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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 7

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(7)

’’ दीदी.......दीदी....’’ .सहसा पीछे से आवाज आयी। कोई मुझे ही पुकार रहा था। कौन....? पीछे पलट कर देखा तो महुआ थी। मैं रूक गयी। वह मुस्कराती हुई मेरी ओर बढ़ी। आज वह अकेली नही थी। उसके साथ कोई पुरूष भी था।

’’ यह मेरा आदमी है। ’’ मेरे पास आ कर उसका परिचय देते हुए उसने कहा।

छोटे कद का साँवले सा वह व्यक्ति किसी मजदूर की भाँति लग रहा था। महुआ बताती तो है कि उसका पति मजदूरी करता है। किन्तु आज प्रथम बार उसे देखा है। बिखरे बाल, गड्ढे में धँसी आँखें, देखने में वह बीमार प्रतीत हो रहा था। महुआ बताती है कि वह अधिकतर बीमार ही रहता है। उसके विपरीत महुआ पूरे दिन काॅलेज की कैंटिन में काम करती है। सुबह-शाम घर के भी सभी कार्य करती है। फिर भी हँसती रहती है। इतना काम करने के पश्चात् भी सदा काम के प्रति तत्पर और ऊर्जा से ओतप्रोत। उस व्यक्ति ने मेरा अभिवादन किया तथा चुपचाप खड़ा रहा।

महुआ ने अपने सलूके की जेब से रूपये निकाले और मेरी ओर बढा़ते हुए कहा, ’’ ये लीजिये दीदी, आपने बड़े ही गाढ़े समय में मेरी मदद की। ’’

मैं चैंक पड़ी इस अप्रत्यासित घटना से क्यों कि मुझे स्मरण ही नही था महुआ को दिये पैसों के बारे में? इस प्रकार मेरे प्रति कृतज्ञ होते हुए उसका मेरे पैसे वापस करना मुझे मुझे अभिभूत कर गया।

’’ इन पैसों से तुम बच्चांे की आवश्यकता की कोई वस्तु खरीद लेना। ’’ पैसे न लेते हुए मैंने कहा।

महुआा के चेहरे पर आये संकोच व कृतज्ञता के भाव मुझसे छिपे न रह सके। वह और उसके पति ने मेरा अभिवादन किया। मैं अपनी कक्षाओं की ओर बढ़ चली।

शाम को काॅलेज छूटने पर महुआ मुझे काॅलेज के गेट पर खड़ी मिली। ’’ दीदी मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही थी। ’’ उसने कहा।

’’ क्या बात है? बताओ। ’’ मैंने रूकते हुए कहा।

’’ दीदी हमारे लायक कोई काम हो तो अवश्य बताइएगा। आपकी सेवा करके मुझे अच्छा लगेगा। ’’ महुआ ने कहा। उसके चेहरे पर वही कृतज्ञता के भाव थे।

’’ क्या करूँ दीदी? घर बाहर का सारा काम मेरे ऊपर है। तीन छोटे बच्चे हैं घर में, उनकी देखभाल तथा दिनभर यहाँ का काम। समय ही नही मिल पाता कि आप सब लागों की कुछ सेवा कर सकूँ। नौकरी न करूँ तो घर कैसे चलेगा? ’’ कुछ क्षण रूक कर महुआ ने अपनी बात पूरी की।

’’ हाँ....हाँ...तुम बहुत परिश्रम करती हो। हम सब तुम्हारे परिश्रम व साहस की प्रशंसा करते हैं। ’’ मैंने उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहा।

’’ दीदी मेरे आदमी को तो आप देख ही रही हैं। वह कुछ काम नही करता। बीमार जो रहता है। उसकी देखभाल भी मुझे ही करनी पड़ती रहती है। थोडा़ स्वस्थ होने पर कभी-कभी मजूरी करने चला जाता है। ताड़ी पीने का आदी है। अपने पैसे ताड़ी पीने में खर्च कर देता है। उसके बाद मुझसे मांगता है। क्या करूँ दीदी मेरा पति है। मुझ पर उसका अधिकार है। ’’ महुआ भावुकता में बह रही थी। अपना दुख-दर्द मुझे बताकर अपने हृदय का बोझ हल्का करना चाह रही थी।

