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मेरे घर आना ज़िंदगी - 12

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(12)

आलोक भट्टाचार्य नवोदित लेखिका सुमीता केशवा की किताब एक पहल ऐसी भी का लोकार्पण हेमंत फाउंडेशन के बैनर तले कराना चाहते थे । एक दिन वे सुमीता को लेकर घर आए । कार्यक्रम की योजना पर विचार विमर्श हुआ। तारीख वगैरह निश्चित कर सूर्यबाला दी, नंदकिशोर नौटियाल जी का चयन अध्यक्ष और मुख्य अतिथि के लिए किया गया । कार्ड छपा कर सब को भेजने की जिम्मेवारी सुमीता ने ली । सुमीता का घर में आना जाना शुरू हो गया और धीरे-धीरे हम अच्छे मित्र बन गए। लोकार्पण का आयोजन बहुत भव्य हुआ।

इतने सबके बावजूद मन शांत न हो पाया । जिंदगी की रफ्तार बदस्तूर जारी थी। वह रूकती भी तो नहीं । हम लाख चाहे की किन्ही मनचाही परिस्थितियों में रुके रहें पर ऐसा होता नहीं। दुख जरूर धीरे-धीरे सरकता है। मैं भी अपनी परिस्थितियों में रमने लगी । जो ईश्वर ने दिया उसे दोनों हाथों से सकेलने लगी। प्रभु, जिसमें तेरी रजा.....

मुझे पता था मुझे अकेले जीना है और आन बान शान से जीना है । खुद को मजबूत बनाना है । मैंने यह सारी बातें रोहिताश्व जी से शेयर कीं। वे गोवा यूनिवर्सिटी में हिंदी के शाखा प्रमुख थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि मैं कुछ दिन गोवा आकर उनके घर रुकूं, साहित्यिक चर्चाएं हों, पर्यटन हो । हालांकि वे गोवा विश्वविद्यालय और गोवा साहित्य अकादमी में मुझे दो बार बहुभाषी कवि सम्मेलन और परिचर्चा आदि के लिए बुला चुके थे। पर तब बस कार्यक्रम के बाद मैं लौट आई थी। गोवा दर्शन रह गया था । उन्होंने फोन पर अपनी इच्छा दोहराई "इस बार आ ही जाओ, खूब घुमाएंगे आपको । मन बहल जाएगा। "

नवंबर का महीना था। लगभग 2 महीनों से रोहिताश्व जी हमारा गोवा में इंतजार कर रहे थे। मैंने कॉलेज में छुट्टी के लिए अप्लाई कर दिया । प्रमिला भी आ गई और हम गोवा जाने की तैयारियों में जुट गए ।

हमारे रवाना होने के 2 दिन पहले रोहिताश्व जी को हैदराबाद जाना पड़ा। उनके बड़े भाई गंभीर रूप से बीमार पड़ गए । मैंने फोन पर कहा

" फिर हम कैंसिल कर देते हैं, आप लौट आइए तब आएंगे। "

" नहीं कैंसिल मत करिए संतोष जी, मेरी पीएचडी की स्टूडेंट किरण आपको कर्मली स्टेशन पर मिल जाएगी । आपके रहने खाने की व्यवस्था मेरे घर पर की गई है। "

रोहिताश्व जी के आग्रह पर हम कोकण रेल्वे की ट्रेन में आरक्षित एसी कोच में जा बैठे। कोंकण बेहद खूबसूरत संपदा से भरा पूरा है। ट्रेन सहयाद्री घाटों को पार करती अंधकार और उजाले से आंख मिचौली करती लंबी-लंबी ढेरों सुरंगों से गुजरती ऊंचे ऊंचे पुल और कभी-कभी सागर तट को लगभग छूती हुई कर्मली स्टेशन पर रुकी जहां किरण हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। सूने पड़े प्लेटफार्म पर हमें एक दूसरे को जानने में असुविधा नहीं हुई। जबकि इससे पहले हम नहीं मिले थे।

किरण ने मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया "भारत के 26 वें राज्य गोवा में आपका स्वागत है। "

