DOULAT - E - DEH books and stories free download online pdf in Hindi

दौलत - ऐ - देह

कहानी--

दौलत – ऐ - देह

--राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव,

‘’बहु को बोलो....’’ मैंने पत्‍नी की ऑंखों में झॉंका, शिकायत भरी बैचेनी महसूस की, ‘’क्‍या हुआ ? अस्‍मन्‍जश में क्‍यों हो ?’’

विचलित निगाहों से पत्‍नी ने चारों ओर देखा, ‘’बहु तो रोज-रेाज वगैर बताये कहॉं-कहॉं चली जाती है ? क्‍या करती है ? किससे मिलती है ? कब लौटती है, आवारा.....।‘’

‘’कब से चल रही है, यह मनमस्ति ?’’ मैंने आश्‍चर्य से, पूछा, ‘’पहले क्‍यों नहीं....बताया ?’’

‘’पारिवारिक सुख-शॉंति.....लोक‍लाज....बवाल से डर कर चुप रही।‘’ पत्‍नी ने आगे बताया, ‘’मैंने सोचा सुधर जायेगी।‘’

‘’फिर भी...।‘’ मैंने पत्‍नी को झिड़कते हुये कहा, ‘’कुछ संकेत तो करना था।‘’

‘’शिकायत होती, चुप ही रही न जाने क्‍या सोचकर।‘’

‘’खैर! बहु के रंग-ढंग, चाल-चलन अपने अनुकूल नहीं लगते......।‘’ कुछ सोचकर गम्‍भीर मुद्रा में, कुछ तो करना पड़ेगा।‘’

गोपनीय तरीके से बहु पर कड़ी नजर रखी जाने लगी।

जानकारियॉं अत्यन्‍त चौंकाने वाली मिलीं। खून खोलने वाली।

घर गृहस्‍थी, परिवार, बाल-बच्‍चों को सम्‍हालना, संवारना, देखभाल करना, खानदान का मान सम्‍मान, मर्यादा का संरक्षण, सामाजिक, धार्मिक, नाते-रिश्‍ते के स्‍तर पर अपने आपको संस्‍कारी, सुसभ्‍य, व्‍यवहार कुशल, मिलनसार एवं भाई-चारा स्‍थापित करने की सम्‍भावनाऍं दूर-दूर तक प्रतीत नहीं होतीं। सम्‍पूर्ण आशाऍं अपेक्षायें और पारम्‍परिक पाबन्दियों का कोई चिन्‍ह दिखाई नहीं देता। हर स्‍तर पर निराशाजनक स्थिति सम्‍मुख आती हैं।

पूजा-पाठ, निरन्‍तर निर्धारित तीज-त्‍यौहार, नियम-धरम व्रत तथा नेक-नियति कुछ भी परिपाठी का कहीं कोई अंश नहीं। इन सब संस्‍कृतियों का दिखावा तक दुर्लभ महसूस होता है।

पूर्णत: निरन्‍कुश एवं स्‍वछन्‍द !

औरत होना उसके लिये सबसे बड़ा अश्‍त्र है। जिसका उपयोग वह जहॉं-तहॉं अपनी सुविधा व सरोकार के लिये करने में तिलभर भी चूक नहीं करती। वह धारणा बनाकर चलती है कि उसके चारों ओर जितने रिश्‍ते हैं, वे सब के सब स्‍वत: ही, उसे आवश्‍यकता अनुसार उपलब्‍ध हैं। उनके प्रतिउत्तर में अपनी तरफ से जो रीति के अन्‍तर्गत उन्‍हें लौटाना है; वह पूर्णत: अपने मन-मिजाज पर है। कोई बाध्‍य नहीं कर सकता कि बहु ने यह रश्‍म नहीं निभाई? यदि किसी परम्‍परा का जानबूझ कर उलंघन कर दिया; इठलाकर तो उसका कोई दण्‍ड तो है नहीं। करते रहो आलोचना, कहते रहो बुरा भला, सोचते रहो कुछ भी, बहु की बला से, ठिंग्‍गे पर।

हर पल बैचेन रहती है, व्‍यस्‍त रहती है, अपनी शरारत, साजिश, चालाकी, बदमाशी आदि-आदि के जाल बुनने में। कब किसकी शॉंति भंग करे, किसको अपनी कूटनीति और बद्नियति में उलझाये।

