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जूते.

जूते

कितना वक्त गुजरा होगा ! अंदाज से लगभग पचास साल के ऊपर। लेकिन सड़क पर खुलते छज्जे पर तरतीब से रखे गमलों के हरे—पीले रंग और उनमें छोटे—छोटे पौधों में खुलते और खिलते खुशबुओं के फूल और किनारे पर रखे बड़े गमले से निकली गहरे हरे रंग की लचकदार बेल जिसने आगे और आगे बढ़कर छज्जे को आधे से ज्यादा ढाँक लिया था, सरपट चाल छत की ओर भागती उसकी नसों की चमकीली चमक आज भी इस कदर याद है जैसे कोई सा मौसम हो, आस्मान में घटाटोप बादलों के बीच रह—रह कर कांपती बिजली की उजली रेखायें कभी जे़हन से नहीं मिटतीं।

अब वहाँ कोई नहीं है।

लेकिन एक वक्त वह मेरी चाची और इस्माईल चाचू का घर था। सावले रंग के दुबले—पतले चाचू के होठों पर महीन कटारदार मूछें बढ़िया लगती थीं। एक खासियत उनके जूतों की थी, जोर से पैर रखते वक्त उनमें से सधी हुई आवाज निकलती..… सिप्प..सप्प...सप्प..… सिप्प..सप्प...सप्प....… जैसे ज़मीन पर धीमे धीमे नन्हीं बदकें चली जा रही हों। चाची के पास ऐसा कुछ नहीं था। वे प्रायः नंगे पॉँंव रहतीं। काले दुपट्टे में गोरी दमक से लबरेज, सकुचाई सी चाची के मुॅंह से हमेशा पान और किमाम की उड़ती—उड़ती खुशबू आती और आचल में से छन छन छनकती अपनेपन की सोंधी गंध।

मेरे घर के ठीक सामने लेकिन थोड़े तिरछे बने हुये मकान की पहली मंजिल में रहते थे। सड़क से सीधा एक जीना तड़—तड़ उपर को जाता और वहॉँं खुलता जहाॅँं गुजराती झूले में बैठी चाची ज़रदोजी का कोई अजूबा काम कर रही होतीं। रंग—बिरंगे धागों की अधखुली गुच्छियॉं, चिकने चमकीले तार, तरह तरह की छोटी बड़ी रंगीन टिकलियॉं और भी न जाने क्या क्या अल्लम—गल्लम जिनके बीच बैठी व्यस्त चाची की अभ्यस्त उंगलियाॅँं और अनुभवी ऑंँखें किसी दुर्लभ और दिलचस्प कारीगरी में तल्लीन होतीं। उनकी पीठ ही मेरी आहट पहिचान लेती। वे हाथ का काम परे सरकाकर उठ खड़ी होतीं और हौले से कहतीं :—‘ आ जा मेरी मीठी, आ जा मेरा मिट्‌ठा....'

मुझे मिट्‌ठा कहने पर ऐतराज़ नहीं था लेकिन मीठी कहना बिलकुल नहीं सुहाता। आखिर अब मैं बड़ा हो गया हँॅँूं। लड़का हूँॅं। इस जुलाई से आठवीं की जमात में बैठूॅँँंगा। पर चाची समझती ही नहीं। वही पुरानी रट लगाये रहतीं। कई बार कहा लेकिन हॅँंँसतीं।

कहतींः—‘ अभी कहॉँँं बड़ा हो गया है रे तू, जब वाकई हो जायेगा, गबर शेर तो ढोल बजबाउॅँंगी, धूम—धाम से तेरी शादी करुॅँंगी और फिर तेरी दुल्हन को मीठी कहकर बुलाऊॅँंगी...ओ मीठी बहू ...हा... हा...हा... तब तक तू ही मेरी मीठी और तू ही मेरा मिट्‌ठा........।' और देर तक हॅंँसती रहतीं। तभी कहीं से चाचू आ जाते। चाची से हॅँंसने का सबब पूछते। चाची मेरी सारी कैफियत बयान कर देतीं।

‘ देखो तो इस लड़के का हाल, कहता है कि बड़ा हो गया हूँ !'