रोहिताश्व जी का घर हरे-भरे परिसर में काफी ऊंचाई पर था। घर बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा था । ड्राइंग रूम की खिड़की से दिखती मांडवी नदी के शांत जल पर तैरते मालवाहक जहाज और नदी से लगा पर्वत । इस जगह पर तो कितनी रचनाएं जन्म ले सकती हैं। रोहिताश्व जी के बिना उनके घर में रहते हुए खुद ही खाना पका कर खाते हुए हमने पूरा गोवा घूमा। गोवा की सुंदरता का बखान तो मैं अपने यात्रा संस्मरण में करूंगी। मेरी उत्सुकता थी आग्वाद जेल देखने की जहां सुधीर शर्मा ने अपनी कैद के 8 वर्ष गुजारे थे।

आग्वाद किला पंजिम से 18 किलोमीटर दूरी पर स्थित है जो मांडवी नदी और सिंकवेयम बीच से घिरा है । आग्वाद का अर्थ है ताजे पानी का झरना। जबकि आज भी यह मांडवी नदी के किनारे प्रवेश द्वार सा खड़ा है । आग्वाद किले से लोहे के भारी जंगले से घिरी नीचे जाती सीढ़ियां आग्वाद जेल की हैं । जो गोवा में सेंट्रल जेल के हिस्से में आता है। जेल सी लेवल पर है जबकि किला ऊंची पहाड़ी पर।

जेल की दीवारें, सीढ़ियां देर तक मुझे सुधीर शर्मा की याद दिलाती रहीं। 8 वर्ष तो कब के बीत गए । अब वह न जाने कहां होगा ।

रोहिताश्व जी लगभग रोज ही फोन पर हाल-चाल पूछ लेते। पड़ोसियों ने छिलके वाले काजू मंगवाए थे जिन्हें मूंगफली की तरह छीलकर खाने में बड़ा मज़ा आता है। लिहाजा रोहिताश्व जी से काजू की दुकान दरयाफ्त की। खूब सारे पैकेट खरीदे काजू के । इतने दिनों गोवा ने काफी तरोताजा कर दिया था। आज इतने बरसों बाद गोवा को लेखनीबद्ध करते हुए रोहिताश्व जी याद आ रहे हैं । अब वे नहीं हैं। बेतहाशा शराब ने उनके शरीर को खोखला कर दिया था। उनकी पत्नी हैदराबाद में रहती थी और वे अकेले गोवा में रहते थे। उनके जीवन के अंतिम वर्ष में वे निपट अकेले थे।

मुंबई लौट कर मुझे लगा कि अगर गोवा का संस्मरण तुरंत नहीं लिखा तो शायद यह रोहिताश्व जी के अनुपस्थित आतिथ्य की अवहेलना होगी। लिखा और नवनीत में भेज दिया प्रकाशित होने । विश्वनाथ जी ने भी 2 महीने बाद प्रकाशित कर दिया । रोहिताश्व जी को नवनीत की प्रति डाक से भिजवाई। वे फोन से ज्यादा पत्र लिखने के शौकीन थे। उन्होंने पत्र में लिखा" इतने सालों से गोवा में रह रहा हूं पर इस नजरिए से तो कभी देखा ही नहीं गोवा को। यार तुम भी कमाल लिखती हो । "

यही बात कमलेश बख्शी दी ने कही कि "मैं गोवा घूम चुकी हूं पर तुम्हारा संस्मरण पढ़कर तो लग रहा है गोवा घूमा ही नहीं। "

