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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 8

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(8)

मैं समझ चुकी थी कि विक्रान्त मुझसे निकटता बढ़ाने के लिए ही ऐसा करता है। अपनी पत्नी को तलाक दे चुका है, संपन्न घर का है, स्वंय भी अच्छी नौकरी में है। अतः उस मेरे साथ जोड़ कर मेरे माता-पिता कोई अन्य धारणा तो नही बना रहे हैं? यह सोच कर मैं कुछ चिन्तित हो गयी तथा यह सोच लिया कि मैं उन्हंे ऐसा करने से रोकूँगी। विक्रान्त कभी भी मेरा आदर्श पुरूष नही हो सकता। उसकी मानसिकता मुझे उससे दूर रहने को विवश करती है।

विक्रान्त आज मुझे काॅलेज में दिख गया। कल वह काॅलेज नही आया था। मैंने उससे कुशल क्षेम व कल न आने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसकी छोटी बेटी अस्वस्थ थी अतः वह कल नही आ सका। उसने बताया कि, ’’ वह कल डाॅक्टर को दिखाने गया था। अब उसके स्वास्थ्य में कुछ सुधार है। ’’ कुछ क्षण रूक कर उसने कहा। विक्रान्त के चेहरे पर चिन्ता की रेखायें स्पष्ट दिख रही थीं।

’’ घर में उसके साथ आज कौन हैं। ’’ मैंने पूछा।

’’ मेरी माँ मेरे साथ रहती हैं। अब मात्र उन्हीं का सम्बल है। बरखा तो मुझे मार्ग में अकेला छोड़ कर चली गई। ’’ कहते-कहते स्वप्निल की आँखें नम होने लगीं।

मैंने स्वप्निेल के घर का पता पूछा। घर आ कर मैंने स्वप्निल को फेन कर उसकी बेटी का हाल पूछा। उसने बताया कि वह अब ठीक है।

समय धीरे-धीरे अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था। शनै-शनै ऋतुयें भी परिवर्तित हो रही थीं। शीत ऋतु जा रही थी। दिशायें शीत ऋतु से मुक्त हो रही थी। मुक्ताकाश पा कर हवाएँ चंचल होने लगी थीं। एक अद्भुत लुभावनी गति हो गयी थी उनकी। सृष्टि के इस परिवर्तन से वृक्ष, लताएँ, पुष्प सब परिवर्तित होना चाह रहे थे। वृक्षों से पुराने पत्ते गिर रहे थे तो नवहरित कोंपलों के रूप में नये पत्ते आना चाह रहे थे। प्रकृति पर पर पतझण व वसंत का मिलाजुला रूप दृष्टिगोचर को रहा था। पूरी सृष्टि नवपल्लवों, नवपुष्पों से नव श्रृंगार कर ही थी। वृक्ष मंजरियों से आच्छादित हो रहे थे। झारखण्ड के देवरी गाँव के निकट का यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से समृ़द्ध है। वृक्षों की बहुलता के कारण रंग-बिरंगे पशु-पक्षियों की ध्वनियों से यह क्षेत्र प्रत्येक ऋतु में गुंजायमान रहता है, किन्तु इस वसंत ऋतु का प्रभाव उन पर भी पड़ता है और इस ऋतु में उनका कोलाहल बढ़ जाता है।

साँझ होते ही स्थानीय ग्रमीण और आदिवासी लोगों द्वारा गाँव के चैपालों में गाये जाने वाले होली के फगुआ गीतों के स्वर, जिनमें प्रेम और विरह के गीत प्रमुख होते हैं गूँजने लगते हैं। चैती के गीतों की बात ही अलग होती है। नई फसल कटने की खुशियों से परिपूर्ण होते हैं होरी व चैती के गीत। झारखण्ड का यह क्षेत्र भी चारों तरफ से वृक्षों-खेतों से घिरा है। अब धीरे-धीरे यहाँ भी आबादी बढ़ रही है। नये मकान बिल्डिंगे बनती जा रही हैं किन्तु यहाँ का लोक जीवन अब भी अपनी प्राकृतिक व उन्मुक्त अवस्था में है।

