Zindagi ki Dhoop-chhanv - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 12

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

आइने का सच

‘‘बोर्ड के इम्तहान हैं न इस साल! पढ़ाई पर ध्यान दिया करो और इस मोबाइल से दूर रहा करो! समझ गए न!’’ बेटे को मैंने सख़्ती से ताकीद की तो उसने मोबाइल एक तरफ़ रखकर किताब उठा ली. फिर मैं अपने कमरे में आ गया और अपने मोबाइल फोन को खोलकर उसमें आए मैसेज आदि देखने लगा.

तभी बेटे के कुछ कहते हुए इस कमरे में आने की आवाज़ आई - वह शायद पढ़ाई से सम्बन्धित कोई बात पूछना चाहता था. मैंने झट-से फोन एक तरफ़ रख दिया और पास पड़ा अख़बार उठा लिया. तब तक बेटा कमरे में आ गया था.

तभी बेटे को मैंने यह कहते सुना, ‘‘पापा, आपके फोन की लाइट जल रही है!’’

ग्लानि के मारे मेरी आँखें उठ ही नहीं पा रहीं थी.

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सुविधा

चार्टेड बस में ज़्यादा भीड़ नहीं थी. आधी से ज़्यादा सीटें खाली थीं. मेरे साथवाली सीट भी खाली थी. बस में अगली तरफ का एक ही दरवाज़ा था, इसलिए ज़्यादातर सवारियाँ अगली सीटों पर ही बैठी थीं. पीछेवाली सीटें तो बिल्कुल खाली थीं.

बस एक स्टॉप पर रूकी, तो एक वृद्ध-सा व्यक्ति उसमें चढ़ा. जब वह मेरे साथवाली सीट पर बैठने लगा तो मैंने पीछेवाली खाली सीटों की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘आराम से खुला-खुला बैठिए, इतनी सीटें खाली पड़ी हैं.’’

उससे अगले स्टॉप से एक सुन्दर-सी नवयौवना बस में सवार हुई. जैसे ही वह मेरी सीट की बगल से गुज़रकर पीछेवाली खाली सीटों की तरफ़ जाने लगी, खिड़की की तरफ सरकते हुए मैं उससे कहने लगा, ‘‘आइए मैडम, इधर बैठ जाइए. अगली सीटों से उतरने में आसानी रहती है.’’

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ज़िन्दगी के सच

पत्नी के छोटी-मोटी बीमारी में भी सारा घर सिर पर उठा लेने की आदत से मैं बख़ूबी परिचित था. सारा समय अपनी सेहत की किसी बात को लेकर हाय-हाय करते रहना शायद उसका शौक़ था.

आज शाम को मैं बाहर से घर आया तो दरवाज़े की घंटी बजाने से पहले मैंने अन्दर से आ रही पत्नी की खिलखिलाहट की आवाज़ साफ़-साफ़ सुनी. वह शायद बच्चों से हँसी-मज़ाक की कोई बात कर रही थी. मैंने दरवाज़े की घंटी बजा दी.

कुछ देर बाद पत्नी की पदचाप सुनाई दी. वह दरवाज़ा खोलने आ रही थी. घंटी बजाने के तरीके से उसे भी यह मालूम हो गया था कि आनेवाला मैं ही हूँ.

दरवाज़ा खुलने से पहले ही पत्नी के मुँह से ‘हाय-हाय’ की आवाज़ें आनी शुरू हो चुकी थीं.

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रिश्तों का फ़र्क़

लोकल बस में सफ़र कर रहा था. एक स्टॉप पर बस जब रूकी तो एक वृद्धा दो बच्चों के साथ मेरे साथवाली ख़ाली सीट पर आ बैठी.

मैंने देखा कि क़रीब छह वर्षीय बच्चे को, जो शायद उस वृद्धा का पोता था, उसने अपनी गोद में बिठा लिया ओर उसे अपनी एक बाँह से इस तरह ढक भी लिया कि बस के हिचकोलों और धक्कों से वह बचा रहे. साथ ही अपने साथ आई क़रीब चार वर्षीय बच्ची से, जो शायद उसकी पोती थी, उस वृद्धा ने कहा कि वह उसके पास खड़ी होकर अगली सीट के पीछे लगे हैंडल को अच्छी तरह पकड़ ले. पोते और पोती के बीच का फ़र्क बिल्कुल सामने था.

