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शम्बूक - 13

उपन्यास: शम्बूक 13

रामगोपाल भावुक

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9.आर्यों की कर्मणा संस्कृति का विलुप्त होता अस्तित्व भाग.2

सुन्दर लाल त्रिवेदी ने कहा-‘मुझे तो ऐसी मनोअवधारणा वाले शम्बूक के सम्बन्ध में विचार उचित नहीं लगते। वे बिना सिर पैर की बात नहीं लिख सकते। मनुस्मृति(दस, पेंसठ) में कहा है-‘ जो शूद्रकुल में उत्पन्न होंकर ब्राह्मण के गुणकर्म स्वभाव वाला हो वह ब्राह्मण बन जाता है। इसी प्रकार ब्राह्मण कुलोत्पन्न होकर भी जिसके गुणकर्म स्वभाव शूद्र सदृश्य हो वह शूद्र हो जाता है।’

किसी का स्वर सुनाई पड़ा-‘त्रिवेदी जी आप तो वाल्मीकि रामायण का ही कोई उदाहरण दें!

सुन्दरलाल त्रिवेदी ने प्यार से अपनी दाड़ी पर हाथ फेरते हुये कहा-‘ बालकाण्ड (एक. सोलह) में महर्षि वाल्मीकि को रामचन्द जी का परिचय देते हुये नारद जी ने कहा था-‘ राम सब के साथ श्रेष्ठ व्यवहार करने वाले हैं। तब आप ही कहिये कि तपस्या करने वाले शम्बूक का वे वध कैसे कर सकते हैं।’

अब मैं आप सब के समक्ष यजुर्वेद के रुचं शूद्रेश...श्श्लोक(अठारह.अडतालीस) में -जैसे ईश्वर, ब्राह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं अतिशूद्र यानी निषाद मेरे यज्ञ को प्रीतिपूर्वक करें। पृथ्वी पर जितने मनुष्य हैं वे सब ही यज्ञ करें।

बन्धुओ, उपनिषद में तो शूद्र के महान बनने के प्रमाण यह हैं कि वह शूद्र वर्ण पोषण करने वाला है और साक्षात् पृथ्वी के समान है क्यों कि यह पृथ्वी सबका पोषण करती है ठीक इसी तरह शूद्र भी सब का भरण पोषण करता है। बृहदारण्यक उपनिषद( एक. चौदह. तेरह) व्यक्ति गुणों से शूद्र अथवा ब्राह्मण होता है न कि जन्म गृह से।

बन्धुओ, कुछ पौराणिक लोग शबरी को निम्न जाति की स्त्री मानते हैं। वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्वनी थी कि नहीं? तब श्रीराम शम्बूक को तपस्या करने के कारण पापी कैसे मान सकते हैं।

यह तो बिना किसी आधार के इस बात को वाल्मीकि रामायण में जोड़ने का प्रयास है। इन अज्ञानियों ने अपने दूषित विवके से वाल्मीकि रामायण कें बालकाण्ड का कुछ भाग एवं उत्तर काण्ड तो ही सम्पूर्ण रूप से प्रक्षेपित सा लगता है। महर्षि वाल्मीकि से ऐसे अमनोवैज्ञानिक कथाओं के लेखन की कल्पनला नहीं की जा सकती। उनके मूल लेखन एवं प्रक्षेपित लेखन के अन्तर को स्पष्ट देखा-परखा जा सकता है।

इस तरह किसी भी शूद्र को तपस्या करने की किसी प्रकार की रोक नहीं है। समझ नहीं आता कुछ लोगों ने यह कैसा भ्रम फैला दिया है?

मेरी बातों से यदि आप सहमत नहीं हैं तो कहें, मेरी बात का खण्डन करें। यदि आपकी बात तर्क संगत निकली तो मैं आपकी बात मान कर आपके समूह की सेवक की तरह सदस्यता स्वीकार कर लूंगा।’

उसकी बात सुनकर सभी चुप रह गये।

इन दिनों सुमत योगी को उसके सम्बन्ध में नई-नई कथायें सुनाईं पड़ने लगीं-

बसन्त पुरोहित श्रोताओं को आकर्षित करने अपने मन की कुछ बातें अपनी ओर से जोड़कर कह रहे थे। सुना है शम्बूक अपनी जाति के लोगों को श्रीराम के विरुद्ध भड़का रहा है। उसने सारे शिल्पकारों को एकत्रित कर लिया है। वह उन्हें उनके काम को नई तरह से सिखा रहा है, उसकी यह अच्छी बात है किन्तु व्यवस्था के बारे में वह जहर उगल रहा है। सुना है वह तो एक नई व्यवस्था को जन्म दे रहा है।

सुन्दर लाल त्रिवेदी ने कहा-मैंने भी सुना है एक दिन शम्बूक अपने शिष्यों को सम्बेधित कर रहा था-

‘सृष्टि की रचना का कार्य पंच महाभूत सँभालते हैं। पंच महाभूत अर्थात् अग्नि,जल,वायू, आकाश और पृथ्वी। जल अर्थात् वर्षा, वह सभी की भूमि पर वरसती है। वह यह नहीं देखती कि यह भूमि वैश्य की है अथवा शूद्र की। सभी की भूमि पर समान वर्षा होती है। वहाँ कोई भेद भाव नहीं होता। सूर्य सभी के लिए निकलता है तथा हवा सभी के लिये बहती है। वर्षा अगर भेद-भाव करती तो केवल सवर्णों की ही भूमि पर वरसती। शूद्र एवं पशु उस वर्षा से वंचित रह जाते।