मुझे भी यह ऋतु अत्यन्त अच्छी लगती है। प्रतिवर्ष आती-जाती यह ऋतु न जाने क्यों आजकल नई लग रही है। प्रथम बार की नई अनुभूति की भाँति कुछ-कुछ। हृदय कुछ सुखद-सा अनुभव कर रहा है। युवावस्था की कहीं बिला चुकी नई अनुभूतियों की भाँति। ये विलुप्त अनुभूतियाँ न जाने क्यों हृदय द्वार पर दस्तक दे रही हैं।

आज काॅलेज जाने के लिए घर से मैं कुछ पहले निकली। आॅटो वाले से आॅटो को सीधे स्वप्निल के घर की तरफ मोड़ने के लिए कहा। हृदय न जाने कैसा सम्बन्ध उससे स्थापित करता जा रहा है कि उसकी अस्वस्थ बच्ची का हाल जानने की इच्छा बलवती हो उठी। दरवाजे पर मुझे देखकर स्वप्निल आश्चर्य चकित था। वह मुझे ले कर ड्राइंग रूम में आ गया। सोफे पर मुझे बैठने का संकेत करते हुए अभी आया कह कर अंदर चला गया। कुछ ही क्षणों में वापस आया। मेरे सामने साफे पर बैठते हुए उसने बताया कि, ’’अभी-अभी दोनों बच्चियाँ स्कूल गयी हैं। माँ बहुत सुबह उठकर उनके लिए नाश्ता करती हैं। स्कूल के लिए तैयार होने में उनकी सहायता करती हैं। अब कामवाली के साथ मेरे लिए भोजन बनाने में लगी हैं। ’’ उसकी बातें चल ही रही थीं कि एक बुजुर्ग किन्तु दिखने में संभ्रान्त महिला ने ड्राइंग रूम में प्रवेश किया।

मैंने अनुमान लगााया कि वो अवश्य स्वप्निल की माँ होंगी। स्वप्निल ने तत्काल परिचय करवाते हुए कहा कि यह मेरी माँ हैं। मैंने अभिवादन किया। स्वप्निल ने मेरा परिचय भी उनसे कराया। उन्हांेने अत्यन्त अपनत्व के साथ उत्तर दिया। उनके साथ एक महिला थी जिसके हाथ में चाय की ट्रे थी। कदाचित् वो काम वाली थी। चाय की ट्रे रख कर वो महिला वहाँ से चली गई।

’’ तृषा का स्वास्थ्य अब ठीक है। तीन दिनों के पश्चात् आज वह स्कूल गयी है। ’’ स्वप्निल की माताजी ने बताया। और भी बातें वो करती रहीं। कुछ घर की, कुछ बच्चों की। बातो बातों में मेरी, उनकी तथा स्वप्निल की चाय कब की ख़त्म हो चुकी थी। सहसा मैं उठ खड़ी हुई। काॅलेज का समय होने वाला है। आधे घंटे में मुझे काॅलेज पहुचना है। स्वप्निल व उसकी माँ का अभिवादन कर मैं ड्राइंग रूम से बाहर निकलने को ततपर हो उठी।

’’ रूको बेटा कैसे जाओगी? तुम अपनी गाडी से आयी हो क्या? ’’ स्वप्निल की माँ का स्नेह से भीगा स्वर मेरे कानों में पड़ा।

’’ नही माँ जी! बाहर से मैं आॅटो ले लूँगी। ’’ कहते-कहते जाने के लिए मैं मुड़ गयी।

’’ स्वप्निल भी तो आज काॅलेज जाएगा। उसके साथ ही तुम चली जाओ, यदि तुम्हंे अपत्ति न हो तो। ’’ स्वप्निल की माता जी ने कहा।

’’ नही माँ जी.....नही आपत्ति जैसी कोई बात नही है। ’’ सहसा मैं बोल पड़ी।

’’ हम साथ काम करते हैं। स्वप्निल अनजान नही है। हम एक दूसरे को जानते.....समझते हैं। ’’ स्वप्निल की ओर देखते हुए मुस्कराते हुए मैंने बात पूरी की। इस तरह की बातें करने का स्वभाव नही है मेरा किन्तु न जाने क्यों ऐसा कह बैठी।

