STHAYITVA in Hindi Classic Stories by Ramnarayan Sungariya books and stories PDF | स्थायित्व

Featured Books
  • સોલમેટસ - 9

    જીવનની એક એક પળને જીવી લો. ક્યારેક સપનાઓને પુરા કરવામાં આપડે...

  • ફિલ્મ રિવ્યૂ 'ઇમરજન્સી'

    ફિલ્મ રિવ્યૂ - ઇમરજન્સીગઈકાલે ઇમરજન્સી ફિલ્મ સિટી ગોલ્ડ, બોપ...

  • શંખનાદ - 18

    Huજે રીતે  કોડવર્ડ માં ફોન ની રિંગ વાગી એરીતે સોનિયા સમજી ગઈ...

  • નારદ પુરાણ - ભાગ 60

    સનત્કુમાર બોલ્યા, “શત્રુની સેનાનું દમન કરી તેનું આક્રમણ ખાળવ...

  • ભાગવત રહસ્ય - 175

    ભાગવત રહસ્ય-૧૭૫   સમુદ્ર-મંથન કરતાં- સમુદ્રમાંથી સહુથી પહેલા...

Categories
Share

स्थायित्व

कहानी--

स्थायित्व

आर। एन। सुनगरया

'' हॉं कमलेश मैं इतना टूट चुका हूँ ..... इसलिए ....... बस अब पथराई औखों और अक्रशील बैठे रहना मेरी जान-सागी बन गई है। मैं खुद तो डूबी ही, साथ ही पिताजी और दोनों भाइयों को भी ले डूबी .... मैंने उन्हें भी अपने साथ तड़पने-तरसने और ..... '' रो पड़ी थी शोभा। वह माहोल मुझे ऐसे खाने को दौड़ा कि मैं ना चाहता हूँ भी घर लौटकर आऊँ।

लेकिन यह नहीं है? हालत और भी अस्थिर है। रेक पर रखी किताबों पर हाथ घुमाया। टेबल पर पड़ी पत्रिकाऐं उलट-पलटीं। पर चैन नहीं मिला, आखिरकार?

आज मेहंदी हुई कि शोभा से मेरा समबन्धन कितना मजबूत हो गया है। अगर ऐसा ना हुआ होता तो आज उसकी विषम पायरियंटिस, कुँथाएं और स्पेंद मुझे कोई निर्णय करने के लिए मजबूर नाथं।

मैं पलंग पर लेटे आराम करने की कोशिश कर रहा हूँ। आराम करो! लेकिन आराम? कितना आराम? तीन साल से अपरिहार्य मुसकुराता, खिलता, निश्चिंत और अपार खुशी से सुशोभित करना। मेरी नज़र में नाचने लगा। मैं कितना मायूस हो गया था, तब शोभा ने कहा था, '' विषम परिस्थितियों और बुरे व न्याय से गुजरने पर अपनी अच्छाइयों को खोना अन्नधर्मी जीवन में अजय का प्रतीक है। ''

वह तो इतना कहकर, चली गई, लेकिन मैंने मेहता को किया कि मुझे एक नई शक्ति और नई चेतना मिली है। केवल से मैं अपना अस्तित्‍व मेह और करने लगा हूँ।

केवल से मेरे दिल में उसकी प्रति श्रद्धा और पीयार का बीज प्रस्फुटित हुआ और वह दिन पर दिन विकसित हुआ है। प्रितिका मुलाकात में एक नया और अविस्मर्दिय अधुनियाय जुड़ता गया।

मैं उसे लखपति नहीं तो, कम से कम खा-पीते घराने की लड़की सोचती थी। वह हर समय निश्चिंत और हंसती हुई मस्त रहती थी। रोज-रोज बारी से कपड़े, कंजूसी रहित रेगवहार के साथ किसी भी चीज की कोई कमी नहीं उसके पास नहीं है।

इस दृष्टि से मैं अपने को ना जाने के कारण हर क्षेत्र में छोटे मेहंदी करता हूँ। और बहुत कोशिशों के बाद भी ज़ाहिर नहीं कर पाता कि उसके प्रति मेरे विचार हैं।

....... लेकिन एक दिन ------

....... एक जर्जर कंकाल काया खंसी के भयंकर प्रकोप में दोहरी हो रही है। उसकी फटी जाली पौषाक में से एक-एक चमक उठती है। गले की पूरी नसें तन जाती हैं। ऑखों में ऑसू और चेहरे पर जैसे पूरी नसों का खून उभर आया हो। दोनों घुटनों के बीच मुदादी फांस्कर '' खुल्ल-खुल्लील '' करता हुआ कॉंपिंग है।

