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हीरों का हार

हीरों का हार

श्रीमती अरुणा पॉल समझदार महिला हैं। न केवल अक्ल में बल्कि शक्ल में और उसके भरपूर रखरखाव में भी। वे हर बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करतीं। नतीजन, अपने छोटे से शोभित मुख से उसे जोड़कर उतनी ही विलक्षण हँसी को मेकअप के साथ एडजस्ट करती हुई मीठा—मीठा बोलतीं। उनको यह कमाल हासिल है कि नृशंसता और क्रूरता की भयावह घटनाओं पर भी वह इत्मीनान के साथ, मधुरता से बतिया लेतीं और चहुँ—ओर वाहवाही की मंगल—ध्वनियों के मध्य यह अचरज सुना—पढ़ा जाता कि उन्होंने अपने विचार दृढ़तापूर्वक, दुःखपूर्वक, मंद—मंद मुस्करा कर प्रस्तुत किये।

श्रीमती पॉल हमेषा कहतीं कि यह सब गहरे अभ्यास और लम्बे अनुभव से आता है जिससे जीवन में यश चौड़ा होता चलता है। यश से संतोष की रिमझिम बरसात होती है और बरसात से सुख—षांति के जलाषय भरते हैं जिसके किनारे चाँदनी रात में आराम से तकिया लगाकर सोने में बड़ा मजा आता है।

इस सुखद ज़िन्दगी में निरंतर धन्यवाद पाने के कारण दो बच्चों के बाद भी सुखी और सुगंधित दिनचर्या व्यतीत करने वाली अरुणाजी अब तक जवानी की दहलीज पर ठिठकी हुई खड़ी हैं। समय जिसे सभी कोसते हैं, उस कम्बख्त ने उन्हें ऐसा कोई धक्का नहीं मारा कि वे अधेड़ावस्था की कीचड़—खाई में गिरी—पड़ी हों, बल्कि समय ही अपनी बेनूरी और बेवकूफी पर हजारों बरस से रो रहा है। श्रीमती पाल कहती हैं कि जब उनका विवाह हुआ, वह बहुत ख़्ाुष थीं। होना भी चाहिए था, आख़्िार श्री पाल जिनका पूरा नाम किसी को नहीं मालूम, आभिजात्य परिवार की रतनमाला के बेषकी़मती हीरे थे। तपाक से हाथ मिलाना और ज़रूरत पर ही मुस्कुराना। अमेरिका की सरकार से लेकर रावतपुरा सरकार तक और इंडिया की ग़रीबी से लेकर जापान की अमीरी तक बीच में जितनी अंट—संट ऊटपटांग बातें आती हैं, उतनी पर धाराप्रवाह आत्म विष्वास और आत्म—गौरव से अंग्रेजी में बोल लेते, लेकिन यह सब गुण दो कौड़ी के होते यदि उनके व्यिंक्तत्व में इस बात से चार चाँद ना लगे होते कि वे एक नामी—गिरामी बैंक में उच्च पद पर आसीत हैं।

निष्चय ही रो—धो कर किसी तरह बी.ए. पास करने वाली कुमारी अरूणा पिता, परिवार, पॉवर और पूंँजी की भरपूर मदद से एक झटके में बड़े अफसर की बीबी बनीं तो सोसायटी के हाई सर्किल में गुणवंती मैना की नांई चहकने लगीं। अब हाई सोसायटी में जहाँ एक ओर भारतीय संस्कृति और परम्पराओं का अनुपम पालन करना अनिवार्य है, वहीं दूसरी तरफ आधुनिक और प्रगतिषील विचारों का चेहरा बनाए रखना ज़रूरी होता है। जरा सी टेढ़ी—तिरछी बात होने पर दकियानूस या फैषन की पुतली होने का आरोप तड़ से लगाया जाता है। इसलिए क्लब में करवा—चौथ की पार्टी में पति—मंगल की आरती भी गाना पड़ती है और लिव—इन रिलेषनषिप तथा स्त्री—मुक्ति पर फर्राटे से बात भी करना होती है। लेकिन आप इन वैचारिक उलझनों में मत पड़िए। फिलहाल श्रीमती अरूणा पाल को ध्यान से सुनिये जिन्हें लाख झंझटों में रहते हुए भी कोई झंझट नहीं है। .......