’’ बहुधा शाम को मुझसे झगड़ पड़ता है। लाख अनसुना करूँ। कभी-कभी मैं भी झगड़ पड़ती हूँ। हाड़मांस से बनी हूँ....इन्सान हूँं। कब तक चुप रहूँ? उसकी एकमात्र अच्छी बात यह है कि उसने मेरे चरित्र को ले कर कभी भी मुझे गाली नही दी है। यही कारण है कि जीवन के धूप-छाँव में मैंने सदा उसका साथ निबाहा है। आगे भी उसकी दया हम पर बनी रहे। ’’ आसमान का ओर हाथ उठाते हुए महुआ ने कहा।

’’ हमारे आदिवासी समाज में पढे़-लिखे लोग नही हैं, या हैं भी तो बहुत कम। परन्तु दीदी, वे बेटियों....स्त्रियों का सम्मान बहुत करते हैं। ’’ महुआ कहती जा रही थी।

मैं मुस्कराते हुए महुआ की समझदारी भरी बातें सुनती रही। वह भी तो आज अपने हृदय की पीड़ा मुझसे कह कर अपना मन हल्का कर लेना चाह रही थी। आकर्षक साँवला चेहरा, सफेद दन्त पंक्ति तथा होठों को स्पर्श करती हुई झुलनी। महुआ आकर्षक लग रही थी। ऐसा हो भी क्यों न? उसके हृदय की अच्छाईयाँ उसके चेहरे पर प्रतिबिम्बित हो रही थीं। सच ही कहा गया है कि चेहरा मन का दर्पण होता है।

’’ अच्छा दीदी मैं चलती हूँ। आपसे बातंे करके मन बड़ा हल्का हो गया। ऐसा लग रहा है जैसे आपसे कोई अपनत्व का नाता हो। ’’ महुआ ने अभिवादन किया और चली गई।

मैं आॅटो में बैठी महुआ के बारे में ही सोच रही थी। अनपढ़ महुआ ने कितनी सरलता से स्त्री के मन की संवेदनाओं को स्पष्ट कर दिया है। स्त्री का सम्मान ही स्त्री के लिए अमूल्य है। सम्मान के बिना वह महलों में भी सुखी नही रह सकती। सम्मान मिले तो वह झोंपड़ी में भी प्रसन्नता से जीवन व्यतीत कर लेगी। सच ही है कि स्त्रियों.......बेटियों... का सम्मान सभ्य समाज की धुरी है।

घर आकर भी मेरे विचारों में मन्थन चलता रहा। आजकल शहरों में परिवारोें के टूटने का यह भी एक प्रमुख कारण है। पति-पत्नी एक दूसरे के चरित्र पर संदेह कर अपने रिश्ते के मध्य एक न पटने वाली खाई का निर्माण कर देते हैं। जिसमें अन्ततः दोनों के रिश्ते दफ़न हो जाते हैं। चन्द्रकान्ता के वैवाहिक जीवन में होने वाला परिवर्तन कुछ इसी प्रकार का नही है? पति द्वारा तिरस्कार, उपेक्षा व उसके चरित्र पर संदेह ही क्या से विवश नही कर रहा विद्रोह हेतु? क्या उसी विद्रोह का परिणम नही है उसका व सरस भवनात्मक रिश्ता ? क्या उसी संदेह ने उसे विवश नही किया है एक परपुरूष में अपनी खुशियाँ तलाशने के लिए? जिस प्रकार जीने के साँसें आवश्यक है उसी प्रकार जीवन को चलाने के लिए हृदय की प्रसन्नता भी आवश्यक है। ये कारक हमारे जीने की इच्छा को प्रगाढ़ व बलवती बनाते हैं। मात्र साँसों के संचालन के साथ एकरसता पूर्वक जीते चले जाना जीवन को शवतुल्य बना देते हैं।