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मजबूरियाँ

एक हाथ से बच्ची की उँगली थामे और दूसरे हाथ से उसकी स्कूल यूनिफॉर्म वाला थैला पकड़े मैं तेज़ी से बस स्टॉप की तरफ़ बढ़ रही थी. जितना सोचा था, उससे कहीं ज़्यादा खर्च यूनिफॉर्म पर हो गया था. नई यूनिफॉर्म ख़रीदना अब बेहद ज़रूरी हो गया था. पहलेवाली तो अब पहनने लायक़ रह ही नहीं गई थी. यह यूनिफॉर्म ख़रीदने के लिए भी कई दुकानों के चक्कर मैंने लगाए थे - मोलभाव करने के मकसद से. आख़िरकार जिस दुकान से इसे ख़रीदा था वहाँ पर भी काफ़ी झिक-झिक करके बीस रुपए कम करवा ही लिए थे. मैं भी क्या करती. जितनी तनख़्वाह थी पतिदेव की, उसी हिसाब से ही तो ख़र्च कर सकती थी न. और फिर यह बात भी थी कि हम अपनी इकलौती बच्ची को एक ठीक-ठाक-से प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रहे थे - इस बात के बावजूद कि स्कूल की पढ़ाई वग़ैरह पर होनेवाला ख़र्च उठा पाना हम लोगों के लिए एक बड़े मुश्किल सफ़र की तरह था.

बस स्टॉप तक पहुँचने के लिए पाँच-सात मिनट लग जाते थे. रास्ते में दुकानों की भरमार थी. इससे पहले जब-जब हम लोग बच्ची को लेकर इस बाज़ार में आते थे तो वापसी पर बस पकड़ने के लिए जाते वक़्त वह कभी आइस्क्रीम, कभी चिप्स या कभी किसी और चीज़ की फ़रमाइश ज़रूर किया करती थी और हम लोग किसी-न-किसी तरह उसकी यह फ़रमाइश पूरी कर भी दिया करते थे.

मगर आज बच्ची ने कोई फ़रमाइश की ही नहीं. बस स्टॉप आता जा रहा था.

पर्स में पैसे बहुत कम बचे थे, मगर फिर भी अचानक मेरे मुँह से न जाने कैसे निकल पड़ा, ‘‘आइस्क्रीम खानी है क्या, रुचि?’’

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अपनी-अपनी औक़ात

‘‘किसी अच्छे हॉस्पीटल में एडमिट करवाना था न कांता को!’’ सुषमा अपने देवर से फोन पर कह रही थी. फिर कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘आजकल तो ऑफिस में साँस लेने की भी फ़ुरसत नहीं है! प्रमोशन होने के बाद से काम बहुत ही बढ़ गया है. हॉस्पीटल आकर कांता को देख पाना शायद मेरे लिए मुमकिन नहीं हो पाएगा. मैं ड्राइवर के हाथों कुछ फ्रूट्स भिजवा दूँगी. तुम्हारे भैया फॉरेन टूर (विदेश दौरे) पर न होते, तो ज़रूर आते.’’ कहते हुए सुषमा ने फोन काट दिया.

फिर सुषमा ने अपनी सहेली को फोन मिलाया, ‘‘अच्छा, ए.बी.सी. सुपर स्पेशिलिटी हॉस्पीटल में एडमिट करवाया है भाई साहब को! यह तो फाइव स्टार हॉस्पीटल है! मैं आज ही आऊँगी उन्हें देखने. तुझसे गप-शप किए भी काफ़ी अरसा हो गया है. नहीं-नहीं ऑफिस के काम की कोई चिन्ता नहीं है, वह तो चलता रहता है!’’

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शौक़

‘‘यार, आजकल तुम महिला पत्रिकाओं के व्यंजन विशेषांक क्यों पढ़ते रहते हो? अभी उस दिन बता रहे थे कि टी.वी. पर व्यंजन विधियों वाले कार्यक्रम भी देखना शुरू कर दिया है तुमने!’’

