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दो लघुकथाए

भटकाव

" थोड़ी देर रुक कर जाना." जैसे ही वो निकलने को हुआ, कविता ने टोक दिया.

" मैं फ्री हो चुका हुँ. अब रुकने की क्या जरुरत है ? " वह बोल तो गया फिर उसने कुछ सोचते हुए कहा, " आज कुछ काम है. मुझे थोड़ा जल्दी घर पहुंचना है ।"

" हाँ ! जानती हूँ, बड़ा काम है और तुम्हें जल्दी घर पहुंचना है, मैं फ़्री होने को ही हूँ, थोड़ा रुक जाते तो मैं भी तुम्हारे साथ हो लेती । रास्ते में ड्रॉप कर देना । " कविता के शब्दों में आग्रह से अधिक अधिकार का भाव था । वह उसके चेहरे को कुछ देर तक पढ़ता रहा. वहाँ चुहलबाजी के साथ शोखी के साथ आँखों में चंचलता भी थी ।

उसने मन ही मन सोचा," इतनी उम्मीद और अधिकार से कह रही है । रख लेता हूँ इसकी बात ! ठीक है रूक जाता हूँ । गाड़ी तो है ही. रास्ते में छोड़ दूंगा. " वह स्वीकृति में अपना सिर हिलाना ही चाहता था कि उसके दिमाग में लगा उसके अनुभवों का बेरियर धीरे से बोल उठा, " उन शुरूआती दिनों को याद कर जब पहली बार सड़क पर आटो की इन्तजार में खड़ी कविता से अचानक मिला था, तेरा उससे ढंग का परिचय भी नहीं था. तब इंसानियत के नाते तपती दोपहरी में तूने कविता को लिफ्ट दे दी थी ।कविता के तेरी गाड़ी में बैठते ही तू अपने जाने - बूझे रास्तों को ही भूल गया था, भटकाव में तुझे यही नहीं सूझ रहा था कि आखिर जाना कहाँ है ? तब कविता ने कहा था, " जिस रास्ते पर चलना है, चलने से पहले उसकी पड़ताल तो कर लिया कीजिये. इस तरह भटकना तो अच्छी बात नहीं है." इतना कहकर वह जोर से हँस पड़ी थी. उस दिन के बाद उसने कई बार कविता को लिफ्ट देने की मंशा जाहिर की पर कविता ने कभी बहाना बनाते हुए इंकार कर दिया तो कभी - कभी, लिफ्ट लेती भी रही थी । फिर आज अचानक उसी की ओर यह प्रस्ताव ?

इस उलझन में उसने कोई भी प्रतिक्रिया देने में स्वयं को असमर्थ पाया.उसकी जबान में शब्दों का अभाव हो गया ।

कुछ देर चुप रहने के बाद वह इतना ही कह पाया, " प्लीज कविता हठ न करो, और अधिक भटकाव अब मेरे लिए सम्भव नहीं है. मैं चलता हूँ.तुम ऑटो कर लेना ।"

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

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जिम्मेदारी

किसी ने गेट पर दस्तक के साथ गुहार भी लगाई, " भूखों और बेसहारों को कुछ दे दो, मालिक ।"

याचना के साथ, आवाज में बेचारगी भी थी ।

कई दिनों से घर और कमरों में कैद होने की वजह से दिल - दिमाग पर बेचेनी ने पूरे शरीर को बेदम कर रखा था । पर औरत की लाचारगी ने दरवाजा खोलने को मजबूर कर दिया ।

गेट पर मुश्किल से बीस - बाईस साल की औरतनुमा लड़की के सूखे स्तनों से चिपका हुआ तीन - चार माह का अधनंगा बच्चा गिर - गिर कर संभल रहा था और लड़की के कपड़े भले ही पूरे थे, परन्तु मैले थे । इतना ही नहीं उसके पेरों के करीब एक वर्ष का एक और बच्चा भी खड़ा था जो इस देश की आजादी को मुहँ चिढ़ाने के लिये काफी था ।

एक महीने से पूरी तरह से बन्द देश में फैली इस भूख और गंदगी को देखकर उसे बड़ी कोफ्त हुई ।

" क्या चाहिये ? " सवाल तुरंत जबान पर आ गया ।

" बाबू, कुछ खाने को मिल जाय तो, बड़ी दया होगी, बच्चे सुबह से भूखे हैं । " गरीबी की मार के कारण, याचना पूरी तरह से बेशर्म थी । वो सोच में पड़ गया कि क्या करे ?

" बाबू जी, भगवान आपको बहुत दे, इन भूखे बच्चों को ही कुछ दे दिजीये । "

तब तक पत्नी भी आ चुकी थी । बोली, " अरे गरीब हैं, सोच क्या रहे हैं ? कुछ देकर अन्दर क्यों नहीं चलते । रोग फैला हुआ है । भगवान न करे आपको वायरस ने जकड़ लिया तो मुश्किल हो जायेगी ।"

उसने चुप रहने की कोशिश की पर उसकी सुधी प्रवर्ति ने उसे चुप नहीं रहने दिया। वो पत्नी पर लगभग चीख पड़ा," मैने तय कर लिया है कि मुझे ये घर छोड़ कर चले जाना चाहिये ।"

" ये क्या पागलपन है ? अपनी जिम्मेवारीयां पूरी किये बिना जाओगे क्या ? बच्चे क्या मुझ अकेली के हैं ? "

" यही सवाल तुम दो बच्चों की माँ, इस लड़की से भी तो कर सकती हो कि इन बच्चों का बाप कहाँ है जिसके साथ मिलकर इसने इन दोनों बच्चों को पैदा किया है । इसने तब क्यों नहीं सोचा कि पैदा करने के बाद बच्चों को पालना भी पड़ेगा ।"

" कर लूंगीं, कर लूंगीं ! अभी तो आप अन्दर चलिए । जब देखो तब हर किसी से उलझते रहते हैं । "

पत्नी उसे हाथ पकड़ कर लगभग घसीट कर ले अन्दर आयी ।

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा