – छब्बीस

शाम को बाबाजी का संदेश मिला तो वो बाबाजी के कमरे की ओर चल दिया।

बाबाजी भगवा रंग का गाउन पहने कमरे में एक ओर लगे रेकलाइनर पर बैठे थे। उनके पैर गर्म पानी के टब में डूबे थे। दो लड़कियाँ पूरी श्रद्धा से उनके पैरों की सफाई कर रही थी। अखिल दरवाजे पर ही रूक गया। बाबाजी ने उसके पैरों की आहट सुन आँखें खोली और स्नेह से कहा ‘‘आओ.....आओ।’’

अखिल नीचे फर्श पर बैठ गया।

‘‘यहाँ कोई परेशानी तो नहीं है बेटा’’

‘‘जी....जी नहीं बाबाजी, पत्रिका के काम में ही लगा हूँ’’

‘‘हम चाहते हैं कि गुरूपूर्णिमा तक पहला अंक निकल आये। आप पूरी तैयारी करके दिल्ली चले जाईये। अपने सामने पत्रिका डिजाइन करवाइये।’’

‘‘जी बाबाजी.....लेकिन मुझे इस बीच एक बार इन्दौर होकर आना है।’’

‘‘तो आप आश्रम से गाड़ी ले जाईये। हम आज ही कौशिक को बता देंगे। राधा वाली सफारी लेकर आपके साथ चला जायेगा। आपको किसी बात की चिंता नहीं करना है बेटे। और किसी भी बात की जरूरत हो तो हमें बताइयेगा।’’

‘‘नहीं बाबाजी.....’’

‘‘बेटे.....आपको अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका निकालनी है। हमने अनुराधा को भी आज फोन कर दिया है। आपकी मदद के लिये वह भी कल यहाँ पहुंच जायेगी। आप पहाड़ घूमे कि नहीं बेटे?’’

‘‘जी नहीं बाबाजी, समय ही नहीं मिला।’’

‘‘अरे!’’ कुछ रूककर बाबाजी ने स्वर ऊँचा करके पुकारा ‘‘ब्रह्मचारी’’

‘‘जी बाबाजी’’ कहते हुए ब्रह्मचारी ने कमरे में प्रवेश किया।

‘‘दिव्यानंद को बुलाओ’’

‘‘जी बाबाजी’’ ब्रह्मचारी वापिस लौट गया।

‘‘और आप.....इधर आईये’’ कहते हुए बाबाजी ने अखिल को अपने पास आने का ईशारा किया। अखिल घुटनों के बल चलकर बाबाजी के पास पहुंचा। बाबाजी ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखा और कहा। ‘‘ये आश्रम आपका है बेटे। आगे चलकर आपको ही यह आश्रम संभालना है। आपको बड़े-बड़े काम करने हैं....किताबें लिखनी है। जब आपका आज्ञाचक्र जाग्रत होगा तो आप नाम, प्रतिष्ठा, वैभव सब पायेंगे।’’

अखिल को लगा उसके साथ कोई चमत्कार हो रहा है। उसने बाबाजी की ओर देखा। वह क्षण भर से ज्यादा उनकी आँखों में नहीं देख पाया। उसने अपना सिर झुका लिया। उसे अपने शरीर और मन में कंपन महसूस हो रही थी।

वी.आई.पी. कमरों के पास से एक कच्चा रास्ता नीचे की ओर जाता था। चंद्रगिरी महाराज की कुटिया उसी रास्ते पर बनी हुई थी। चंद्रगिरी को लेकर आश्रम में यह आम राय थी कि वो तांत्रिक है। उसकी कुटिया में मुर्दे की खोपड़ी, उल्लू की आँख, स्यार सिंगी, बिल्ली का नाखून, कईं तरह की जड़सलियाँ जैसी अजीबो-गरीब चीजें रखी हुई थी। चंद्रगिरी दुबले-पतले शरीर वाले प्रौढ़ वय के साधु

थे। उनकी जटाएँ हमेशा बिखरी रहती थी। वो कपाल पर भस्म का त्रिपुण्ड लगाते थे। आँखें हमेशा गांजे की खुमारी में लाल रहती थी। अमूमन भक्त उनकी कुटिया में कम ही जाते थे। लेकिन आश्रम में लाईट फीटिंग का काम कर रहे दोनों लड़के दिनेश और भूपेन्द्र की चंद्रगिरी से बहुत छनती थी। आज भी वो चंद्रगिरी की कुटिया की ओर जा रहे थे। दोनों का शरीर गठा हुआ था। उम्र यही कोई 23-24 के आसपास होगी। दिनेश ने जिंस पर कुर्ता पहिन रखा था। भूपेन्द्र टाईट जिंस और टी-शर्ट पहिने हुआ था। दोनों ने झोपड़ी में अंदर घुसते हुए समवेत स्वर में कहा -

