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महामाया - 30

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – तीस

अखिल जब राधामाई के कमरे में पहुंचा। कमरे में ब्लू जिंस पर मेंहदी रंग का टाॅप पहिने, खुले बालों को कंधों तक झुलाये एक लड़की कुछ लिखने में तल्लीन थी। कमरे में राधामाई को न देखकर अखिल वापिस लौटने ही वाला था कि लड़की ने धीरे से सिर ऊपर किया और मुस्कुराई। अखिल के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वो जिसे कोई और लड़की समझ रहा था वो राधामाई थी। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

‘‘ऐसे आँखें फाडे़ क्या देख रहे हो? पहिले कोई लड़की नहीं देखी क्या?’’

राधामाई की बात सुन अखिल झेंपते हुए दूसरी ओर देखने लगा। तभी राधामाई ने उसका हाथ पकड़कर अपने पास बिठा लिया। राधामाई इतना सटकर बैठी कि उनका घुटना अखिल के घुटने से छू रहा था। वह असहज हो उठा था। उसने राधामाई को इतने करीब से कभी नहीं देखा था। राधामाई की आँखें भूरी थी। पहाड़ का सौंदर्य सिमटा था। शरीर से आने वाली मंहगे डियो की गंध उसके अंदर की केमेस्ट्री बदल रही थी। वह सुन्न था। राधामाई के टोंकने से उसकी तंद्रा टूटी।

‘‘मैं कोई इतनी डरावनी नहीं हूँ कि मुझे देखकर सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो जाये।’’

‘‘आप बहुत सुंदर लग रही हैं’’ यकायक अखिल के मुँह से निकल गया।

राधामाई ने खास अंदाज में कनखियों से अखिल को देखा और मुस्कुरा दी। अखिल बोल तो गया लेकिन फिर उसे अपने ही कहे पर अफसोस हुआ। साधु शरीर की सुंदरता, कुरूपता से बहुत ऊपर होता है। उसने जो कहा वो साधु की गरिमा के अनुकूल नहीं था। उसने राधामाई से माफी मांगना चाही लेकिन राधामाई ने उसे बीच में ही रोक दिया।

‘‘भगवा पहिन लेने से दिल धड़कना बंद नहीं कर देता है अखिल......। और सपने......सपने कभी बदरंग नहीं होते। उनका चटक चमकीला रंग हर रंग पर हावी रहता है। यहाँ तक कि इस भगवा रंग पर भी।

‘‘आपने सन्यास का निर्णय क्यों लिया’’ अखिल ने सहज होते हुए पूछा।

राधा ने एकाएक अखिल की आँखों में देखा और बोली- ‘‘मैं किसी से प्यार करती थी। उसने मुझे धोखा दिया......।’’ जिस साहस भरे स्वर में राधा ने बात शुरू की थी वह डगमगाने लगा। उसकी आवाज में एक कंपन थी। ‘‘मुझे उस समय सारी दुनिया दुश्मन लगती थी। माँ-बाबा से से लड़ाई की। जिसके लिये सब छोड़ने का सोच लिया था उसने डिच किया......। मैं तो मर जाती....। सच में मैं स्यूसाइड कर लेती पर मेरी एक फ्रेंड मुझे बाबाजी के पास ले आई।’’

‘‘बस.......बाबाजी ने पकड़ लिया......।’’ राधा ने आँखें झपकाकर मुस्कुराते हुए कहा -

‘‘पता है शुरू-शुरू में मैं जब आई थी तो निर्मला माई मुझे बाबाजी के पास भी नहीं आने देती थी। बाबाजी ही निर्मला माई को यहाँ-वहाँ भेजकर मुझे अपने पास बुलाते.....।’’ खैर छोड़ो अब मैं स्टेबलिश हो गयी हूँ.......। बस ये है कि मन कभी-कभी ऊब जाता है......माई बने-बने.....।

अगर आपको लगता है कि आपका निर्णय गलत था तो आप यह लिबास उतार क्यों नहीं देती।?

