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सोलहवाँ साल (7)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

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भाग सात -

यों मैंने प्रथम श्रेणी से कक्षा सात और इसी उधेड़बुन में कक्ष आठ भी उत्तीर्ण करली।

ग्रीष्म अवकाश में मैं अपनी कक्षा नौ की पुस्तकें पलटने लगी। मैं चोरी-छिपे पापा-मम्मी की अल्मारी में से उपन्यास उठा लेती और उन्हें पढ़ने लग जाती। आज मैं जो कुछ लिखने का प्रयास कर रही हूँ यह सब उन्हीं उपन्यासों का परिणाम है। उनसे विषय वस्तु तो नहीं मिली, उनकी यह शैली भी नहीं है किन्तु जो अनुभव संकलित हुए हैं। यह उसी का असर है ।

इन दिनों पापा की अलमारी में से एक उपन्यास उठा लिया। सेाचा- देखूँ तो उसमें क्या है ? पापा ने इसे छिपाकर क्यों रखा है। मम्मी की आँखें बचाकर पढ़ना शुरू कर दी। एक प्रेम कहानी थी। मन कहानी में रम गया। मेरे मन और तन में काम-भावना भड़क उठी। मैं सचेत हुई, पुस्तक बंद कर सोचने लगी- मानव मनोवृति को दूषित करने बाले उपन्यासों को पढ़ने से क्या लाभ ? यों वह पुस्तक अधूरी छोडकर यथास्थान रख दी ।

...... किन्तु बार-बार मन में आता रहा उसे दुबारा उठा लूँ। मन हरपल उसी के प्रसंगों का चिन्तन करने लगा,फिर सोचा- पापा ने अल्मारी खोल कर देख ली, उसमें उपन्यास नहीं दिखा तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊँगी। यही सोचकर सशंकित हो उठी।

ग्रीष्म अवकाश के विद्यालय खुल गए। मैं नियमित रूप से विद्यालय जाने लगी। इन दिनों सुम्मी मेरे साथ पढ़ती थी। एक दिन वह मुझे अकेला पाकर बोली-‘‘गत वर्ष अपने विद्यालय में अनुभवी शिक्षक थे। इस वर्ष तो सबके सब बदल गये हैं। इस वर्ष तो विद्यालय की समिति ने नये लड़के- लड़कियों को पढ़ाने के लिए रखा हैं।’’

मैं बोली -‘‘ कुछ तो इसी वर्ष अपनी पढ़ाई पूरी करके यहाँ आये हैं।’’

‘‘देखना सुगंधा, सभी शिक्षक- शिक्षिकायें क्वाँरे हैं।’’

‘‘यार तू कहना क्या चाहती है ?’’

‘‘यही कि नये-नये सुंदर सुशिक्षित लड़के अब अपने को पढ़ाया करेंगे।’’

इसी समय वहाँ कक्षा के कुछ लड़के पास में आकर खडे़ हो गये तो बातचीत का विषय बदलना पड़ा।

दूसरे दिन सुम्मी की बातें सोचते हुये विद्यालय पहुँची। प्रथम चक्र में अशोक सर ने कक्षा में प्रवेश किया। हमने उनका खड़े होकर स्वागत किया।

वे देखने में बहुत सुंदर लग रहे थे। चित्त बार बार उन्हें निहारने लगा। इसी समय उनके शब्द सुन पड़े -‘‘सुगंधा, क्या सोच रही हो ?’’

‘‘कुछ नहीं सर, कुछ भी तो नहीं।’’

‘‘तुम्हारी आँखें देखकर लगा, तुम कुछ सोच रही हो।’’

मैं समझ गई। सर ने मुझे निहारते हुये देख लिया है। इसीलिये बात बनाते हुये बोली -‘‘सर आप इतनी छोटी सी उम्र में ही एम.ए. कर चुके! हम इतने बड़े ढोर हो रहे हैं, अभी नोंवी कक्षा में ही डले हैं...।’’

‘‘तुम लोग ढोर कहाँ हुये हो। तुम उम्र के अनुपात से ठीक पढ़ रही हो। शायद तुम्हारी उम्र अभी चौदह पूरी हुई होगी।’’

‘‘जी सर।’’

‘‘फर्क इतना है किसी की उम्र दिखती है किसी की नहीं।’’