चाचू भी संजीदगी से शामिल हो जाते।

‘ अमॉं यार, मैं भी तो देखूॅँं, किस तरह बड़े हो गये हैं आप.....'

फिर मेरा चेहरा उठाकर घुमा—फिराकर मुआयना करते।

‘.... चश्मेबद्‌दूर, .... बरखुरदार, चेहरा तो वही पुराना लगे है, लड़कियों जैसा, अलबत्ता नाक जरुर पकौड़े जैसी मोटी हो चली है। यार, तुम्हारी तो मूछें भी नहीं निकली। खुदा जाने लड़की हो या लड़का, कुछ समझ में नहीं आता.....'

इस पूरे वक्त मैं गुनहगार की तरह बैठा रहता और फिर धीरे धीरे आॅँंख से आॅँंसू टप्प टप्प निकलने लगते।

‘ ऐल्लो.. आपने तो मेरे बेटे को रुला दिया। न..न.. रोते नहीं। कौन कहता है कि लड़की है। अल्ला देखे, अव्छा खासा लड़का है। ये हाथ—पैर नहीं दिखते, कैसे मजबूत, बिलकुल लोहे जैसे, फुटबॉल खेलता है तो अकेले छह गोल मारता है। है न..। मेरा राजा बेटा.. मेरा सोना .. मेरी... मतलब मेरा मिट्‌ठा...........।'

चाचू हॅँंसते और हमें हुमकता—झुमकता छोड़ धीरे से सीढियॉं उतर जाते।.

उनके जूते देर तक बजते रहते .....सिप्प..सप्प...सप्प....सिप्प..सप्प..सप्प.....। और फिर मैं चाची से कसकर जुर्माना वसूलता।

———

उस घर में जो कुछ था, सब मेरा था। उस घर में और कोई नहीं था। चाचू सुबह दस बजे जाते तो शाम के बाद ही आते। हाॅँं, इतबार को जरुर पूरे दिन भर घर में रहते लेकिन या तो साफ—सफाई में उलझे होते या अल्मारियों के करीब खड़े होकर कागज रखते—गिराते मिलते। उन्हें एक शौक और था, मुर्गा पकाने का। जब से वे पकाने का काम शुरु करते, मैं ललचाये कुत्ते की तरह वहीं बैठा रहता। जो काम बताते, फौरन हुक्म बजा लाता। तब मुझमें बला की फुर्ती, गजब का जोश। आखिर मुर्गे का मामला था।

उस घर में बच्चे नहीं थे, क्यों नहीं थे ?, कहॉंँ गये ?, चाचू कहाॅँं जाते हैं ?, क्या काम करते हैं ?, वगैरह वगैरह की ना मुझे जानकारी थी और ना ही दिलचस्पी। बस इतना ही मेरे लिए जरुरी और महत्वपूर्ण था कि यह घर पूरा का पूरा मेरा है। यहाँ और कोई नहीं। कोई रोक—टोक नहीं। मेरा हुक्म चलता है। यहॉँं...सिर्फ मैं ..और मैं ही मैं...। उस घर में हमेशा कुछ न कुछ पकवान खास तौर पर मेरे लिये बनते और सुरक्षित रखे जाते। उन दोनों का प्यार और घर पर अधिकार मेरे लिये ऐसी सौगात और सम्पति थी जिसके बल पर फुदकता हुआ मैं अपने आप को खास चीज समझता था।