अब क्या कहूं गोवा ने मुझे भी तो खूब रिझाया।
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दिसंबर में मुंबई की जैसे जवानी लौट आती है। मौसम खुशगवार हल्की हल्की ठंड। सुबह के वक्त हल्का स्वेटर पहनना पड़ता है । बाजार क्रिसमस और नए साल की सौगातो से रंगीन हो उठता है। तभी ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड में कॉन्फ्रेंस की सूचना अंतरराष्ट्रीय पत्रकार मित्रता संघ से मिली । दोनों देशों में तीन-तीन दिन की कॉन्फ्रेंस के लिए न्योता था 22 से 27 जनवरी 2008 का। मेरा मन उमंग से भर उठा था । मित्रों ने सुझाया दर्शनीय स्थलों को भी देख आना। फिर कहां दोबारा जाना होगा। मैं SOTC से ब्रोशर लेकर आई। पूरे 12 दिन लगेंगे सब कुछ देखने में। मैं वीजा पासपोर्ट आदि की औपचारिकताओं में जुट गई । विनोद जी भी खुश हुए। उन दिनों प्रमिला आई हुई थी। तनख्वाह का एडवांस ले हमने नाना चौक से कपड़े जूते आदि खरीदे। पोद्दार विद्यालय के नोटिस बोर्ड पर मेरी इस यात्रा की सूचना प्रिंसिपल कुलदीप शर्मा ने लगाई । यानी पूरे राजस्थानी सेवा संघ ने मेरा जाना हाथों-हाथ लिया । मेरी मन: स्थिति के लिए यह बहुत बड़ा सपोर्ट था जिसने मेरी एकाकी जिंदगी को मजबूती दी । चंद खुशियों के पल मेरी स्मृति में जोड़े । आस्ट्रेलिया देखने की चाह कॉलेज के दिनों से मेरे मन में थी जब कॉलेज की खेल टीम की कप्तान क्रिकेट टीम लेकर ऑस्ट्रेलिया गई थी। लगातार सुर्खियों में रहने वाला सिर्फ क्रिकेट ही नहीं बल्कि शिक्षा के नए-नए स्त्रोत, भविष्य की संभावनाएँ, अधिकतम वेतन, बहुत कम आबादी, बहुत अधिक क्षेत्रफल, प्रदूषण रहित, खिले फूलों, खिले खुशगवार मौसम के कारण भी यह देश सुर्ख़ियों में है| तरक्की की ऊँचाइयों को छुआ है इस देश ने| क्योंकि यहाँ की सरकार अपने नागरिकों का भरपूर ध्यान रखती है|जब छै: बजे शाम को.....शाम नहीं चमकती दोपहर क्योंकि वहाँ सूरज भी आराम नहीं करता|चमकता रहता है रात साढ़े नौ बजे तक| कामकाजी पुरुष स्त्रियाँ घर लौटते हैं तो बाजार बंद हो जाते हैं और कहवाघरों, रेस्तराओं और फुटपाथों पर सजी टेबलकुर्सियों के दरम्यान कहकहे, मुस्कुराहटें, खुशियाँ कदमबोसी करती नज़र आती हैं|

आज यूँ लगा जैसे अतीत में पहुँच गई हूँ पूरी एक सदी पहले के लिखे नाटकों को नाट्य मंडली के युवा कलाकार एक महीने तक मंचित करेंगे| मेरे हाथ में भी बुलौवे का कार्ड है.....ख़ास आग्रह “आप ही के लिए शो रखा है|” कुछ बाहर से भी लेखक आये हैं| अमेरिका से, मॉरिशस से| सड़कें सूनी हैं| जैसे कर्फ्यू लगा हो| लेकिन यह इस शहर का मिज़ाजहै| वैसे भी इतने बड़े महाद्वीपकीजनसंख्या९.५ मिलियन है| चारोंओर हिन्द महासागर, प्रशांत महासागर और दक्षिण सागरसे घिरे इस देश का इतिहास भी लगभग भारत जैसा ही है| जिस तरह भारत में अंग्रेज़ी हुकूमतकेदौरान आज़ादी के दीवानों को कैद कर अंडमान निकोबार में काले पानी की सज़ा भोगने को रखा जाता था उसी प्रकार इस सुंदर जनविहीन द्वीप पे विभिन्न देशों के कैदियों को लाकर रखा जाता था| ये वे देश थे जो अंग्रेज़ों के गुलाम थे| अंग्रेज़ों ने यहाँ के मूल आदिवासी मौरियों पर जुल्म ढाए| तमाम मुल्कों पर हुकूमत करने वाला ब्रिटिश राज्य.....शायद यही वजह हो कि आज वह अपनी राष्ट्रीय पहचान खो चुका है और यूरोप का ही एक हिस्सा कहलाने लगा है| तो जैसे जैसे देश आज़ाद होते गए यहाँ लाए कैदी भी आज़ाद होते गए| कुछ अपने देश लौट गये, कुछ यहीं बस गये| जो बस गये उन्होंने इस द्वीप को जीने लायक बनाया, बसाया| धीरे-धीरे अन्य देशों से भी लोग आए कुछ नौकरी पर, कुछव्यापार करने| भारत से हिंदू, सिक्ख आए, ईसाई आए, हिब्रूआए, हांगकांगी, सिंगापुरी, जापानी, चीनी और यूरोपियन मुसलमान.....इसलिए यहाँ बोलचाल, रहनसहन, स्थापत्य में, खानपान में एक मिली जुली संस्कृति दिखाई देती है| अपनी सभ्यता न होने की वजह से अब जो ऑस्ट्रेलियन सभ्यता बनी है वह एक स्वतंत्र सभ्यता है जिसको गढ़ने में विभिन्न देशों का हाथ है|