’’ हाँ....हाँ आप बैठिये दो मिनट। बस्स! मैं आया। ’’ कह कर स्वप्निल अन्दर चला गया।

मैं पुनः बैठ गयी। मैंने देखा....स्वप्निल की माता जी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे। वे मुझे देख कर मन्द-मन्द मुस्करा रही थीं। कुछ ही देर में स्वप्निल आ गया। उस दिन उसके साथ काॅलेज जाते हुए मुझे कुछ अलग-सी अनुभूति हो रही थी। कदाचित् कुछ अच्छी-सी।

समय अत्यन्त ही तीव्र गति से आगे बढ़ता जा रहा है। ऋतुओं के इस परिवर्तन में प्रथम बार मैं स्वंय में भी परिवर्तन कर अनुभव कर रही हूँ। जीवन में समाहित निराशा व नीरसता के क्षण दूर होते जा रहे हैं। वासंती हवाओं के साथ मैं भी उड़ती जा रही हूँ। इस परिवर्तन का कारण क्या है? मैं समझ नही पा रही हूँ। कहीं ऐसा तो नही कि समझते हुए भी किसी से व्यक्त करना नही चाह रही हूँ। अपने हृदय की बात स्वंय से छुपा रही हूँ। अवश्य कुछ ऐसा ही है।

कालेज में जब भी समय मिलता स्वप्निल से बातें होतीं। बहुधा उस समय हमारी बातों में न जाने कहाँ से विक्रान्त आ जाता, और हम दोनों की बातों में सम्मिलित हो जाता। उसके आने से मुझे असहजता का अनुभव होने लगता। उसका आना मुझे नही भाता। मैं मात्र स्वप्निल से बातें करना चाहती।

न जाने कब स्वप्निल मुझे अच्छा लगने लगा। मेरी कल्पनाओं में वह अनेक रूपों में समाहित होने लगा। कभी पे्रमी के रूप में, कभी संरक्षक के रूप में, कभी मित्र के रूप में। एकान्त के क्षणों में वह मेरे साथ रहने लगा। वो क्षण मेरे लिए स्मरणीय लम्हों में परिवर्तित हो जाते जब स्वप्निल मेरे समक्ष होता....मेरे साथ होता।

आज चन्द्रकान्ता से बातें करते-करते में हँस पड़ती। उसका तो स्वभाव ही है हँसते रहने का, किन्तु मुझे देख कर वह बोल पड़ी, ’’ क्या बात है आज कुछ अधिक ही प्रफुल्लित दिखाई दे रही हो? ऐसे ही रहा करो। ’’ मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही उसने अपनी बात पूरी की।

बात को घुमाने के प्रयास मैं चन्द्रकान्ता से ही यूँ कह बैठी, ’’ मैं....यही प्रश्न मैं तुमसे करने वाली थी। ’’

चन्द्रकान्ता ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ मेरे प्रश्न का उत्तर दिया, ’’ ऐसा कुछ भी नही है मेरे पास! हाँ कभी-कभी मेरे पास प्रफुल्लित रहने की एक वजह होती है। वो वजह तुम्हे भी ज्ञात है, और वो सरस है। उसके साथ अपने नीरस जीवन में खुशियों के कुछ क्षण भर लेती हूँ। ’’ कह कर चन्द्रकान्ता चुप हो गई।

’’ अब तुम बताओ अपनी वजह। तुममे साहस है मुझे बताने की? ’’ उसकी बातें सुन कर मैं मुस्कराती रही।

’’ मुझे बताने का साहस नही है तो दुनिया वालों को तुम कैसे बताओगी? ’’ कह कर चन्द्रकान्ता ने अपनी बात पूरी की।