श्रीमती पाल हमेषा कहती हैं कि षादी के षुरूआती दिनों में बड़े घरों को सुहाती परम्परागत मौज—मस्ती के बीच वे अनायास एक गहरा असमंजस महसूस करने लगी थीं। अखबारों आदि से प्राप्त धारणाओं और सखी—सहेलियों के मध्य चलती बातों से उनका अडिग टाइप का विचार बना कि पति—पत्नी का रिष्ता समानता की बुनियाद पर और परस्पर विष्वास और सम्मान का सुमधुर संबंध होता है। इसके लिए उन्हें बैलगाड़ी के दो गोल और समान पहियों वाला उदाहरण बहुत मन—भाता जिसे स्कूल और कॉलेज की वाद—विवाद प्रतियोगिताओं में गले की नसों को भींच—भींच कर करारी आवाज़ में उन्होंने चीख—चीख कर चौतरफा फैलाया था इस कदर कि आज भी उन इमारतों के खिड़की—दरवाजे स्त्री—विमर्ष की जरा सी आहट पर बुरी तरह खड़—खड़ खड़कते हैं। बाद—बाद में भी यह उदाहरण सिद्ध—मंत्र की तरह उनकी जीभ की अग्रनोक पर कुंडली मार कर बैठ गया।

हालाँंकि बैलगाड़ी उन्होंने षायद ही देखी हो लेकिन उसके लिए यहाँ—वहाँ के फोटो आदि ही पर्याप्त थे। मूलतः वे कार ही चलाती हैं लेकिन कार की मिसाल देना उन्हें पसंद नहीं आया क्योंकि उसमें चार पहिये और एक स्टेपनी होती है जो होते तो एक से हैं, सिर्फ इस्तेमाल अलग—अलग मौकों पर अलग—अलग होता है। यह अच्छी उपमा नहीं थी सो भले ही बैलगाड़ी पुरानी, डर्टी और फैषन के तौर पर वाहियात मानी जाती हो लेकिन भारतीय संस्कृति के आदर्षों में वह आज भी सुरक्षित और सरपट चल रही है। अलबत्ता सुषिक्षित सुमुखी कान्वेन्टी महिलाएँ उसे ‘बेलगॉडी' कहती हैं और इतना सँभलकर बोलने के बाद भी हौले से हाथों में भिंचे रूमाल से होठों की लिपस्टिक सँवार लेना नहीं भूलतीं जो ऐसे बेहूदा देहाती षब्दों के उच्चारण से हमेषा बिगड़ जाती है।

श्रीमती पाल हमेषा कहती हैं कि उन्हें भारी दुःख है कि इन सिद्धांतों की भारी—भरकम सार्वजनिक स्वीकृति के बावजूद पुरुष—प्रधान बर्बर समाज में स्त्री की स्थिति पर लगातार मारक प्रहार किए जा रहे हैं। इसमें कोई षक नहीं कि पति कितना ही षरीफ और षालीन हो तथा दाम्पत्य—जीवन में घिघियाकर रहता हो, अंततः खोल के भीतर तो वह एक मर्दनुमा जानवर ही है। कांजी—हाऊस में लाख बंद होने पर भी उस पर सख़्त निगरानी रखना सुखमय जीवन का अहम तकाजा है। प्रेम का सागर चाहे जितना भी मधुर—मधुर लहराए लेकिन उत्तुंग लहरें किनारा तोड़ने का मौका नहीं चूकतीं। भला कौन भला आदमी इस तूफान से टकरा सकता है .........? ?

वट—सावित्री पूजन के परम पुनीत अवसर पर क्लब में आयोजित धूम—धड़ाका डिस्को पार्टी में उन्होंने पाया कि उनके पति किसी आकर्षक युवा—महिला के साथ नृत्य करने में अधिक और उसे रिझाने में अधिकतम रुचि ले रहे हैं। उनके भीतर गुस्सा दबाव दे देकर भरने लगा। घर वापसी के समय वे उन पर फट पड़ीं। श्री पाल यूं तो संजीदा आदमी थे लेकिन कुछ पलों की मादक सोहबत के असर और चार पैग स्कॉच ने ऐसा गुल खिलाया कि वे भी आपे से बाहर हो गए। बँधी नालियाँ फूटीं और बीच सड़क पर बजबजाने लगीं। एक—दूसरे पर आरोपों—प्रत्यारोपों के हमले होने लगे। बीच—बीच में कार को ऐन वक्त पर ब्रेक न लगाये जाते तो दोनों लड़ते—झगड़ते अस्पताल में भर्ती पाये जाते। घर लौटकर भी गुस्सा कम नहीं हो पा रहा था। श्री पाल भी अंग्रेजी में तुर्की—ब—तुर्की बोले जा रहे थे जिससे श्रीमती पाल को रोना आ रहा था। लेकिन इस वक्त रोना समानता की लड़ाई में कमजोरी होती जो उन्हें किसी कदर गवारा नहीं थी, इसलिये वे अपनी वाणी की स्वाभाविक कर्कशता को धारदार बनातीं दूने वेग से बोलती रहीं।