स्त्री शरीरिक सुख नही बल्कि उससे कहीं अधिक पुरूष की दृष्टि में सम्मान की इच्छुक होती है। वह चाहती है कि उसे मात्र भोग्या नही, अपितु भावनाओं से ओत-प्रोत इन्सान समझा जाये। यदि समाज के सोच में ऐसा परिवर्तन हो जाए तो कोई कारण नही कि स्त्री-पुरूषों में भटकाव या परिवारों के टूटने की स्थिति उत्पन्न हो सके। मन खिन्न होने लगा। अतः इस विषय पर उठ रहे विचारों को विराम देते हुए मैंने घर जा कर आज करने वाले अपने कार्यों की प्राथमिकता की सूची मन ही मन बनाई। आॅटो आगे बढ़ता जा रहा था।

घर आ कर आवश्यक कार्यों को करने के पश्चात् लिखने बैठ गई। आज मैं ’’ विकास दर के चढ़ाव-उतार व सेंसेक्स पर उसका प्रभाव ’’ विषय पर कुछ लिखना चाह रही थी। इस विषय पर मेरा शोध पूर्ण हो चुका था। देर तक मैं लिखती रही। लेख अभी पूर्ण नही हो पाया था। लिखते-लिखते कुछ थकान अनुभव करने लगी। अतः जाकर लेट गयी। लेटे-लेटे एक अधूरे उपन्यास को उठा लिया और पढ़ने लगी। पढ़ते-पढ़ते मुझे झपकी आ गई । कारण उपन्यास की निरसता नही बल्कि मानसिक व शारीरिक थकान थी।

रसोई से आती खट-पट की आवाजों से मैं सहसा उठ कर बैठ गई। ओह! शाम हो गई। मैं कभी भी इतनी बेसुध हो कर नही सोती हूँ, किन्तु आज न जाने कैसे गहरी आँख लग गई। मैं शीघ्रता से हाथ-मुँह धोकर माँ का हाथ बँटाने रसोई में पहुँच गई। काम समाप्ति की ओर था कि कि मेरे फोन की घंटी बज उठी।

’’ बेटा जाकर देख तेरा फोन बज रहा है। यहाँ सभी काम हो चुके हैं। जा अपना काम कर। ’’ माँ ने कहा। रसोई के सभी काम हो चुके थे, अतः मैं वहाँ से बाहर आ गई।

फोन विक्रान्त का था। फोन करने का कारण पूछने पर, वह मुझसे मेरा हाल पूछता रहा। बातों-बातों में अपने जीवन में व्याप्त नीरसता व अकेले पन का उल्लेख भी करता रहा, जैसा वह बहुधा करता है। उसकी बातों से मैं आज इस निष्कर्ष पर पहुँच गई कि वह मुझसे प्रेम की अभिव्यक्ति करना चाह रहा है। किन्तु मेरे संयमित व्यवहार के कारण वह ऐसा नही कर पा रहा है। उसकी अभिव्यक्ति मात्र मेरी प्रशंसा तक ही सीमित थी। मुझे विक्रान्त में ज़रा भी रूचि नही थी। विक्रान्त ही क्यों मेरी किसी भी पुरूष में रूचि नही थी। विक्रान्त जैसे पुरूष में तो कतई नही, जिसने बेटियाँ पैदा होने के कारण अपनी पत्नी को इतना प्रताड़ित किया कि उसे वह तलाक लेने के लिए विवश होना पड़ा। विक्रान्त के फोन आते रहते। वह मेरे माता-पिता से मिलने के बहाने से घर भी आता रहता।

