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मेरे घर आना ज़िंदगी - 21

मेरे घर आना ज़िंदगी

आत्मकथा

संतोष श्रीवास्तव

(21)

कबीर तन पँछी भया, जहाँ मन तहाँ उडि जाय

भोपाल बिल्कुल अनजाना शहर। रिश्तेदारों में बस विजयकांत जीजाजी। सभी की जुबान पर बस एक ही बात की क्या जज्बा है आपका । ऐसा कदम उठाने को तो पुरुष भी दस बार सोचेगा। क्या करूं फितरत ही ऐसी पाई है । ठहरे हुए जड़ पर्वत कभी पल भर को नयन सुख देते हैं पर बहती नदिया और पहाड़ों से फूटे झरने दूर तलक संग संग चलते हैं।

भोपाल में एंट्री भी हरि भटनागर के शब्दों में धमाकेदार हुई । विजय जीजाजी मुझे भोपाल स्टेशन रिसीव करने आने वाले थे पर जब मैं भोपाल पहुंची रात के करीब 7 बजे तो उनका फोन आया कि वह यूनिवर्सिटी के काम में अचानक व्यस्त हो गए हैं इसलिए हरि भटनागर मुझे लेने आएंगे। हरि भटनागर ने फोन किया कि आप एक नंबर प्लेटफार्म से बाहर आ जाना मैं वहीं खड़ा मिलूंगा । मैं कुली के साथ बाहर आई पर हरी जी कहीं दिखे नहीं। फोन लगाया तो पता चला वे छह नंबर प्लेटफार्म के बाहर मिलेंगे। हम छह नंबर की ओर भागे तो वे एक नंबर पर वापिस आ गए और एक नंबर और 6 नंबर का सिलसिला आधे घंटे चलता रहा यानी कि हमारा भोपाल में पदार्पण आंख मिचौली से हुआ । बहरहाल 6 नंबर पर आखिर हरि भटनागर जी मिले। कहने लगे साहब ( वे मुझे साहब ही कहते हैं )एक नंबर पर टैक्सी वालों में मारपीट हो गई । पुलिस आ गई तो मैं 6 नंबर पर चला गया। अब क्या बताऊं आप भी परेशान हुई । मगर जनाब एंट्री आपकी धमाकेदार हुई । "

हम दोनों खूब हँसे । डी मार्ट पर हमें जीजाजी रिसीव करने खड़े थे । यहाँ मैंने हरि भटनागर से विदा ली और जीजाजी के साथ घर आ गई । दूसरे दिन बेंजामिन भी आ गया ।

औरंगाबाद से सामान भी आ गया था। वैसे तो फर्नीचर आदि सब मैंने औरंगाबाद में ही छोड़ दिया था। बस मोमेंटो, प्रशस्ति पत्र, किताबें और कपड़े ही साथ लाई थी। मोमेंटो भी प्रांतीय अकादमियों के और राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों के बाकी एक बोरा मोमेंटो औरंगाबाद में छोड़ आई थी। जिसे प्रमिला ने तुरंत कबाड़ी को बेच दिया था। गलती से उसमें मेरा कंबोडिया में मिला अंतर्राष्ट्रीय सम्मान का मोमेंटो छूट गया था । वह भी गया। जिसका मुझे आज भी अफसोस है। सोचा था पैकर्स एंड मूवर्स से सामान सुरक्षित पहुंच जाता है जबकि हमने सामान का इंश्योरेंस भी करवाया था परंतु वह फ्रॉड निकला। औरंगाबाद से जो भी सामान आया वह बहुत टूटी-फूटी हालत में हम तक पहुंचा। कंप्यूटर टेबल, दीवाल घड़ी, क्रॉकरी आदि सब नष्ट हो गई। बेंजामिन ने कहा ग्राहक मंच में शिकायत दर्ज करा देते हैं लेकिन वह हो न सका और मैंने पनौती मानकर सह लिया और खुद को परिस्थिति अनुसार ढाल लिया।

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मेरी जिंदगी तीन काल खंडों में बंटी है और इन काल खंडों का मेल ही मेरा इतिवृत्त है लेकिन इन काल खंडों में से मैंने उस समय को भूल जाना चाहा है जो मेरी लंबी आत्मव्यथा का समय था। हालांकि यादों के शिलालेख में वही समय गहरा खुदा है जो मैंने सहा है । झेला है। कह तो आसानी से दिया कि उस व्यथा भरे समय को भूल जाऊंगी । नहीं लिखूंगी पर फिर लिखूं क्या !! मेरी पूरी जिंदगी व्यथा से ही तो भरी रही।

