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शम्बूक - 14

उपन्यास: शम्बूक 14

रामगोपाल भावुक

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10 जन जीवन में जन्मना संस्कृति का प्रवेश-

प्रसग सुनते- सुनते मैं उघने लगा था तो फूफा जी बाले-‘ सुमत मुझे लगता है तुम्हें नीद आ रही है। मैं सचेत हो गया बोला-‘नहीं फूफाजी मैं सुन रहा हूँ। आप तो सुनायें। उन्होंने कथा पुनः कहना शुरू कर दी-‘-सुन्दर लाल त्रिवेदी के घर उनके बड़े पुत्र उमेश त्रिवेदी अपने पाण्डित्य कर्म के लिये अपनी पहिचान बना चुके थे। लोग हर काम उनसे पूछ-पूछ कर करने लगे थे। इस तरह पाण्डित्य कर्म करने वाले उमेश त्रिवेदी की पूछ- परख बढ़ती जा रही थी।

उनसे छोटा महेन्द्र समाज के रक्षक बनकर आर्यों का नाम ऊँचा कर रहे थे। वह हर पल सोचता रहता था कि कैसे समाज को अव्यवस्थाओं से बचा कर रखा जाये।

उनसे लघु भ्राता सुखदेव शिल्पकार के रूप में अपनी पहिचान बना रहे थे। वह सभी श्ल्पिकारों को एकत्रित करके उनका प्रमुख बन बैठा था। उसने श्ल्पिकारों के मध्य शादी विवाहका चलन शुरू हो गया। इससे वैश्य वर्ग में अपनी उनकी प्रतिष्ठ बढ़ती जा रही थी। वैश्य वर्ग कृषि कार्य एवं व्यापार चतुरता से करने का प्रयास कर रहा था।

सबसे छोटा सुशील वुद्धि से उतना कुशाग्र नहीं था। वह अपने तीनों बड़े भाइयों की सेवा को ही अपना धर्म मान कर चल रहा था। सभी अपने अपने कार्य शैली के लोगों को अपना हितेशी मान कर चल रहे थे। उस तरह चारो भाई इन चार साखाओं में अपना अस्तित्व बनाने में लगे थे।

आज सुशील की उसकी सगाई के लिये पास के गाँव विछोदन से एक पण्डित जी आये थे। इस विषय को लेकर सभी भाईयों की बैठक पिता जी के साथ जमी थी। सुन्दर लाल त्रिवेदी बोले-‘ बन्धुवर, इसने सभी भाइयों की सेवा का कार्य अपने हाथ में लिया है। हमें ऐसी लड़की चाहिए जो उसके काम में सहयोग कर सके।

पं. देवेश द्विवेदी ने अपनी बात रखी-‘आजकल नई परम्पराये जन्म ले रही है। नये- नये वर्ग बनते-मिटते चले जा रहे हैं। लोग जन्म को महत्व देने लगे हैं। एक नई संस्कृति जन्म ले रही है। वुद्धिजीवी बर्ग ब्राह्मण वर्ग के रूप में प्रतिष्ठित होते जा रहे हैं। शिल्पकार लोग वैश्य वर्ग के रूप में सामने आ रहे हैं। रक्षक वर्ग समाज की रक्षा में लगे हैं। समाज उनका अस्तित्व स्वीकार रहा है किन्तु सेवक वर्ग का उतना सम्मान नहीं है। मैं समझ रहा हूँ , आपके घर में ऐसा नहीं हैं सेवा करने वाले के दायित्वों का निर्वाह सभी भाई करने को तत्पर दिख रहे हैं। इसलिये आपके घर में बेटी देने में मुझे संकोच नहीं है।

सुन्दर लाल त्रिवेदी बोले-‘ द्विवेदी जी आप निश्चिन्त रहें। हमारे यहाँ आर्य संस्कृति के अनुसार ही चाल-चलन हैं। मेरे पुत्र जन्मना संस्कृति में उतना विश्वास नहीं रखते। हम समझ रहे हैं ,कुछ लोग पुत्र मोह में हमारी कर्मणा संस्कृति को ध्वस्त करने का प्रयास कर रहे हैं। मेरे घर में सभी भाई अपने-अपने काम में लगे हैं। उनके अपने-अपने समूह में कामकाज के कारण पहचान बढ़ रही है। वे एक दूसरे के निकट भी आते जा रहे हैं। उनमें आपस में विवाह भी होने लगे हैं। हम देख रहे है, एक नई संस्कृति ही जन्म ले रही है। एक रत्नाकर नामका लुटेरा तप से महार्षि वाल्मीकि बना, यह तो कर्मणा संस्कृति का उदाहरण है किन्तु उन्होंने अपनी रामायण की रचना में जन्मना संस्कृति की ही पुष्टि की हैं। लोगों का रुझान पुत्र मोह में जन्मना संस्कृति की ओर वढ़ रहा है। इन दिनों इसमें किसी का विरोध भी दिखाई नहीं देता।’

