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सोलहवाँ साल (9)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग नों- का संक्षिप्त सार

इस बरस मेरी इन्टर में मुश्किल से प्रथम श्रेणी ही आ पाई है। दमयन्ती का विवाह आ गया। विवाह में कैसे क्या होता है ? रीति-रिवाजों को देखने की उत्सुकता मेरे मन में उत्पन्न हो गई।। टीका होते वक्त औरतें गीत गा रही थी -

राज जनक जी की पौर पै दशरथ चढ़ आये । कैमरे बालों के अनुसार सारा कार्यक्रम चला। दमयन्ती ने दूल्हे को बरमाला पहनाई और दूल्हे ने दमयन्ती को ।

भाग नों-

दमयन्ती मौसी हमारे घर में घुसी रहती। मैं उससे दूर ही रहने का प्रयास करती। एक दिन मैं अपने कमरे में अगली पढ़ाई की किताबें पलट रही थी। इसी समय दमयन्ती ने मेरे कमरे में प्रवेश करते हुए कहा - ‘री, तेरा ब्याह कराने के लिये मन नहीं होता।‘‘

मैंने कहा -‘‘अभी व्याह की उम्र भी कहाँ हुई है। अभी सोलह बरस की हुई हूँ। ’’

‘‘सुगंधा तू लगती तो ऐसे हैं जैसे बीस बरस की हो गयी हो ।’’

‘‘लगने से क्या होता है ? उम्र तो उम्र ही रहेगी।...........और मौसी तुम मुझे अपने ब्याह में बुलाओगी कि नहीं ?’’

‘‘तू तो आज ऐसे पूछ रही है जैसे कहीं जा रही हो । ’’

‘‘जा कैसे नहीं रही। इस बरस मेरी इन्टर में मुश्किल से प्रथम श्रेणी ही आ पाई है। इसीलिए परिणाम अच्छा नहीं रहा। भाग दौड़ में पढ़ाई नहीं हो पाई।’’

मौसी बोली-‘ तो क्या कहीं और जगह जाकर पढ़ने का इरादा है?

मैंने उत्तर दिया-‘‘ मैं इस वर्ष डबरा जाकर रहूँगी ।’’

‘‘ वहाँ तुम्हारे साथ कौन रहेगा ?’’

‘‘ हमारे साथ नानी रहेंगी । मम्मी आती- जाती रहेंगी।’’

‘‘ फिर पापा के लिए खाना कौन बनायेगा ?’’

यह सुनकर मुझे व्यंग्य सूझा -‘‘ तुम बना दिया करो ना।’’

‘‘यार सुगंधा मैं तो बना देती किन्तु शादी के बाद मुझे यहाँ कौन रहने देगा ?’’

‘‘हरे राम राम! फिर तो मेरे पापा बिना साली के रह जायेंगे ।’’

वह मेरे व्यंग्य को समझते हुए भी बोली-‘‘ री, शादी के तो हमारा दूसरा जीवन ही शुरू हो जाता है। उसके बाद तो हम औरतों को अपने पति के अनुसार ही चलना पड़ता है । ‘‘

‘‘ और विवाह से पहले ...................।’’

‘‘ अपने माता- पिता के अनुसार ।’’

‘‘ यदि भ्रमित हो गयी तो।’’

‘‘सुगंधा उस स्थिति में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रहता।’’

मुझे लगा- मैं क्यों इसके अवगुणों का चिन्तन करती रही। यह सोचकर मैंने कहा-‘‘तुम्हारा सोच मुझे खराब नहीं लगा।’’

‘‘ सुगंधा खराब सोच किसी का नहीं होता। तू बता यार, गलत रास्ते पर चलना किसे अच्छा लगता है। यही सोचकर मैं जीवन भर सोच-समझकर चलती रही। तुम्हारे पापा मुझे एक लड़की की तरह ही देखते रहे हैं।’’

उसकी ये बातें सुनकर दमयन्ती के प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया था। पापा पर शंका करने के लिए मन ही मन पश्चाताप करने लगी।

सुमन गुप्ता तन्मयता से मेरी ये सारी कहानी सुनती आ रही थी। जब भी समय मिलता मेरे पास आ जाती और कहानी सुनाने की कहने लगती। कभी- कभी मैं भी उसी की प्रतिक्षा में बैठी रहती। आज आकर वह बोली-‘सुगन्धा, गाँव में शादी-व्याह की कैसे परम्परायें हैं? मैं चाहती हूँ। इस बारे में कोई कहानी कह?’

