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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 9

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(9)

’’ मुझे यह भी आभास हो चुका था कि वह विक्रान्त नही कोई और है, क्यों कि विक्रान्त जैसा व्यक्ति तुम्हारी पसन्द हो ही नही सकता। थोड़े से यत्न द्वारा मैंने यह जान लिया कि वह स्वप्निल है। ’’ चन्द्रकान्ता की बातें सुन कर मैं मुस्करा पड़ी।

’’ कैसे? किस प्रकार का यत्न? ’’ मैंने पूछा।

’’ कुछ विशेष नही । ’’ चन्द्रकान्ता ने कहा।

’’ मुझे कुछ-कुछ आभास हो गया था कि वह सौभाग्यशाली विक्रान्त नही कोई और है। किन्तु कौन? यह जानना कठिन न था मेरे लिए। स्वप्निल को ढूँढती तुम्हारी आँखों ने स्वतः सब कुछ बयां कर दिया। ’’ कुछ क्षण रूक कर चन्द्रकान्ता ने अपनी बात पूरी की।।

’’ वाह! तुम कवि कब से बन गई चन्द्रकान्ता? ’’ बातों की दिशा को घुमाने के प्रयास में मैंने कहा।

प्रत्युत्तर में चन्द्रकान्ता मुस्करा पड़ी।

समय आगे बढ़ता जा रहा था । ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे ऋतुओं के इस परिवर्तन का अनुभव प्रथम बार मैं कर रही हूँ। दिन पंख लगा कर उड़ते चले जा रहे हैं। काॅलेज से घर, घर से कालेज आने-जाने का अनवरत चक्र चलता चला जा रहा है। इस नीरस दिनचर्या में यदि कुछ अच्छा है तो वह है स्वप्निल। जीवन में आये इस यथार्थ को मैं स्वीकार कर चुकी हूँ। अब सबके समक्ष इसे स्वीकार करने का साहस रखती हूँ।

’’ नीलाक्षी जी! एक मिनट रूकिये। ’’ मैं घर जाने के लिए काॅलेज के मुख्य गेट की तरफ बढ़ रही थी कि सहसा पीछे से विक्रान्त की आवाज आयी। मैं ठिठक कर रूक गयी।

’’ व्यस्तता के कारण इधर कई दिनों से आनसे मिल नही सका। क्षमा कीजिएगा। ’’ पास आ कर विक्रान्त ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहा।

’’ नही कोई बात नही ये सब तो जीवन में चलता ही रहता है। ’’ मैंने भी दार्शनिक की भाँति उत्तर दिया व चलने के लिए आगे बढ़ी ही थी कि,

’’ रूकिये तो प्लीज ! कुछ देर के लिए। ’’ विक्रान्त ने अपने स्वर पर कुछ जोर देते हुए आग्रह पूर्वक कहा।

मैं आपको घर तक छोड़ दूँगा। आपसे बातें कर के मन बडा़ ही संतुष्ट हो जाता है। ’’ धीमी पड़ती मेरी गति से मेरे पास आकर विक्रान्त ने कहा।

’’ नही! नही, मैं घर चली जाऊँगी। बताईये क्या बात है? ’’ अनिच्छा से रूकते हुए मैंने कहा।

’’ नीलाक्षी जी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। ’’ विक्रान्त ने सकुचाते हुए मुझसे कहा।

’’ हाँ.....हाँ.....कहिए क्या बात है? ’’ मैंने वहीं खड़े-खड़े ही उत्तर दिया।

’’ बातें थोड़ी व्यक्तिगत् व गम्भीर हैं। आईये वहाँ बैठ कर बातें करते हैं। ’’ किक्रान्त ने सामने वृक्ष़ के नीचे लगी पत्थर की बेंच की तरफ संकेत करते हुए कहा।

’’ उसकी कोई आवश्यकता नही। मैं यही ठीक हूँ। ’’ मार्ग से कुछ किनारे हटते हुए मैेने कहा।

मेरी बातें सुन विक्रान्त के चेहरे पर निराशा के भाव आ गये। किन्तु वह रूका रहा। मुझसे बातें करने की भूमिका तलाशता रहा।