समय अपनी गति से आगे बढता रहा। वर्ष का अन्तिम माह दिसम्बर प्रारम्भ हो गया। आज काॅलेज में एक नये शिक्षक का आगमन हुआ है। पूछने पर ज्ञात हुआ कि ये अर्थशास्त्र के नये प्रवक्ता हैं। मैं भी यहाँ अर्थशास्त्र ही पढ़ाती हूँ। अतः नये शिक्षक से शीघ्र ही मेरा परिचय हो गया। हम यदाकदा अपने विषय पर बातें भी कर लेते। कभी वो तो कभी मैं अपने पसंदीदा विषय पर बातें करने के अवसर तलाश लेते। बातों-बातों में ज्ञात हुआ कि उन्हंे भी अर्थशास्त्र में विशेष रूचि थी। धीरे-धीरे हम दोनों में बीच बात-चीत का दायरा बढ़ने लगा। नये शिक्षक का नाम स्वप्निल था। गेहुँए रंग का, लम्बा, ह्नष्टपुष्ट आकर्षक व्यक्तित्व व उम्र लगभग पैंतिस-चालीस के मध्य। अत्यन्त हँसमुख स्वभाव किन्तु आचरण में गम्भीरता। मुझे स्वप्निल से बातें करने में अच्छा लगता। एक आत्मिक सुख की अनुभूति होती।

धीरे-धीरे काॅलेज में हम एक दूसरे के साथ अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत करने लगे। स्वप्निल कभी-कभी मुझसे अपनी दो बेटियों की चर्चा करता। उसकी बातों से प्रतीत होता कि वह अपनी दोनों बेटियों से बेहद स्नेह करता है।

आज जब बातांे -बातों में उसने अपनी बेटियों की चर्चा की जैसा कि वह बहुधा करता रहता हैं। मैं पूछ बैठी, ’’किस क्लास में पढ़ती हैं आपकी बेटिया? ’’

’’ बड़ी सेकेंड स्टैण्डर्ड में हैं तथा छोटी ने इस वर्ष नर्सरी में जाना प्रारम्भ किया है। ’’ कहते-कहते स्वप्निल का आँखें में प्रसन्नता तथा संतोष के भाव तैरने लगे।

’’ छोटे बच्चो का बहुत ध्यान रखना पड़ता है। विशेषकर इस उम्र के बच्चों का। जो स्वंय को बड़ा समझाने लगते हैं किन्तु यथार्थ में वे छोटे ही होते हैं। ’’ कहते हुए मैं मुस्करा पड़ी।

’’ जी, बिलकुल! मेरी दोनों बेटियाँ विद्यालय जाने के लिये स्वंय तैयार होना चाहती हैं। वे इस बात का ध्यान रखती हैं कि उनकी वजह से पापा या दादी को कोई परेशानी न हो, किन्तु हमें उन पर पूरा ध्यान देना ही पड़ता ही है। ध्यान रखने की आवश्यकता भी है। अन्ततः हैं वे छोटे बच्चे ही.....। स्वप्निल ने कह कर मुझे देखा। वह आज मुझसे अपने परिवार की चर्चा करना चाह रहा था मुझे ऐसा लग रहा था जैसे उसे अपने परिवार के बारे में बता कर प्रसन्नता का अनेभव हो रहा हो।

’’ जी इतने छोटे बच्चे माता-पिता के लिए ऐसा सोचते हैं, यही अच्छी बात है। ’’ मैंने स्वप्निल की बातों का समर्थन किया। मुझे भी आज स्वप्निल से उसके परिवार के विषय में पूछना....बातें करना अच्छा लग रहा था।

’’ बच्चों के अन्दर अच्छाईयाँ विकसित करने का पूरा श्रेय आपकी पत्नी को जायेगा......उन्होंने ही तो बच्चों को अच्छे संस्कार दिए हैं। ’’ बातों को आगे बढ़ाते हुए मैं स्वप्निल की ओर देखने लगी। कोई प्रत्युत्तर दिए बिना स्वप्निल खामोश रहा।

कुछ क्षण सोचते हुए वह बोल पड़ा, ’’ आप सही कह रही हैं। बरखा की सभी अच्छी बातें मेरी बेटियों में आ गई हैं......बरखा में कोई कमी भी तो नही थी। ’’

’’ कमी नही थी?....क्या अर्थ है इन शब्दों का?.....क्या स्वप्निल की पत्नी अब इस संसार में नही हैं? ’’ उप्फ! मैं ये क्या सोच बैठी स्वप्निल की पत्नी के लिए?