‘‘ये इतना आसान नहीं है। अब दुनिया जीने थोड़े ही देगी। फिर करूंगी क्या? गे्रजुऐशन भी पूरा नहीं किया है मैंने.....। प्रायमरी स्कूल में भी नौकरी नहीं मिलेगी। ये लोग जो माई-माई करते चरणों में गिरते हैं। यही गालियाँ देंगे.....।’’ राधा हल्के-फुल्के ढंग से यह सब बोल रही थी। अखिल चकित होकर राधामाई की ओर देख रहा था।

‘‘अरे छोड़िये, आप तो सीरीयस हो गये। ये सब कभी-कभी सोचती हूँ....। पता नहीं क्यों आज तुमसे ये सब बात करने का मन किया.....।’’ कहते-कहते राधा ने अखिल के हाथ को अपने हाथ में ले लिया......का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। डर.....उत्तेजना और पता नहीं किन-किन भावों ने उसे बैचेन कर दिया।

फिर एकाएक राधा माई अपने खुले बालों को बांधते हुए उठ खड़ी हुई। उसने वार्डरोब खोला और उसमें से एक चमचमाता हुआ केस निकाला। केस में एक बेहद खूबसूरत घड़ी थी। राधा ने घड़ी निकाली और अखिल की कलाई पर पहना दी।

‘‘अरे ये क्या कर रही हैं आप। ये तो बेहद एक्सपेंसिव ब्रांड है।’’

‘‘तो....क्या आपको पसंद नहीं?’’

‘‘नहीं मेरा मतलब है.........’’

‘‘दोस्त की तरह दे रहे हैं मना मत कीजिये।’’ राधा ने अखिल की आँखों में आँखें डाल कर कहा। अखिल की आँखें झुक गयी। मीठा सा कुछ उसके मन और देह को गुदगुदा गया।

तभी दरवाजे पर शायद कुछ आहट सी हुई और राधामाई ने तुरंत अपने को संयत करते हुए जरा ऊंचे स्वर में कहा ‘‘पत्रिका का क्या चल रहा है अखिल.....। गुरूपूर्णिमा पर विमोचन होना है जानते हो ना! अभी तक आपने पत्रिका का कोई नाम सोचा या नहीं।’’

‘‘हूँ.....एक नाम सोचा है’’ अखिल अभी भी राधामाई के अतीत के बारे में ही सोच रहा था।

‘‘क्या’’

‘‘महामाया’’

‘‘अच्छा है....पर फिमेनीन है। बाबाजी को सूट नहीं करेगा, कुछ और सोचते हैं’’

कमरे में थोड़ी देर चुप्पी छा गई। अखिल फर्श पर पड़े कागजों में से एक कागज उठाकर उस पर कुछ लिख-लिख कर काटता जा रहा था। राधामाई कुछ सोचते हुए खुद ही कभी हाँ और कभी ना में गरदन हिलाती। फिर अचानक बोली

‘‘महायोग.....महायोग कैसा रहेगा?’’

‘‘सुंदर......हमारी पत्रिका की थीम से यह नाम एकदम सूट करेगा।’’ अखिल ने राधामाई को प्रशंसा भरी निगाहों से देखते हुए कहा।

‘‘पत्रिका का लेआउट, कागज सब कुछ एकदम हाई-फाई होना चाहिये।’’

‘‘वो तो हो जायेगा लेकिन पत्रिका मंहगी बहुत पड़ेगी। फिर हम पत्रिका हर महिने निकालेंगे या तीन महिने में एक बार।’’

‘‘तुम क्या सोचते हो?’’

‘‘मेरे ख्याल से तो पत्रिका मासिक होनी चाहिये लेकिन......।’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘आप पत्रिका का जैसा स्वरूप सोच रही हो वैसी पत्रिका निकालने के लिये पैसा आयेगा कहाँ से?’’

