solahavan sal - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

सोलहवाँ साल (2)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110 मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग दो

उनमें से एक लड़के की तो मुझे कुछ-कुछ याद है । उसकी चूहे खाकर आने बाली बात की शिकायत मैंने पापा से कर दी थी। पापा चले सो उसकी शिकायत बडे मास्साब से कर दी। उन्होंने उस लड़के को बुलाकर डाँटना शुरू किया, बेचारा लड़का तो धाड़े मार के रोने ही लगा ...... और मैं उसके पास जाकर उसके धार-धार आँसुओं को पोंछने लगी। यह देख कर सभी को हँसी आ गई। सब को हँसते देखकर मैं वहाँ से चली आई।

कुछ दिनों बाद एक घटना यों घटी कि कक्षा में मेरी पेंसिल किसी ने चुरा ली। अब मैं क्या करूँ, क्या नहीं करूँ ? घर जाकर कहूँगी कि किसी ने मेरी पेंसिल चुरा ली तो मम्मी की डाँट पड़ेगी। इस समस्या का उस समय मुझे एक ही उपाय सूझा- मैं भी किसी की पेंसिल चुरा लूँ।

यह सोचकर मैंने पास बैंठी लड़की की निगाह बचाकर उसकी पेंसिल चुरा ली। उसी समय छुट्टी हो गई । मैं आराम से घर चली आई।

मम्मी मुझे पढ़ने के लिए बैठाने लगी थीं। उस दिन मैं अपनी कापी पर उस पेंसिल से कुछ लिखने लगी। मम्मी की दृष्टि पेन्सिल के रंग पर गई । वे जानती थीं उन्होंने मुझे कैसी पेन्सिल लाकर दी है। मम्मी ने मुझ से पूछा-‘‘ क्यों सुगंधा ये पेंसिल कहाँ से आई ?’’

मम्मी का यह पूछना था कि मैं समझ गयी चेारी पकड़ी गई है। मुझे बहाना बनाना नहीं आया । मेरे मुँह से निकल गया-‘‘मम्मी मेरी पेन्सिल किसी ने चुरा ली। मेरे पास में मेरी सहेली सरला बैठी थी, मैंने उसकी पेन्सिल चुरा ली ।’’

मेरी सहज सरल बात सुनकर मम्मी खूब जोर से हँसी। संयत होकर मुझे समझाते हुए बोलीं ’’ किसी की चीज कभी नहीं चुराना चाहिए।’’

मम्मी के कहने से मैं दूसरे दिन ही उसे पेन्सिल दे आई थी । उस दिन से लगातार मेरे मन में यह बात आती रही-‘‘अरे ! किसी ने मेरी पेन्सिल चुरा ली और मैंने भी दूसरे की पेन्सिल चुरा ली तो इसमें मैं गलत कहाँ रही ।’’

पर यह बात बहुत दिनों समझ में आई कि कोई दूसरा गलत आचरण करता है, तो हमें भी उसी तरह का आचरण नहीं करना चाहिए ।

यह पूरा वर्ष उछल कूद में निकल गया। कक्षा एक का परीक्षा परिणाम घोषित हो गया। मैं उत्तीर्ण घोषित कर दी गई। सभी बच्चों की तरह पास होने की खुशी में घर पहुँची। मम्मी ने जैसे ही यह सुना कि मैं पास हो गई हूँ, वे शासन की इस नीति को दोष देते हुए बोली, ‘‘ कक्षा एक के बच्चे कुछ जानते हों चाहे न जानते हों, शासन ने सभी को पास करना अनिवार्य कर दिया है। हमारी इस लडकी को ही देख लो ....... अ .......आ से लेकर क्ष त्र ज्ञ तक के अक्षर पहचानना नहीं आते हैं लेकिन इसे पास कर दिया गया है । यह खेल में इतनी दीवानी है कि इसे कभी खेल से मन ही नहीं भरता ।’’

मम्मी को मेरी पढ़ाई का मजाक उड़ाने के लिये टेस्ट लेने की सूझी। वे डोट पेन्सिल से अपनी हथेली पर एक शब्द लिखकर मुझे दिखाते हुए बोलीं-‘‘ बता सुगंधा ये कौनसा अक्षर है ?’’

मैं पास होने की खुशी में, उस अक्षर को गौर से देखे बिना, हडबडाहट में बोली ‘‘म’’ !

वे मेरा मजाक उड़ाते हुए बोली, ‘‘गलत, तुम कक्षा एक पास कर गई और तुम्हें अक्षरों की पहचान नहीं है । तुझे भ और म में अन्तर करना नहीं आया ।’’

मैं अक्षर याद कर रिरियाते हुए बोली-‘‘ मरे म की लाइन नहीं कटती भ की कटी होती है ।’’

मम्मी की यह बात मुझे बहुत खली थी किन्तु उस दिन से ‘भ’ और ‘म’ को कभी नहीं भूल पाई ।

मम्मी, गर्मियों की छुट्टियों में प्रतिदिन मेरे खेलने को कोसती रहीं । जुलाई का महीना शुरू हो गया। स्कूल खुल गये ।

