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शम्बूक - 12

उपन्यास: शम्बूक 12

रामगोपाल भावुक

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9.आर्यों की कर्मणा संस्कृति का विलुप्त होता अस्तित्व

मुझे याद है ,यह प्रसंग फूफा जी ने मुझे रात सोने से पहले सुनाया था-सुधीर पौराणिक ने चौपाल से लौटते समय शान से लहराती अपनी दाड़ी-मूछों पर प्यार से हाथ फेरते हुये घर में प्रवेश किया। पत्नी नन्दनी उन्हें आया हुआ देखकर बोलीं-‘आपको यह जाने क्या हो गया है? आप तो शम्बूक के बारे में प्रतिदिन नई-नई कथायें गढ़कर लोगों के सामने प्रस्तुत करते रहते हैं। यह बात ठीक नहीं है।’

सुधीर पौराणिक पत्नी नन्दनी की बात पर क्रोध व्यक्त करते हुये बोले-‘‘देवी, आप यह क्या कह रही हैं? मैं शम्बूक के वारे में नई-नई कथाये गढ़कर लोगों के सामने प्रस्तुत करता रहता हूँ। अरे! हमें अपने मन की बात कहने के लिये, शम्बूक तो एक प्रतीक है!’

वे बोलीं-‘ जिस कहानी के सिर- पैर ही उल्टे हों। हमारे महाराज श्री राम जी बहुत सोच- विचार कर कार्य करने वाले हैं। आपकी ऐसी शम्बूक गाथा, इस कथा पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा। इस सब के बावजूद आप इस कथा को विश्वश्नीय कथा कह रहे हैं। अरे! श्रीराम को उसे मारने की क्या आवश्यकता थी। वे उसे बिना मारे ही तप का फल प्रदान कर सकते थे। श्रीराम के बारे में ऐसी झूठी कहानी गढ़कर आपको पाप नहीं लगेगा।’

वे बोले-‘तुम स्त्रियों को कुछ समझ तो है नहीं। हम लोगों की सभा ने जो निश्चय किया है हम उसी अनुसार कार्य का रहे हैं। कुछ लोग श्रीराम कों निर्गुण-निराकार से ऊपर मान रहे हैं यह बात कुछ समझ नहीं आ रही है। दूसरे शम्बूक का तप करना भी हमें समझ नहीं आ रहा है। श्रीराम इस बात को लेकर भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रह गये है। हम लोगों ने दोनों समस्याओं का हल खोज लिया है। हम चाहते हैं साँप का साँप मर जाये और लाठी भी नहीं टूटे। अरे! हमारी इस चाल से लोग ब्राह्मण वर्ग से डर कर तो रहेंगे।’ यह सुन कर नन्दनी अन्दर ही अन्दर क्रोधित होते हुये चुप रह गई थी।

यही बात सुरेश चतुर्वेदी के घर पर उनकी पत्नी सोहनी ने उठाई-‘सुना है आज चौपाल पर सुधीर पौराणिक ने जो कथा कही है मुझ कुछ ठीक नहीं लग रही है। श्रीराम का इधर आगमन भी नहीं हुआ है। ना ही शम्बूक की किसी ने हत्या की है, इस झूठी कहानी का प्रचार- प्रसार क्यों किया जा रहा है।’

सोहनी की बात सुनकर सुरेश चतुर्वेदी ने अपनी बात कही‘-‘हमें श्री राम के बढ़ते अस्तित्व की चिन्ता नहीं है, वे हमारे महाराजा हैं। यह सुसरा शम्बूक सारे शूद्रों में हमारे विरुद्ध जहर भर रहा है। यह बात यों ही नहीं उड़ी। हमने जो सुना और समझा है हम उसी बात का प्रचार- प्रसार कर रहे हैं।’

सोहनी बोली-‘श्रीराम के राज्य में बोलने की स्वतंत्रता क्या मिली है, लोग जाने क्या-क्या प्रलाप करने लगे हैं? कोई श्रेष्ठ नर कोई अच्छा कार्य करता है उसकी बढ़-चढ़कर चर्चा करना आदमी का स्वभाव है। दूसरे आत्मोथान के लिये तप- साधना करना सभी प्रणियों के लिये क्या अनिवार्य नहीं होना चाहिए? इस पर रोक लगाना आत्मकल्याण की भावना की हत्या करना हीं है। कुछ दूषित मानसिकता वाले लोगों को यह बात रास नहीं आ रही है। इसमें शम्बूक का क्या दोष? किन्तु उससे करुणा के सागर श्रीराम के द्वारा उसकी हत्या की बात जोड़कर प्रचार करना क्या यह गलत नहीं है?’