इस झगड़े को श्री पाल ने दफ्तर की एक मामूली फाइल समझा और पलटकर सानंद निष्कंटक सो गये। तनिक देर में उनके नियमित खर्राटे शुरू हो गये। लेकिन श्रीमती पाल पढ़ी—लिखी और जागरूक महिला थीं। उन्हें रात भर नींद नहीं आई। शिरायें जल रही थीं। इस कदर बेवफाई और बदतमीजी के बर्ताव को बरदाश्त नहीं कर सकती थीं। इस अन्याय और गैर—बराबरी के खिलाफ मुंहतोड़ जवाब देने के विभिन्न ड्राफ्ट मन में जोड़ती—घटाती रहीं। अंत में कठोर निर्णय ले चैन से सो गईं।

सुबह मम्मी को पहला फोन कर निर्णय सुना दिया। यद्यपि दिल में वही गुस्सा उबल रहा था और आँखों में आँंसुओं की डबडबाहट भी उसी अनुपात में, लेकिन अन्याय की पुरजोर खिलाफत उनकी आवाज़ को जोष दिला रही थी।

— 'ओफ्फ, सुबह—सुबह क्या फालतू पुराण लेकर बैठ गई, ...बेवकूफी की बातें मत कर... अरे सुन... तुझे बताने के लिये मैं कल से उतावली हूँ... तनिष्क ने हीरों के हार की नई डिजायन पेश की है... आजादी की स्वर्ण जयंती पर स्वाधीन भारतीय नारियों को अनुपम सौगात...'

उस तरफ मम्मी थीं।

इस तरफ श्रीमती पाल।

— 'क्या वही मम्मी, जो अभी हाल में 'फेमिना' में छपा... स्त्री की आजादी का नया गोल—कीपर... हीरे का पेन्डेंट और लहराता नैकलेस...'

— 'अरे, उसे कौन कमबख्त नैकलेस कहता है, वह गला काटता नहीं, गला सजाता है... और गोल कीपर........क्यों ?'

— 'हाँ गला गोल होता है न, इसलिये गोल—कीपर कहा... देखा, ऐसे गजब के शब्द पकड़ कर लाते हैं कि हिन्दी के दिग्गज लेखक भी मुँह बाये रह जायें......'

— 'हाँ री, लेकिन 'फेमिना' में एक ही मॉडल बताया। लेटेस्ट तीन मॉडल आये हैं... नम्बर वन डीलक्स मॉडल... छोटी नक्काशी में पतले घुंघरुओं वाला... नाम है ओजस्विनी... नम्बर दो पर है सुपर डीलक्स... गहरी नक्काशी में कैलकाटा स्टाइल... तेजस्विनी नाम दिया है... और तीसरा है सुपर—डुपर डीलक्स... नाम है वीरांगना... हाय लल्लो... सो क्यूट...'

— 'सच्ची... कहां देखा... कहां देखा... मिसेज बतरा के पास?'

— 'उंह, उस चुड़ैल की क्या बिसात... सोने का पतरा चढ़ाकर गहने पहनती हैं छछूंँदर, लेकिन हीरों की आंँख में कौन धूल झोंक सकता है... मैं तो बंगलौर के खास शोरूम में देखकर आई हूं... हाय रे लल्लो... देखो तो आँखें झमाझम हो जाती हैं... मालूम... उसमें मोर की चोंच में खूबसूरती से एक दमकता हीरा अलग से तराश कर लगाया गया है... और फिर छोटे—छोटे जुगनुओं की तरह चमकते हीरों की कतार...'

— 'बहुत महँगा होगा...!'

— 'तेरे आँंसुओं से तो सस्ता ही है... बेकार की बातों में समय बर्वाद मत कर। जा मुंँह धोले। चाय बना। रात की बात भूल जा। खुद पी और उसे पिला। सड़ी किताबों ने तेरा दिमाग खराब कर रखा है। जिंदगी जिल्द के बाहर होती है। यह समझना ज़रूरी है। मैं तेरे गले में वही हार देखना चाहती हूं लल्लो। बाद में फोन करूंगी। अभी तेरे पापा को भी चाय देना है... बुढ़ऊ बेचारे आवाजें लगाते—लगाते अब खांसने लग पड़े हैं...... पुअर चैप..... फिर बात करूंँगी ........बॉय...... माय बेबी...... बॉय........'