पं. देवेश द्विवेदी ने उनकी बातें समझते हुये कहा-‘ आप ठीक सोचते हैं। आप जैसा खुले विचारों वाला विचारवान मुझे दूसरा नहीं दिखता। आप दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। मैं आपकी इसी बात से प्रभावित हूँ। मैं अपनी छोटी पुत्री का विवाह आपके इस सेवक पुत्र के साथ करने को तैयार हूँ। मैं जानता हूँ सेवा भाव रखने वाले सभी का दिल जीत लेते हैं। सेवक पर अपना सब कुछ निछावर करने को तत्पर रहते हैं। जीवन में इनके बिना समाज का काम चलनेवाला नहीं है। सभी सेवा भावी लोगों का सम्मान करते हैं। वे अपना अहम् भाव त्यागकर दूसरों की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं। वे सेवा भाव को मोक्ष का द्वार मानते हैं। यह वर्ग न हो तो सारी व्यवस्था अस्त- व्यस्त हो जायेगी। सभी वर्गों का अस्तित्व एक दूसरे से जुड़ा है। सभी एक दूसरे के पूरक हैं।

सुन्दर लाल त्रिवेदी ने उनके विचारों को थपथपाया-‘आप जैसे सद् विचारों वाले जन कितने हैं। ऐसे संस्कारवान पिता की ही पुत्री हमारे घर की शोभा होगी।’

उमेश की माँ ने उससे कहा-‘ समधी जी की सेवा में कोई कमी न रहे। यह तुम्हारा दाएित्व है।’

उमेश बोला-‘ माँ अब वे हमारे सुशील के साथ अपनी बेटी का विवाह करने की बात कह चुके हैं। अब वे अपने घर का तो क्या इस गाँव का भी ग्रास ग्रहण नहीं करेंगे! ’यह सुनकर माँ चुप रह गई थी क्योंकि वे जान गईं है, श्री राम के विवाह में हुये चाल-चलन ही समाज के नियम बन गये हैं।

इस तरह सभी की सहमति से सुशील और प्रेमिला का विवाह हो़ गया। सारा गाँव इस अवसर पर उत्साह में आनन्दित रहने लगा।

उमेश त्रिवेदी बैठका से उठकर घर के चौक में पहुँच गया। इस विषय पर उसने अपनी पत्नी से परामर्श करना चाहा किन्तु पिताजी ने घर में नियम बना रखा था। पुरुष वर्ग एक कक्ष में रहते थे। नारी वर्ग दूसरे कक्ष में रहते थे। सुन्दर लाल त्रिवेदी ने उनके सहज मिलन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उन्हें इसका एक लाभ दिखता था। इससे वे संयमित जीवन व्यतीत करने के अभ्यस्त हो जायेंगे। सन्तान उत्पति में भी उनका यह नियम लाभप्रद ही रहेगा। कम संतान व्यवस्था की दृष्टि से लाभप्रद है। आदमी समाज के कल्याण के लिये भी समय निकाल सकता है।

इसी समय उमेश का पुत्र घुटनों के बल चलता हुआ पिता की ओर लपका। उमेश ने उसे उठा कर गले से चिपका लिया। सरस्वती ने पुत्र को यह करते देख लिया वे बोली’- आजकल लोगों में बड़ों के लिये मर्यादा ही नहीं बची है। अरे ! घर में इतने लोग हैं उसे सँभालने के लिये। हम तो तुम्हारे लड़के को प्यार करते ही नहीं हैं। अरे !हमारे घर में ऐसा नहीं है। तुम्हारे सभी भाई इसे तुम से अधिक चाहते हैं। उसे सभी अपने-अपने हुनर में दक्ष कर देगे। तुम्हारे ही साथ रहा तो यह केवल पांण्डित्य का कार्य ही सीख पायेगा। हम चाहते हैं इसकी जो रुचि हो वह उसी कार्य में प्रवीण वने। यह हमारे परिवार की परम्परा में ही सम्भव है। हम आर्यों ने यह संस्कृति यों ही नहीं ग्रहण की है इसके बहुत से लाभ भी हैं।’