’’ नीलाक्षी जी! मैं आपसे.......’’ कह कर वह पुनः खामोश हो गया।

कुछ ही क्षणों के उपरान्त वह अपनी बातें पुनः प्रारम्भ करते हुए कहा, ’’ नीलााक्षी जी, मुझे तो आप जानती ही हैं कि मैंने आप जैसी जीवन संगिनी पाने की कल्पना की थी। परन्तु व्यक्ति जो सामचता है सब कुछ तो उसे नही मिल जाता। ’’ कहते-कहते विक्रान्त सकारात्मक प्रतिक्रिया की अपेक्षा में मेरी ओर देखता जा रहा था।

मैं चुपचाप कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए बिना उसकी बातें सुनती जा रही थी।

मैंने कई बार आपसे मिसविहेव किया है। किन्तु उन सब में मेरी मंशा आपको तकलीफ देने की कभी नही रही। जो कुछ भी हुआ वो अज्ञानता में हुआ। आपसे किसी किस्म की धृष्टता मैं नही कर सकता। फिर भी अपने व्यवहार पर लज्जित हूँ.....क्षमा प्रार्थी हूँ। ’’ विक्रान्त अपनी बात कहता जा रहा था।

मैं पूर्ववत् चुप रही।

’’ नीलाक्षी जी, मैं आपसे प्रेम करने लगा हूँ। कब?.....कैसे?....ये मुझे ज्ञात नही किन्तु मेरे जीवन में आप रच बस गई हैं। ’’ मेरी तरफ दृढ़ता से देखते हुए विक्रान्त ने कहा।

’’ नीलाक्षी जी, मैं आपको अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहता हूँ। मुझे आपके उत्तर की प्रतीक्षा है। ’’ अपनी बात पूरी कर वह चुप हो चुका था। मेरी ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा था।

उसकी बातें सुन कर मुझे तनिक भी प्रसन्नता नही हुई। मैं सोचने लगी कि क्या मैं उसकी इच्छा की गु़लाम हूँ। जो भी उसकी इच्छा होगी उसे मान लूँगी । उसकी इच्छा ही सर्वोपरि है। उसने अपनी बात कहने से पहले मुझसे मेरी इच्छा पूछने की आवश्यकता नही समझी। क्या वह अपनी पत्नी की भाँति सभी स्त्रियों को अपनी दासी समझता है? उसने कहा और सामने वाली स्त्री ने मान लिया? क्या सभी पुरूषों की यही मानसिकता होती है। स्त्रियों की इच्छा का कोई मूल्य नही है? उनकी इच्छा कोई मायने नही रखती? मेरे भीतर विक्रान्त के लिए घृणा के भाव तीव्र न होने लगे उससे पूर्व ही मैंने उसके प्रश्न का उत्तर दे कर उससे पीछा छुड़ना चाहा।

’’ मैंने इस बात पर अभी तक सोचा नही। मैं दूसरा विवाह करने की इच्छुक नही हूँ। ’’ कह कर मैं चलने को उद्धत हुई।

’’ प्लीज नीलाक्षी जी! एक मार्ग बन्द होने से सभी मार्ग बन्द नही होते। जीवन में कुछ भी समाप्त नही होता। सब कुछ पुनः प्रारम्भ किया जा सकता। ’’ विक्रान्त ने मुझे समझाने का प्रयास किया।

’’ नही, ऐसा नही है। कुछ जख़्म ऐसे होते हैं, जो सदैव पीड़ा देते हैं। क्षमा कीजिए विक्रान्त जी, मैं चलती हूँ। विलम्ब हो रहा है। ’’ कह कर मैं चल पड़ी। विक्रान्त मेरी ओर आशा भरी दृष्टि से देखता वही खड़ा रहा।

मुझे न तो विक्रान्त में न उसकी बातों में ही कोई रूचि थी। उसे व उसकी बातों को वहीं छोड़ कर मैं आगे बढ़ चुकी थी। आॅटो में मैं प्रसन्नचित बैठी बाहर के प्रकृतिक सौन्दर्य का अवलोकन कर रही थी। प्रकृति के साथ आत्मसात हो मुझे अच्छा लग रहा था। मार्ग के दांेनो ओर पंक्तिबद्ध हो लहरा रहे हरे-भरे वृक्ष व उनके मध्य छिटपुट संख्या में बने घर, कितना आर्कषक लग रहा था सब कुछ। दूर दिखाई दे रहे विस्तृत खेत व उनमें विचरते सफेद बगुलों के झुण्ड। चारों ओर बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य अत्यन्त मनमोहक लग रहा था। कुछ देर के लिए मैं सब कुछ विस्मृत कर इस मोहक दृश्य में खो गयी।