चन्द्रकान्ता की बातें सुनकर मैं हँस पड़ी। जब कि हँसने की कोई वजह नही थी हास्य में कही गई चन्द्रकान्ता की बातों ने मेरे समक्ष अनेक प्रश्न खड़े कर दिये। मेरे जीवन का यह परिवर्तन काल्पनिक नही है। मेरे भीतर का यह परिवर्तन मेरे जीवन का यर्थाथ का यथार्थ है। मैं यह भी जानती हूँ कि अपने इस यथार्थ को छिपाने के लिए ही मैंने चन्द्रकान्ता से ये बातें की है। किन्तु चन्द्रकान्ता की अनुभवी आँखों ने सब कुछ समझ लिया है। तो क्या सचमुच मेरे भीतर इतना साहस नही है कि मैं अपने हृदय में पनप रहे प्रेम के नवाकुंर को अपनी मित्र से प्रकट सकूँ? इसे स्वीकार कर सकूँ? यदि मेरे भीतर इतना साहस भी नही है तो मैं इस संसार का सामना क्या कर पाऊँगी ?

मुझसे तो साहसी चन्द्रकान्ता है जो सरस के साथ अपने सम्बन्धों को स्वीकार करती है। जब कि वह विवाहित है। एक पुत्र की माँ है। उसका पति उसके चेहरे पर फैले संतुष्टि व प्रसननता के भावों को देख कर संदेह करता है। उसे प्रताड़ित करता हैं। इसके पश्चात् भी चन्द्रकान्ता कैसे प्रसन्न रह लेती है? चन्द्रकान्ता स्वावलम्बी व परिश्रमी है। सबसे बढ़कर निश्छल है। किसी अन्य पुरूष की तरफ उसके आकर्षित होने के लिए बाध्य होने में कहीं न कहीं उसका पति ही उत्तरदायी है। चनद्रकान्ता के इस प्रसन्नता के पीछे कितनी पीड़ा छुपी होगी? कितना विवश हुई होगी वह प्रथम बार सरस की ओर अपने कदत बढ़ाने पर।

’’ मैं जानती हूँ कि तुम अपनी बात अपने तक सीमित रखोगी किन्तु कहीं न कहीं कुछ तो अवश्य है, ये मैं तुम्हारा चेहरा देख कर जान गयी हूँ। ’’ कह कर चन्द्रकान्ता मुस्करा पड़ी।

’’ अच्छा नीलाक्षी मैं चलती हूँ। शेष बातें मिलने पर होंगी..... और पूरी होंगी। ’’ चन्द्रकान्ता के कहने का आकर्षक ढंग देखकर मैं बरबस मुस्करा पड़ी। उसके कंधे को हौले से स्पर्श कर मैं भी क्लासरूम कर तरफ चल पड़ी।

रात गहराती जा रही थी। मैं काॅलेज में चन्द्रकान्ता द्वारा कही गई बातों के विषय में सोचती रही। आँखों से नींद न जाने कहाँ उड़ कर चली गई थी। उड़ी हुई नींद की तलाश में मैंने अपनी कल्पनाओं में न जाने कब स्वप्निल को बुला लिया। उसने मेरे मन-मस्तिष्क पर अपना अधिकर कर लिया। रात्रि के अन्तिम प्रहर तक मैं जागती रही। माँ के जगाने नर आँख खुली। ऐसा कम ही होता है कि काॅलेज जाने के लिए मुझे माँ को जगाना पड़े। मै स्वतः समय पर उठ कर रसोई में माँ की सहायता कर काॅलेज के लिए निकलती हूँ।

’’ तुम्हारी तबीयत तो ठीक है ? ’’ माँ ने पूछा।

’’ हाँ, माँ मैं बिलकुल ठीक हूँ। ’’ कह कर मैं शीघ्रता से उठ खड़ी हुई।

’’ स्वास्थ्य ठीक न लग रहा हो तो आज अवकाश ले लो। ’’ माँ ने कहा।

’’ नही माँ, ऐसा कोई बात नही है। मैं बस्स! तैयार हो कर आती हूँ। ’’ कह कर शीघ्रता से मैं बाथरूम में चली गई।

काॅलेज जाते समय मार्ग में मैं सोचती जा रही थी कि घर में रहने से अच्छा काॅलेज जाना ही रहेगा। वहाँ स्वप्निल से मुलाकात तो होगी।