लेकिन साथ साथ, कुछ ज्यादा ही चौकस—चौकन्ना रहता और हरदम इस जुगत में भिड़ा रहता कि मेरे दूसरे भाई—बहिन इस घर में घुसने न पावें। एक बार देखा कि चाची झूले पर बैठी छोटी बहिन नन्हीं की चोटी कर रही थीं। वहाॅँं तो कुछ नहीं बोला लेकिन उसे बहाने से बाहर ले जाकर खूब पीटा। यह सब करना जरुरी भी था। दरअसल मेरे घर में सात भाई—बहिनों का जमावड़ा था। चार भाइयों में तीसरे नम्बर पर मैं और बीच बीच में बहिनें घुसी हुईं। दिन—रात लड़ाई—झगड़ा और मार—पीट होती रहती। कुछ शिकायत करो तो बाबू अलग मारें और अम्मॉँं अलग। अपने इस घर में, चाची के पास अव्छा लगता। लेकिन वो मुझे खास तवज्जो देतीं तो सभी मुझसे जलते। कोशिश करते कि चाची की गोद में उनका भी आना—जाना हो। इसके लिये झूठ—मूठ की बातें रचते। मेरी चुगली लगाते। मुझे बेहद गुस्सा आता। एक तो घर में इज्जत नहीं। कोई पूछ—ताछ नहीं। अब कहीं कोई जगह मिली है तो सभी ठसने लगे। ऐसे में मेरे घर में सभी घुस जायेंगे तो मैं बाहर मारा—मारा फिरुँंगा। सड़क पर बाहर। नहीं जी। मेरे सिवाय यहाॅँं कोई नहीं आ सकता। किसी तरह चाची को बता दिया। वे सब्जी छोंक रही थीं। छोंकती रहीं। कुछ न बोली । सिर्फ बोली :—‘...पागल कहीं का....'। और पतीले में डाल दी। ठीक है। पागल हॅूंँ लेकिन अपनी चाची का हॅँूं। यहॉं कोई दूसरा पागल नहीं आ सकता।

मेरे अलावा उस घर में एक और था जो साधिकार रहता था। बालकनी में छोटे मिट्‌ठू का पिंजरा टॅंँगा होता। वह मनमौजी था। मुझे बहुत प्यारा लगता। मेरे अचरज में यह कि उसे मिर्च खाने का बड़ा शौक था। जब खुश होता तो किलक किलककर राम—राम चिल्लाता। जब नाराज़ होता तो घुटी घुटी सी ऐंठी आवाज में चाची—चाची चीख चीखकर आस्मान सिर पर उठा लेता।

चाची कहतीं :—‘ मरा कभी अल्ला अल्ला नहीं कहता !'

चाचू हॅँंसते :—‘ शुकर है कि परिन्दों को इस झंझट से कोई वास्ता नहीं। जो रटा दो। कयामत तक चिल्लाते रहेंगे। दरअसल चहचहाना ही उनका मजहब है जैनब, इसे अल्लाह ही बेहतर समझते हैं, हम तुम नहीं। अब तुम चाहो तो मार—पीट कर इसे भी अल्ला अल्ला चिल्लाना सिखा दो तो उससे क्या होगा....।'

—‘ तौबा तौबा, ऐसा कुफर क्यों करुॅँं मैं ! जिसका जो दीन, उसे वही सुहाये, अल्लाह सब पर रहमत रख्खे......'

चाचू हमेशा की तरह हॅंसते हुये सीढियॉं उतर गये। सिर्फ उतरती आवाज आती रही ........ ...सिप्स......सप्प........सप्प.......सिप्प.......सप्प.......सप्प.........।

———

यूंँ तो बाबू गहराती शाम के पहले कभी घर नहीं लौटते। लेकिन उस दिन दोपहर को ही आ गये। यह अकस्मात्‌ था। सीधे कमरे में गये। ताबड़तोड ़काला कोट और टाई एक तरफ फेंकी। और चिल्लाये —‘......अम्माँ ...'.