मेरे चेहरे के भावों को कदाचित् स्वप्निल ने पढ़ लिया था। बोल पड़ा, ’’ मेरी छोटी बेटी सनाया के जन्म के समय बरखा हम सब को छोड़ कर चली गई। मेरे प्यार में न जाने कहाँ कमी रह गयी थी कि वह मुझसे रूष्ट हो गई। ’’ कहते-कहते स्वप्लिन की आँखे भीग गईं और वह आँसुओं को छुपाने का प्रयत्न करने लगा।

मैं हत्प्रभ भी और आत्मग्लानि का अनुभव कर रही थी। स्वप्निल के जीवन में घटी इस दुखद घटना का घाव कहीं मेरे कारण हरा तो नही हो गया? इस ग्लानि के बोझ को लेकर वहाँ बैठना मेरे लिए कठिन हो रहा था। स्वप्निल से जाने की अनुमति लेकर मैं अपने क्लास की तरफ बढ़ चली। कदाचित् स्वप्निल की भी क्लास थी। वह भी मेरे साथ चलने लगा। लम्बे काॅरीडोर में कुछ देर तक हम साथ चलने लगे। मेरी कक्षायें दूसरी तरफ थी।

ये मुझे क्या होता जा रहा है? घर जा कर भी मुझे स्वप्निल की भीगी आँखें स्मरण आने लगतीं। अपनी बच्चियों को कितना प्यार करता है। बात-बात पर उन्हें स्मरण करता है। उनकी चार्चा मात्र से स्वप्निल की नेत्रों में स्नेह उमड़ पड़ता है। मानों स्वप्निल के जीवन की सार्थकता उसकी बच्चियों जीवन की खुशियों में नीहित हो। स्वप्निल के व्यक्तित्व की ये विशेषतायें मुझे ये अच्छी लगतीं।

काॅलेज में मुझे स्वप्निल से बाते करना अच्छा लगता। अर्थशास्त्र के अतिरिक्त अन्य विषयों पर भी हम बातंे करते। न जाने क्यों मैं भी अपने हृदय की प्रत्येक बात स्वप्निल से कहना चाहती और कहती। किसी भी विषय पर स्पष्ट और सजग विचार होते उसके।

समय व्यतीत होता जा रहा है। सब कुछ यथावत् चल रहा है। न जाने क्यों बाबूजी आजकल मुझे कुछ चिन्तित दिखने लगे हैं। चिन्ता की रेखायंे तो माँ के चेहरे पर भी परिलक्षित हो रही हैं। बाबूजी तो हम सबको सदा प्रसन्न रहने और चिन्ता न कर अपना काम करते हुए आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अतः उनके चेहरे पर अंकित चिन्ता की रेखायें मेरे लिए चिन्ता का विषय थीं। माँ तो हमारे जीवन की किसी भी परेशानी से स्वंय परेशान हो जाती हैं, तथा हमें ही उन्हें ढाढ़स बँधाना पड़ता है। माँ से मैंने बाबूजी की चिन्ता का कारण जानना चाहा तो वे कुछ अनमनी-सी हो गईं। मुझे बताना नही चाह रही थीं। मेरे अत्यन्त आग्रह पर उन्होंने बताया की, ’’ तेरे बाबूजी की चिन्ता तुझे लेकर है। ’’

मुझे कुछ-कुछ अनुमान था कि ऐसी ही कोई बात होगी।

’’ तुमने अपने लिए क्या सोचा है? आगे क्या करना हैं ? ’’ माँ ने पूछा। माँ की बात सुनकर मैं खामोश थी।

’’ हम तो पके फल हैं। कभी भी जीवन रूपी वृक्ष से गिर सकते हैं। ’’ माँ का लहजा आज कुछ तल्ख था। उनकी बातें मैं धैर्य से सुन रही थी।