'' मॉं !! लकड़ी फड़वाने के लिए सिर्फ ये बाबा मिले थे? '' मॉं ने पानी में चावल डालते हुए कहा, '' और फिर चार-पॉंच दिन से तुझ भी फुरसत कहॉ गई थी? ''

मुझे लगा जैसे इसके लिए मैं शवय ही दोषी हूँ। मैं पैसे के बारे में तुरन्त बाहर आया।

'' ये पैसे लो बाबा। '' अधूरी कटी लकड़ी को एक तरफ पटकतेे ने कहा, '' तुम कोई आसान काम नहीं करना चाहिए बाबा। ''

बाबा ने हॉंफनी रोकते हुए बताया, '' तो यह ऊपरी काम है बाबू वैसे मैं सेठ के इटॉ चपरासी हूँ। ''

'' बस जाओ तो फिर ये ऊपरी काम की जरूरत है? ज्यादा परिवार है? ''

'' नहीं बबलू मेरी एक बेटी है, दो बेटे हैं, जो दूसरे शहर में पढ़ते हैं। '' वह बोलता गया, '' बेटी बड़ी होनहार है, कहती है, यह बनूँगी, वह बनूँगी .... खुल्ल-खुल्लील ।। .... '' 'बाबा आगे नहीं बोल बने। खौंसी ने बाबा की दुर्गति तो कर ही दी थी, फिर उन्हें भी बताया, '' मैंने उसकी पढ़ाई में कोई कसर नहीं रखी। इसलिए उसकी चोरी से मुझे यह ऊपरी काम करना पड़ता है। ''

'' कौन सी कक्षा में पढ़ती है आपकी बेटी? '' मैंने पूछा, '' क्या नाम है उसका? ''

'' चौधरी में पढ़ती है, शोभा नाम है। ''

शोभा! अव्वल तो मुझे यकीन है कि ऐसा नहीं हुआ कि यह शोभा के पिता बन सकते हैं। उनसे मेरी यह मुलाकात ने मानों मुझे शोभा से प्रिसक्ष सम प्रबंधन को स्थापित करने के लिए प्रेरित कर दिया और अपनी भावनाओं को उसके सामने बोलने के लिए तैयार कर दिया।

.... वह दृश्‍य ----------

......... गंदीदी बस्ती और बेहद निचले स्तर के शतर के लोगों की गाली-गलियां, चीख-पुकार। महिनों ना नये अधनंगे काले-कलूटे, कूदते-फांदते पेंगुइनों का शोर, ज्यादातर झोंपड़ी और कहीं-कहीं अच्छे-अच्छे-अच्छे घर भी, अवशिष्टशाला और अटरम-सटर सामान सामान से लदे हैं।

इसी प्रकार का दूषित वातावरण देखकर मुझे यकीन नहीं हुआ कि यहां शोभा बनी रहेगी, लेकिन यकीन करना पड़ा, जब मेरी नज़रें शोभा पर पड़ीं। यह जरूर था कि उसका घर साफ-सुथरा और अलग ही चमक रहा था। पर कच्छ ही था।

वह अर्थशास्त्रा पढ़ रहा था। कुछ किताबें-कॉपियॉँ नीचे चटाई पर बिखरी हुई थीं।

जैसे ही हमारी नज़रें एक दूसरे से टकराईं-शायद शोभा इसीलिये किसी को अपने घर नहीं बुलाती थी।

मेरे तो समझ में नहीं आया कि क्या बात करूँ, जो सोचकर आया था, जैसे सब भूल गया था। वह केवल बोली, '' होंन कमलेश! आचार्य्य ही होगा, मैं बहुत गंदी जगह पर रहता हूँ। ’’ वह किताबों को इकट्ठी करती हुई बोलती ही रही, ’’ कभी-कभी ऐसा ही होता है, हम कहते हैं कुछ और हैं, उसे लोग कुछ समझते हैं और हैं, कुछ प्रदर्शित किया। करते हैं, जबकि कुछ होता है और केवल होता है। ''