हमारे यहां बाबू और अम्माँ एक दूसरे को अम्मांँ और बाबू कह कर ही बुलाते। बस थोड़ा सा फर्क यह कि बाबू कभी बुलाते नहीं, हमेशा चिल्लाते—‘.....अम्माँ ...'।

इस बार उनकी आवाज में ख़्ाासी थरथराहट और चेहरे पर बदहवासी थी। जल्द ही सभी भाई—बहिनों को खोज—खोजकर भीतर बुला लिया गया और बाहर ना जाने की सख्त ताकीद की गई। हम सभी सकते में आ गये। शाम आते तक हालात की परेशानियाँॅंंं और सरगर्मियाँं बढ़ गईं। बाबू बहुत नाराज थे, लगभग बौखलाये हुये और अम्मांँ चिन्तित। थोड़ी देर में बाबू बाहर निकले। फिक्र में डूबी अम्माँं दरवाजे पर ही खड़ी रह गइर्ं। लौटकर उनके साथ चाची और चाचू थे। वे दोनाें भी काफी हैरान—परेशान थे। चाचू बार—बार इंकार में सिर और हाथ हिलाते। चाची रोने लगतीं। उन्हें देखकर मैं बहुत खुश हुआ। लेकिन माहौल की संजीदगी और बोझिलता ने मेरे सारे उत्साह पर पानी फेर दिया। उनकी परेशानी का सबब नहीं जान पाया। तब तो और भी नहीं जब वे दोनो ऊपर वाले कमरे में चले गये। पीछे बरामदे में लालटेन की पीली रौशनी में बाबू और अम्माँं देर तक बाते करते रहे। बाबू लगातर सिगरेट धौंक रहे थे और अम्मांँ बार बार पहलु बदलतीं और पानी पीतीं।

रात के सन्नाटे में अजीब सा कोलाहल था। कभी पास और कभी दूर सुनाई पड़ता। लोगों के भागने की आवाजें। कुत्तों का भौंकना। सीटियाँं। फिर खौफनाक सन्नाटा कि तभी उसे तोड़ती कोई एक चीख। हम सभी भाई बहिन एक ही कमरे में चिपक कर पड़े थे। आॅँंखों में दूर दूर तक नींद नहीं थी। सभी भयभीत थे। आज किसी ने ना स्कूल की बातें बताई, ना कहानी सुनाई, ना पहेलियाँ बूूझीं और ना ही मार—पिटाई की। फुसफुसाते हुये ऐसी ऐसी बातें कही—सुनी जा रही थीं जो हैरत—अंगेज और दिल दहलाने वाली थीं। हालांकि किसी को कुछ भी पता नही था, सब कुछ अलल्‌—टप्पू लेकिन शंका और विश्वास एक साथ मिले—जुले और इतने जबर्दस्त कि लगता कि ये ना हुआ हो और वो नहीं हो सकता लेकिन फिर भी कहीं तो कुछ ज़रूर हुआ है। जो हुआ या हो रहा है, वह सब गलत हो रहा है। लेकिन किसी पर हम में से किसी का कोई बस नहीं, सो रोना भी आ रहा था लेकिन कोई रो नहीं रहा था। शायद भीतर कोई ‘एडवेंचर' का हौल भी उठ रहा था। मैंने महसूस किया कि सबके भीतर डर के साथ साथ डरने और डराने की इव्छा, आश्चर्य में डूब जाने की इच्छा, कोई अनहोनी घट ही जाने की इच्छा और ऐसी ढेर सारी अजीबोगरीब इव्छायें और और उनकी तड़फ मन की भीतरी अतल तहों में एक अजीब उद्वेग और उत्कंठा के साथ गड्‌ड—मड्‌ड थीं। बचे रह जाने का सुख और/या बचे रहने की जिजीविषा गहरी नींद सुला देती है। इस तरह हम उस रात सोये।

