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माँ

माँ

श्यामा सुबह-सुबह नहा-धोकर एक लोटे में जल और डलिया में फूल लेकर मन्दिर चली जा रही थी। यह उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या थी। अचानक उसे किसी शिशु के रोने का स्वर सुनाई दिया। उसने उस ओर देखा जिस ओर से वह आवाज उसे सुनाई दी थी। वहां उसे कोई भी नहीं दिखा पर आवाज आ रही थी। उसके पैर किसी दैवी प्रेरणा से उस ओर मुड़ गए।

मन्दिर के पास की उस खुली जगह में कपड़ों में लिपटा हुआ एक शिशु पड़ा था। आसपास कोई नहीं था। शिशु रो रहा था। श्यामा ने उसे अपनी गोद में उठा लिया। वह उस शिशु की मां की तलाश में इधर-उधर देखने लगी। उसे कोई नहीं दिखा। तब उसके मन में विचार आया कि शायद वे मन्दिर गए हों। उसके गोद में लेने से वह शिशु चुप हो गया था। वह कुछ देर तक उसे गोद में लिये हुए खड़ी रही, पर कोई नहीं आया। जब समय अधिक होने लगा तो वह उसे लेकर मन्दिर के पुजारी के पास गयी।

पण्डित जी यह बच्चा बाहर चबूतरे पर अकेले पड़ा-पड़ा रो रहा था। किसका है? उसने पण्डित जी से पूछा।

पता नहीं बेटी ! अभी तो यहां कोई नहीं आया।

मैं काफी देर से प्रतीक्षा कर रही हूँ। इसे किसको सौंप दूं?

अब अभी तो यहां कोई नहीं है। कुछ देर और ठहर जाओ इसे लाने वाल आ जाए तो उसे सौंप देना। श्यामा फिर काफी देर तक मन्दिर के अन्दर ठहरी रही। उसने उस शिशु को पानी पिलाया। श्यामा को उस शिशु को गोद में लिये हुए एक घण्टे से भी अधिक हो गया था। इस बीच पुजारी का मन्दिर के पट बन्द करने का समय हो गया था। उसने मन्दिर के कपाट बन्द कर दिये थे और वह घर जाने की तैयारी कर चुका था। श्यामा चिन्तित थी। घर पर उसका बेटा अकेला था। वह भी अभी छोटा ही था।

पुजारी जी जब जाने लगे तो श्यामा ने उनसे पूछा कि पण्डित जी इस बच्चे का क्या करुं?

मैं क्या कहूँ? ऐसा करो अभी तो तुम इस बच्चे को अपने ही पास रखो। जब कोई इसे पूछता हुआ आएगा तो मैं उसे तुम्हारे घर भेज दूंगा।

श्यामा उस बच्चे को घर ले आई।

श्यामा का एक बेटा था सूरज। अभी उसका किसी भी स्कूल में दाखिला नहीं हुआ था। पति की मृत्यु हो चुकी थी। पति की मृत्यु के बाद श्यामा के सामने उसका और उसके बेटे का भविष्य था। वह अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से पूरा कर रही थी। वह अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी। महिलाओं और बच्चों के कपड़े सिलकर और खाली समय में बड़ी, पापड़ आदि बनाकर उन्हें बेचकर वह अपने दो प्राणियों के परिवार का पालन-पोषण कर रही थी। जब वह उस शिशु को लेकर घर पहुँची तो सूरज ने उससे पूछा- माँ यह कौन है?

श्यामा को समझ में नहीं आया कि एक पांच साल के बच्चे के इस स्वाभाविक जिज्ञासा भरे इस प्रश्न का क्या उत्तर दे। उसने उसे संतुष्ट करने की दृष्टि से कह दिया तुम्हारी छोटी बहिन है।

इसका नाम क्या है?