मंच पर उन्नीसवीं सदी लौट आई थी| कलाकारों ने डूब कर अभिनय किया था| जब नाटक के नायक को फाँसी पर चढ़ाया जा रहा था तो मेरे बाजू में बैठी तेईस वर्षीया लड़की सिसक पड़ी थी| जेल में वह अंडासेल.....अंतिम प्रार्थना कराता पादरी.....बेड़ियों से जकड़े पाँव लकड़ी के फर्श पर चर्रमर्र, झनझन करते और संग संग दौड़ता मशालची.....जलती मशालों ने रूह कँपा देने वाला दृश्य खींचदिया था| दर्शक सम्मोहन में जकड़े थे| मैं रात को सपने में भी उन्हीं दृश्यों के संग थी|

अपने प्रकल्प के प्रस्तुतिकरण की व्यस्तता के बावजूद मुझे लग रहा था कि मैं इस शहर में जी रही हूँ| या शायद शहर मुझे जी रहा हो| मेरा मौजूद होना सिमरन एण्डग्रुप के लिए नित नए कार्यक्रमों को आयोजित करना हो गया था|आज वो पत्रकारों से मेरी भेंट करवाने वाले थे|चार घंटों की इस विशेष गोष्ठी में भारतीय पत्रकारिता पर खुलकर बहस हुई| ताज्जुब इस बात का कि कई नई बातों का पता चला जो मैं यहीं आकर जान पाई| गोष्ठी में उपस्थिति गिनी चुनी थी पर बहस के लिए काफी स्पेस मिल रहा था| सिमरन नई-नई पत्रकार है, उसके संग सिलैका है जो उम्र में उससे बड़ी और काफी सीनियर है| कई अखबारों में उसके फीचर छपते हैं|

न्यूजीलैंड में मैं मौरी आदिवासी महिला अमेंड्रा की मेहमान थी। पहाड़ों की वादियों में बसे खूबसूरत शहर क्वींस टाउन घूमते हुए वह बता रही थी "राइटर (वह मुझे इसी नाम से संबोधित कर रही थी) हम यहाँ के मूल निवासी हैं.....अत्याचार का एक लम्बा सिलसिला हमने झेला है| हमारे पूर्वज सदियों से यहाँ के जंगलों में कबीलों में रहते थे| हमारीअपनी संस्कृति थी, अपने रीति रिवाज़| उस समय हमारे पूर्वज पत्तों से बदन ढँकते थे|लाल, पीली, सफेद मिट्टी की धारियों से श्रृंगार करते थे| वे पूरी तरह समुद्री भोजन और शिकार पर निर्भर थे| शिकार वे तीर कमान से करते थे|समुद्री जीवों को तो वे तैरकर, गोता लगाकर हाथ से पकड़ लेते थे| अंग्रेजों ने जब यहाँ हुकूमत की तो मौरियों पर बहुत जुल्म ढाये|उन्हें जंगलों में ही रहने पर मजबूर किया| उनके पास बंदूकें थीं| बंदूकों के आगे तीर कमान भला टिक पाते?लेकिन फिर भी मौरियों ने अपनी संस्कृति मिटने नहीं दी| अपनी परंपराएँ जीवित रखीं| देश आज़ाद हुआ तो हमने चैन की साँस ली लेकिन सरकार हमें हमारे परिवेश में रहने देना नहीं चाहती| आज से ३८ वर्ष पूर्व १९७० में जब मैं दस साल की थी तो मुझे और मेरे जैसे कितने ही बच्चों को उनके माता पिता से छीनकर सभ्य बनाने के लिए शहरों में लाने का अभियान चला| आज हमारी पीढ़ी को ‘स्टोलन जेनरेशन’ कहा जाता है|मेरे माता पिता मुझसे कभी नहीं मिले| पता नहीं वे जीवित भी हैं या नहीं|लेकिन मैंने अपनी बेटियों को भरपूर प्यार दिया है| जो मुझे नहीं मिला मैंने उनको दिया| मेरी बड़ी बेटी विला रोटोरुआ में रेडियो स्टेशन में सांस्कृतिक विभाग की डायरेक्टर है| उसने आपका एक प्रोग्राम.....शायद इंटरव्यू अभी से शेड्यूल कर लिया है| रोटोरुआ में वह मिलेगी आपसे|”