सुबह पता चला कि शहर में हिन्दु मुस्लिम दंगा हो गया है। ऊपर गया तो देखा चाची अभी रो रही थीं और चाचू हैरान परेशान, कमरे में परकटे परिन्दे की तरह भटक रहे थे। चुपचाप नीचे उतर आया। बाहर जाने पर कड़ी मुमानियत थी। घर में इस कदर मनहूसियत और बोरियत कि इस उमस से उकताकर मैं पीछे की छत की मुंडेर पर पैर लटकाकर बैठ गया। मन के अपार सन्नाटे और खालीपन में खुद को एक पत्थर की तरह फिंकते और सनसनाते हुये मैंने महसूस किया। यह भयावह था। पिछली गली से सटी पहाड़ी और उसके पार मैदान और उसके आगे तालाब के कुछ—कुछ दिखते और झलकते पानी में खुद को डुबोने की नाकाम कोशिश करने लगा। तभी किसी ने सीटी बजाई और एक कंकर छत की मुड़ेर से टकराया। चौंककर देखा। रामदयाल, विजय, साधुराम, केशव। वे मुझे इशारों से बुला रहे थे। मेरे मना करने को उन्होंने बुजदिली करार दिया और हुज्जत भरे अस्फुट स्वरों में उलाहने देने लगे। दोस्तों में इज्जत का सवाल था। मैं धीरे से छत से छप्पर पर पैर रखकर आहिस्ता आहिस्ता पिछली दीवार तक पहुंँचा। एक लौटती चोर नजर ऊपर डाली। कोई नहीं था।

धम्म्‌ से गली में कूद पड़ा। बायां घुटना छिल गया। लेकिन दोस्तों के उछलते फुसफसाते उत्साहित घेरे में वीर नौजवान की तरह उठा। कहीं कोई रोक नहीं थी। सभी ओर दौड़ते भागते मस्ताते गर्राते चीखते चिल्लाते लोग। आतंक और डर में से अब एक मजा उपज रहा था। उत्साह, उत्कंठा और कौतुहल में तेजी से उनके साथ बाजार की ओर भागा।

कटरा बाजार में हुड़दंग का माहौल था। ऐसा कभी नहीं देखा था। कई जगह आग लगी थी। लोग झुंडों में घूम रहे थे। नारे लगा रहे थे। इतना शोरगुल कि चीखने—चिल्लाने में गला बैठा जा रहा था। ऊपर चटख गहराता और निस्पृह आस्मान था। नीचे आदमी आदमी को रौंदता हुआ, कहीं भागता हुआ, किसी को बुलाता हुआ, पटकता हुआ, रोता हुआ। गाली—गलौज से गली बाजार पटा हुआ था। दुकानों के दरवाजे तोड़े जा रहे थे। लोग भीतर घुसते, सामान तोड़ते और बाहर फेंकते। उन्माद के आनंद और उत्तेजना के ये हाल थे कि नये बाजार में एक लुटती दुकान के पास खड़ा मोटा अधेड़ सिंधी बदहवास चिल्ला रहा था........

‘ सालो, मत लूटो... दुकान मेरी है मेरी....मैं हिन्दु हॅूंँ हिन्दु..........'

लेकिन लोगों को अब ना फिकर थी, ना कुछ खबर। वे अनसुनी करते हुये बदस्तूर लूटे जा रहे थे। मैंने उसे देखा। उसकी आॅँंखों में दिल हिला देने वाली नफरत, गुस्सा, आतंक और बेबसी थी। उसने मुझे देखते हुए देखकर एक जबर्दस्त गाली दी। मैं भागा। दिल डर रहा था। घबड़ाया हुआ भी। उस डर को स्वछंदता के अराजक माहौल में अपनी चीख—चिल्लाहट से दबाता हुआ मैं दोस्तों के साथ हो लिया क्योंकि उनका डर सबसे ज्यादा था। जल्द ही एक अजीब दहशत के स्वाद में गिरफ्त हम साड़ियों की अधजली दुकान में दाखिल हो गये। चारों ओर कपड़े ही कपड़े। छोटी छोटी लपटों में से सिर झुका कर जलते थान और जली हुई गंध में सुलगते बंडल। लोग देखकर पागल जैसे कोई खजाना। खुल जा सिम सिम। और हम हैरान, ललचाये, हड़बड़ाये लेकिन उन्माद और आवेश में उतावले। लोगों की छीना झपटी चल रही थी। हमें जली कटी साड़ियों को उठाने में मजा नहीं आया। हम वापस मुड़े। जमुना हलवाई की दुकान से सीधे कोतवाली को ऊपर जाने वाली रोड पर कई दुकानें लुट रही थीं। उनमें से एक दुकान जूतों की थी। केशव ने उस तरफ इशारा किया। हम सब सरपट दौड़े। लोग दुकान से डिब्बे निकालकर लाते और गलियों में गुम हो जाते। मेरे जूते पुराने और घिसेपिटे थे। केशव के पास तो पुराने भी नहीं थे। और अब सामने जूतों का विशाल भंडार था। सब ओर जूते ही जूते। जैसे कोई सपना सच में सामने आ गया हो। मुझमें बिजली की लपक पैदा हुई। भीतर घुसा। बदहवासी में जूतों के दो डिब्बे हाथ लगे। एक केशव को थमाया। वापस घर भागते मेरी बाजू में एक डिब्बा था।