इस उधार को मैं नीची निगाह किये सुनती रही। जब मैंने बात आगे नहीं बढ़ाई तो वे अपने विषय पर आ गये।

जब सर कक्षा से पढ़ा कर चले गये तो सुम्मी कान के पास आकर

फुसफुसाई- ‘‘तूं तो यार अशोक सर पर लट्टू हो गईं।’’

कक्षा में मेरी बात कोई सुन न ले इसलिये मैंने उसके कान के पास जाकर उधार दिया -‘‘तुझे ब्याह की चिंता सताने लगी है। तूं ही सर से ब्याह करले।’’

उसने कुछ उत्तर देने के लिये कान से मुँह लगाना चाहा। मैंने अपना मुँह दूर कर लिया तो वह मुस्कराते हुये बात के न कह पाने से कसमसा कर रह गई ।

वन्दना मैंडम कक्षा में आ गईं। मैं उन्हें गौर से देखकर सोचने लगी- ‘‘मैंडम भी अविवाहित हैं। अशोक सर और वन्दना मैंडम की जोड़ी ठीक रहेगी।’’

याद हो आई जातिबादी व्यवस्था की, इसके कारण यह संभव नहीं है। वन्दना मैंडम पंडित, अशोक सर जाति के जाटव।

मैं कैसी मूर्ख हूँ जो ऐसी बातें सोच रही हूँ । मुझे अपने शिक्षकों के बारे में ऐसी बातें नहीं सोचना चाहिये। यह सोचकर तो चिन्तन पर अपने आप विराम लग गया। क्रम में नोवी कक्षा उतीर्ण करली।

उन दिनों मैं अनुभव कर रही थी। अधिकांश छात्र हाई स्कूल की परीक्षा उतीर्ण नहीं कर पाते। यदि मैंने पढ़ने लिखने में चिन्ता नहीं लगाया तो क्या होगा ?

इस बात को देर तक सोचती रही। इसके परिणाम स्वरूप किताबें उठा लीं।

जो विषय पढ़ती, खाली समय में उन्हीं प्रश्नों को सोचती रहती। रात प्रश्नों के उधार सोचते सोचते सो जाती।

इन दिनों स्वप्न अधिक दिखने लगे थे। जो स्वप्न आते उनमें सच्चाई जानने का प्रयास करती। यों वह स्वप्न सुवह देर तक याद बना रहता। एक दिन मुझे स्वप्न दिखा ‘‘ मैं भागती जा रही हूँ। कोई मेरा पीछा कर रहा है। घने जंगल में पहुँच जाती हूँ। वहाँ मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे और चर्च बने हैं। वहाँ नदी का एक सुंदर मनोरम घाट बना है। जिसमें स्वच्छ जल प्रवाहित है। उसमें सभी धर्मों के लोग अलग-अलग पंक्तियाँ बनाकर स्नान करने के लिये चले आ रहे हैं।’’

प्रशासन ने बडी बडी बल्लियाँ लगाकर अलग-अलग धर्म बालों के लिए पृथक-पृथक पक्तियों का निर्माण कर दिया है। लोग स्नान करने के लिए उनमें पन्ति बनाकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। धक्का मुक्की होंने लगी। लोग बहन बेटी की भी चिन्ता नहीं कर रहे हैं कैसे जंगली लोग हैं ? मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था। किन्तु भीड़ में वापस भी नहीं लौट पा रही थी। मैं नदी के जल में प्रवेश कर जाती हूँ। अचानक जल स्तर बढ़ने लगता है, मैं उसमें डूबने लगती हूँ। मुझे बचाओ ऽऽ मुझे बचाओ ऽऽ चिल्लाने लगती हूँ किन्तु सभी धर्म बाले धर्म कर्म में व्यस्त हैं । कोई भी मुझे बचाने आगे नहीं आ रहा है । कोई नाविक बहाँ आकर मुझे बचा लेता है। मैं उससे पूछती हूँ - ‘तुम्हारा धर्म क्या है ?’

‘‘मानवता’’

‘‘विश्व में इस नाम का तो कोई धर्म ही नहीं ’’

‘‘सभी धर्मो में इस भावना की गहरी जड़ें हैं किन्तु हमारा दुर्भाग्य यह हैं कि हम उसे महसूस नहीं कर पाते । ’’ उसने कहा ।

‘‘ क्या यह बात विश्व के सभी धर्मो में है ?’’