माँ की बातें सुनकर उमेश ने सरमाते हुये अपने बच्चे को वहीं के वहीं छोड़ दिया। वह यह सोचते हुये घर से निकला-‘ हमारे घर के यह अच्छे नियम हैं कि पत्नी से मिलने के लिये समय तलाशते रहो। अपने बच्चे को गले लगाने में घर की मर्यादा नष्ट होती है। मैं तो अपने बच्चे को अपना पांण्डित्य कर्म ही नहीं सिखा पाउँगा। यह सीख पायेगा छोटे भइया से लोगों की सेवा करना। मैं इसे सेवा करने वाला नहीं सेवा लेने वाला बनाउँगा। इसी कारण मुझे भी आर्यों की कर्मणा संस्कृति अच्छी नहीं लगती। इन दिनों जन्मना संस्कृति आर्यों की दूसरी विकसित संस्कृति है। पिताजी हैं कि इस नई विकसित संस्कृति को उचित नहीं मान रहे हैं। मुझे तो यह नई आधुनिक संस्कृति ही अधिक भाती है। अरे! जब पुराना राग किसी काम का न रहे तो उसे छोड़ने में ही भलाई है। इसमें इतने दोष आ गये हैं कि यह स्वमेव ही पीछे छूट रहीं है। वह यही सब सोचते हुये अपने पांण्डित्य कर्म वाले साथियों के पास पहुँच गया। इस तरह पुरातन कर्मणा आर्य संस्कृति और नई विकसित जन्मना आर्य संस्कृति में द्वन्द युद्ध छिड गया था। हमारी संस्कृति के विकास की यही कहानी आज तक अनवरत रूप से चलती चली आई है। बदलाव में जो टकराहट हुई है उसकी टंकार आज भी हम सुन सकते हैं। किसी भी संस्कृति के कुछ न कुछ अबशेष तो अपना अस्तित्व प्रदर्शित करने बन रहते हैं । उन्हीं में से उनके इतिहास के पन्ने हम सहेज कर रख पाते हैं।

सुन्दर लाल त्रिवेदी के घर में स्त्रियाँ आपस में झगड़ पड़ीं थी। सबसे बड़ी पुत्रवधू वन्दना अपने से छोटी रचना से कह रही थी-‘अच्छा है अब मेरे से काम बनता भी नहीं है। अब तो छोटी प्रेमिला मेरी सेवा के लिये आ गई है। अच्छा है मेरे साथ ही रहा करेगी। रचना उनका दृष्टि कोण समझ गई, बोली-‘हमारे उनका काम दूसरों की रक्षा करना हैं। उसकी रक्षा का दायित्व तो मेरा है उसका मेरे साथ रहना उचित होगा।

उससे छोटी दुर्गा उनकी बातें सुनकर उनके पास आ गई बोली-‘हमारे बणिक जी इस घर की सेवा में दिन रात लगे रहते हैं। सारे दिन मैं भोजन बनाते बनाते थक जाती हूँ। उस नई वधू को आकर तो मुझे सहयोग करना चाहिए कि नहीं?’

इसी समय सरस्वती ने कक्ष में प्रवेश करते हुये कहा-‘ घर का सारा काम पड़ा है। हमारी दोनों बड़ी पुत्र वधुओं का तो घर के काम में मन ही नहीं लगता। हमारे श्ल्पिकार की पत्नी दुर्गा सारे दिन भोजन बनाने में लगी रहती है। अब तो उसकी मदद के लिये छोटी प्रेमिला आ गई है अब ये दोनों मिल कर सभी का काम कर लिया करेंगीं।

सरस्वती समझ रही थी कि हमारे घर में जो हो रहा है वह ठीक नहीं हो रहा है। जिनके पति शक्ति सम्पन्न हो गये हैं सभी घरों में उनकी औरतें भी छोटी पुत्र बधुओं पर अपना अधिकार दिखाने लगीं है। जो दवता जा रहा है ,उसे और दवाया जा रहा है। इसका परिणम यह दिख रहा है कि सभी अपने अपने वर्ग के दायरे में रहने को व्यग्र दिख रहेे हैं। यों हमारे ही कस्वे में नई-नई बस्तियों का निर्माण होता जा रहा है। अब वह दिन दूर नहीं लगता जब सभी भाई अपने अपने काम के वर्ग में जाकर रहने लगेंगे। यह सोच कर उसें लगा- जितनी जल्दी हो सके इसका षीघ्र विवाहकर लेने में ही भलाई है। बटबारे के बाद तो हमारी समाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो जायेगी। सम्भव है उसके बाद इसका विवाह करना सम्भव न हो पाये। यह सोच कर पति से बोली-‘ आप तो जितनी जल्दी हो इसके विवाह का महूर्त निकलवा लेना चाहिए।’