किसी तरह छत से घुसा। दिल धक धक कर रहा था। पिछले क्षणों का उत्साह और उत्तेजना नदारद थी। अब डर के अलावा एक गहरे अवसाद में मन डूबता जा रहा था। बीच के कमरे में कोई नहीं था॥ रसोई में अम्माँं और चाची थी। चाचू और बाबू की कचहरी में थे जिसके दरवाजे बंद थे लेकिन बाबू के चीखने चिल्लाने और चाचू के समझाने की आवाजें साफ आ रही थी। दबे पॉंव ऊपर गया। जल्दी जल्दी डिब्बा चाची की संदूक के पीछे छुपा दिया और ऊपरी छत पर पहुँंच गया जहाँं इकट्‌ठे सभी भाई बहिन डर के मारे शोरगुल कर रहे थे। तेज धूप में आस्मान जल रहा था। कई दिशाओं से धुंअांँ का हुजूम उसे गंदला कर रहा था। तीखी और तल्ख आवाजों मेेंं अब गोलियों के धमाके भी शामिल हो गये थे। सड़काें पर भागदौड़ बदस्तूर थी। पीछे तालाब में पानी शांत और ठहरा था। हमेशा छत पर एक से दृश्य दिखाई देते थे लेकिन आज छत पर तस्वीर के दो अलग अलग रुख थे। ऊपर आकाश में जहाँ सबके देवता रहते थे, वहाँ हवा में बारुद की तेज गंध थी। मुझे जोर की भूख लगी। नीचे रसोई में उतर गया।

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शाम तक सोया रहा। जब उठाया गया, रात हो रही थी। खाना खाया। फिर सो गया। न जाने क्यों मेरा दिल गिरा हुआ था। किसी के सामने जाने या नज़र मिलाकर बात करने की ना हिम्मत थी और ना हौसला। बार बार दिमाग में बाज़ार की वही पूरी दृश्यावलि खिच जाती और बार बार आँंखों के आगे एक डिब्बा झूल रहा था।

अगली सुबह देर से जागा। माथा अभी तक भारी था। बालकनी से झांका तो आंगन ने भी मुझे प्यार से नहीं देखा। नीचे चाचू बेहद परेशान चहलकदमी कर रहे थे। बार बार बाहर जाने का इसरार करते। उतनी ही बार बाबू उनके पैर पकड़कर, हाथ जोड़कर घर में ही रहने की मिन्नत करते। पहली बार मैंने बाबू को इस रूप में देखा। वरना धधकती आग को पकड़ना आसान है लेकिन बाबू की लपट के सामने रुक पाना किसी के वश में नहीं।

‘इस्माईल, समझते क्यों नहीं। फसाद अभी भी खत्म नहीं हुआ है...कलेक्टर की अपील और पुलिस के रूट—मार्च से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। बदमाश लोग अभी भी ताक में हैं...सब को शह है, सपोर्ट है...बाहर निकलोगे ...कुछ भी हो सकता है, ..अभी भी खतरा है.........'

‘...मैं बर्बाद हो गया भाईजान, कहीं का नहीं रहा। जो कुछ बचा—खुचा है उसे अभी समेट लॅूँं तो भी गनीमत है वरना कुछ हाथ ना लगेगा...आप ज़ज्बात के बज़ाय हालात पर गौर करें....'

