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महाराष्ट्र एयरलाइन्स टेकिंग ऑफ

महाराष्ट्र एयरलाइन्स टेकिंग ऑफ

(यह कहानी ‘बाबा कभी नहीं लौटे’ नाम से जनसत्ता, दिसंबर, २०१३, में छपी थी)

अनिरुद्ध देशपांडे

“यंग मैन व्हाट इस योर नेम ?”

ऊंचे भारी स्वर और क्लिष्ट अंग्रेजी में सवाल अचानक पूछा गया.

स्कूल की यादों में खोया बस स्टॉप से घर लौटता हुआ दस साल का पतला दुबला लड़का घबरा गया. रास्ता रोके, सामने खड़े लगभग छह फूट के बलिष्ट आदमी ने अक्टूबर के महीने में लंबा काला ओवरकोट और ऊन की खाकी पतलून पहन रखे थे. लम्बे मैल भरे नाखूनों से सुसज्जित गंदे पाँव, जो ग्यारह नंबर से कम न रहे होंगे, पतलून के पाओंचो से बाहर फैले हुए थे. घनी काली-सफ़ेद दाढ़ी और महादेव की जटाओं समान केश सवाल पूछने वाले के चेहरे को ढके हुए थीं. दाढ़ी में अटकी धूल के सुनहरे कण दोपहर की धूप में चमक रहे थे.

लड़का ठिठका और दैत्य की जीवित भूरी आँखों में पूरी तरह उतर कर बोला “अजीत यशवंत कुलकर्णी.”

नाम सुनते ही अजनबी मुस्कुराया. सूखे फटे हुए होंठ खुले. अपने टेढ़े-मेढे पीले दांत और गलते हुए मसूड़े प्रदर्शित करते हुए उसने बस इतना ही कहा “महाराष्ट्र के हो ? वैरी गुड ! दिल्ली कब आये ?”

“१९६८ में. तब मैं छोटा था. प्रेप क्लास में पढता था” अजीत ने जवाब दिया. बदले में अजनबी ने हामी भरते हुए सर हिलाया और इशारे से उसे घर जाने की सलाह दी. उस रात अजीत नें अपनी माँ को उस आदमी और उसके बेहतरीन अंग्रेजी तलफ्फुस के बारे में बताया तो लेडी डॉक्टर ने वक़्त न ज़ाया करते हुए जवाब दिया था “कोई पागल मालूम होता है. यु स्टे अवे फ्रॉम हिम !”

वह कौन था. कहाँ से आया था. उसे कहाँ जाना था और चार साल बाद एक दिन धूल के गुबार और राइफल की गोलियों के बीच वह कहाँ चला गया कोई नहीं जानता था. अजीत को छोड़ किसी ने पता लगाने की कोशिश भी नहीं की. साथ ही उसके वो अज़ीज़ वफादार छह कुत्ते मिन्टो रोड छोड़कर हमेशा के लिए चले गए. अजीत की छोटी सी दुनिया में कभी न भरने वाला एक खालीपन रह गया. एक दिन स्कूल से लौटते हुए अजीत ने उस से उसका नाम पुछा था. बाबा सोच में डूब गए. अजीत का दिया हुआ कराची हलवे का टुकडा मूंह में डाला और कुछ पल बाद एक कुत्ते का सर सहलाते हुए बोले “व्हाट इस इन अ नेम !” कुत्तों से खेलने के बाद अजीत जब बाबा के ठिकाने से जाने लगा तो पीछे से उन्होंने आवाज़ दी थी. “सुनो ! अगर तुम मुझे नाम से ही पुकारना चाहते हो तो आज़ाद कह सकते हो.” उस दिन के बाद सिर्फ अजीत अकेले में उसे आज़ाद कहकर संबोधित करता था.