कहाँ-कहॉं धन-दौलत, सम्‍पत्ति तथा दूसरे का अधिकार हड़पकर अपना वर्चस्‍व जमाने की जुगत की जाय। सारे परिवार को छिन्‍न-भिन्‍न करने की तिकड़म लगाकर अपना सिक्‍का जमाया जाय, फिर अपनी कुटिल इच्‍छाओं का आनन्‍द उठाया जाय। बहु का यह एक सूत्रीय कारनामा जान पड़ता है। जो विध्‍वंसकारी प्रतीत होता है।

पूरे परिवार की मूल शक्ति एकता को कुतर-कुतर कर दीमग की तरह चाटने में लग गई है।

स्‍त्री जब अपनी मादक अदाओं, अंगड़ायिओं, अंग-प्रतंग को अश्‍त्र-शस्‍त्र की भॉंति भुनाने में पारंगत हो जाती है, तब उसे इतना गुमान हो जाता है कि वह इन घातक अचूक हथियारों के बलबूते पर अपने इर्द-गिर्द कठपुतलियों का झुण्‍ड इकट्ठा कर लेती है, जो वह अपने इशारों पर नचाकर अन्‍य जन समूह में अपना नापाक प्रभाव का प्रदूषण फैलाती है। भयग्रस्‍त वातावरण को अपनी मंशा अनुसार सत्ता स्‍थापित होने का भ्रम पाल लेती है। प्रचार-प्रसार करती रहती है कि वह कितनी शक्तिशाली-प्रभावशाली है। जिसको चाहे, जब चाहे, उसको चुटकी में मसल सकती है।

लोग अव्‍यक्‍त, अदृश्‍य एवं अज्ञात भय के कारण उसकी हॉं में हॉं मिलाते रहते हैं। समर्थन और श्रेष्‍ठ मानने का अभिनय करके उसे झूठा प्रोत्‍साहन देते हैं। वह मेंढ़क के पेट की तरह फूलकर कुप्‍पा हो जाती है। सोचती है उसे अब सफल होने से कौन रोक सकता है। प्रत्‍येक्ष ना भी सही, मगर अप्रत्‍येक्ष तो विरोध करना ही होगा। सबको एक जुट बनाए रखने के लिये।

वह अपनी कारस्‍तानियों के लिये जीती है। उसको अपने पति से कोई सर्वविदित, सामान्‍य व स्‍वभाविक रिश्‍ता नहीं रखती। पति को मोहित करके, गोद में बैठाकर, प्रेमपूर्वक पुचकारकर, उसके कान में मंत्र फूंकती रहती है। जिससे पति पूर्णत: उसके चंगुल में रहता है। पालतू कुत्ते के समान। जिस पर चाहे, उस पर झुमा देती है,...छू...छू अपनी मंशा पूरी करने के वास्‍ते।

पति को दुनियाँदारी से हटकर पत्‍नी ही सबसे बड़ी; एकमात्र हितेसी लगने लगती है। पत्‍नी के द्वारा ही सारी मुरादें पूरी हो सकती हैं। शेष जिन्‍होंने उसकी परवरिश की है, वे सबके सब उसका शोषण करते हैं, तो घृणा के पात्र बन जाते हैं।

ऐसी श्रेष्‍ठस्‍वार्थी मॉं है, जिसके हृदय में ममत्‍व लेशमात्र भी नहीं है। जो अपनी औलाद को अपने कारनामों के सहयोग के लिये कठोरता पूर्वक उपयोग करके पैदा करने का मुआवजा वसूल करती है। उसका लालन-पालन अच्‍छा नागरिक बनाने में, समय नष्‍ट नहीं करती, बल्कि कातलाना कामों में निपूर्ण करने में ज्यादा जोर देती है। अगर पुत्र अन्‍य हमउम्र साथियों व भाई-बन्‍धुओं की तरह, उज्‍जवल भविष्‍य के लिये प्रयत्‍न करता है, तो उसे तरह-तरह से प्रताडि़त करती है। भोजन एवं अन्‍य उसके जरूरत की सामग्री हेतु तरसाती है। बढ़ता बच्‍चा, जानता-समझता आक्रोश से क्रोधित होता रहता है। वह अति होने के उपरान्‍त मॉं-बाप पर भी आत्‍मघाती हमला करता रहता है। तब उसे पागल या बिगड़ा हुआ करार दे दिया जाता है। जिससे वह और खीज जाता है। उसे अच्‍छे–बुरे का ध्‍यान नहीं रहता है। कुछ भी करने के लिये अमादा हो जाता है। ऐसे ही युवक समाज के नासूर बनते हैं।