‘..ज़ज्बात नहीं हालात की ही बात कर रहा हॅँूं...चोर पुलिस से लेकर हर प्रकार के बदमाशों को खूब जानता हॅूंँ मैं... रोज कचहरी में इन्हीं सब से पाला पड़ता है.....सब की भीतरी सांठ—गांठ होती है......मेरी मानो, खतरा अभी टला नहीं है...बाहर निकलोगे...अब क्या बताऊँं भैया..बस मेरी मान लो...दो दिन रुक जाओ..'

‘...मैं बर्बाद हो गया, मेरा क्या होगा...'

और चाचू सुबक सुबककर रोने लगे। बाबू उनकी पीठ एक हाथ से सहलाते हुये न जाने किन्हें बेपनाह गालियॉं देने लगे। रसोई में चाची प्याज काट रही थी। यकायक उन्होंने बायें कंधे पर सिर डाला और हिलक हिलककर रोने लगीं। मुझे बहुत बुरा लग रहा था लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँं, क्या कहॅँूं ! चुपचाप छत पर चला गया। कल की तरह आस्मान से धूप बरस रही थी। लेकिन आज, चाराें ओर शहर वीरान और मुर्दा। ना कहीं कोई लोग, ना आवाजें। जैसे कोई टोना मार गया हो। भुतहा शहर वीभत्स और डरावना लग रहा था। डर के मारे वापस लौटा और चाची के कमरे में उनके पलंग पर सो गया।

................

दोपहर का वह कोई सा वक्त रहा होगा, अंदाज नहीं पड़ता। नींद से धीरे धीरे जागते हुये हल्की आवाजों की सरगोशियाँं कान के पास इकठ्‌ठा हो रही थी। कुछ भीतर जाती। कुछ अटक जाती। कुछ खो जाती। नींद की धुंध में चाचू की धीमी आवाज धीरे से उभरी।

'....देखा जैनब, अपने इन साहबजादे का कमाल। डूबा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल...' .

‘खुदा के लिये भाई जान से ना कहियो। बावेला मचा देंगे, उनका गुस्सा ...........,'

चाची की मिन्नत भरी फुसफसाती आवाज में कहीं कोई आँंसू भी थे।

‘कौन कमबख्त कहेगा, छोड़ो, मै तो तुम्हे बता रहा कि गलत नम्बर का जूता उठा लाया है.....

मेरी फूंक सरक गई। नींद में जैसे किसी ने झन्नाटेदार थपाड़ा मारा हो। उठने की हिम्मत नहीं हुई। कान जगाकर कुहनियों में से देखा। चाचू उसी डिब्बे का बाहर भीतर से मुआयना कर रहे थे। उनके होंठ टेढ़े मेढ़े हो रहे थे। बार बार खांसते और नाक पर चश्मा संभालते उनका चेहरा अजब ढंग से काॅँंप रहा था।

‘.......आठ नम्बर का जूता उठा लाया कमबख़्त। इसके बाप तक को नहीं आयेगा। भले आदमी तरीके से लूटना तो सीख ......... मेरी दुकान का ही है, अब की बदल कर ले आऊँगा। इसके जूते भी तो पुराने हो गये .......मुझे ही याद नहीं रहा...चलो, यूँ ही सही....अल्ला अल्ला ख़ैर सल्ला........'

एकाएक मुझे न जाने क्या हुआ। मेरा खुद पर बस न रहा । इतने समय से जो अवसाद, ग्लानि और आक्रोश मन के भीतर उमड़—घुमड़ रहा था, तेज झोकाें के साथ बाहर निकल पड़ा। मैं हिचकियांँ दे देकर जोर जोर से रो रहा था। चाचू अवाक्‌ देख रहे थे। चाची ने मुझे गोद में झुमा लिया और सहलाने लगी।

‘.....देखो, मियां, बड़ा हो गया है न मेरा राजा बेटा। ..... मेरा मिट्‌ठा ...'

चाचू उठे। चुपचाप सीढ़ियाॅँं उतर गये। कोई आवाज नहीं हुई। शायद उनके पैरों में जूते नहीं थे।

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