उससे बातें करना कितना अच्छा लगता है। काॅलेज में उसके आस-पास होने की अनुभूति भी भली लगती है। अपनी ऐसी सोच पर मन ही मन मुस्करा पड़ी मैं । बिलकुल युवतियों- सी सोच है ये। कदाचित् मेरे भीतर की युवती ने शनै शनै अपने नेत्र खोलने प्रारम्भ कर दिये हैं।

काॅलेज मुझे अब अच्छा लगने लगा है। ऋतुएँ परिवर्तित होने लगी हैं। प्रत्येक ऋतु में छिपे प्रेम की अनुभूति मैं करने लगी हूँ। अकले भी जीवन जी लेने का भरपूर माद्दा रखने वाली मैं जीवन के इस मोड़ पर एक मित्र की आवश्यकता का अनुभव करने लगी हूँ। ऐसा मित्र जो मेरी भावनाओं को मेरे व्यक्त करने से पहले ही समझ ले। ऐसा मित्र जो हृदय के टूटे टुकड़ों को भूमि पर गिर कर बिखरने से पूर्व ही समेट ले।

ऋतुओं ने ये कैसी करवट ली है कि, मैं तो दूसरा विवाह करने की सोचने लगी। जीवन पथ पर दृढ़ता व साहस के साथ अकेले आगे बढ़ने का संकल्प लिया था मैंने। शिक्षा के क्षेत्र में सुधारात्मक कार्य करने को प्रतिबद्ध हो आगे बढ़ती जा रही थी। अर्थशास्त्र पर नवीन आँकड़ो व शोध को प्रस्तुत करते हुए दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अकस्मात् ये क्या हो गया है मुझे? क्यों किसी अन्य की आवश्यकता मैं अनुभव करने लगी हूँ? दूसरे विवाह के सुझावों की तरफ मेरा झुकाव बढ़ता जा रहा है। कहीे मैं कमजोर तो नही पड़ती जा रही हूँ। नही! मैं कमजोर नही होना चाहती। मैं शिक्षित हूँ। मुझे पीड़ित स्त्रियों के लिए एक सशक्त उदाहरण बनना है। उस ओर मैं अग्रसर थी। किन्तु सहसा मेरे जीवन में ये कैसा परिवर्तन होता जा रहा है। मैं क्यों निर्बलता का अनुभव कर रही हूँ?

चन्द्रकान्ता मुझसे साहसी है। अपने पारिवारिक जीवन को बचाते हुए सरस के साथ भावनात्मक रिश्ता स्थापित कर उसे स्वीकार तो करती है। महुआ ग्रामीण आदिवासी परिवेश में पली है। अशिक्षित है। वह भी जीवन के प्रति अपना स्पष्ट दृष्टिकोण रखती है। उसे अपने अकर्मण्य पति के साथ ही जीवन जीना है। खुश रहना है। यह निश्चय वह कर चुकी है। दूसरा कोई विकल्प नही है। आदर्श पति की कसौटी पर उसने अपने पति को खरा उतार लिया है। अपने जीवन में वह परपुरूष की कल्पना नही कर सकती। भले ही अपने पति द्वारा मार खाती रहे, प्रताड़ित होती रहे। उसका पति ही उसके लिए सर्वस्व है। स्वंय परिश्रम कर बच्चांे के साथ ही साथ उसका भी पेट भरती है। प्रत्येक परिस्थितियों में संतुष्ट रहना आता है उसे।