इस प्रश्न का भी कोई उत्तर श्यामा के पास नहीं था। पर कुछ न कुछ उत्तर तो देना ही था। वह बोल पड़ी- इसका नाम चांदनी है।

सूरज ने आगे कोई और प्रश्न नहीं किया। वह उस नन्हीं सी गुड़िया जैसी चांदनी से खेलने लगा। श्यामा भी उसे सूरज के पास खेलता छोड़कर घर के काम करने लगी।

संध्या के समय श्यामा फिर मन्दिर गयी और उसने पुजारी से बात की। उस शिशु को लेने कोई नहीं आया था। श्यामा चिन्तित हो गई। वह उस शिशु को लावारिस छोड़ नहीं सकती थी और उसके माता-पिता का कोई अता-पता नहीं था।

अनेक दिनों तक श्यामा उसके माता-पिता को तलाशने का प्रयास करती रही पर उनका कोई पता नहीं चल सका। इस बीच चांदनी उसके घर की ही सदस्य बन चुकी थी। धीरे-धीरे उसने चांदनी के माता-पिता की खोज बन्द कर दी। इस नये शिशु के आ जाने से अब वे तीन हो चुके थे। श्यामा उसे प्यार से चांदनी कहकर पुकारती थी।

श्यामा और सूरज उस नन्हीं सी जान को पूरी तरह अपना चुके थे। जिस स्नेह से श्यामा उसका पालन पोषण कर रही थी उतनी ही आत्मीयता के साथ सूरज उसे खिलाता और उसके साथ खेलता था। जब सूरज पाठशाला जाने लगा तो चांदनी भी उसके साथ जाने की जिद करती किन्तु अभी वह बहुत छोटी थी। जब सूरज के पाठशाला से आने का समय होता तो चांदनी उसकी प्रतीक्षा करती। समय के साथ श्यामा यह पूरी तरह भूल चुकी थी कि चांदनी उसकी अपनी नहीं किसी और की संतान है।

समय बहुत तेजी से बीतता रहा। चांदनी भी पाठशाला जाने लगी थी। सूरज और चांदनी दोनों होनहार थे। वे सिर्फ अपनी मां के ही नहीं बल्कि सभी के प्रिय थे और श्यामा को उन पर गर्व था। उसने उन दोनों को उच्च शिक्षा दिलवाई और अच्छे संस्कार दिये।

सूरज को अमेरिका की एक कम्पनी में अच्छे पद पर काम मिल गया। जब वह अपने भविष्य और अपनी मां से बिछोह की दुविधा में था उस समय श्यामा और चांदनी ने उसे दुविधा से मुक्त कराया और उसे अमेरिका जाने की प्रेरणा दी थी। वह अमेरिका चला गया। वहां से वह अपनी माँ और बहिन के लिये रूपये आदि भी भेजता था और उनका लगातार खयाल भी रखता था। कुछ समय बाद उसकी मित्रता एक अमेरिकन लड़की से हो गई। माँ और बहिन की रजामन्दी के साथ ही वह सूरज की जीवन संगिनी बन गई और वह अमेरिका में ही बस गया।

चांदनी यहां एक स्कूल में शिक्षिका हो गई थी। वह मां का पूरा ध्यान रखती और उसकी सेवा करती थी। श्यामा के जीवन में अब कोई अभाव नहीं था। सुख, संतोष और शान्ति से उसका जीवन चल रहा था पर उम्र बढ़ रही थी। उम्र ने अपना प्रभाव दिखाया और वह बीमार हो गई। चांदनी उसकी पूरी देखभाल और इलाज करा रही थी। मां की बीमारी से सूरज भी विचलित था। वह अमेरिका से छुट्टियां लेकर भागा-भागा मां के पास आया। वह मां और बहिन को अपने साथ अमेरिका ले जाना चाहता था लेकिन वे दोनों राजी नहीं हुए। जब उसका समय पूरा हो गया तो उसे अकेले ही वापिस जाना पड़ा।