‘देवी! आपकी बात न्यायोचित है,किन्तु हमें जाने यह क्यों लग रहा है कि वह हमारा हक छीन रहा है। लोग जो हमारी बातों पर आँख मूद कर विश्वास कर लेते हैं, वे ही हम पर संन्देह करने लगेंगे। हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। हम सब इसीलिये एक जुट होकर इस कार्य में लग गये हैं। अब इसके चाहे जो परिणाम हो।

इसी तरह महेश द्विवेदी के घर भी उनकी पत्नी वृन्दादेवी इसी विषय को लेकर चर्चा करने को आतुर थीं। पति जैसे ही घर लौटे, वे बोलीं-‘पण्डित जी आप श्रीराम जी की जाने कैसी-कैसी कहानी सुना कर लोगों को भ्रमित करने का कार्य कर रहे हैं। आप कहते हैं कि श्री राम ने उस तापस से कहा कि तुम कठोर तप कर रहे हो इसलिये तुम धन्य हो। तपस्या में बढ़े-चढ़े सुदृढ़ पराक्रमी पुरुष तुम किस जाति में उत्पन्न हुये हो? उनके प्रश्न के उत्तर में वह सत्य बोलता है कि मैं शूद्र हूँ और देवलोक प्राप्ति के लिये तप कर रहा हूँ। मेरा नाम शम्बूक है। उसके सत्य बोलने पर भी श्रीराम उसका सिर काट देते हैं। स्वामी फिर तो, सत्यकाम वाली पौराणिक कथा असत्य भाषित हो रही है।’

‘देवी ,मैं समझा नहीं कौन सी कथा असत्य भाषित हो रही है?’

वे बोली-‘ स्वामी सत्यवाक दर्शाने वाली एक कथा छान्दोग्य उपनिषद् में इस प्रकार लिखी है कि सत्यकाम जाबाला जब गौतम गोत्री हारिद्र मुनि के पास शिक्षार्थी होकर उनके पास पहुँचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा- उसने कहा कि मैं अपनी माता का ही गोत्र जानता हूँ। मैंने अपनी माता से पूछा था ,उन्होंने कहा कि युवावस्था में मैंने अनेक व्यक्तियों के यहाँ सेवा की है। उसी समय तेरा जन्म हुआ है। मेरी माँ मेरा गोत्र नहीं जानती। इस बात पर मुनि ने कहा-‘जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कह सकता। स्वामी सत्य बोलने वाला शम्बूक क्या सत्यकाम जैसा सत्यभाषी होने पर भी मृत्यु का अधिकारी हो सकता है।’

‘स्वामी, यदि आप लोग अपनी जिद पर अड़े रहे तो किसी दिन हमें ही किसी भावुक की कलम से इस बात का प्रायश्चित करना पड़ेगा।’

उधर उमेश त्रिवेदी के घर भी इसी समस्या को लेकर उनके बूढ़े पिता श्री सुन्दरलाल त्रिवेदी से बहस छिड़ी थी। उसके पिता जी कह रहे थे-तुम युवाओं को जाने क्या हो गया है? जाने कौन सा कट्टरबाद हावी होता जा रहा है? काठक संहिता में तो लिखा है कि ब्राह्मण के विषय में यह क्यों पूछते हो कि उसके माता-पिता कौन हैं? यदि उसमें ज्ञान और तदनुसार आचरण है तो वे ही उसके बाप-दादा हैं। जन्म देना तो ईश्वर के आधीन है परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा आचरण से निकृष्ट वर्ण उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और अधर्माचरण से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य शूद्र वर्ण को प्राप्त होता है। यजुर्वेद (तीस. पाँच )के तपसे शूद्रम्..... में कहा है कि बहुत परिश्रमी, कठिन कार्य करने वाला, साहसी और परम उद्योगों अर्थात् तप को करने वाले आदि पुरुष का नाम शूद्र है।’

उमेश त्रिवेदी बोला-‘ अरे!’

वे पुनः बोले-‘यजुर्वेद (सोलह, सत्ताइस) के नमो निशादेभ्य..... में कहा है कि शिल्प-कारीगरी विद्या सें युक्त जो परिश्रमी जन अर्थात् शूद्र, निषाद हैं उनको नमस्कार करें।

वत्स तुम्हें समझाने के लिये एक बात और कहता हूँ, उसे भी ध्यान से सुनें-ऋग्वेद के पंच जना मम्..... वाले श्लोक में कहा है कि पाँचों मनुष्य अर्थात् ब्र्राह्मण, क्षत्री, वैश्य,शूद्र और अतिशूद्र यानी निषाद मेरे यज्ञ को प्रीति पूर्वक करें। इसका अर्थ हुआ प्रथ्वी पर जितने भी मनुष्य हैं वे सब ही यज्ञ करें।

इन्हीं दिनों सुन्दर लाल त्रिवेदी अपनी ज्येष्ठ पुत्रवधू के पिता श्री से मिलने उनके गाँव जाना हुआ। उसी दिन उस गाँव में एक सभा का आयोजन किया गया था। वे उस सभा में पहुँच गये। उन्होंने पंड़ित नारायण स्वामी की बातें सुनी तो उनसे बोले बिना न रहा गया। वे सभा में खड़े होकर बोले- ‘क्षमा करें! मैं पंड़ित नारायण स्वामी की बातों से सहमत नहीं हूँ। जो बातें तर्क की कसौटी पर खरी न उतरें वे असत्य ही कहीं जायेंगी। मेरे पुत्र उमेश त्रिवेदी के भी विचार ऐसे ही रहे। अब वह तो मेरी बातें से सहमत हो गया है। सम्भव है आप भी मेरी बातों से सहमत हो जाये। यदि आपने अपनी बातों से मुझे सहमत कर लिया तो मैं आपका अनुयायी बन जाउँगा।’

सभी में स्वर सुनाई पड़ा-‘ त्रिवेदी जी हम आपकी बातें सुनना चाहेंगे। आप निःसंकोच होकर कहें