दोष पूरे खानदान पर आता है। शेष सहृदयी सदस्‍य भी शर्मिन्‍दा होने से अपने आप को बचा पाने में असमर्थ हो जाते हैं। सबको पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह कलंक ढोना मजबूरी हो जाती है।

इस स्थिति में अमन-चैन से जीवन यापन करने वाले परिवार के सदस्‍यों से ईर्शावश बदले का सिलसिला चल पड़ता है। भिन्‍न-भिन्‍न तरीकों एवं संसाधनों से; प्रत्‍येक्ष या अप्रत्‍येक्ष गोपनीय। अदृश्‍य।

प्रमुख्‍य सदस्‍य की मृत्‍यु भी रहस्‍यमय एवं संदिग्‍ध लगने लगती है। क्‍योंकि समुचित चिकित्‍सा के बावजूद भी स्‍वास्‍थ में कोई सुधार नहीं हुआ। ज्‍यों-ज्यों इलाज होता गया, त्‍यों-त्‍यों हालत बिगड़ती गई।

इसके बाद अन्‍य महत्‍वपूर्ण सदस्‍यों को भी एक दूसरे से आन्‍तरिक रूप में रिश्‍तों के बीच नफरत के बीज बो दिये। ऐसे कि कभी एक ना हो सकें। ऊपर से एक, अन्‍दर से टुकड़े-टुकड़े!!

सर्वोच्‍य शक्ति की हमलावर मिसाइल दागकर खुश होती रहती है। अच्‍छी सफलता के लिये; मगर उसके काट के लिये वन्दिशें तो कर रखी हैं, मगर संदेह तो हमेशा बना ही रहता है।

देह की ऑंच के सहारे कब तक अपने तंत्र को संचालित करेगी! एक दिन तो दुस्‍परिणाम का समय आयेगा ही, जब क्षीर्ण होगी दौलत-ऐ-देह तब ??

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

नाम:- राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव,

जन्‍म:- 04 नवम्‍बर 1957

शिक्षा:- स्‍नातक ।

साहित्‍य यात्रा:- पठन, पाठन व लेखन निरन्‍तर जारी है। अखिल भारातीय पत्र-

पत्रिकाओं में कहानी व कविता यदा-कदा स्‍थान पाती रही हैं। एवं चर्चित

भी हुयी हैं। भिलाई प्रकाशन, भिलाई से एक कविता संग्रह कोंपल, प्रकाशित हो

चुका है। एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है।

सम्‍मान:- विगत एक दशक से हिन्‍दी–भवन भोपाल के दिशा-निर्देश में प्रतिवर्ष जिला स्‍तरीय कार्यक्रम हिन्‍दी प्रचार-प्रसार एवं समृद्धि के लिये किये गये आयोजनों से प्रभावित होकर, मध्‍य-प्रदेश की महामहीम, राज्‍यपाल द्वारा भोपाल में सम्‍मानित किया है।

भारतीय बाल-कल्‍याण संस्‍थान, कानपुर उ.प्र. में संस्‍थान के महासचिव माननीय डॉ. श्री राष्‍ट्रबन्‍धु जी (सुप्रसिद्ध बाल साहित्‍यकार) द्वारा गरिमामय कार्यक्रम में सम्‍मानित करके प्रोत्‍साहित किया। तथा स्‍थानीय अखिल भारतीय साहित्‍यविद् समीतियों द्वारा सम्‍मानित किया गया।

सम्‍प्रति :- म.प्र.पुलिस से सेवानिवृत होकर स्‍वतंत्र लेखन।

सम्‍पर्क:-- 145-शांति विहार कॉलोनी, हाउसिंग बोर्ड के पास, भोपाल रोड, जिला-सीहोर, (म.प्र.) पिन-466001,

व्‍हाट्सएप्‍प नम्‍बर:- 9893164140] मो. नं.— 8839407071.

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