घर आ कर मैं अपनी घरेलू दिनचर्या में व्यस्त हो गई। कुछ ही देर में माँ ने मुझे ड्राइंग रूम से आवाज दी। मैं शीघ्रता से वहाँ गई। डाªइंग रूम में माँ के साथ बाबूजी भी थे। मैं जा कर बाबूजी के पास बैठ गई। माँ मन्द-मन्द मुस्करा रही थी, बाबूजी निर्विकार से थे।

’’ बेटा, अभी-अभी विक्रान्त का फोन आया है। क्या उसने तुमसे कुछ कहा है? कोई बात की है? ’’माँ ने पूछा।

माँ की बातें सुन कर मैं स्तब्ध रह गयी। मुझे विक्रान्त से इस बात की आशा न थी कि वह मेरे माता-पिता तक इस बात को ले जायेगा। मैं माँ के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए बिलकुल भी तैयार न थी। मैं अचकचा उठी और हड़बडाहट में बोल पड़ी, ’’ नही माँ, कोई विशेष बात नही हुई है। ’’

’’ क्या विक्रान्त ने तुम्हारे समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा है? ’’ इधर-उधर न जाते हुए माँ ने सीधे मुद्दे की बात पर आ गईं।

मुझे माँ से इस प्रकार के स्पष्ट प्रश्न की आशा न थी, न ही विक्रान्त से इस प्रकार के व्यवहार की। मुझे यह समझने मे तनिक भी विलम्ब नही हुआ कि विक्रन्त ने मेरे घर पहुँचने से पूर्व ही मेरे माता-पिता से अपने विवाह प्रस्ताव की चर्चा करेगा।

’’ बेटा हर्ज की क्या है यदि विक्रान्त तुमसे विवाह का इच्छुक है। यह तो अच्छी बात है। ’’ मुझे चुप देख माँ ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा।

’’ नही माँ! मैंने अभी विवाह के विषय में सोचा ही नही है।......विक्रान्त से तो बिलकुल भी नही। ’’ मैंने दृढ़ता से कहा। माँ के चेहरे पर फैले मुस्कराहट का स्थान निराशा के भावों ने ले लिया।

’’ क्या कमी है उसमें? अच्छा है....युवा है.....अच्छी नौकरी में है तुम्हारे लिए तो वह सही है। एक ही साथ एक ही काॅलेज में हो तुम दोनों। ’’माँ ने कहा।

’’ नही माँ! वह मुझे अच्छा नही लगता। ’’ मैंने पुनः दृढ़ता से कहा।

बाबूजी माँ व मेरे बीच हो रही बात-चीत को तन्मयता से सुन रहे थे। इस गम्भीर समस्या पर मुझे उनके विचारों को जानाने की भी इच्छा हो रही थी।

’’ आप क्यों इतनी व्याकुलता दिखा रही हैं। यह अपना भला-बुरा बखूबी समझती है। नीलाक्षी स्वंय अपना निर्णय लेगी। ’’ मेरी ओर देखते हुए बाबूजी ने माँ से कहा।

बाबूजी की बातें सुन कर मुझे अच्छा लगा।

’’ बेटा, जो तुम्हे ठीक लगे वही करना। शीघ्रता में कोई निर्णय न लेना। ’’ मुस्कराते हुए बाबूजी ने कहा।

बाबूजी के शब्दों ने मेरा हौसला बढ़ाया। मैं दुगने उत्साह से जीवन पथ पर आगे बढ़ती रही।

चन्द्रकान्ता आज कुछ व्याकुल व निराश दिख रही थी। उसके चेहरे से उसकी वो चिर-परिचित हँसी गायब थी।

मुझे चन्द्रकान्ता का यह रूप अच्छा नही लगा। इधर कई दिनों से चन्द्रकान्ता से मिल नही पायी थी। अतः मुझे उसकी इस उदासी की वजह ज्ञात नही।

’’ क्या बात है चन्द्रकान्ता? तुम इतनी चुप-चुप सी क्यों हो? ’’ मैने पूछा किन्तु उदासी की चादर ओढ़े वह चुप ही रही।