उस आदमी की उम्र ज़्यादा नहीं थी लेकिन मुनिसिपल्टी के लोग और कमला मार्किट पुलिस थाने के पुलिस कर्मी उसे “बाबा” कहते थे. मुनिसिपल्टी के सफाई कर्मचारी बाबा के दोपहर के भोजन और नहाने धोने का प्रबंध कर देते थे. रात का खाना बाबा कमला मार्किट के बगल में स्तिथ हरिहर बाबा के मठ के बाहर भिखारियों की कतार में बैठ कर आराम से खाते थे. माँ की आँखों से बचाकर अजीत अक्सर बाबा के लिए घर में बने पकवान इत्यादि लाया करता था. स्कूल के लंच रूम से भी बाबा और उनके कुत्तों के लिए पैन्ट की जेब में रोटियाँ आतीं थीं. बाबा के भोजन का प्रबंध फूटपाथ पर रहने वाले बेलदार भी अक्सर कर दिया करते थे. वैसे भी बाज़ार सीता राम और रामलीला मैदान में धार्मिक भंडारे लगते रहते थे लिहाज़ा बाबा के गठीले शक्तिशाली शरीर चार साल सलामत रहा.

मिन्टो रोड पर आने के तुरंत बाद बाबा उसके रिहाईशी इलाकों का मुआयना करने लगे थे. मन होता तो क्रिकेट के गलत स्ट्रोक लगाने वाले लड़कों को जोर से डांट देते. कभी शकूर की डंडी पर, गरीब मुसलमानों की झुग्गियों के पास, अज़ान सुनते हुए चाय का मज़ा लेते थे. कभी धोबी टोले में ओवरकोट उतार कर ढोलक की थापों पर भांग के नशे में होली मनाते थे. लेकिन यह सब बाद में हुआ. शुरू में मिन्टो रोड के उस रूढ़िवादी निम्न मध्यम और माध्यम वर्गीय इलाके के लोगों को बाबा का पैरहन और व्यवहार अच्छा नहीं लगा. इतेफाक से कुछ घरों में उन्ही दिनों छोटी मोटी चोरियां हुईं और कुछ शराफत के ठेकेदारों ने बाबा की शिकायत पुलिस स्टेशन में कर दी.

पुलिस ने मजबूरन मुनिसिपल्टी के बाहर वाले फूटपाथ पर सिमटे बाबा के ठिकाने की तलाशी ली. कुछ अंग्रेजी किताबों, धुंधली फोटो और पुराने तमगों के इलावा कुछ नहीं मिला. पशेमा हुए पुलिस वाले बाबा को पुलिस स्टेशन ले गये. पीछे पीछे भिखारियों की उत्सुक भीड़ चल दी. बाद में पता चला की थानेदार को उन्होंने अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, तमिल और न जाने कौन सी विदेशी भाषाएँ मिलाकर एक ज़ोरदार भाषण दिया. थानेदार को भिखारियों से उलझने के अलावा कई और काम थे. जी बी रोड और वहां के रंडी खाने कमला मार्किट थाने के अधीन थे जहाँ से थाने को अच्छी आमदनी होती थी. फिर भी थानेदार ने पुरे बीस मिनट भाषण सूना. आस पास खड़े सिपाही मुस्कुराने लगे और लॉक उप में पड़े चन्द चोर उच्चके ठहाके लगाने लगे. ‘सिरफिरे’ बाबा को बाइज्ज़त ‘रिहा’ किया गया और उस दिन के बाद किसी ने उन्हें तंग नहीं किया. थाने से भिखारियों की पलटन को बाबा सीधे हरिहर बाबा के मठ ले गए. अगले दिन पूरे इलाके में बाबा की फतह की खबर फ़ैल गयी. एक बात और हुई. इस वाकये के बाद बाबा ने इलाके के चौराहों पर और दुकानों पर सभी शरीफ दिखने वाले लोगों को अंग्रेजी में भाषण देना शुरू कर दिया.