मेरे होंठों से एक आह निकली और सारी वादी सिसक पड़ी| दोपहर में अमेंड्रा के बारे में ही सोचती रही| रात डिनर के लिए हम लिटिल इंडिया रेस्टॉरेंटआए तो वहाँ के मैनेजर राजेंदर सिंह से मुलाकात हुई| वहचंडीगढ़ का था| मैंने पूछा..... “राजेंदर सिंह बेदी को जानते हो?” खुश होकर चहका वह..... “हाँ..... उनके उपन्यास मैला आँचल पर फ़िल्म भी बनी है|”

मैंने सुधारा..... “मैला आँचल नहीं, एक चादर मैली सी|” वह झेंप गया| मीना दीदी ने उससे कहा.....” “मैडम राइटर हैं, संतोष श्रीवास्तव|”

वह आधा झुका..... मुग़लिया स्टाइल में मुझे सलाम किया और खुश होकर चला गया|

रात भर मुझे नींद नहीं आई । अमेंड्रा का चेहरा बार-बार आंखों के सामने आकर मुझे विचलित करता रहा। जितना जख्म, जितना जुल्म अंग्रेजों ने विश्व के देशों पर ढाया है वह पृथ्वी की संस्कृति पर बदनुमा दाग है । कितनी अद्भुत बात है कि प्रभावित भी किया है तो अंग्रेज लेखकों ने। अंग्रेज लेखकों को पढ़ना फख्र की बात मानी जाती है। क्या भारतीय लेखकों को पढ़ना फख्र नहीं है ?क्यों शराब के पैग के साथ अंग्रेज लेखक याद आते हैं भारतीय नहीं? यह मानसिकता लेखक समुदाय के बीच से कब हटेगी।

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कैसी विडंबना है कि एक तरफ किताबें पाठकों के लिए तरस रही है तो दूसरी ओर साहित्य के मठाधीश अपने साहित्य की वजह से कम बल्कि अपनी आत्ममुग्धता और खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने की अंधी मानसिकता के शिकार हैं । उनका अहंकार, गुटबाजी, प्रायोजित चर्चाएं ही उन्हें ज्यादा लाइमलाइट में ला रही हैं । ऐसे ही कवि हैं आलोक धन्वा जिन्हें पूरा सपोर्ट ज्ञानरंजन जी का मिल रहा है। बहरहाल यह बात मुझे बाद में पता चली क्योंकि तब तक मैं ज्ञानरंजन जी को अपना शुभचिंतक आत्मीय समझती थी। हुआ यूं कि सुधा अरोड़ा का फोन आया "संतोष, तुम कुछ दिनों के लिए असीमा भट्ट को अपने पास रख लो। घर का इंतजाम होते ही वह चली जाएगी। " मुझे भला क्या ऐतराज़ था। और फिर कौन नहीं जानता था आलोक धन्वा के असीमा पर किए अत्याचारों को । लिहाजा मैं सहर्ष तैयार हो गई । मैंने मेहमानों वाला कमरा असीमा के लिए तैयार कर दिया। वह कल शाम तक आने वाली थी ।

तभी ज्ञानरंजन जी का फोन आया "यह तुम क्या कर रही हो संतोष, असीमा अच्छी औरत नहीं है। मालूम भी है तुम्हें वह आलोक की कितनी लानत मलामत करके गई है। "

मैं घबरा गई " ज्ञान दा, मैं हां कर चुकी हूं । असीमा आने ही वाली है। “

"तो मना कर दो । फँसोगी तुम बुरी तरह। " कहते हुए उन्होंने फोन काट दिया ।

मेरी जान संकट में । क्या करूं? एक तरफ ज्ञान दा का हुक्म । दूसरी तरफ एक औरत की मदद । सुधा अरोड़ा को फोन लगाया। उनका जवाब सीधा था "तुम्हें मदद करनी चाहिए । आगे तुम खुद समझदार हो । "

तब मैं आलोक धन्वा के कारनामों से परिचित नहीं थी। ज्ञान दा के प्रति मेरा आदर भाव था । मैंने असीमा को मीठी इंकारी दे दी। यह वजह बताकर कि" मैं जहां नौकरी करती हूं । यह बंगला उनका दिया हुआ है और वे परमीशन नहीं दे रहे हैं। "