’’ कोई विशेष बात है क्या? चलो नही बताना चाहती हो तो मैं नही पूछूँगी। ’’ मैंने कहा किन्तु मन में एक चिन्ता थी कि न जाने क्या हुआ है जो यह गुम-सुम है।

’’ मैं ही उत्तरदायी हूँ अपनी इस स्थिति के लिए। घर की कोई बात नही है इसमें। ’’ कह कर वह पुनः चुप हो गई।

’’ तुम उत्तरदायी हो ? वह कैसे? ’’ मैंने उत्सुकतावश पूछा।

एक लम्बी साँस ले कर वह बोली, ’’ जैसे -जैसे समय व्यतीत होता जा रहा है, मतलब मैं उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ती जा रही हूँ, मुझे जीवन के नये-नये अर्थ ज्ञात होते जा रहे हंै। इन नये अर्थों से उसके स्वरूप व संरचना में परिवर्तन परिलक्षित हो रहा है। ’’ कह कर चन्द्रकान्ता किसी दार्शनिक की भाँति आकाश की ओर देखने लगी।

’’ कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि सरस जो मेरे जीवन में रच-बस चुका है, उसको यदि मैं अपने जीवन से निकाल दूँ तो मेरे जीवन में कुछ भी शेष न रहेगा। ’’ मैं चन्द्रकान्ता की बातें मनोयोग से सुन रही थी।

’’ अपनी खुशियों के लिए किसी पर इतना आश्रित होना उचित है? यह तो परनिर्भरता जैसा ही कुछ है। कभी सरस मेरे जीवन से चला गया तो.....? सोच कर सिहर उठती हूँ। ’’ चन्द्रकान्ता ने कहा।

मुझे चन्द्रकान्ता की बातों में यथार्थ प्रतीत हुआ। मेरे भीतर भी यही प्रश्न उद्वेलन कर रहा था कि क्या किसी भी स्त्री को अपनी संतुष्टि से जीवन व्यतीत करने के लिए भी परनिर्भर होना पड़ेगा? वह किसी पर भी आश्रित क्यों हो जाती है? चाहे वह उसका पति हो, प्रेमी हो या पुत्र हो। जब कि इनको सबल व सक्षम बनाने में स्त्रियों का हाथ है। वह क्यों वृक्ष से लिपटी बेल-लताओं की भाँति जीती है, वृक्ष की भाँति नही? क्यों वह आज तक अपना स्वतंत्र अस्तित्व नही गढ़ सकी? क्यांे वह सबकी धुरी में रह कर भी हासिये पर जीवन जीना पसन्द करती है? पूरी-पूरी उम्र गुजार देती है। दूसरों की तरफ देखते हुए।

’’ नीलाक्षी! कभी कभी सोचती हूँ कि मैं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हूँ। एक सम्मानित नौकरी में हूँ, जिसके कारण समाज में मेरी प्रतिष्ठा है। फिर भी मैं कितनी विवश हूँ । कल को मेरा बेटे को यह सब कुछ किसी प्रकार ज्ञात हो गया तो क्या वह मेरी विवशता को समझ पायेगा? क्या वह इस बात को स्वीकार कर पाएगा कि उसकी माँ को जीने के लिए इस दमघोंटूँ वातावरण से बाहर आकर खुली हवा में साँसे लेना कितना आवश्यक था। यदि वह माँ की विवशता को समझ भी जायेगा तो क्या यह मलभूत प्रश्न ज्यों का त्यों नही है कि, प्रत्येक परिस्थिति में हम परनिर्भर, परआश्रित क्यों हैं? ’’ चन्द्रकान्ता की बातों में मुझे कड़वे सत्य की अनुभूति हुई।

’’ यदि परिस्थितियों के वशीभूत सरस मुझसे दूर चला गया तो क्या मैं उसके लिए जीना छोड़ दूँगी? ’’ चन्द्रकान्ता ने कहा।

’’ तुम निराश न हो। ऐसा नही होगा। सरस तुम्हारी भावनाओं को समझता है। ’’ मैंने आश्वासन देते हुए चन्द्रकान्ता से कहा।