व्यवस्था बदलाव की स्थिति में, प्रतिष्ठा का प्रश्न उसके दिल को झकझोरने लगा। कोई काम छोटा- बड़ा नहीं होता। इन दिनों काम के आधार पर आदमी की जाति को निर्माण होता जा रहा है। यह समाज के लिये अच्छे संकेत नहीं है। काम से आदमी छोटा बड़ा होने लगेगा।

गाँव -गाँव नगर-नगर बटते जा रहे हैं। हर जगह कर्म के आधार पर बस्तियाँ दृष्टि गोचर होने लगीं हैं। चुपके- चुपके यह आग चारों ओर फैलने लगी है। पत्नी सरस्वती को सोचते हुए देखकर सुन्दर लाल त्रिवेदी ने पूछा-‘ ‘पहले अपने इस गाँव में सभी एक ही वर्ग के लोग थे। अब वे बट रहे हैं। काम के आधार पर लोग अपने अपने वर्ग के हिसाब से बस्तियों में गलियाँ और मोहल्ले बाँटने लगे हैं। उसी स्तर से अपने मकान छाने में लग गये हैं।’

‘देवी जी आपको इसमें दोष दिखाई दे रहे हैं। मुझे तो इसमें लाभ दिख रहा है। इससे अपने अपने कार्य में उन्नति का सोच विकसित हो रहा है। उनका कार्य सौन्दर्य निखर कर सामने आने लगा है। एक तरह सब लोग दत्तचित्त होकर कार्य करने लगे हैं। पाण्डित्य कर्म करने वाले दिन रात उचित दिशा में सोच को आगे बढ़ा रहे हैं। वे बच्चों के पढ़ने- लिखने की व्यवस्था कार्य में जुट गये हैं।

इसी तरह रक्षक अपने कार्य को और वेहत्तर बनाने में लगे हैं जिससे लोग भय मुक्त होकर जीवन जी सके। इसी तरह वैश्य वर्ग भी दिन रात लाभ- हानि के दृष्टि से आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा हैं। एक दूसरे में उससे आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है।

अब रही सेवक वर्ग की बात तो पाण्डित्य कर्म करने वाले एवं रक्षा का कार्य करने वाले उन्हें उपदेश देकर उनसे सेवा लेने का हक बतला रहे हैं। जबकि शिल्पकार और वैश्य वर्ग के पास कार्य की अधिकता है। उन्हें श्रम में सहयोग की जरूरत हर क्षण बनी रहती है। वे उनसे सेवा के बदले उनको दृव्य देकर उनकी पूर्ति करते रहते हैं। पाण्डित्य कर्म करने वाले अपनी बुद्धि के प्रर्दशन से उल्टे उन्हीं से धन ऐठ लेते हैं। रक्षा का काम करने वाले उन्हें भयमुक्ति का अहसास दिला कर उनसे कर के रूप में धन लेने लगे हैं। ’

यह सुन कर वे बोलीं-‘ यह तो सभी सेवक वर्ग के ऊपर अपनी डाढ़ी-मूछें बढ़ाने लगे हैं। देखना आज आपको यह उचित लगता होगा किन्तु आगे चलकर सेवक वर्ग का सभी शोषण करने लगेंगे।’

‘देवी, मैं तुम्हारे विचार से सहमत हूँ। इस वर्ग को पढ़ने- लिखने से प्रथक किया जा रहा है। ये लोग कहने लगे है कि तुम्हे पढ़ लिख कर क्या करना है हम तो हैं , तुम्हारी चिठठी-पत्री का काम चलाने के लिये। यों इन्हें अन्धेरे में घकेला जा रहा है । ये है तो उन्हीं के सगे भाई-वन्धु किन्तु स्वार्थ की आड़ में कोई किसी को नहीं देख रहा है। सब अपनी- अपनी रोटीं सेकने में लगे हैं।

वे बोलीं-‘ अरे! कुछ करना है तो पहले अपने घर का ही सुधार लो। यह भी बटने की कगार पर आकर खड़ा है। मुझे लगता है हमारे बच्चे अपने- अपने वर्ग में रहने के लिये जाने को आतुर हो रहे हैं।

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