बाबा के फूटपाथ पर स्थापित होने के लगभग महीने बाद मुनिसिपलिटी का बड़ा पंप खराब हो गया. स्कूल से लौटते हुए अजीत ने मुनिसिपलिटी के सामने जमा भीड़ देखी तो खबर लेने भीड़ के करीब पहुंचा. भीड़ में उसके कुछ पडौसी भी थे. उसी समय उसने जे.ई. रतनलाल की आवाज़ सुनी.

“पंप ठीक करने वाला मेकेनिक चंदू कहाँ है ?” रतनलाल ने चिडचिडे स्वर में बाबूलाल चौकीदार से पुछा.

सवाल का बूढ़े चौकीदार पर कोई असर नहीं हुआ. लापरवाही भरे अंदाज़ में उसने जवाब दिया “दिवाली और भाई दौज के लिए घर गया है. दस दिन में लौटेगा.”

“तो क्या दस दिन पंप यूँही पडा रहेगा ? किसी और कारीगर को क्यों नहीं ले आते. जब तक मैं पंप चेक करूँ तुम कमला मार्किट से किसी को ले आओ. जाओ, मेरी शक्ल क्या देख रहे हो?”

“आज विश्वकर्मा डे है, कोई कारीगर औज़ार नहीं छुएगा” बबूलाल ने मज़े लेते हुए दो टूक जवाब दिया. शायद रतनलाल से उसकी कोई पुरानी दुश्मनी थी. दूसरी तरफ जमा हुई भीड़, जिसमे फूटपाथ पर रहने वाले कई बेलदार और भिखारी मौजूद थे, इस विवाद का पूरा मज़ा ले रही थी. पंप ख़राब होने की वजह से उन पर होने वाली बाबूलाल की मेहेरबानियों में कोई कमी नहीं आयी थी.

जे ई माथा पीटने ही वाले थे की पीछे से ऊंचा स्वर सुनाई दिया “शेड में औज़ार हैं?”. अजीत ने घूम कर देखा तो बाबा शांत मुद्रा में खड़े थे. रतनलाल ने बाबा को देखा, कुछ सोचा, और फिर इशारे से बाबूलाल और उन्हें पंप शेड की तरफ जाने की अनुमति दे दी. बाबूलाल के पीछे बाबा और उनके वफादार चार पैरों वाले सैनिक शेड में दाखिल हुए जहां पंप और औज़ार दोनों मौजूद थे. अजीत ने पीछा करने की कोशिश की तो रतनलाल ने उसे रोक दिया.

कोई पंध्रह मिनट बाद बाबा, बाबूलाल और बाबा के कुत्ते पंप हाउस से बाहर आये. तब तक पंप चलने की आवाज़ आनी शुरू हो गयी थी. मुनिसिपलिटी के प्रांगन से निकलते हुए मंझले कद के बीडी पीते हुए रतनलाल के सामने बाबा एक पल रुके और अंग्रेजी में बोले “यू आर सपोस्ड टू बी एन इंजिनियर. आर यू नॉट?”. उस दिन से बाबा के प्रति अजीत के पड़ोसियों का रवैया बदलने लगा. कहीं किसी की सिलाई मशीन ख़राब हो जाती थी तो अजीत को बाबा के पास भेजा जाता था. एक रात साठ नंबर में रहने वाले डॉक्टर अहुजा की नई फ़िएट कार बिगड़ गयी. बाबा को तलब किया गया. टोर्च की रौशनी में अजीत के अचंभित नज़रों के सामने कार ठीक हो गयी. अगले दिन लोगों ने देखा की बाबा के अड्डे पर एक नयी रजाई पड़ी थी जिस पर उनके कुत्ते आराम फरमा रहे थे ! पुलिस वाले भी वक़्त बे वक़्त बाबा से अपनी मोटरसाइकिल और जीप ठीक करवाने लगे. थानेदार भी आते जाते उनका हाल पूछा करते थे.

