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हरी चूड़ियाँ



शब्बीर चच्चा आज जैसे बाजार से घर आये..बच्चों ने रोज की तरह घेर लिया..'मेरे लिये क्या है-मेरे लिये क्या है' रोज की तरह थैले को खींचने की होड़ लगने ही वाली थी कि चच्चा ने डाट दिया..
"चलो फूटो सभी.. अभी जो जिसका होगा ,सभी को दादी देंगी " कहते हुये थैला चच्ची को पकड़ा दिया..और खुद बाहर वाले बरामदे के अपने कमरे में चले गये..
आज यह पहला अवसर था कि चच्चा ने बच्चों को डाटा था..बच्चों के साथ घर के सभी बड़े भी आश्चर्य में थे..जब तक सारे बच्चे नही आ जाते थे चच्चा थैला सायकिल से उतारते ही नही थे..आज ऐसा क्या हो गया..चच्ची थैला सीधे बड़ी बहू को देते हुये बोलीं.. "बहू देखो जरा आज क्या लाये हैं बुढ़ऊ..जो बच्चों को छूने नही दिया" कहते हुये चच्चा की चाय लेकर उनके कमरे में चली गयीं..थैला खुलते ही हरी चूड़ियों का पैकट दिख गया..
"अरे गजब..! " बड़ी बहू के साथ उनकी तीनों देवरानियां भी आ गयीं थीं.. सब एक साथ बोल पड़ीं..
पिछले एक हफ्ते से चच्चा रोज रात को चच्ची को किसी ना किसी बहाने से बुलाते थे..कभी रात को ग्यारह बजे उन्हे प्यास लग जाती, कभी वे अपना चश्मा नही तलाश पाते..पर तीन तीन बहुओं की सास चच्ची सब कुछ समझते हुये भी कभी पानी किसी पोते से भिजवा देतीं तो कभी चश्मा तलाशने किसी बेटे को भेज देतीं..बहुयें चुहल करतीं.."अम्मी कब तक किसको भेजोगी..अभी अब्बा की डायरी नही मिलेगी..हिसाब भी तो लिखना है..एक आपके चले जाने से अब्बा को सब मिलने लगेगा"
"चुप नकचढ़ी.." चच्ची मीठी झिड़की देतीं और मुस्कराते हुये वहाँ से हंट जातीं..हालांकि ऐसा नही था कि चच्ची चच्चा के पास बैठना नही चाहती थीं पर नाती पोतों से भरे घर में बहू बेटों के लिहाज में उन्हे अब बड़ा अटपटा लगता था..
सुबह चच्ची ने आंगन में बैठी छोटी बहू से कहा था "फिर सावन आ गया..कितनी बार कही हूँ कि सावन में मुझे हरी चूड़ियाँ पहनना बहुत अच्छा लगता है..लेकिन नही मेरे लिये तो हुजूर के पास पैंसे ही नही हैं..बोलने पर कहते हैं.. अब इस उमर में क्या सजना संवरना रहीमा..नाती पोतों को संवारो..चलो मान लिया साठ की हो गयी हूँ, तो क्या मन भी बुड्ढा हो गया..?"
रात को खाना खाने के बाद जब चच्चा ने फिर आवाज लगायी.."रहीमा..!मेरी पेन नही मिल रही है"
तो सब बहुयें एक साथ मुस्करा पड़ीं..
"नुसरत जा बेटा दादा जी की पेन तलाश दे" दादी ने छुटके से कहा तो छोटी बहू तपाक से बोली-
"क्या अम्मी आप भी उसे पढ़ने नही दे रही हैं..आप जाओ ना और हां आपकी चारपाई भी टूट गयी है..वहीं रहना भी है आपको"
चच्ची को मजबूरन पेन तलाशने जाना पड़ा..पहुंचते ही मीठी घुड़की दी थी..
"ई देखो पेन तो खुदई अपने जेब मे रखे हो.. बार बार काहे आवाज़ लगा रहे"
"सावन में तुम्हरी कलाई हरी चूड़ियों के बिना अच्छी नहीं लगती न..! जब तक तुम हरी चूड़ियाँ न पहनो सावन नहीं चढ़ता"
चच्चा ने चच्ची की बात बीच मे काटते हुए उन चूड़ियों को जो बहुओं ने परिहास करते हुये पहना दिया था, को चच्ची की थोड़ी झुर्रियों में लिपटी गोरी कलाइयों में सहलाया था..
"......आज की रात ये कैसी रात की हमको नींद नहीं आती
मेरी जान आओ बेठो पास की हमको नींद नहीं आती "
बाहर आंगन में छुटकी के रेडियो पर ये गीत चच्चा चच्ची का प्रेम परवान चढ़ा रहा था..
चच्ची ने छोटी बहू कि आवाज दी थी..
"छुटकी..! भैया बिना दूध पिये ही यहीं सो गया है.."
छोटी बहू मुस्कराते हुये आयी थी..उसका छोटा लड़का चच्चा के पास ही सोता था..उठाते हुये बोली थी
"चल बेटा..! आज दादी की हरी चूड़ियाँ आयीं हैं " और मुस्कराते हुये दरवाजा भेंड़ कर चली आयी थी..चच्चा-चच्ची मुस्करा रहे थे

राजेश ओझा
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