और फोन कट गया।

श्रीमती पाल बताती हैं कि उनके जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान उनकी मम्मी का रहा है। वे उनकी आदर्श हैं क्योंकि उनमें सिद्धांत और व्यवहार का अद्‌भुत संतुलन था। वे गहरे व्यक्तित्व की असरदार महिला थीं। कम बोलतीं। नपा—तुला बोलतीं। कोई नुक्स नहीं रहने देतीं। फायदा ही फायदा, यही उनका कायदा। वाहियात बातों और विवादों से परहेज रखा। तभी बड़े—पूरे घर को चला सकीं। पापा को हर प्रमोषन में सपोर्ट किया। पापा हमेशा उनकी सलाह लेते और पूरे अनुशासन में रहते। इसीलिए जिंदगी भर खुश और सुखी रहे। मम्मी ने सदैव नर—नारी की समानता और स्त्री—स्वतंत्रता पर सभा—सोसायटी में खुलकर अपनी बात रखी। समाज में प्रतिष्ठा अर्जित की। आज वे नहीं हैं लेकिन लेडीज क्लब में आज भी उनकी तस्वीर पर खादी के सूत की माला चढ़ाई जाती है।

श्रीमती पाल कहती हैं कि उस सुबह मम्मी ने मेरी आँखें खोल दीं। वाकई हम छोटी—छोटी बातों का बतंगड़ बनाकर अपना सुखी दाम्पत्य जीवन बर्बाद कर लेते हैं। रात की बात पर श्रीमती पाल ने पति से खुलकर चर्चा की। पहले तो वह कतराते रहे। लेकिन श्रीमती पाल के मीठे और धीरज भरे आत्मीय व्यवहार ने उन्हें घुटना—टेक कर दिया। चालीस पारकर अमूमन हर पति यहाँ—वहाँ मुँह मारने लगता है। कुंठित समाज में बच्चों के पालन—पोषण में कमी और दूषित सरकारी षिक्षा—व्यवस्था के कारण ऐसी मामूली भूलें हो जाया करती हैं लेकिन धैर्य से काम लेना चाहिए जैसे अक्लमंद मालिक को भरोसा रहता है कि अपना पाड़ा कहीं भी दूध पीले मगर षाम को वापस अपने खूँटे पर आ जाता है। मम्मी के अध्यक्षीय भाषण से वे इस निष्कर्ष तक आसानी से पहुँच कर आष्वस्त हो सकीं कि यह तो हर पति की एक हानि रहित आदत है। इसका दाम्पत्य जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आज के खुले समाज में वैश्वीकरण और उदारवादिता के वातावरण में विभिन्न संस्कृतियों का घालमेल होगा ही। नई परम्पराओं को बनने देना चाहिए। अपनाना चाहिए। शायद गांधीजी या किसी और ने कहीं न कहीं ऐसा ही कुछ कहा है। शादी गुड्डे—गुड़ियों का खेल नहीं बल्कि वयस्क व्यावहारिकता का तकाजा है। जीवन भर के संग—साथ की दौड़ है। एक के साथ दूसरे की टांग बंधी है, बिल्कुल बैलगाड़ी की तरह। दोनों पहियों में थोड़ी—बहुत ऊंच—नीच होने पर भी गाड़ी मजे में चल सकती है यदि रास्ते साफ—सुथरे, सपाट और सरपट हों। जरूरत है इन रास्तों को साफ रखने की, बाधाओं को दूर हटाते रहने की, विवादों को परे झटकने की, एक ऐसे संतुलन की जो हमेषा अपने पक्ष में हो॥ यही आदर्श दाम्पत्य—जीवन का सुखमय सूत्र है... आदि आदि बहुत से इत्यादि...।

श्रीमती अरुणा पाल बताती हैं कि इतवार की उस बेवकूफी की रात के बाद वह बुधवार की महकती शाम थी जब बाजार से लौटकर उन्होंने पहला फोन मम्मी को करना चाहा। पर हाथ रुक गये। सोचा कि अभी जाकर उन्हें एकदम सरप्राईज दूँंगी। श्रीमती पाल के गले में वही हीरों का हार शोभा पा रहा था। तनिष्क का आजादी की स्वर्ण—जयंती पर भारतीय नारी को स्वतंत्रता की अनुपम सौगात... सुपर—डुपर डीलक्स मॉडल... वीरांगना... जिसमें मोर की चोंच में खूबसूरती से एक दमकता हीरा अलग से तराश कर लगाया गया है... और फिर छोटे—छोटे जुगनुओं की तरह चमकते हीरों की कतार....... टी.एस.क्रमांक चार सौ अड़तीस.... कीमत चालीस लाख चौसठ हजार.... अन्य टैक्स अलावा।

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