वह रुआंसी हो गई ।

"सामान टेंपो में लादा जा चुका है संतोष । अब मैं कहां जाऊं। "

अपराध बोध से मैं विचलित हो गई। मानती हूं गुनाह किया मैंने। अब तो और भी ज्यादा जब मुझे आलोक धन्वा की सारी सच्चाई पता चली। ज्ञान दा के प्रति भी मेरे भ्रम टूटे ।

28 दिसंबर 2019 को उन्हें मेरी कर्म भूमि मुंबई से अमर उजाला द्वारा शिखर सम्मान दिया गया। उनकी कहानियाँ पिता और घंटा जो मैंने स्कूल के दिनों में धर्मयुग में पढ़ी थीं कालजयी कहानियाँ कही जा रही है। निश्चय ही वे अच्छे लेखक, अच्छे संपादक हैं। कईयों के लिए अच्छे इंसान भी । पर क्या उन्होंने आलोक धन्वा को सपोर्ट देकर अपने आसपास उन्हीं के जैसा गुट निर्मित कर असीमा भट्ट को हर मददगार के दिल से निष्कासित नहीं किया ?

7 दिसंबर 2019 को ही मुंबई में मेरी किताब करवट बदलती सदी आमची मुंबई के चर्चा विमर्श कार्यक्रम में जब मैंने असीमा को आमंत्रित किया तो वह रो पड़ी "मुझे क्यों बुला रही हो संतोष, लोग तो मुझे खराब औरत कहते हैं । "

कौन है औरत की इस पीड़ा का जिम्मेवार? एक अच्छा कवि ?एक कालजयी लेखक?

कुछ ही महीनों बाद मुझे घर खाली करना पड़ा । जिसका था वह बेच रहा था । विनोद सर ने मुझे सद्गुरु नगर में उनके बेटे विशाल के द्वारा खरीदे वन बेडरूम हॉल किचन वाले घर में शिफ्ट कर दिया। घर था तो अंधेरी में मगर सोसायटी सद्गुरु नगर थी। घर के पीछे मुसलमानों का इलाका । बकरीद पर खूब बकरे कटते। खून की गंध दिन भर मेरा पीछा करती। अब लक्ष्मी नारायण मंदिर की आरती के घंटे, फूलों की, प्रसाद की खुशबू छूट गई थी। पास ही मस्जिद से पांचों वक्त की नमाज का ऐलान करती मुल्ला की आवाज सुनाई देती । यानी किसी न किसी रूप में ईश्वर मेरे नजदीक है।

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विनोद सर झुंझुनू से 35 किलोमीटर दूर चुडैला ग्राम चुरू में यूनिवर्सिटी खोलना चाहते थे। 5 फरवरी 2009 में यूनिवर्सिटी बनकर तैयार हुई और जून के प्रथम सप्ताह में वहां उद्घाटन स्वरूप एक पत्रकार सम्मेलन आयोजित करने की पूरी जिम्मेवारी उन्होंने मुझे और विनोद तिवारी( पूर्व संपादक माधुरी) को दी। राजस्थान के साहित्यकारों, पत्रकारों को फोन पर और पत्र के द्वारा सूचना दी गई । राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को आमंत्रित किया गया। वे बीमार थे। मगर उन्होंने आने की स्वीकृति दी और अपने लिए व्हील चेयर का भी प्रबंध करने को कहा।

पूरा राजस्थानी सेवा संघ इस सम्मेलन में शामिल हुआ । मुझे विनोद सर ने अपनी हवेली में रुकाया। बाकी सभी लोग रानी सती परिसर में रुके। सम्मेलन तीन दिन चला । उद्घाटन सत्र का संचालन मैंने किया जिसमें मुख्यमंत्री कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे थे। तीन दिन विभिन्न सत्रों में विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। राजस्थान की संस्कृति मंच पर साकार हुई । सबको सम्मान सूचक पगड़ी, जामा पहनाया गया । शाम को राजस्थानी नृत्य, नाटक आदि हुए। तीन दिन उत्सव की तरह बीते। ग्राम चुडैला का नाम बदलकर विद्यानगरी रखने का प्रस्ताव पास हुआ।

विनोद सर के चाचा जी के नाम पर विश्वविद्यालय का नाम श्री जगदीशप्रसाद झाबरमल टिबडेवाला विश्वविद्यालय रखा गया । अब तो वहां स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स, अस्पताल आदि का निर्माण भी हो चुका है।

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