भोपाल आकर यहाँ का हरा-भरा परिसर, शांत माहौल और साहित्यकारों का बड़ा सा कुनबा....... बहुत अच्छा लगा था ।

मैं 27 अक्टूबर को भोपाल आई और 29 अक्टूबर को ही बड़ा सा ब्रेक मिल गया । राजीव शर्मा द्वारा स्थापित नवनिर्मित संस्था प्रणाम मध्यप्रदेश का प्रथम महासम्मेलन राष्ट्रीय संग्रहालय में संपन्न हुआ जिसके पर्यटन सत्र में मैं मुख्य अतिथि थी । यह संस्था मध्य प्रदेश की हस्तकला, शिल्प कला, चित्रकला और पर्यटन को बढ़ावा देने का कार्य करेगी। कार्यक्रम के अंतिम सत्र यानी कवि सम्मेलन में मुझे जहीर कुरैशी जैसे मशहूर शायर के संग गजलें कहने का मौका मिला । श्रोताओं की खूब तालियां मिलीं और गजलें सुनाने की फरमाइश भी हुई । राजेश शर्मा ने समय की कमी को देखते हुए कहा कि "संतोष जी को तो हम किसी दिन जी भर के सुनेंगे । "जहीर कुरैशी ने कहा कि "आप तो भोपाल में हमारे लिए चुनौती बन कर आ गई हैं । "

मेरे आगे जैसे कई पल खड़े मुस्कुराने लगे। चुनौती उनके लिए ही नहीं मेरे लिए भी थी । मुझे बेहतर लिखना था। और और बेहतर लिखना था।

कि जैसे पलों का अंधेरा मद्धिम सी लौ में पीले उजास से भर उठा था और मैं अंदर तक भीग गई थी।

दूसरे दिन की शाम नीलिमा जी और राकेश पाठक के संग बेहद खूबसूरत गुजरी । बल्कि यादगार बन गई । 14 महीने के वनवास के बाद कुछ अपना सा, प्यारा सा, लौटता नजर आया। भोपाल में सभी साहित्यकार जाने पहचाने थे। साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति पहले भी आती जाती रही हूँ। जब मुंबई में थी तब भी। सब कुछ अजनबियत से परे था ।

जया केतकी ने भी मेरे सेटल होने में, पांव जमाने में बहुत मदद की। छोटे-मोटे जरूरत के सामान के साथ-साथ एक अपनत्व कि मुझे लगने लगा कि भोपाल में मेरा एक और घर है जो मेरा अपना है।

इस बार विश्व मैत्री मंच का राष्ट्रीय सेमिनार केरल में होना तय हुआ। जिसकी तैयारी मैं पिछले तीन महीने से कर रही थी । भोपाल आकर खुद को सेटल करने में भी वक्त लग गया और 23 नवंबर आ गया । 23 नवंबर को ही हमें केरल के लिए निकलना था । पहले मुंबई और फिर वहाँ से कोच्चि के लिए फ्लाइट लेनी थी।

मेरा जन्मदिन मुंबई जाने वाली ट्रेन में मना। रात ट्रेन में ही बितानी थी और रात भर जन्मदिन की बधाई के फोन आते रहे । फेसबुक पर ढाई हजार लोगों ने बधाईयां दी। शानदार पोस्ट भी लगाई ।

आशा सिंह गौर ने लिखा

आज संतोष जी के जन्मदिन पर कुछ दिल की बातें...

उनके बारे में जितना कहूँ कम है। समय बहुत नाराज़ रहा है उनसे। जब उनसे पहली बार मिली थी तब भी धूप के काले चश्मे के पीछे आँखे लबालब आँसुओं से भरी थीं पर उदासी चेहरे पर ज़ाहिर न थी। लेकिन ज़िंदगी का अथाह दर्द उन्हें रोक नहीं पाया बल्कि उनकी लेखनी में उतर गया। संतोष जी ऐसे लोगों में से हैं जिन्होंने दुख की परिभाषा बदली है और जो दृढ़ता से हर चुनौती का सामना करती हैं, जो सबको साथ लेकर चलती हैं और नए रास्ते बनाती चलती हैं। वो बच्चों के साथ बच्ची बन जाती हैं और बड़ों के साथ गंभीर भी हो जाती हैं। जितना लिखना उनकी ज़िंदगी का हिस्सा है उतना ही पर्यटन भी है और शायद इन दोनों को साथ लाने के इरादे से ही उन्होंने विश्व मैत्री मंच की स्थापना की। जिससे एक एक करके हम आप सब जुड़ते गए। ये आसान नहीं था पर संभव हो पाया संतोष जी के निरंतर प्रयास से। उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र हेमंत को खोकर आंसू बहाने की जगह उसकी स्मृति को प्रतिवर्ष हेमंत स्मृति कविता सम्मान के आयोजन के रूप में संजोया है । अद्भुत है उनका यह कार्य।