एक मैं हूँ जो अपने हृदय की भावनाओं को स्वंय से छुपा रही हूँ। उसे स्वीकार करने में संकोच करती हूँ या उसे स्वीकार करने का साहस नही है मुझमें। कदाचित् मैं साहसी नही हूँ। भयभीत हूँ, विगत् दिनों की दुखद घटनाओं से..... उन स्मृतियों से मैं अब तक स्वंय को मुक्त नही कर सकी हूँ। यदि ऐसा नही है तो, मैं साहस क्यों नही जुटा पाती? नही.....नही..... मैं दुर्बल नही हूँ। मैं जीवन के यथार्थ से सामना करूँगी। उन पर विजय प्राप्त करूँगी। हृदय में पनप रहे स्वप्निल से अपने लगाव को स्वप्निल की सहमति सबके समक्ष व्यक्त करूँगी। इस रिश्ते की आवश्यकता और स्वप्निल से अपने विचारों के तलमेल को और परखूँगी तब जा कर मै कोई भी निर्णय लूँगी। किशोर व युवाओं द्वारा हड़बड़ी व भावुकता में लिए गये प्रेम के सम्बन्धों के दुखद परिणती की भाँति मेरे बढ़ते कदमों का अन्त न हो इस बात का ध्यान रखूँगी। आखिर इस उम्र में किसी ग़लत कदम की अपेक्षा तो यह समाज मुझसे नही करेगा। दृढ़ निश्चय कर आने वाले सुखद दिनों के समीप आती पदचाप की ध्वनियाँ मै अनुभव करने लगी।

स्वप्निल को मैं अब अपने और समीप पाने लगी। मेरे अत्यन्त आग्रह पर वह भी कभी-कभी मेरे घर भी आने लगा। मैंने उसे परखना चाहा उसकी परीक्षा लेनी चाही। किन्तु उसमें कोई अवगुण या अविश्वास न पा सकी। उसमें कोई दृुर्गुण हैं ही नही या मैं उन्हें ढूँढना नही चहती यह मैं नही बता सकती। सच ही कहते हैं लोग की सच्चे प्रेम में प्रेमी का अवगुणों की तरफ हमारी दृष्टि नही जाती..... ऐसा तो नही कि उसमें अवगुण होते ही नही हैं या हम उसके अवगुणों को देखकर भी अनदेखा करते हैं। उस समय प्रेम की भावना ही सर्वोपरि होती है, मात्र प्रेम की। ऐसा ही कुछ मेरे साथ तो नही हो रहा है।

स्वप्निल मेरे घर यदाकदा आने लगा। कभी- कभी जब भी मन होता मैं भी उसके घर जाने लगी। उसकी बच्चियों से लगाव-सा स्थापित होने लगा। मुझे देख कर स्वप्निल की माँ के चेहरे पर आ जाते प्रसन्नता के भावों मुझे यह आभास होता कि कदाचित् मैं उन्हें अच्छी लगने लगती हूँ। मित्रता का प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित कर लेने के पश्चात् भी मैं स्वप्निल से अपने हृदय की बात नही बता पायी थी। मैं यह भी नही जानती थी कि वह मेरे प्रति आकर्षित है या नही। मैं इस प्रतीक्षा में हूँ कि वह मेरे प्रति अपने आकर्षण को अनुभव करे तथा उसे स्वीकार करने की पहल करे। यह मेरा अहं नही नारी-सुलभ संकोच था।

समय चक्र किसी के रोके नही रूकता। वह अपनी गति से गतिमान हो आगे बढ़ता रहता है। इसकी गति में ही जीवन और जीवन में परिवर्तन नीहित है। आज छोटी की परीक्षा का परिणाम निकला है। वह प्रशासनिक सेवा हेतु चुन ली गई है। उसने इस परीक्षा के लिए कड़ी मेहनत की थी। अपने को पूर्ण रूप से परीक्षा की तैयारियों में समर्पित कर दिया था उसने। अपने स्टडी रूम में ही स्वंय को सीमित कर दिया था । कभी-कभी मैं माँ से हास्य के लहजे में कह देती कि उसका घर में होना और न होना पता ही नही चलता है। वह घर में है या नही? क्या मेरी कोई छोटी बहन भी यहाँ रहती है? मेरी इस बात पर माँ और बाबू जी हँस पड़ते। छोटी का चयन नौकरी में हो जाने से माँ और बाबूजी कितने प्रसन्न थे।