उसका प्रश्न सुनकर स्मृति में डूबी यह कहनी चित्त में उभर ने लगी। मैंने उसे यह कहानी सुनाना शुरू किया।

जेठ का महिना था। गर्मी चरम सीमा पर पहुँच रही थी। दमयन्ती का विवाह आ गया। विवाह में कैसे क्या होता है ? रीति-रिवाजों को देखने की उत्सुकता मेरे मन में उत्पन्न हो गई।

पापा-मम्मी की बातों से पता चला, दमयन्ती मौसी का संबन्ध पापा ने ही तय कराया है, इसी कारण कभी दमयन्ती के पिताजी सुरेश नाना व उनकी पत्नी धनिया नानी परामर्श लेने के लिये हमारे घर के चक्कर लगाने लगे ।

व्याह के एक दिन पहले की बात है। हम सपरिवार दमयन्ती मौसी के यहाँ आमंत्रित थे।

मैं संजू भईया और मम्मी दोपहर से ही उनके घर पहुँच गये। पापा घर की तरह काम काज में व्यस्त थे।

औरतें दमयन्ती पर हल्दी चढ़ा रही थीं। उसकी सिरोही बाली सुमित्रा मामी उसके प्रत्येक अंग में हल्दी लगा रही थी। सुमित्रा ने उसके ब्लाउज के अंदर हाथ डाल कर कोमल गुदगुदे तनिक उभरे हुए स्तनों से हल्दी लथेड दी। मुझे उसकी यह हरकत अच्छी नहीं लगी। दमयन्ती के आगे पीछे सभी अंगों में हल्दी थोप़ दी गई । दमयन्ती नीचे गर्दन डाले यह सब चुपचाप सहती रही। हँसते हुये औरतें ये गा रही थीं।

उलट उलटों लाड़ली के अंग से,

और हरद कहे मैं पीहरी, मो बिन काज न होय।

भाभी बड़ी होंसली, लगाये अंग अंग से,

लाड़ली को रुप रंग निखर जायेगो,

हरद कहे मैं पीहरी मो बिन काज न होय

दिन अस्त के गाँव के प्रमुख लोग एकत्रित हुये। छेवले अर्थात् पलाश की लकड़ी के पाँच खंब बनवा रखे थे। उन खंबों को उनकी जड़ की ओर से नुकीला कर दिया गया था। सबसे पहले बीच का खंब निगधर यानी फूफा को गाड़ना पड़ता है। उनके साले की पत्नी सलहेज ने फूफा के दोनों हाथ मढ़े अर्थात् उन्हें हल्दी से लपेटा। उन्होंने प्यार से फूफा के गालों पर भी हल्दी लगाई। फूफा जी भी अपने आपको सलहेज के रंग में डुबोते जा रहे हैं। जब वे फूफाजी को पूरी तरह से हल्दी से सराबोर कर चुकीं तब उन्होंने फूफाजी को दक्षिणा दी और उनसे मण्ड़प गाड़ने को कहा ।

इसके फूफा जी ने बीच चौक में गड्डा खोदा, उसमें टका पैसा, हल्दी की गाँठ डाली। उसके उन्होंने बीच के खंब को हल्दी से रंगा। इसी समय गाँव के लोगों ने आसपास के चारों खंबों के लिये गड्डे खोद लिये। उन्होंने भी अपने अपने खंबे हल्दी से रंग डाले। जब फूफा जी बीच के खंब को गाड़ने लगे तो ठीक उसी समय आसपास के चारों खंबे भी उनकी नोंक ऊपर करके खड़े कर दिये गये। उन्हें तने की ओर से गाड़ दिया गया। इससे जड़ की ओर के आंशिक मोटे भाग ऊपर की ओर साफ दिखाई दे रहे थे।