जहाँ कई बार लोग काम के लिए भी दूसरे शहर जाने से कतराते हैं वहीं संतोष जी ने इस उम्र में मुम्बई की चकाचौध को छोड़ नितांत अजनबी शहर भोपाल को अपना घर बनाने की हिम्मत दिखाई और भोपाल ने भी उन्हें दिल खोलकर अपना लिया।

संतोष जी सबके लिए एक प्रेरणा हैं। केवल लेखनी में ही नहीं बल्कि हिम्मत और जुझारू पन से ज़िंदगी से निरंतर लड़ते हुए आगे बढ़ने में भी।

आपको जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं संतोष, आप हमेशा यूं ही मुस्कुराती रहें।

पूर्णिमा ढिल्लन ने लिखा

यह संतोष जी के अपनत्व और स्नेह का जादू ही है जो सबको उनकी ओर आकर्षित कर उनके प्रेम पाश से बांध लेता है।

साहित्य की अविरल धाराओं से निकलने वाला संगीत उनके जीवन की अनमोल धरोहर है और यही ईश्वर द्वारा दिया गया बेशकीमती तोहफा है, इस तोहफे ने उनके जीवन को बहुत खूबसूरत बना दिया है lइस खूबसूरत तोहफे से उनका जीवन सजा रहे !यही ईश्वर से प्रार्थना हैl

हिंदी साहित्य की मल्लिका साहित्य के चिराकाश में सदा विचरण करती रहे l उनकी लेखनी से साहित्य की ऐसी धाराओं का प्रवाह हो

जो ऐसे स्तंभ स्थापित कर सके कि आने वाली पीढ़ियों के लिए अमूल्य धरोहर बन जाए l बस यही ईश्वर से प्रार्थना हैl

कलम उनका सहारा बन उनको ताकत देती रहे,

शब्दों के बेशकीमती मोतियों से सदा माला पिरोती रहे

कभी न टूटे लेखन की यह लड़ियां इन्हीं मालाओं के सम्मान से उनका व्यक्तित्व दमकता रहेl

प्रमिला वर्मा ने लिखा

शनैः -शनैः उन्नति और सफलताओं की ओर अग्रसर होते हुए आज उन्होंने साहित्य जगत में जो मुकाम हासिल किया है, वह निश्चय ही सराहनीय है। मुझे याद है जब धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कहानी, सारिका, नई कहानियां और भी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में संतोष दी की कहा नियाँ लगातार छपती रहती थीं, और सुदूर बर्फीले स्थलों में तैनात सैनिकों के लिए जहाँ बिनाका गीतमाला अपना कार्यक्रम पेश करता था । वहीं संतोष दी की कहानियों के अनेक प्रशंसक थे । जो यदा -कदा किसी के हाथ या स्वयं कोई सौगात उन्हें भेजते थे । जिनमें शहद, अनन्नास, खजूर, अखरोट आदि होते थे। स्नेह प्रगट करने का सैनिकों के इस तरीके की सराहना सभी करते थे। सीमा पर तैनात सैनिकों की वे बहन थीं। ऐसा पाठक वर्ग शायद ही किसी को प्राप्त होगा ।

फिर कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों को प्राप्त करना उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही परिणाम है । वे राष्ट्रीय -अंतरराष्ट्रीय ख्यात लेखिका हैं। जिसकी जिंदगी में इतना बड़ा हादसा हुआ कि एकमात्र संतान हेमंत ने छोटी सी आयु में संसार को अलविदा कह दिया हो। और फिर उसकी माँ दृढ़ संकल्प से खड़ी होकर सिर्फ और सिर्फ साहित्य को समर्पित हो गई हों। उन्होंने अपने दर्द को अपनी ताकत बनाया । वे युवा लेखकों की प्रेरणा हैं। यह भी एक उदाहरण है हम सब के लिए।

उनके लेखन को उनकी ऊर्जा, और नित नई सफलताओं को मेरी अनेक शुभकामनाएँ। ....

पढ़कर मन विचलित सा हो गया । इतना प्यार अपनापन कैसे सहेज सकूंगी मैं।

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