चांदनी मां की देखभाल करती रही पर मां की हालत दिनोदिन खराब होती जा रही थी और एक दिन वह इस दुनियां को छोड़कर चली गई। जाने से पहले उसने चांदनी को बतला दिया कि चांदनी को जन्म देने वाली वह नहीं कोई और मां है। वह तो सिर्फ पालने वाली मां है। चांदनी ने सूरज की अनुपस्थिति में मां का अन्तिम संस्कार किया। जब सूरज वापिस आया तब तक उसकी मां पंचतत्व में विलीन हो चुकी थी।

भाई-बहिन ने मिलकर मां का अंतिम संस्कार किया। फिर सूरज के वापिस पश्चिम में जाने का समय हो गया। उसके कुछ पहले एक दिन अवसर देखकर चांदनी ने सूरज से कहा-

भैया! मां के कुछ जेवर मेरे पास रखे हैं। जाने से पहले आप वे लेकर सुरक्षित रख लेना।

वे जेवर तुम्हीं रखे रहो।

वे तो आपके हैं।

हां ! मेरे हैं तब भी उनको तुम्हीं रखे रहो।

आपको पता नहीं है। मां ने एक दिन मुझे मेरे इस घर में आने की कथा बताई थी।

सूरज बीच में ही बोल पड़ा- तुझे मां ने बताई थी और मैंने अपनी आंखों से देखी थी और तुम जो सोच रही हो वह भी मैं समझता हूँ। घर जैसा है वैसा ही रहेगा जो यहां है वह यहां ऐसा ही रहेगा और तुम जैसे इस घर में रह रही हो वैसे ही रहोगी। मैं कुछ लेने या ले जाने वाला नहीं हूँ।

सूरज चांदनी से बड़ा था। चांदनी उसका अदब और सम्मान करती थी। दोनों में अटूट स्नेह था। उसकी वह स्नेह और अधिकार युक्त बात सुनकर चांदनी मौन रह गई। वह सूरज से कुछ न कह सकी लेकिन उसके मन में यह बात घर कर गई थी कि उसे जन्म देने वालों ने उसे लावारिस छोड़ दिया था। उसे बार-बार यह लगता था कि उसे मां की सारी पूंजी उसके बेटे सूरज को दे देना चाहिये। यह उसी की है पर सूरज की बात काटना भी उसके लिये संभव नहीं था। वह जानती थी कि आज दुनियां में अगर कोई उसका है तो वह सूरज ही है और वह यह भी जानती थी कि सूरज उसे बहुत चाहता है। वह अपनी छौटी बहिन के लिये कुछ भी कर सकता है।

अगले दिन चांदनी ने फिर समय देखकर सूरज से कहा- भैया! मैं सोच रही थी कि मां के नाम से एक आश्रम बना दिया जाए जहां अनाथ बच्चों को सहारा मिले और उनके जीवन को संवारा जाए।

सूरज नादान नहीं था। वह चांदनी के मन की बात समझ गया। उसे यह भी समझ में आ गया कि चांदनी ऐसा क्यों कह रही है। वह कुछ पल मौन रहा और फिर उसने उसे अपनी सहमति दे दी।

सूरज ने अपने पुराने घर में मां की पूंजी में अपनी ओर से भी कुछ धन लगाकर उस घर में मां के नाम से एक आश्रम खोल दिया। वह आश्रम अनाथ बच्चों को संरक्षण देने उनका पालन पोषण करने और उनके जीवन को संवारने के लिये खोला गया। इसके कारण सूरज को कुछ दिन और भारत में रूकना पड़ा। जब यह काम पूरा हो गया तो वह उस आश्रम की जवाबदारी चांदनी को सौंपकर वापिस अमेरिका चला गया।

चांदनी उस आश्रम की संचालिका थी। एक समय वह स्वयं अनाथ थी किन्तु आज वह दूसरे अनाथों की नाथ थी और उन्हें जीवन दान दे रही थी।