‘‘ जी ।’’

‘‘ फिर ये दायरे क्यों ?’’

इसी समय मेरी नींद खुल जाती है। मेरा बदन टूट रहा है, अंग प्रत्यंगों में दर्द हो रहा है। मेरे गुप्तांग में कुछ रेंगता सा महसूस हो रहा है।’’हाय राम ! ये क्या हो रहा है? बिस्तर से उठ कर बत्ती जलाकर देखती हूँ। खून के धब्बे दिखाई दे जाते हैं।ये क्या हो गया ? इसकी तो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैं सिसकियाँ लेकर रोने लगी । मम्मी मेरे रोने की आवाज सुनकर मेरे पास आकर पूछती हैं-‘‘ क्या बात है ? आज सुबह-सुबह रो रही है। क्या कोई स्वप्न देखा था ?‘‘ वे मेरे सिर पर हाथ फेरने लगीं। मेरे सिर को सहलाते हुए पुनः बोली -‘‘ क्या बात है, बता ना ?’’

मैं उन्हें कोई उत्तर नहीं देती। खून से बिगड़े कपड़े दिखा देती हूँ। यह देखकर उन्होंने खिलखिलाकर हँसते हुए कहा-‘‘ पागल ऽऽ इसमें रोने की क्या बात है ? ऐसा तो सभी औरतों को होता है। ऐसा न होना बीमारी के लक्षण है, इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है।’’

उनकी ये बातें सुनकर मैं आँसू पोंछ लेती हूँ। वे मुझे समझाते हुए बोली - ‘‘ उठ कपड़े बदल ले। ये कपड़े मुझे दे दे। मैं धो दूँगी । तुम आराम से लेटी रहो । तीन दिन सब ठीक हो जावेगा। बिटिया ये नारी देह की स्वभाविक प्रकृति है, यह नहीं तो वह नारी भी नहीं । प्रत्येक माह में नारी के तीन दिन का यह क्रम आता है ।’’

मैं सिर झुका कर उठकर बैठ गयी। वे मुझे और अधिक समझाते हुए बोली-‘‘मैं सोचती थी कि तू पढ़ लिख रही है। सब जान गयी होगी। तेरी सहेलियाँ कैसी है ? जो इस सम्बन्ध में उन्होंने कुछ नहीं बतलाया । मैं समझ गयी तुमने अभी तक कुछ भी पढ़ा लिखा नहीं है।’’ यह कहते हुए वे कमरे से बाहर निकल गईं।

नारी को इस प्राकृतिक सत्य का अनुभव यहीं से होता है। उसे अपने पृथक अस्तित्व का बोध यहीं से शुरू होता है। मैं पहले से कुछ-कुछ समझ तो रही थी। किन्तु स्वानुभव से गुजरने की प्रक्रिया ने मनोबल को और अधिक परिपक्व बना दिया ।

अब मैं जो कुछ पढ़ती हूँ, उसे जीवन में उतारने का प्रयास करने से, पढ़ी हुई इबारत से मेरा स्थायी परिचय रहने लगा ।

मुझे याद आ रही है उन तीन दिनों की, जब मैं बिस्तर पर पड़े पड़े ऐसे पता नहीं कैसे कैसे विचारों को संजोती रही। इसके क्रम से अध्ययन भी चलने लगा। समय पर हाई स्कूल की परिक्षायें निपट गयी।

एक दिन मम्मी बोली-‘‘सुगंधा हाई स्कूल के कौन सा विषय लेकर इन्टर करेगी।’’

डनकी बात सुनकर मैंने अपनी रुचि का एक विषय बतलाया-‘‘इतिहास-नागरिकशास्त्र।’’

वे बोली-‘‘मैं सोचती थी तुम साइंस मैंथ लेकर आगे पढ़ती। इन्जीनियर बनने के सपने को साकार करती । हम चाहते हैं हमारी बेटी हमारा नाम करे।’’

मैंने मम्मी से कहा-‘ मम्मी जी मैं तो हिन्दी भाषा की प्रोफेसर बनना चाहती हूँ जिससे हिन्दी साहित्य की सेवा कर सकूँ।’ मम्मी मेरे इरादें को जानकर चुप रह गई थीं।

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