शिष्यो! पहले हमारे पूर्वज धन-धान्य से परिपूर्ण हुआ करते थे लेकिन कुछ स्वार्थी लोगों के कारण कर्मणा संस्कृति को जन्मना संस्कृति के रूप में स्थापित किया जा रहा है। वही इस संस्कृति का यह रूप हमारे सामने आ गया है। यह समय जन्मना की पद्धति की ओर अग्रसर हो रहा है। कर्मणा की पद्धति पीछे छूट रही है। इस समय इस बदलाव में तेज अन्धड़ सा चल रहा है। कर्म की श्रेष्ठता जन्म से जोड़ी जाने लगी है। इस हेतु शम्बूक जैसी अनेक कथायें सामने आ रहीं है।

पारिवारिक कार्य कुशलता के कारण कुछ लोगों को कार्य की कुशलता के लाभ भी हुये हैं किन्तु सामाजिक असमानतायें व्याप्त हुईं हैं। हमें इसके असली रूप को सामने लाना होगा तभी हम सबका जीवन सार्थक होगा। आप सब गाँव-गाँव, नगर-नगर जाकर मेरी इस शिक्षा का प्रचार प्रसार करें।

उपनिषदों में तो न केवल शूद्रों ने तपस्या की है वरन् उनमें से कुछ तो मंत्र दृष्टा बनकर औपनैषिदिक ऋषि की गरिमा को भी प्राप्त हुये हैं। यथा ऐतरेय, सत्यकाम आदि। ऐतरेय एक रखैल के पुत्र थे। उन्हें गुरुकुल में शिक्षा द्वारा संस्कार मिले और उनके द्वारा रचित पूरा ‘ऐतरेय उपनिषद’ ही है, जो ऋग्वेद का उपनिषद है। सत्यकाम न केवल एक शूद्र थे वरन् एक अवैध बालक भी थे। इन्हें भी गुरुकुल में शिक्षा द्वारा संस्कार मिले और वे एक ऋषि बने। यह मान्यता रही कि ‘जन्मना जायते शूद्रःसंस्कारात द्विज उच्यते।’

यदि मेरी बातों पर अभी भी सन्देह हो तो मैं उसका उत्तर देने को तैयार हूँ। इसके बाद सभी सन्तुष्ट से दिखें किन्तु जिन्हें सुन्दर लाल त्रिवेदी की बातें पसन्द नहीं आईं थीं वे सभा से वाहर निकलकर अपने मन का जहर उगलने से नहीं चूक रहे थे।

एक बोला-‘ ये सुन्दर लाल त्रिवेदी बड़ी-बड़ी बातें करतें हैं अपने घर को तो सँभाल नहीं पाये।

दूसरे ने पूछा-‘ हम भी तो सुनें वे ऐसा क्या नहीं सँभाल पाये?’

पहले ने ही कहा-‘पुरुष वर्ग एक कक्ष में रहतें हैं और स्त्रियों के लिये दूसरे ही कक्ष में रहना पड़ता है। इनके घर के पति- पत्नी आपस में मिलन के लिये तरसते हैं। उन्हें मिलने के लिये एकान्त संयोग से ही मिल पाता है। सुन्दर लाल त्रिवेदी कहते हैं कि इसके बहुत लाभ हैं।’

दूसरे ने पूछा-‘ इस बात में भी वे लाभ देख रहे हैं। मैं कुछ समझा नहीं!’

वही फिर बोला-‘ इसमें समझने की क्या बात है। वे कहते हैं कि इससे सन्तान देर से व अधिक अन्तर से होती है। जो होती है वह बहुत परिपक्व एवं हष्टपुष्ट होती है। दूसरे सभी स्त्रियाँ एक साथ रहने से उनमें प्रेमभाव बढ़ता ही जाता है। सभी एक दूसरे के सुख-दुःख का ध्यान रखतीं है। इसी तरह सभी पुरुष वर्ग आपस में प्रेम से रहते हैं। वे कहते रहते हैं कि हम आर्य संस्कृति के अनुसार ही चल रहे हैं। अरे! पहले आर्य चरवाहे थे। उनके पास पति-पत्नी को एक कक्ष में रहने के लिये संसाधन नहीं थे। अब इन बातों की हमारे यहाँ कमी नहीं हैं फिर भी वे पुरानी लकीरें पीट रहे हैं।

दूसरे ने अपनी बात कही-‘ बनते है अत्याधुनिक और हैं वे ही पुरानी परम्पराओं का ढोल पीटने वाले। मुझे उनकी यह बातें तो उचित नहीं लगतीं।’

उनकी ये बातें अन्य दूसरे चुपचाप सुनते हुये साथ-साथ चल रहे थे उनमें से किसी ने कहा-‘ हम आर्यों की संस्कृति विकसित संस्कृति है। ये हैं कि पुरानी परम्पराओं को आज भी घसीट रहे हैं। यह सुनते हुये सभी अपने पथ पर अग्रसर होते रहे।

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