’’ अभी तो ऐसा ही है चन्द्रकान्ता, किन्तु यह भी तो एक कटु सत्य है कि सरस पर मेरा कोई अधिकार नही है। उसका अपना परिवार है, परिवार के प्रति उसके उत्तरदायित्व हैं। समय सदा एक समान नही रहता। सरस चला गया तो क्या उसे में रोक पाऊँगी? क्यों और किस अधिकार से मैं ऐसा कर पाऊँगी? मेरा भी तो परिवार है मैंने क्या सरस के लिए उन सभी को छोड़ दिया है? नही मैंने ऐसा नही किया है न ही ऐसा कर सकती हूँ । ’’ चन्द्रकान्ता ने कदचित् अपनी बात पूरी कर ली थी। किन्तु मेरे समक्ष अनेक अनुत्तरित प्रश्न छोड कर। मेरे समक्ष ही क्यों समस्त स्त्री वर्ग के समक्ष उसने यह अनुत्तरित प्रश्न रखा था।

मुझे चन्द्रकान्ता के चेहरे पर पसरी निराशा अनुचित नही लगी। उस के इन तीखे प्रश्नों से अपने जीवन में आगे सावधानी से मार्ग चयन करने की मैंने प्रेरणा ली। मैं भी तो कहीं न कहीं यही त्रुटि कर रही थी। अपनी खुशियों की चाभी किसी और के हाथों में सौप रही थी। मैंने मन ही मन चन्द्रकान्ता को अनेक-अनेक धन्यवाद दिया । ऐसा लग रहा था कि चन्द्रकान्ता ने एक बड़ी ग़लती करने से मुझे रोक लिया था।

’’ ऐसे रिश्तों का अन्त क्या दुखद ही होता है? जब हम ये रिश्ते स्थापित करते हैं तो हमें ये बिलकुल भी नही ज्ञात होता है कि ऐसे रिश्तों का परिणति क्या होगी? हम आगे बढ़ते जाते हैं। अपने इस खूबसूरत रिश्ते को दुनिया की दृष्टि से छुपाकर अपने हृदय में पल्लवित-पुष्पित करते रहते हैं। जब कि एक दिन चर-अचर सभी चीजों का अन्त होना है तो क्यों हम इस रिश्ते की समाप्ति और उसके परिणाम से भयभीत हो जाते हैं। यदि हमारा ये रिश्ता भावनाओं के ठोस धरातल पर टिका है तो हमें भय में नही बल्कि प्रेम की पवित्र स्मृतियों के संबल के साथ शेष जीवन निर्भय हो कर व्यतीत नही कर देना चाहिए? हमारे प्रेम में मात्र अपनी खुशी और स्वार्थ का स्थान नही होना चाहिए। प्रेम हमें संकुचित नही बल्कि व्याापक दृष्टि प्रदान करता है। ’’ चन्द्रकान्ता मेरी ओर देखकर मुस्करा रही थी।

आज मैं चन्द्रकान्ता के एक अलग रूप का दर्शन कर रही थी। मुझे चन्द्रकान्ता की बातों में भावनात्मक सत्यतता के दर्शन हो रहे थे, जिसे मैं समझ कर भी नही समझ पा रही थी।

’’ हमारे समाज में अपनी मेधा के दम पर स्त्री चाहे जितना भी ऊँचा स्थान प्राप्त कर ले यह समाज उसके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करता है। मुझे यह सोचने पर विवश होना पड़ रहा है कि भारतीय संस्कृति उसकी जीवन शैली का अभिन्न अंग है स्त्रियों के साथ दोहरा मापदण्ड। स्त्री के देवी रूप की पूजा कर पुरूष इस तथ्य को झुठला नही सकता कि वह उसको मात्र उपभोग की वस्तु समझता है। घर में गृहणी के रूप में बच्चो की देखभाल के साथ पूरे घर के कार्यों में दिन व्यतीत करी है। रात तक खटने के बाद सोने से पूर्व बलात्कार पीड़िता की भाँति कष्ट झेलकर सो पाती है। उसके लिए तय कर दिए गये कार्यों को उसे ही करना है क्यों कि ये सभी कार्य स्त्रियों को ही करने हैं। पुरूषों द्वारा नही किए जा सकते ये कार्य। क्यों कि मानवीय आधार पर उनके द्वारा यदि ये कार्य कर दिये जाते हैं तो उनके पुरूषत्व को चोट पहुँचती है, उनका पुरूष्त्व उन्हें धिक्कारता है ।