‘‘पैसे की चिंता गृहस्थ करते हैं। साधु नहीं। यहाँ पैसा पानी की तरह बहता है। बेकार के कंस्ट्रक्शन, मंहगी गाड़ियों और मंहगे रहन-सहन पर खूब खर्च होता है। पत्रिका निकालना तो एक क्रिएटिव काम है.....।’’

‘‘वैसे तो बाबाजी मुझसे कह चुके हैं कि आप किसी बात की चिंता मत कीजिए। बस एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका निकालने की तैयारी कीजिये। फिर भी मुझे लगता है कि पत्रिका के स्वरूप और खर्चे को लेकर हमें एक बार बाबाजी से बात कर लेनी चाहिये।’’ अखिल ने राधामाई की बात बीच में काटते हुए कहा।

‘‘ठीक है तुम्हे लगता है तो हम अभी चलकर बाबाजी से बात कर लेते हैं। तुम बाबाजी के पास पहुंचो मैं अभी अपनी साध्वी वाली डेªस पहिनकर पहुंचती हूँ।’’ कहते हुए राधा उठ खड़ी हुई।

अखिल राधामाई के कमरे से निकलकर सामने वाले दरवाजे से बाबाजी के कमरे में पहुंच गया। वहाँ काशा पहले से ही बैठी थी। बाबाजी काशा से कह रहे थे-

‘‘बहुत जल्दी......दो-तीन दिन में ही हम आपकी मुलाकात महाअवतार बाबा से करवा देंगे बेटे।’’ बाबाजी ने बोलते-बोलते आँखें बंद कर ली और कमर के सहारे शरीर को पीछे रखे लोड पर टिका दिया। काशा प्रसन्न थी।

राधामाई मौका पाते ही बाबाजी के और करीब सरक आयी और बहुत ही धीमे स्वर में कुछ कहने लगी। बाबाजी आँखें बंद किये सिर हिलाते जा रहे थे। जब राधामाई ने अपनी बात समाप्त की तो उन्होंने आँखें खोलकर राधामाई की ओर देखते हुए कहा ‘‘बाकि सब ठीक है बेटे। केवल पत्रिका का नाम महाअवतार कर दीजिये।’’

तभी वानखेड़े जी, करुणा चाची और तीन महिलाओं ने कमरे में प्रवेश किया।करुणा चाची और एक अन्य महिला के हाथ में सुदर रेशमी कपड़ों से ढंकी चाँदी की थालियाँ थी। एक के हाथ में चाँदी का पटा था। एक चाँदी की तश्तरी से ढंका चाँदी का गिलास अपने हाथ में पकड़े थी। वानखेड़े जी हमेशा की तरह माला फिराते-फिराते बाबाजी के दांयी ओर खड़े होकर बुदबुदाये -

‘‘महायोगी.....महामण्डलेश्वर की जय।’’

करुणा चाची ने कमरे में बैठे सभी लोगों से कहा अब आप लोग थोड़ी देर के लिये बाहर चले जाये। भोग का वक्त हो गया है।’’ सभी उठ गये। काशा सामने वाले दरवाजे से बाहर चली गयी। अखिल राधामाई के पीछे-पीछे बीच वाले दरवाजे से उनके कमरे में आ गया। कमरे में पहुंचते ही राधामाई ने अखिल का हाथ पकड़ते हुए कहा

‘‘बधाई हो। अब आप मंहगी से मंहगी पत्रिका निकालने की तैयारी करो।’’

अखिल के चेहरे पर मायूसी का भाव था। उसने राधामाई के हाथ से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा।

‘‘किस बात की बधाई......पत्रिका के खर्च को लेकर तो कोई चर्चा हुई ही नहीं।’’

‘‘सब हो गई है। छपाई के लिये प्रेस भी यहीं आश्रम में डलेगा। संपादक महोदय को मोटी तनख्वाह और घूमने-फिरने के लिये नई गाड़ी भी मिलेगी। अखिल, अभी तुम्हे बाबाजी को समझने में समय लगेगा। हम जो सोच नहीं पाते बाबाजी वो कर डालते हैं। चलिये, अब अपने इस सड़े मुँह पर हँसी ले आईये।’’ कहते-कहते राधामाई ने अखिल का हाथ पकड़कर अपने पास बिठा लिया।

क्रमश..