’’ तुम्हारा भाई यहाँ से दूर रहता है। वह अपनी नौकरी, अपनी गृहस्थी में व्यस्त है। वो हमारी ही सुध नही लेता तो हमारे बाद तुम्हारा दुख-सुख क्या पूछेगा।........उसकी भी क्या ग़लती? वह भी तो दूर शहर में अकेला रहता है। अपने परिवार की देखभाल करने वाला वह वहाँ अकेला ही तो है.......बेटा तू अपने भविष्य को लेकर कोई निर्णय ले..........यदि तुम्हे कोई पसन्द है तो बता......तू कहे तो हम ही तुम्हारे लिए कोई लड़का देखें। ’’ रूक-रूक कर माँ ने अपनी बात पूरी की।

माँ कर बातें आज कुछ-कुछ समझदारी भरी लग रहीं थी। विशेषकर भईया के लिए उनकी सोच मुझे अच्छी लगी। अन्यथा माँ ममता भरी भावुक सोच में कभी-कभी कुछ भी सोचने लगती हैं। प्रथम विवाह का कटु अनुभव अभी तक नही भूली हूँ तो पुनर्विवाह के बारे में क्या सोचूँगी? इसलिए माँ की बातों पर नकारात्मक प्रतिक्रिया देकर मैं उनकी चिन्ता को और बढ़ना नही चाहती थी। अतः चुप रही। बातें आगे बढ़ने से पहले ही समाप्त हो गयीं। मैं यह भी भलिभाँति जान रही हूँ कि बातें समाप्त नही हुई हैं बल्कि कुछ समय के लिए आगे टल गयी हैं। इतना भी मेरे लिए पर्याप्त है। समय व्यतीत होता जा रहा है। एक-एक दिन आगे बढ़ता जा रहा है।

इधर चन्द्रकान्ता कई दिनों से दिखाई नही दे रही थी। न काॅलेज में न स्टाफ रूम में। उसका हाल जानने लिए मैंने फोन मिलाया। फोन चन्द्रकान्ता ने ही उठाया। पूछने पर बताया कि उसका पति घर आया हुआ है इसलिये वह काॅलेज नही आ पा रही है। मुझे यह बात समझ में नही आयी कि यदि उसका पति घर आया है, तो वह काॅलेज क्यों नही आ रही है? जो भी हो कारण चन्द्रकान्ता के आने पर ही ज्ञात होगा।

विक्रान्त काॅलेज में मिलता रहता। उससे बातचीत करने या मेलजोल बढ़ाने में मेरी कोई रूचि न थी। किन्तु वह जब भी मिलता अत्यन्त गर्मजोशी से मुझसे मिलता। उसके प्रति मेरी धारणा बन चुकी थी कि उसने पुत्रियों को जन्म देने के अपराध में अपनी गुणी पत्नी व अबोध बेटियों को इस संसार में भटकने के लिए छोड़ दिया और अपने उत्तरदायित्वो से मुँह मोड लिया है। अतः उससे मैं किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना नही चाहती। मित्रता का भी नही..... प्रेम का सम्बन्ध रखना तो दूर की बात थी। मैं अपने विचारों पर दृढ़ थी।

कई दिनों के पश्चात् आज काॅलेज के कारीडोर में चन्द्रकान्ता मिल गई। बड़े ही अपनत्व से मुझसे मिली। मैं भी तो उसके न रहने पर उसकी कमी अनुभव करती हूँ। ’’ क्या करूँ नीलाक्षी? मेरा पति अचानक चार दिनों की छुट्टियाँ ले कर आ गया था। वहाँ रहते हुए भी वह मेरे लिए अच्छा नही सोचता। मेरे चरित्र पर संदेह करना उसका स्वभाव है। अपने साथ मेरी भी छुट्टियाँ करा दीं। पूरी छुट्टियों में वह बिना किसी कारण मेरे साथ लड़ता रहा। उसके व्यवहार से मेरा हृदय टूट कर इस प्रकार विदीर्ण हुआ, व्याकुलता इतनी बढ़ी कि सरस मुझे बहुत याद आया। ’’