मुझे याद आ रहा है जब मैं कक्षा दो की किताबें लाद कर स्कूल गई।.... और एक जादू हुआ । पन्द्रह दिन में ही मैं पढ़ना सीख गई। हुआ यह कि ........उस वर्ष कक्षा दो के शिक्षक बसंत पटेल गर्मी की छुट्टी में नये तरीके से पढ़ाने का प्रशिक्षण लेकर आये थे ।

पहले ही दिन उन्होंने परीक्षण करके कक्षा में से ऐसे बच्चे छाँट लिए जिन्हें अक्षरों की पहचान नहीं थी । वे अपने साथ गत्ते के ऐसे कार्ड बनाकर लाये थे जिनके एक तरफ अक्षर लिखे थे दूसरी ओर उससे सम्बधित चित्र ।

शुरू शुरू में पटेल मास्साब हमें दो दिन तक अक्षरों केा दिखा दिखा कर बुलवाते रहे और अक्षरों से सम्बधित चित्र भी दिखाते रहे ।

उन्होंने तीसरे दिन एक खेल शुरू किया अक्षर ऊपर करके वर्णमाला के सभी कार्ड छात्रों के समक्ष फर्स पर बिछा दिये ।

पटेल मास्साब ने प्रश्न किया-‘‘छतरी बाला चित्र कौन बताएगा ?’’

मोहन ‘छ’ शब्द को पहचान गया होगा इसलिए उसने छतरी बाला चित्र उठाकर बता दिया । अब मास्साब ने अगला प्रश्न किया-‘‘आप लोगों में से पतंग का चित्र कौन बताएगा ?’’

मैं ‘प’ को पहचान गई थी इसीलिए मैंने झट से पतंग का चित्र उठा कर बता दिया । कक्षा खेल में आनन्द लेने लगी । दो दिन तक वे इस खेल को खिलाते रहे । जब सभी बच्चे अक्षरों को पहचानने लगे तो मास्साब मात्राओं की पहचान कराने लगे । इस खेल में चित्त दिन-रात रहने लगा। सोते में भी यही सूझता। इससे शब्दों की पहचान ने में अधिक दिन नहीं लगे।

सात दिनों में कक्षा बारहखड़ी पर आ गई। आठवें दिन वे बारहखडी बार-बार पढ़ कर सिखाने लगे ।

उन्होंने नौंवे दिन एक नया खेल शुरू किया-बारह खड़ी का चार्ट श्याम पट के पास टाँग दिया । उसमें से हम अपने नाम में आने बाले अक्षर खोज निकालें । पटेल मास्साब ने मेरा सुगंधा नाम उसमें से खोज कर बताया । पहले ‘स’ अक्षर खोजा फिर स सा सि सी सु ........ में सु भी खोजा । इसी क्रम में ग न धा भी खोजें। अन्त में आधे अक्षर को लिखकर बताया, हम ऐसे लिखें- ‘‘सुगन्धा’’

मेरा नाम सुन्दर लिखावट में श्यामपट पर लिखकर वे बोले- ‘‘सुगंधा, इसका अर्थ है-सुन्दर गन्ध प्रदान करने बाली, सुगंधा। बेटी, तुम अपने नाम की सुगन्ध हमेशा बनाये रखना। यदि यह नाम बदनाम हो गया तो इसमें से दुर्गन्ध आने लगेगी।”

पटेल मास्साब की यह बात मैं उस समय तो उतनी नहीं समझ पायी थी, उनके वे शब्द मेरे कानों में गूँजते रहे। आज वही सुगन्ध इसे लिखने की प्रेरणा दे रही है। उस दिन उनकी बात सुनते हुए मैंने सिर उठाकर देखा था-

कक्षा के सभी छात्र अपना-अपना नाम बारहखड़ी में खोज रहे थे।

पन्द्रह दिन में हम कहानी पढ़ने और समझने लगे थे ।

मोहन नाम का एक लड़का मेरी ही कक्षा में पढ़ता था। उसके पापा रतन सिंह मेरे पापा के मित्र थे । वे उनके पास रोज आते थे ।

ऐसे लोग कम ही मिलेंगे जो अपनी प्रशंसा सुनकर आनन्दित न हों । रतन सिंह काका को पापा की प्रशंसा उन्हीं के समक्ष करते देखती तो सोचने लगती- रतन सिंह काका निश्चय ही कोई खेल खेल रहे हैं, जिसे पापा समझते हुये भी नहीं समझ रहे हैं । मम्मी कहती हैं , किसी की उसी के सामने प्रसंसा करना उसके साथ धोका देने के बराबर है।

पापा जी की उनसे बातें घन्टों चलती। वे अपने गाँव के लोगों की, एक एक करके सभी की बुराई करते जाते। आज मैं सोचती हूँ ,क्या ये इतना भी नहीं जानते थे कि किसी की बुराई करना अच्छी बात नहीं है।

रतन सिंह काका के साथ उनका लडका मोहन भी हमारे घर आने लगा। कहने को हममें उनमें बड़ा फर्क था-हम ब्राह्मण वो दलित। इसके बावजूद पापा और काका मैं बात करने के ढंग मैं कहीं कोई भेद भाव नहीं दिखता था। मम्मी मोहन को अपने खानपान मैं मिलाने लगीं ।

धीरे धीरे मेरा मोहन के साथ खेलना शुरू हो गया। जब हमारे साथ-साथ खेलने का किसी ने विरोध नहीं किया तो मेरा उसके साथ खेलना नियमित हो गया।

00000