और-और की झड़ी वाला यह पैराग्राफ मुझे कुछ खास समझ में नहीं आया। पहले मेरे होंठों पर मुनान बिखरी, लेकिन जब शोभा का हंसता हुआ चेहरा देखा तो, मैंने भी हंसने लगा। और उसके साथ कमरे में आया, उसने मुझे बैठने के लिए कहा। मैं न्यूटुल पर बैठते हुए बोला, '' अब तो साफ जाहिर है, आपने कई पहाड़ काटे हैं, तभी यहॉं तक आ पाया हो। ''

'' धन्यवाद! वह अविस्मर्दिय मुनयन के साथ बोली, '' तुम बातें तुम और मैं बातें करने के साथ चाय का इन्तजाम करती हूँ। '' कमरा मल् टपरपज था।

मेरी अस्वीकुलज्ञान को पढ़वी स्पष्ट मानकर वह उसी कमरे में ढेर होकर इधर-उधर डब्बीबे-डब्बियों को तलाशने लगी, जिसमें शायद चाय का सामान था।

कमरा छोटा ही था। एक ओर टूटी खटिया और दूसरी ओर कुछ भलाई खाट खड़ी है। मेरे बगल में दो बिस्तर एक के ऊपर एक लपटे वाले रखें हैं। एक कोने में खाने-पकाने के बर्तन और चूल्हा है। जहॉँ शोभा खड़ी ऐसी लग रही है, जैसे किसी भी कारण के कारण कोई राजकुमारी किसी दिन काटने के लिए खजूरधर में धीरी हो।

सामने की दीवार पर शायद कुछ कपड़े, जिन्दा पहनकर वह हम पर बिजलियॉं गिराती है, हेतनगर पर टंगे, ऊपर से सफेद कपड़े से ढंके हैं, क्योंकि ऊपर छपपर है, जिसमें से धूलकर्ण गिरते हैं। मेरे पीछे की दीवार पर ठुके दो पटियों पर किताबें कॉपियॉं रखी हैं।

वह चाय बनाने में व्यस्त है, काश! मैं शोभा की व्यवथाता में शामिल हो सकता हूं।

इसके बाद उसका घर कई बार गया। उनके पिताजी से भी अच्छेई तरह पटने लगे, लेकिन फालतू बातों के सिवा उसने बात मेरे मुँह से नहीं निकली, जिसके लिए मैं विशेष रूप से उसके इटॉन् जाता था।

एक दिन उसी ने कहा, '' मुझे लगता है कि कमलेश तुम किसी दिन से कुछ कहना चाह रहे हो, लेकिन कह नहीं रहे हो, ना? ''

मुझे कुछ अजीब सा मेह मेह हुआ। कहना पड़ा, '' हॉं शायद ...... नहीं तो ऐसी कोई बात नहीं। ''

'' होंग तो ....... '' वह मुसकुराई।

'' कभी-कभी बड़ी तीव्र क्रिया होती है कि आप हारे हर दु: ख-दर्द को बंट लूँ। '' यह कहते हुए मैंने भी आन्तरिक भाव प्रकट ही लिया।

'' हॉन् कमलेश! '' वह बड़ी ही गम्भीरतापूर्वक बोली, '' तुम मेरे दोशी हो, इसलिए तुम मुझसे सहानुभूति तो होगी ही। इसके लिए आप ही धन्‍यवाद। ''

ना जाने सामानों मैं बोल नहीं पा रहा था।

'' यह मार्ग मैंने ही चुना है। इसलिए मैं केवल इसे तय करूँगी। इसका हर दुःख - ख-दर्द मैं ही सहूँगी। '' वह बहुत गम्भीर हो गई है।

'' झूठ! '' मैं कुछ क्रोधित सा हो गया हूं, '' तुमहारे साथ, बुल्की तुमसे जियोदा, तुमहारे पिताजी कॉंटों पर चलकर कोशिश कर रहे हैं कि तुमहारा हर कदम फूलों पर रहे।
क्या मैं .....। ''

'' ठीक है कमलेश! '' वह जैसे झुंझला गई, '' मेरे पिताजी मेरे लिए अपना शरीर होम रहे हैं ...... अल है कि मैं उन्हें कुछ खुशी और राहत नहीं दे पा रही हूँ। जिसके लिए उन्होंने अपने आपको पूर्णत: दाव पर लगा दिया है। ''

जीसकि शोभा के पिताजी की बीमारी दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी। उनका दिल बैठा जा रहा था कि मेरे मरने के बाद शोभा का करता होगा, वे उसे चाही रहे देखना चाहते थे।

शोभा भी बहुत मायूस होती रही थी, जायसी ने जो पैसा उसके पिताजी कमाते थे, वह सब उसी पर खर्च हो जाता था।

पैसे और समय के अभाव में उनकी बीमारी का इलाज या शोभा की शादी होना तो समना संभव नहीं था। ऐसी स्थिति बन गई थी कि .......