पाँच छोले की लकड़ियाँ जिनमें एक ओर गोल छेद किये गये थे। सभी ने खंबों की नोंक में उन लकड़ियों के छेदों में पिरो दिया। खंबे एक दूसरे से उन लकड़ियों से जुड़ गये। ज्वार के टटेरों को उस पर छा दिया गया। बीच के खंबे से काँस की कसोरी बाँध दी गयी। हरे, लाल, पीली पन्नियों के पतंगे बाँध दिये । आम के पत्तों की झालर बना कर उसके चारों ओर लटका दीं।

यों एक सुंदर सा मंडप छा दिया। मण्डप के नीचे बैठाकर ही हमें भोजन कराया गया।

रात को हम अपने घर लौट आये थे ।

दूसरे दिन हम दिन अस्त होने से पहले दमयन्ती के यहाँ पहुँचे । उसे हल्दी के उपटन से स्नान कराया जा रहा था ।

गाँव की नाइन भाभी उसके उपटन लगाने में लगी थीं। जब मैं दमयन्ती के पास पहुँची तो वह बोली -‘‘सुगंधा आ तू भी उपटन कराले ।’’

नाइन भाभी बोली -‘‘ऐसे कैसे उपटन कराले। अरे ! इसके ब्याह में तो मैं उपटन कराने के नेग में जरी की उम्दा साड़ी लूँगी ।’’

उसकी बातें सुनने में मुझे खूब मजा आ रहा था । मैं समझ रही थी कि हर लड़की को इन पाँवडांे पर पैर घर कर निकलना ही पड़ता है । स्नान करने के उसे टीका के लिए सजाया जा रहा था । इतना सुन्दर रूप तो मुझे उसका पहले कभी नहीं लगा ।

अगले दिन ब्याह का दिन था। देर तक सजने के बाद दमयंती तैयार हुई। द्वार पर बारात आयी । घोंड़े पर बैठकर दूल्हा दरवाजे पर आया। दमयंती के पिता ने हाथ मे पूजा कीथाली लेकर उसका टीका किया। टीका होते वक्त औरतें गीत गा रही थी -

राज जनक जी की पौर पै दशरथ चढ़ आये ।

कोट नवै परवत नवै सिर नवै ना जानें

माथों आजुल राजा जब नवै,

जब साजन द्वार पै आवें

औरतों को यकायक जाने क्या सूझा कि इस गीत को छोडकर यह गारी गाने लगीं -

जे बड पिट्टा लोग सगाई तेरी कौने करी ।

कारो कारो खैर के सो डूँड सगाई तेरी कौने करी

मेरी सोने सी लडी हर लाई -

तें बड़ मुच्छा लोग सगाई तेरी कौनें करी ।

तेरो बाप लडैया मथाई तेरी लोखरिया,

तेरी बहन छछूदर मूतैं व दारी बाँस चड़ी ।

जानें इतनों मूतों भरि गये सागर ताल ।

बामें धोबी धोबे सियो राम, सगाई तेरी कौनें करी ।

यह लोक संस्कृति की मिठास तन मन को झंकृत करने लगी ।

दूल्हे को वरमाला के लिए अलग से बने एक मंच पर लाया गया। हमारे गाँव में मंच पर वरमाला की नई परम्परा का जन्म हो रहा था । इसका कुछ वृद्ध लोग विरोध जताने लगे । हम बूढ़े पुरानो के सामने एक दूसरे का वरमाला पहनाते हुए लाज नही आयेगी क्या दूल्हा दुलहन को। किसी ने समझाया कि अब तो यही परम्परा बन गई है।

युवाओं को यह बात अच्छी नहीं लग रही थी । वे कह रहे थे -‘‘जब इस बात का चलन आम हो गया है फिर इन बुढ़्ढ़ों की इसमें कौन सी इज्जत जा रही है ।’’

कुछ वृद्ध लोगों को उनकी यह बात अच्छी नहीं लग रही थी। वे कार्यक्रम स्थल से हट गए थे ।

इसी समय दमयन्ती को स्टेज पर ले लाया जा रहा था। बीडियो फिल्म बन रही थी। फोटो खिच रहे थे। दमयन्ती मंद मंद गति से स्टेज की ओर बढ़ रही थी। मैं आगे बढ़ी और उनके साथ स्टेज पर पहुँच गयी ।

कैमरे बालों के अनुसार सारा कार्यक्रम चला। दमयन्ती ने दूल्हे को बरमाला पहनाई और दूल्हे ने दमयन्ती को ।

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