‘‘वो ऐसा है कि जब से पत्नी का स्वर्गवास हुआ है, घर में ढंग का खाना बनना बंद हो गया है. मैं तो ब्रेड-जैम या ब्रेड-बटर खाकर गुज़ारा चला रहा हूँ. अब ऐसे में इन व्यंजन-विशेषांकों और व्यंजन विधियों वाले कार्यक्रमों के सहारे ही अपने खाने-पीने के शौक़ को पूरा करने की कोशिश करता हूँ, और क्या.’’

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अपने-अपने आँसू

टिंकू को हर रोज़ क्रेच में छोड़कर मैं ऑफिस जाया करती हूँ, पर आज तो वह मुझे छोड़ ही नहीं रहा था. पिछली रात से उसकी तबीयत भी कुछ ठीक नहीं थी. मैंने टिंकू को बहलाने की काफ़ी कोशिश की, पर वह लगातार रोते हुए मुझसे चिपटे जा रहा था. ऑफिस के लिए देर होती जान मैंने जबरदस्ती टिंकू को अपने से अलग किया और क्रेच के दरवाज़े से बाहर निकल आई. क्रेच की संचालिका ने दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लिया. अन्दर से टिंकू के ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ बाहर तक सुनाई दे रही थी.

टिंकू के सामने हँसता-मुस्कुराता मेरा चेहरा रुआँसा हो आया और मैं दरवाज़े से सिर टिकाकर फूट-फूटकर रोने लगी.

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चेहरा-दर-चेहरा

साहब ने फोन पर बजर मारकर पी.ए. को बुलाना चाहा लेकिन उधर से पी.ए. की सुमधुर आवाज़ के बदले चपरासी का खरखराता-सा स्वर सुनाई दिया, ‘‘नमस्कार, सर.’’

पी.ए. द्वारा फोन न उठाए जाने से साहब समझ गए कि वह अभी अपनी सीट पर नहीं है या फिर अभी ऑफिस आई ही नहीं, उनका मूड बिगड़ गया.

‘‘पी.ए. कहाँ है? ’’ उन्होंने रौबभरी आवाज़ में चपरासी से पूछा.

‘‘सर, दीप्ति मैम तो आई नहीं अब तक.’’ चपरासी ने भीगी बिल्ली की-सी आवाज़ में जवाब दिया.

‘‘क्या मज़ाक बना रखा है इस पी.ए. ने भी. जैसे ही आए, मेरे पास भेजो. खबर लेता हूँ मैं इसकी!’’ गरजती हुई आवाज़ में कहते हुए साहब ने फोन रख दिया.

कुछ देर बाद पी.ए. ने दरवाज़ा खटखटाकर साहब के कमरे में प्रवेश किया और साहब की बड़ी-सी मेज़ के पास खड़ी होकर अपने देर से आने की सफ़ाई देने लगी.

पी.ए. की बात काटते हुए साहब बड़ी प्यार-भरी आवाज़ में कहने लगे, ‘‘वो सब छोड़ो मैडम! आपके बगैर ऑफिस बड़ा सूना-सूना-सा लग रहा था. अब लगता है बहार आ गई है! आप बैठिए न, खड़ी क्यों हैं? चाय-वाय पीते हैं!’’

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धुँधली खुशी

घर की ओर कदम बढ़ाते हुए मुझे लग रहा था मानो मैं शर्म के सागर में गोते खा रहा होऊँ. वजह यह थी कि सामने से आ रहे सुधीर बाबू को मैं पहचान नहीं पाया था. मेरे बिल्कुल पास पहुँचकर उन्होंने ही मुझे बुलाते हुए कहा था, ‘‘क्या बात है रवि बाबू, हम रिटायर्ड लोगों की तरफ़ भी देख लिया करो.’’ कहकर वे तो आगे बढ़ गए थे, पर मैं अपने-आप को बहुत शर्मसार-सा महसूस करने लगा था. उन्हें पहचान न पाने का एक कारण तो शाम का धुँधलका था और दूसरा मेरा चश्मा. पिछले कुछ महीनों से मुझे लग रहा था कि मेरे चश्मे का नम्बर बदल गया है, मगर आँखों के डॉक्टर के पास जाना हर महीने अगले महीने पर टल जाता. वजह घर का खस्ताहाल बजट ही था. चश्मे का नम्बर सही न होने के कारण मुझे कई परेशानियाँ झेलने पड़ रही थीं, पर फिर भी किसी-न-किसी तरह काम चल रहा था.