'' ओह! '' वह चौंका, '' क्या यही सोच है। वह नहीं जा रहा होगा? ''

मैंने दरवाजे पर ही शोभा के पिताजी का क्षीर्दनवर सुना, '' बेटी, केवल मेरी बात मान लेती ..... और शादी कर लेती तो इटिजीता से मुक्ता तक कर्ज पटाता रहता है। मर भी जाता है तो केई ग़म नहीं रहता। ''

'' कैसी बातें करते हैं पिताजी, कैसे शादी करते हैं मैं। मर्ममी की लम्चर तक चलती बीमारी, उनकी मौत और अनेकों सामाजिक रस्मों-रिवाजों को अदा करने के बाद अपना परिवार आर्थिक रूप से टूट गया था। ऐसी दशा में मैं शादी करके उनकी गुलाम हो जाती हूं, तो बबलू-मुन्ननू और मेरे पति को का क्या होता है? मरममी और आपके सपने टूटते हैं और .....। ''

'' मैंने कहा था ना पिताजी मेरी शादी की लगिता ना करना, मैं खुद ही इस काबिल बनकर आपकी अनुमति यात्रा करके शादी कर लूँगी। ''

'' वह तो ठीक है बेटी, लेकिन यह काम मेरा है। अब इस हालत में मैं कहॉँ जाऊँ, लड़का तलाशने और पैसे कहनेँ से लाऊँ! '

मैं तुमिचित मत तुम बाबा ’’ मैं दरवाजे से ही बोलता हुआ आगे बढ़ा, ये काम ये दोनों काम मैं पूरा कर सकता हूं। ’’ वे दोनों मेरी ओर देखने लगे, मैंने कह ही दिया, ’’ शोभा का हाथ मेरे हाथ में। में दे दो। ''

कुछ अजीब सा माहोल बन गया। वे कुछ बोलना चाह रहे थे, उन पर खॉंसी ने धर दबोचा।

'' कमलेश? '' शोभा ने मेरी तरफ देखा। शायद वह मेरी बात से सहमत नहीं था।

मैंने धीमे शेवर में कहा, 'अभी तक उनके सामने हाँं कह रहे हैं, फिर चाहे आप जैसे चाहोगी वैसा ही होंगे।'

ना जाने त्स मैं कुछ महान अनुभव मेहता कर रहा हू।

थोड़ा देर में वे खौंसी से मुस्तन, बोले, '' सच बेटा! '' शोभा की ओर देखा, '' राजी हो बेटी? ''

'' आप जैसा चाहते हैं। '' शोभा कुछ गँभीर स्वभाव और औंखों में ऑंसू उभर आये थे।

'' रो मत बेटी मुझे हंसते-हंसते विदा कर। '' वे जैसे निराश हो गए, '' मैं तो तुझे विदा ना कर सका। कमलेश बाबू की महानता की वजह से मैं चिन्ताता मुतम होकर मर रहा हूं हुन। '

मेरे होंठ फूट नहीं पा रहे हैं। उन्हें उसने शोभा का हाथ मेरे हाथ में रख दिया। मैंने उनके चेहरे पर एक पल देखा तो राहत की लाली कोंध गई, लेकिन ........

.......... काश! इस लाली में मापिटक्ट होता है।

♥♥ इति ♥♥

संक्षिप्त परिचय

1-नाम: - रामनारायण सुनगरया

2- ज्ञानम: - 01/08/1956।

3-शिक्षा - केसॉनिक्स शन्नाटक

4-साहित्यिक शिक्षा: - 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्यलंकर की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से

५-प्रकाशन: - १. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इदयादि समय-

समय पर प्रकाशित और चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका '' भिलाई प्रकाशन '' का पॉंच वर्ष तक सफल

समन और प्रकाशन अखिल भारतीय शरत पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन: - विभिन्‍न विषयक कृति।

7- समप्रति --- शवनिवृत्स्यता के पर्चों को प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन &

लेखन लेखन।

8- समपर्क: - 6 ए / 1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ। ग।)

मो। / वहाट्सएपप नं .- 91318-94197

न्न्न्न्न्न्