‘‘चंद्रगिरी महाराज की जय हो’’

‘‘जय हो प्रभू जय हो’’ चंद्रगिरी आधे झुके धूनी फूंक रहे थे।

‘‘आज क्या व्यवस्था है महाराज’’ दिनेश ने कुटिया में बिछी चटाई पर बैठते हुए कहा। भूपेन्द्र भी चटाई पर अपने दोनों पैर फैलाकर बैठ गया।

‘‘साधु की कुटिया में क्या व्यवस्था होगी प्रभू। ले दे के भोले का प्रसाद है सो पाओ’’ कहते हुए चंद्रगिरी हुक्का तैयार करने के लिये उठ खड़े हुए।

‘‘लगता है आज मुर्गे की बलि चढ़ी है’’ भूपेन्द्र ने कुटिया में एक ओर बिखरे मुर्गे के पंखों की ओर देखते हुए कहा।

‘‘प्रभू, ओघर के लिये क्या मुर्गा और क्या दाल। जो भैरव भेज दे। वही प्रसाद है। हमारे गुरू कहते थे कि ओघर को वस्तु, वस्तु में भेद नहीं करना चाहिए। जो भी खप्पर में मिल जाये उसे ग्रहण करना चाहिए।’’ चंद्रगिरी ने हथेली में गांजा मसलकर हुक्के में भरते हुए दार्शनिक अंदाज में कहा।

‘‘सही है महाराज..... एक आप ही हो जो धूनी का खाते हो....साधू तो वही हुआ। जो धूनी का खाए। चूल्हे, गैस पर तो गृहस्थ खाते हैं।’’

‘‘दिनेश ने चंद्रगिरी के हाथों से चिलम ले ली। उस पर धूनी से जलता हुआ कोयला निकालकर रखा। फिर एक लंबा कश खींचकर चिलम चंद्रगिरी की ओर बढ़ा दी।

‘‘सच्चे साधु को पहिचानना सबके बस की बात नहीं है महाराज। आपको भी इस आश्रम में लोग कहाँ पहचान पा रहे हैं। सब बाबाजी को ही प्रणाम करने दौड़ते हैं।

चंद्रगिरी ने दोनों हाथों का मुट्ठा बनाकर चिलम मुँह से लगायी। गरदन को थोड़ा सा एक ओर झुकाते हुए गांजे के तीन-चार गहरे कश अपने अंदर उतारे।

‘‘अब चंद्रगिरी को कौन प्रणाम करने आयेगा। चंद्रगिरी के पास बाबाजी जैसे लटके-झटके तो हैं नहीं। यहाँ तो जो है सो खुली किताब है प्रभू।’’

‘‘लटके-झटके ज्यादा दिन चलते भी नहीं हैं महाराज’’

‘‘चलते हैं....और झटाके से चल रहे हैं। लटकों-झटकों से ही तो गाड़ी, घोड़ा, आश्रम, चले-चेलियाँ, मौज-मस्ती सब है। चंद्रगिरी के पास क्या है घंटा।’’

‘‘होगा....सब होगा। आपके भी खूब ठाठ होंगे महाराज। बस, तब हमें भूल मत जाना।’’

‘‘हमने तो सब भैरव पर छोड़ दिया है। जैसी भैरव की मर्जी। अपना आश्रम बन जाये तो ठीक वरना यहाँ में तो पड़े ही हैं।’’ चंद्रगिरी और दिनेश बातों में व्यस्त थे। उधर भूपेन्द्र चिलम के कश पर कश खींचे जा रहा था। दिनेश ने भूपेन्द्र से चिलम छिनी और एक-दो कश लगाकर चिलम चंद्रगिरी की ओर बढ़ा दी।

‘‘आजकल महाराज इस सूर्यगिरी के भाव बहुत बढ़ गये हैं।’’

‘‘हाँ....बाबाजी ने सूर्यानन्द के मिजाज ठिकाने लाने के लिये सूर्यगिरी को थोड़ी सी ढील क्या दे दी। अपने आपको महंत समझने लगा है। चाबियों का गुच्छा टांगे आश्रम में थानेदार बना घूमता है। अभी बाबाजी को जानता नहीं है। एक बार हम भी टांग चुके हैं। तुम्हारी उससे क्या अड़पंच हो गई।’’