चलते-चलते मैंने तय कर लिया था कि अगले दो-चार दिनों में ही आँखों के डॉक्टर को दिखाकर नया चश्मा ज़रूर बनवा लूँगा. आज दफ़्तर से पॉचेक सौ रुपए अख़बार के बिल के एवज़ में मिले थे. इन पैसों को बस इसी काम के लिए खर्च करने की पक्की बात मैंने सोच ली थी.

घर के अन्दर पहुँचा ही था कि मेरी सात वर्षीया बेटी, श्वेता, मुझसे लिपटते हुए कहने लगी, ‘‘पापा, आज तो ‘डाटर्स डे’ है. मुझे वही टेडी बियर दिला दो न.’’

खिलौनों की दुकान के सामने से गुज़रते हुए उसके शोकेस में सजे एक टेडी बियर को श्वेता बड़ी हसरत-भरी नज़रों से देखा करती थी. उस टेडी बियर को ले देने की ज़िद भी वह अक्सर किया करती थी. एक बार जब मैं अकेला ही उस दुकान के आगे से निकल रहा था, तो मैंने दुकान के अन्दर जाकर उस टेडी बियर की क़ीमत पूछी थी. करीब साढ़े पाँच सौ रुपए का था वह टेडी बियर.

मुझसे लिपटे-लिपटे श्वेता बड़ी हसरत-भरी नज़रों से मेरी ओर देखते हुए मेरे जवाब का इन्तज़ार कर रही थी. मैंने कुछ पल सोचा और फिर श्वेता का गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘ठीक है, ज़रा चाय-वाय पी लूँ. फिर बाज़ार जाकर खरीद लेते हैं वह टेडी बियर.’’ मेरा जवाब सुनकर वह खुशी से उछल पड़ी, मगर उसके चेहरे के भाव मुझे साफ़-साफ़ कहाँ दिख पा रहे थे.

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अपने-अपने दुःख

सुबह वह इसी उम्मीद के साथ घर से निकला था कि सेठ जी से कुछ पेशगी रकम ले लेगा और शाम को बच्चे का जन्मदिन मनाने के लिए मिठाई और खिलौना लेता आएगा. अगली तनख़्वाह मिलने में अभी दस दिन बाकी थे और पिछली तनख़्वाह तो कब की उड़नछू हो चुकी थी.

मगर सेठ जी से बहुत चिरौरी करने पर भी उसे कोई पेशगी रक़म मिल नहीं पाई. अपने एक-दो दोस्तों से भी उसने कुछ पैसे उधार लेने चाहे, मगर वहाँ भी निराशा ही उसके हाथ लगी.

मायूस-सा वह शाम को काफ़ी देर तक सड़कों पर यूँ ही भटकता रहा. आख़िर घर जाता भी तो क्या मुँह लेकर. देर रात जब उसे लगने लगा कि अब तक बच्चा नींद के आग़ोश में जा चुका होगा, तो धड़कते दिल से वह घर पहुँचा. दरवाज़े की घंटी बजाने की बजाय उसने दरवाज़े को हल्का-सा खटखटाया ताकि बच्चा नींद से जाग न जाए.

पत्नी ने दरवाज़ा खोला तो वह फुसफुसाती आवाज़ में पूछने लगा, ‘‘मिंटू सो गया है न?’’

‘‘कहाँ सोया है अभी तक! आपकी ही राह देख रहा है कि आप मिठाई और खिलौना लेकर आओगे.’’ पत्नी ने उसके ख़ाली हाथों की ओर देखते हुए जवाब दिया.

भारी कदमों से वह कमरे के अन्दर आया जहाँ उसका बेटा बिस्तर पर लेटा हुआ था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह बेटे से नज़रें कैसे मिला पाएगा. चोर नज़रों से उसने बेटे के बिस्तर की ओर देखा. बेटा तो जैसे घोड़े बेचकर सो रहा था. अपनी मजबूरियाँ देख उसकी आँखें गीली हो आईं. तभी बच्चे ने दूसरी तरफ़ करवट बदल ली. उसकी आँखों से भी आँसू बह रहे थे.

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