देखते-देखते छोटी की ट्रेनिंग पूरी हो गई। उसकी नियुक्ति भी पास के शहर में हो गई। बाबूजी के लिए यह संतोष की बात थी कि छोटी को नौकरी के लिए उनसे बहुत दूर नही जाना पड़ा। अब बाबूजी को उसके विवाह की चिन्ता होने लगी थी जिसे कभी-कभी वह बातचीत में व्यक्त कर देते। मैं उन्हें आश्वस्त करती कि छोटी के लिए चिन्तित होने की आवश्यकता नही है। वह समझदार है। उसे अपने जीवन का निर्णय लेने दीजिए। उसके उम्र के अधिसंख्य लड़के-लड़कियाँ जहाँ मोबाइल या इंटरनेट के आभासी दुनिया में अपना समय, अपनी उम्र और अपनी ऊर्जा व्यर्थ गवाँ दे रहे हैं, वहाँ आप लोगों के कहे बिना ही छोटी ने करियर का रास्ता स्वंय बनाया है.....तय किया है। अतः उसे अपने विवाह का निर्णय भी स्वंय लेने दीजिए। छोटी की सफलमता से भईया भी प्रसन्न थे। इधर बार-बार उनके फोन जो आने लगे थे।

एक वर्ष बाद छोटी की पसन्द के लड़के से उसका विवाह निश्चित हो गया है। अगले माह विवाह है। विवाह की तैयारियाँ चल रही हैं। सबकी इच्छा है कि छोटी का विवाह धूमधाम से हो। बाबूजी ने उसके विवाह के लिए पैसे बचा कर रखे ही थे, किन्तु भाई ने भी अत्यन्त उदारता दिखाई है और पापा के पैसों को रख देने को कह स्वंय विवाह का खर्च वहन करने को कहा है। किन्तु बाबूजी भी कहाँ मानने वाले हैं?

यद्यपि वर पक्ष की तरफ से विवाह में कुछ भी नही मांगा गया है। फिर भी सबने अपनी-अपनी इच्छा पूरी कर ली है। भाई-भाभी, मैं, बाबूजी तो हैं ही। छोटी की सफलता देख कर मुझे अपने विचारों को परिवर्तित करना पडे़गा। कौन कहता है समाज में स्त्रियों की दशा में परिवर्तन नही हुआ है? परिवर्तन के चिन्ह दिख रहे हैं। स्त्रियों को भी आगे आ कर स्वंय को प्रमाणित करना पड़ेगा। पहल उन्हें ही करनी होगी। दोेषारोपण से बात बनने वाली नही। पुरूषों से मात्र सहायता लेनी होगी। कदम स्त्रियों को बढ़ना होगा.......परिश्रम उन्हंे ही करनी होगी।

छोटी के विवाह की आपाधापी समाप्त हुई। घर में सब कुछ पूर्व की भाँति होने में समय लगेगा। माँ-बाबूजी के लिए यह समय कठिनाई से व्यतीत हो रहा है। दिन का अकेलापन उन्हें छोटी को विस्मृत करने नही दे रहा है। समय के साथ धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो जायेगा। दुखों की सबसे बड़ी दवा तो समय ही है। छोटी अपनी दुनिया में सुखी है। उसके खिलखिलाते हुए स्वर सब को तसल्ली दे जाते हैं।

मैं भी अपने काॅलेज का चर्या को पकड़ने लगी हूँ। नौकरी के साथ माँ-बाबूजी की देखभाल मेरी प्राथमिकता है। ये प्राथमिकता तो पहले भी थी। किन्तु छोटी के विवाह के पश्चात् उनकी देखभाल का पूर्ण उत्तरदायित्व मुझ पर हैं।

ऋतुजनित परिवर्तन और यथार्थपरक परिवर्तन के मध्य एक दिन मैंने चन्द्रकान्ता से अपने हृदय की बात बता दी। मेरी बात सुन कर चन्द्रकान्ता प्रसन्न तो हुई किन्तु विस्मित नही, जैसा कि मैं सोच रही थी।

’’ मैं तुम्हारे चेहरे पर प्रेम और उससे उपजे प्रसन्नता के भावों को पहले से जानती थी। किन्तु मैं तुमसे सुनना चाहती थी। तुम्हारे साहस को परखना चाहती थी। ’’ कह कर चन्द्रकान्ता मुस्करा पड़ी।