‘‘कल रात को हम....। वो कैंसर का मरीज नहीं है। जो नीचे अपनी बीवी के साथ ठहरा है। उसके कमरे में बैठे थे। वहाँ आकर हमसे रंगदारी से बात करने लगा। मैंने भी उसको झाड़ दिया कि हमसे कुछ उल्टा-सीधा कहने के पहले अपने बाप से पूछ लेना।’’

‘‘फिर....क्या कही सूर्यगिरी ने’’

‘‘कहता क्या। सुट्ट रह गया। थोड़ी देर तो वहीं खड़ा रहा फिर कुड़कुड़ाता हुआ चला गया।’’

‘‘कल रात को हमारे पास भी आया था अड़पंच करने’’

‘‘अच्छा..... क्या बोल रहा था?’’

‘‘बोला महाराज यहाँ यह सब नहीं चलेगा। आश्रम का माहौल खराब हो रहा है। हमने भी कह दिया। बाबाजी हमें बागेश्वर मंदिर से लाये हैं हम अपनी मर्जी से नहीं आये। हमसे जो कहना होगा बाबाजी कहेंगे।’’

‘‘एकाध बार उसे भी भैरव का प्रसाद पिलवा दो महाराज। एक ही रात में सारे नियम-कायदे भूल जायेगा।’’

‘‘ढोंगी है मादर......। .दिनभर साधु बना फिरता है। रात को ठेकेदार के घर में घुसा रहता है। चंद्रगिरी को नहीं मालूम क्या? आश्रम में कौन क्या करता है। क्या रामलीला यहाँ होती है। चंद्रगिरी से कुछ छुपा थोड़ी है।’’

‘‘साधुओं में मड़ला महाराज अच्छा आदमी है।’’ भूपेन्द्र ने चिलम चंद्रगिरी को पकड़ाते हुए कहा।

‘‘हाँ....है तो। पर केवल भक्तिभाव और नियम धरम से आजकल साधुगिरी नहीं चलती। साधु जीवन में भी दांव-पेंच है। एकाध बार हमने भी अच्छा आदमी समझकर हुक्के पानी का पूछ लिया था। हमसे ही ज्ञान बघारने लगा। साधु जीवन यानि साधु जीवन। अब बैहन चो....हमें मालूम नहीं है क्या कि साधु जीवन क्या होता है।’’

भूपेन्द्र ने चिलम चंद्रगिरी के हाथों से लेकर एक लंबा कश खींचा। दोनों नाक के नथूनों से धुआँ बाहर फैंका। फिर अपनी राय प्रकट की -

‘‘कुछ भी कहो पर मड़ला महाराज के विचार बड़े उच्च हैं। सच्चा साधु है मड़ला महाराज।’’

गुस्से से चंद्रगिरी ने भूपेन्द्र के हाथों से चिलम छिन ली।

‘‘तुम वहीं जाकर मड़ला महाराज के उच्च विचारों की चिलम बना के पियो। यहाँ चंद्रगिरी की कुटिया में क्या कर रहे हो।’’ दिनेश ने चंद्रगिरी को उखड़ते देखा तो बीच-बचाव करते हुए भूपेन्द्र को डपटा -

‘‘गांजा सदता नहीं तो पीता क्यों है? नशे में कुछ भी आँय-बाँय बकता है।’’

भूपेन्द्र ने स्थिति बिगड़ते देख कुटिया की दीवार से सिर टिकाकर आँखें बंद कर ली। दिनेश ने चंद्रगिरी की ओर मुड़ते हुए कहा -

‘‘महाराज बच्चा है। आप तो यह अंग्रेजी अपने भैरवनाथ को चढ़ाओ। गांजे का नशा साला खराब ही होता है।’’

दिनेश ने अपनी पंपेंट की जेब से एक अंग्रेजी शराब की बोतल निकाली और चंद्रगिरी के हाथों में पकड़ा दी। अंग्रेजी शराब की बोतल देखकर चंद्रगिरी स्वामी की आँखों में चमक आ गई। उन्होंने दांये हाथ से बोतल उठाकर बांये हाथ से बोतल को नीचे से ठोंका और फिर उसका ढक्कन खोलने लगे। हाथ के साथ जुबान भी चल रही थी।

‘‘नशे का मतलब ये थोड़े ही है कि आप बाप को भी भूल जाओ।’’

भूपेन्द्र चंद्रगिरी से कुछ कहने ही जा रहा था कि दिनेश ने अपने मुँह पर ऊंगली रखकर उसे चुप रहने का संकेत किया।