भाग्यवश स्त्री यदि कहीं नौकरी में है तो उसके अस्तित्व पर यह दोहरी मार है। उसके पैसों का दोहन तो कर लिया जाएगा। उससे घर व बाहर के कार्य भी किसी मजदूर की भाँति करा लिए जायेंगे। वह चुपचाप करती रहे तो ठीक यदि उसने प्रतिकार करने का साहस कर दिया तो उसके चरित्र पर लांछन सहजता से लगा दिया जाएगा क्यों कि वह बाहर भी निकल रही है। पुरूषों के सम्पर्क में भी आ रही है। पुरूषों की दृष्टि में बाहर निकलने वाली प्रत्येक स्त्री चरित्रहीन है। इस संदर्भ में मैंने पुरूषों को अलग-अलग दृष्टिकोण रखते हुए देखा है। कहीं-कहीं पुरूष अपनी बेटी के लिए सही समझ रखते हैं, किन्तु पत्नी, पुत्रवधू इत्यादि के रिश्तों में अलग व क्रूर दृष्टिकोण। ’’ चन्द्रकान्ता कहती जा रही थी।

मुझे उसकी बातों में पूर्णतः यथार्थ के समीप लग रही थीं। मैंने पुरूषों को गर्वोक्ति से यह कहते सुना है कि हर मर्द एक-सा होता है। मैं भी पुरूषों से यही पूछना चाहती हूँ कि किस अर्थ में प्रत्येक पुरूष एक-जैसा होता है ? स्त्रियों का शारीरिक शोषण और भोग की वस्तु समझने के संदर्भ में ? देवी के रूप में स्त्री को सर्वाधिक ऊँचा स्थान दे कर उसे एक वृत्त में कैद कर स्वतंत्र रहने का अधिकार छीन लेना। उसके साथ छल नही तो और क्या है? माँ के रूप में पूजनीय है......पत्नी के रूप में घर की लक्ष्मी है......बेटी के रूप में देवी है..... वह मानव कब व किस रूप में है? कुछ करने और आगे बढ़ने के लिये स्वतंत्र कब है? पुरूषों से अधिक परिश्रम करने के पश्चात् भी वह पुरूषों के समकक्ष कब है?

’’ जानती हो नीलाक्षी! स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते देख कर मुझे बहुत पीडा़ होती है। मुझमें व तुममें क्या कमी है? क्यों हम आत्मनिर्भर होने व कुछ कर लेने की योग्यता रखते हुए भी सुख की प्रतीक्षा कर रहे हैं ? वह भी किसी और द्वारा दिये जाने वाले सुख की? हम पूर्ण क्यों नही है? हमारे व्यक्तित्व में किस चीज का अभाव है? जिसे कोई और आकर पूर्ण करेगा? क्यों हम परआश्रित हैं? यह पुरूषवादी समाज का स्त्रियों के प्रति षड़यंत्र नही तो और क्या है? ’’ चन्द्रकान्ता ग़लत कहाँ थी? उसकी सोच सही थी। मैंने उसकी बातें सुन कर सहमति में सिर हिलाया।

’’ ये बताओ चन्द्रकान्ता कि क्या घर से बाहर निकल कर काम करने वाली स्त्रियाँ चरित्रहीन होती हैं? वे अपने साथ कार्यरत पुरूषों के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं? पुरूष ऐसा क्यों सोचते हैं? मैंने अनेक महिलाओं को यह कहते हुए सुना है कि किसी से हँसकर ठीक से बात कर लेने मात्र से पति उनके चरित्र पर संदेह करने लगे। छोटी-छोटी बातों पर उन्हें हतोत्साहित करने के लिए उनके चरित्र पर आघात करना एक शस्त्र के रूप में प्रयोग करने लगे। माँ बेटी के रूप में सच्चरित्र व आदर्श का प्रतिमान स्थापित करने वाली स्त्री पत्नी के रूप में धूमिल हो जाती है। ये पुरूष का अहं और पुरूषसत्तात्मक वर्चस्व की सोच नही तो और क्या है? पुरूष तो पुरूष घर में रहने वाली अधिसंख्य महिलायें भी घर से बाहर कार्य करने वाली महिलाओं के प्रति ऐसे ही विचार रखती हैं। ’’ मैंने चन्द्रकान्ता से कहा। चन्द्रकान्ता मेरी बातें बड़े ही ध्यान से सुन रही थी।

’’ तुम अक्षरशः सही कह रही हो नीलाक्षी। ’’ मेरी बातो पर प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए उसने कहा।

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