चन्द्रकान्ता की बातें मैं सुन रही थी। बातें सुन ही नही रही थी, बल्कि उसकी माानसिकता को समझ रही थी, उसका अनुभव कर रही थी। किसी निर्दोष स्त्री का पति जब उसके चरित्र पर हमला करता है तब उसका हृदय यही चाहता है कि, ये धरती फट जाये या आसमान गिर जाये और इस अपमान से बचने के लिए वह उसमें समा जाये। सरस से भावनात्मक लगाव स्थापित करना चन्द्रकान्ता की विवशता है। जिस मानसिक व शारीरिक संतुष्टि का अनुभव उसे अपने पति के साथ करना चाहिए उसे वह सरस के साथ मिलता है। मुझे चन्द्रकान्ता का यह मार्ग कभी-कभी यथोचित नही लगता है। किन्तु इन सबका उत्तरदायी उसका पति है और ऐसा करना चन्द्रकान्ता की विवशता है।

मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है। ऐसे पुरूष को छोड़ना मैंने उचित समझा। सभी मेरी तरह नही हो सकते। अपने आत्मसम्मान व स्त्रीत्व की रक्षा कर मैं एक सुखद संतुष्टि का अनुभव करती हूँ। इन दुरूह परिस्थितियों में अपने पति के साथ रहना चन्द्रकान्ता की विवशता है। जीने के लिए उसने यह मार्ग चुना है। चन्द्रकान्ता की बातें सुनकर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगी कि समाज में जो भी अवैध सम्बन्ध मैं इन सम्बन्धों को अवैध नही कहूँगी, इन्हें मैं भावनात्मक सम्बन्ध कहूँगी विकसित हो जाते हैं उनमें कहीं न कहीं चरित्र पर संदेह भी एक प्रमुख कारण होता है।

स्त्रियाँ आरोपों के प्रत्युत्तर में कुछ न कर पाने व असहाय हो जाने की विवशतावश प्रतिकार स्वरूप इस प्रकार का भावनात्मक आश्रय ढूँढ लेती हैं। जब कि अपनी खुशियों व सन्तुष्टि की तलाश वो प्रथमतया घर में ही चाहती हैं। स्त्री होने के कारण मैं यहाँ मात्र स्त्रियों की ही पक्षधर नही हूँ। यदा-कदा पुरूष भी इन्हीं करणों से घर से बाहर अपनी संतुष्टि व खुशियों का आश्रय ढूँढ लेते हैं। पुरूषों की अपेक्षा अधिसंख्य स्त्रियाँ आसानी से इस प्रताड़ना का शिकार बन जाती हैं। अर्थिक परनिर्भरता के कारण अपने अश्रुओं को नेत्रों में ही समायोजित कर इस त्रासदी को भोगती रहती हैं। आखिरकार कितनी स्त्रियाँ इसका प्रतिकार कर पाती हैं? कुछ ही जिनमें एक मैं हूँ।

चन्द्रकान्ता का मार्ग सही है या ग़लत इसका निर्णय मैं नही करूँगी। किन्तु इतना अवश्य जानती हूँ कि अपनी खुशियों और एक संतुष्ट जीवन पर सभी प्राणियों का अधिकार होना चाहिए।

जब भी समय मिलता विक्रान्त मुझसे मिलने चला आता। मैं उससे औपचारिक बातें करना चाहती किन्तु वह मेरे साथ अनौपचारिक होने का प्रयत्न करता। मेरे माता-पिता से मिलने, उनका हाल पूछने कभी-कभी मेरे घर भी आ जाता। जब भी आता माँ-बाबूजी से किसी भी काम के लिए उससे निःसंकोच कहने के लिए अवश्य कहता। घर के सदस्य की भाँति अपनत्व दिखाने का प्रयत्न करता। उसका यह प्रस्ताव व अपनापन देख कर बाबूजी के चेहरे पर आई प्रसन्नता के भावों को मैं पढ़ लेती। अतः स्पष्ट रूप से कुछ न कह पाती किन्तु उससे यथोचित दूरी बनाने का प्रयास अवश्य करती रहती।

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