चंद्रगिरी ने बोतल खोलकर कुटिया में एक ओर रखी खोपड़ी पर विशेष तरह की आवाज निकालते हुए धार चढ़ाई -

‘‘ऊँ बड़ऽऽ.....बड़ऽऽ बड़म....बड़म भैरवाय नमः।’’ फिर दो खाली गिलास और खप्पर में शराब उंडेली। दिनेश और भूपेन्द्र ने गिलास उठाकर एक साँस में खाली कर दिये। चंद्रगिरी ने भी खप्पर मुँह से लगाया और खाली खप्पर जमीन पर रखते हुए डकार के साथ आवाज निकाली ‘ऊँ भैरवाय नमः’।

गिलास और खप्पर में फिर शराब उंडेली गई। दौर जारी था। तीसरी बार चंद्रगिरी ने खाली खप्पर थोड़ा जोर से जमीन पर पटकते हुए कहा -

‘‘स्साला.....एक बार भैरव तंत्र सिद्ध हो जाय फिर अपना भी आश्रम बन जायेगा।’’

‘‘तो सिद्धी कर लो न महाराज। परेशानी क्या है। दिनेश ने बची हुई शराब खप्पर में डालते हुए कहा।

‘‘परेशानी है। माँस चाहिए। मदिरा चाहिए। मैथुन चाहिये। तब भैरव प्रसन्न होता है। माँस-मदिरा का इंतजाम तो है। पर मैथुन। कुसुम से भैरवी बनने के लिये कहा तो छिनालपन दिखाकर चली गई। गई है बाबाजी से हमारी शिकायत करने। बाबाजी हमारा क्या उखाड़ लेंगे।’’ कहते हुए चंद्रगिरी ने दोनों हाथों से अभद्र ईशारा किया। ‘‘अरे बाबाजी पर आज जो लक्ष्मी मेहरबान है वो क्या बिना भैरव सिद्धी के हुई है।

‘‘क्या कहते हैं महाराज जी’’

‘‘हाँ तो! पता नहीं कितनी भैरवियों को भोग लगा चुके हैं। दो भैरवी तो सदा साथ ही रहती है। एक हम हैं जिसे पगली कुसुम तक नसीब नहीं। अरे ये कुसुम तो भवानीगढ़ वाले बाबा की भैरवी थी। ऐसा ही छिनालपना वहाँ भी दिखाकर सिद्धी बीच में छोड़ आई। इसी में तो दिमाग फिरा है इसका।’’

‘‘अरे महाराज आप भी न! कुसुम में अब क्या दम बचा है। निचुड़ गई है पूरी।’’

‘‘अब जो मिल जाये उससे ही तो काम चलाना पड़ेगा न! चंद्रगिरी के लिये राधामाई तो भैरवी बनने से रही।’’ चंद्रगिरी ने खप्पर उठाकर मुँह से लगाया और एक ही साँस में खाली कर दिया।

‘‘महाराज चिन्ता मत करो। आपके लिये भैरवी का इंतजाम मैं करूंगा। भैरवी भी ऐसी टनाटन होगी भैरव भी देखते ही प्रसन्न हो जायेंगे।’’ दिनेश ने गिलास खाली कर जमीन पर रखा।

‘‘कौन है’’ चंद्रगिरी ने तपेली में पक रहे मुर्गे को कड़छुल से हिलाते हुए पूछा।

‘‘कैंसर वाले मरीज की बीवी। एकदम गद्दर है।’’

‘‘वो आसानी से तैयार हो जायेगी।’’ चंद्रगिरी की आँखों में संदेह था।

‘‘हो जायेगी.... बस आपको यह कहना पड़ेगा कि यदि वो नग्न पूजा देगी तो भैरव प्रसन्न होंगे। उसके पति का कैंसर ठीक कर देंगे। उसकी जान अपने पति में है महाराज। पति को ठीक करवाने के लिये वो कुछ भी कर सकती है।’’

‘‘ठीक है। कल ही ले आओ’’ चंद्रगिरी ने कड़छुल से मुर्गे की एक बोटी बाहर निकाली, अंगूठे उंगली से दबाकर देखा फिर बुदबुदाये ‘‘अच्छा पक गया।’’

चंद्रगिरी ने तपेली चूल्हे से उतारकर नीचे रखी। दो थाली और खप्पर में बोटियाँ परोसकर दोनों थालियाँ दिनेश और भूपेन्द्र के सामने सरकायी और खुद खप्पर लेकर बैठ गये।

‘‘लीजिये प्रभू, भैरव की बलि का प्रसाद ग्रहण करिये’’ तीनों बातें करते हुए खाने लगे।

क्रमश..