“क्यों लाल बाबाजी, कब आएगी तुम्हारी क्रांति ?” पुलिस वाले मजाक करते हुए बाबा से पूछते.

“क्या बात है, आजकल पुलिस वाले भी बेसब्री से बगावतों का इंतज़ार करते हैं” बाबा भी हँसते हुए जवाब देते थे.

एक और काम में उन्होंने पुलिस की काफी मदद की. नेहरु मार्ग, मिन्टो रोड, कमला मार्किट और रामलीला मैदान का कोना जहाँ मिलते हैं वहां उन दिनों एक छोटा गोल चक्कर हुआ करता था जहाँ सुबह और शाम को भयंकर ट्राफिक जैम लगते थे. बिना किसी के कहे बाबा ने हफ्ते में पांच दिन वहां अनौपचारिक ट्राफिक वार्डन का काम निशुल्क शुरू कर दिया. गाडी, बस, रिक्शा, स्कूटर, बैलगाड़ी, तांगे और साईकिल वालों को बड़े अदब और स्टाइल से रोका जाता था. रोकते हुए बाबा ऊंची आवाज़ में, लोगों के कहकहों के बीच, बस इतना कहते थे:

“रुको ! स्टॉप ! महाराष्ट्र एयरलाइन्स टेकिंग ऑफ !”.

बाबा ने उस गोल चक्कर को पर्यटन आकर्षण बना दिया था. अजीत और उसके दोस्त अक्सर इस प्रदर्शन को देखने जाते थे और बाद में अजीत बाबा के कुत्तों के साथ खेला करता था. आज भी मिन्टो रोड के कुछ पुराने बाशिंदे, जिनमे लेखक शामिल है, बाबा के उस पुलिस अवतार को याद किये बिना नहीं रहते.

१९७५ की गर्मियों की छुट्टियां चल रहीं थीं जब एक शाम रेडियो और टीवी पर घोषणा की गयी की देश में इमरजेंसी लगा दी गयी है. इमरजेंसी के दौरान शकूर की डंडी से धोबी टोले को हटाया गया और धोबियों को मंगोलपुरी भेज दिया गया. धोबी सन १९३६ से शकूर की डंडी पर रह रहे थे. इलाके में उनकी कई भट्टियां थीं. रोते हुए विस्थापित धोबी जबरन ट्रकों में लादे गए. अजीत और उसके दोस्त ट्रकों के पहियों से उठती धुल में यह नज़ारा, यकीन किये बगैर, देखते रहे. किसी ने उन बदनसीब लोगों के लिए कुछ नहीं किया. कुछ महीनो बाद अजीत स्कूल से लौट रहा था जब बस स्टॉप पर उसे तुर्कमान गेट से पठाखे फूटने के आवाजें सुनाईं दीं. रामलीला मैदान के पार सैकड़ों लोग खड़े थे और भारी संख्या में खाकी वर्दी पहने पुलिस वाले और उनके लोहे के बख्तरबंद वाहन तैनात थे. लाउडस्पीकर पर ज़ोरदार घोशनाएँ हो रहीं थीं.

“आज़ाद, वहां क्या हो रहा है ? इतनी पुलिस क्यों जमा है. और यह पटाखे क्यों चलाये जा रहें हैं ?” अजीत ने तुर्कमान गेट की तरफ जाते हुए बाबा को रोकते हुए पूछा.

“सी.आर.पी.ऍफ़ लोगों पर फायरिंग कर रही है. तुर्कमान गेट के बाहर खडी इमारतें बुलडोज़रों से गिरायीं जा रहीं हैं. मैं देखने जा रहा हूँ. शायद ज़ख्मियों को खून की ज़रुरत हो. तुम घर जाओ और जब तक सब कुछ नार्मल न हो जाए घर से निकलना मत. कल सुबह स्कूल के लिए बस भी कानोट प्लेस की तरफ से लेना. गुड बाई ! ”

अजीत हिचकिचाया. एक पल उसका मन हुआ आज़ाद के साथ चला जाए. दूर से एम्बुलेंस के साइरन की आवाज़ आने लगी. पुलिस वाले ज़ख्मियों को इरविन हॉस्पिटल ले जा रहे थे. बाबा ने उसे हल्के से धकेलते हुए घर की तरफ मोड़ दिया. सडक के छोर पर अजीत को घर के लिए मुड़ना था. वहां अजीत रुका और तुर्कमान गेट की तरफ देखने लगा. गोलियों की आवाज़ अब लगातार आ रही थी. बगावत के शोर और आसमान में उठते हुए गुबार की तरफ तेज़ी से बढ़ते हुए आज़ाद और उसकी फ़ौज को अजीत ने आखरी बार देखा और भारी मन से घर की तरफ कदम बढ़ा दिए.

रात भर गोलियां चलती रहीं और इलाके में कोई सोया नहीं. लोग घरों की छतों पर चढ़ कर तुर्कमान गेट की तरफ देख रहे थे. सारी रात अजीत की ऑंखें बाबा को ढूँढतीं रहीं.

अगली सुबह अजीत जल्दी तैयार हुआ और बाबा के अड्डे पर जा पहुँचा. अड्डा सुनसान था, कुत्ते गायब थे और बाबा का सामान हमेशा की तरह करीने से रखा हुआ था. उदास मन लिए अजीत स्कूल गया. हर तरफ तुर्कमान गेट के हादसे की चर्चा थी. किसी तरह दिन ख़त्म हुआ और अजीत व्याकुल स्तिथि में बस स्टॉप से उतरा और सीधे बाबा के ठिकाने पर पहुँचा. अड्डा गायब हो चुका था. फूटपाथ से भिखारी और बेलदार भी गायब थे. न उनके चूल्हे साबुत बचे थे न उनका सामान कहीं नज़र आ रहा था.

अजीत भागता हुआ बाबूलाल के पास गया “बाबुलालजी, आज़ाद कहाँ चले गए ?”

“कौन आज़ाद ?” बाबूलाल ने अजीत से पुछा.

“बाबा, उनका नाम आज़ाद है. कहाँ गए ?” अजीत ने धड़कते दिल को काबू में लाते हुए जवाब दिया.

“पता नहीं. जब से मुसलमानों पर गोलियां चलीं हैं नज़र नहीं आये. आज सी.आर.प.ऍफ़. के जवानों ने भिखारियों को भी मंगोलपुरी पहुँचा दिया. बाबा का सामान मैंने शेड में रख दिया है. लौटेंगे तो दे दूंगा.”

माहौल ठंडा हुआ तो अजीत ने तुर्कमान गेट जाकर लोगों से बाबा के बारे में तहकीकात की लेकिन कोई सुराग हाथ नहीं लगा. अजीत की माँ इरविन हॉस्पिटल में काम करतीं थीं इसलिए अस्पताल के कर्मचारी उसे पहचानते थे. उनकी सहायता से अजीत ने अस्पताल का चप्पा चप्पा छान मारा लेकिन बाबा नहीं मिले. अजीत का मानना था की अगर बाबा को भी मंगोलपुरी भेजा गया था तो ज़रूर वह लौट आते.

बाबा कभी नहीं लौटे. अजीत ने भरी आँखों से महीनो उनका इंतज़ार किया. बाबूलाल और उसके दोस्तों ने कई बार उसे मुनिसिपलिटी के बाहर बैठे हुए देखा. कुछ लोगों का कहना था की उन्होंने अजीत को कभी कभी ओवरकोट पहने लोगों के पीछे भागते हुए भी देखा. दो साल बाद बाबूलाल सेवानिवृत हुए तो उन्होंने वह बक्सा, जिसमे आज़ाद की किताबें, पुराने पारिवारिक फोटो और मैडल थे, गाँव लौटने से पहले अजीत को थमा दिया.

समाप्त