Ek Samundar mere andar - 25 in Hindi Moral Stories by Madhu Arora books and stories PDF | इक समंदर मेरे अंदर - 25

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इक समंदर मेरे अंदर - 25

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(25)

उनकी पत्नियों को लगता था कि नौकरी करने वाली औरतें मर्दों को फंसाने में माहिर होती हैं। उन्‍हें यह नहीं पता होता था कि उनकी नौकरी न करने का उनके पति कितना फ़ायदा उठा रहे थे, यह उसने अपने एमए के दिनों में देखा था।

शाम को जब वे लोग ऑफिस से घर न जाकर यूनिवर्सिटी के लॉन में आते थे और वहां की छात्राओं को दाना डालते थे। कई लड़कियां उनके झांसे में आ जाती थीं। कामना की एक सहेली ने एक अधिकारी की ओर इशारा करके बताया था –

‘यह मुझे बहुत आंख मारता था और दोस्‍ती करने के लिये कहता था। मैंने उसकी बात मान ली। अब वह मुझे शाम को नाश्‍ता करवाता है, हम मरीन ड्राइव पर घूमते हैं और रात को यह पहले मुझे मेरे घर के गेट पर छोड़ता है, उसके बाद अपने घर जाता है। कई बार मना किया पर मानता ही नहीं। मुझे कौन सी इससे शादी करना है।‘

यह तो एक अधिकारी के विषय में पता चला था, वहां और भी न जाने कितने अधिकारीनुमा आदमी आते थे, जो अपनी पत्नियों से ऊबे हुए थे। उन्‍हें अपनी पत्‍नी की साड़ी से हल्दी और मसालों की बू आती थी।

वे यहां आकर कुंवारी लड़कियों के कपड़ों से आती इत्र की खुशबू में खुद को सराबोर कर लेना चाहते थे और उन्‍हें ऐसी लड़कियां मिल जाती थीं। दोनों को पता था कि वे शादी तो नहीं ही करेंगे, बस, टाइम पास करना होता था।

दरअसल कामना अकेली होती ही चली गई थी। उसका अपना फ्रैंड सर्किल कभी बना ही नहीं था। जब इंसान संघर्ष कर रहा होता है तो उस समय उसे सहायता चाहिये होती है। यही बात उस पर भी लागू होती थी।

उसके कठिन दिनों में जिन्‍होंने साथ दिया था, ज़रूरी तो नहीं कि वे घनिष्ठ मित्र भी बन पाते। शादी के बाद सोम के ही मित्र आते थे, जिनसे वह बात कर लेती थी। जो भी मित्र बने थे, वे सोम के जरिये ही बने थे।

बेशक़, वे उसकी बहुत इज्‍ज़त करते थे, भले ही सोम की वजह से करते हों, पर वह कभी उनसे अनौपचारिक नहीं हो पाई थी। ऑफिस से इतर सोम के जो मित्र थे, उनमें से कुछ मित्र कामना की सच में बहुत इज्‍ज़त करते थे। स्त्रियों की छठी इंद्रिय बहुत तेज़ होती है।

वह आसपास का माहौल बहुत जल्‍दी भांप जाती थी। कुछ मित्रों में से भी सोम के दो एक मित्रों का उसे घर आना सच में अच्‍छा लगता था। यह बात वह अपने व्‍यवहार से जता देती थी।

लेकिन सोम के ट्रांसफर से उनका भी असली चेहरा सामने आ गया था और उसने उन सभी से किनारा कर लिया था। वैसे भी ‘जरिये’ से बने मित्र’ कम ही टिकते हैं। साढ़े छ: साल बाद सोम का फिर से मुंबई ट्रांसफर हो गया था।

उसी समय तो उन्‍हें फ्लैट मिल नहीं सकता था, तो वे भी कामना के कैंपस में ही रहने लगे थे...साथ ही अपने संस्थान में फ्लैट के लिये आवेदन भी कर दिया था। कारण साफ था कि उसके संस्थान से सोम का ऑफिस बहुत दूर था और रोज़ रोज़ इतनी दूर बाइक से जाना संभव नहीं था।

दो साल बाद सोम को अपनी कंपनी की ओर से क्‍वार्टर मिला था और वह भी जुहू के पास। जुहू के पास रहने का लालच भला किसे नहीं होता? बिना देर किये सोम अपने परिवार के साथ वहां जाने के लिये तैयार हो गये थे। इस तरह एक शिफ्टिंग और....... फिर वही प्रक्रिया...टैंपो, कार्टन में सामान की पैकिंग, वगैरह...वगैरह।

अब तो इस तरह एक उपनगर से दूसरे उपनगर में जाने की आदी हो गई थी, पर एडजस्ट होने में उसे समय लगता था। जुहू वाला फ्लैट बड़ा था और उसमें दो बाल्‍कनी थीं। वहां बैठकर सुबह की चाय का आनंद लिया जा सकता था, पर फुर्सत में चाय उसने शायद ही कभी पी हो।

एक बार फिर से पूरा घर सैट किया गया था। यह इलाका उच्च मध्यमवर्गीय और फिल्‍मी सितारों से घिरा हुआ था। कुछ दूरी पर नानावटी अस्पताल था। कॉलोनी के बाहर सब्जी के ठेले लगते थे। रोज़मर्रा की सब्जी के लिये ये ठेले ठीक थे, पर अच्‍छी सब्जी के लिये सांताक्रूज स्‍टेशन या फिर विलेपार्ले की सब्जी मंडी ही ठीक थी।

क्‍वार्टर में जाने के साथ ही दूधवाला, पेपर वाला आ गया था और साथ ही कामवाली बाई भी आ गई थी। मुंबई में इसके लिये कामना को कभी संघर्ष नहीं करना पड़ा था। ये सुविधाएं आराम से घर बैठे मिल जाती थीं।

सोम के लिये तो अपने ऑफिस जाना आसान हो गया था लेकिन कामना और चिंकू का संघर्ष एक बार फिर शुरू हो गया था। पता नहीं, उसे कब तक संघर्ष करना पड़ेगा। आराम के दिन बहुत कम ठहरते थे उसके पास।

दरअसल जुहू से उसका दफ्तर बहुत दूर पड़ता था। रोज़ ऑटो से जाना महंगा सौदा था। उसके लिये बीईएसटी बस से अंधेरी की तेली गली तक जाना पड़ता था। तेली गली से ऑफिस की बस थी। तेली गली तक दो बसें ही जाती थीं।

उन दो बसों का समय तय नहीं था और वह अपने ऑफिस की बस बड़ी मुश्‍किल से पकड़ पाती थी। चिंकू का स्‍कूल भी दूर पड़ता था। उसे भी बीईएसटी की बस से ही जाना पड़ता था। वह बचपन से ही बहुत साहसी और बिंदास था।

उसने अपने पुराने स्‍कूल जाना ही मंजूर किया था। वहां उसके पुराने दोस्‍त थे...टीचर्स अच्‍छी थीं और सबसे बड़ी बात वह स्‍कूल सीबीएसई बोर्ड के तहत आता था और वहां की पढ़ाई बहुत अच्‍छी मानी जाती थी।

वहां बेवजह ट्यूशन के लिये परेशान नहीं किया जाता था। स्‍कूल में पढ़नेवाला शिक्षक ट्यूशन नहीं लेते थे। वे कमज़ोर छात्रों के लिये अतिरिक्‍त कक्षाएं लेकर उनको पढ़ाते थे। चिंकू को परेशानी उठाना पसंद था, पर स्‍कूल नहीं बदलना था।

कामना और सोम ने भी कोई ज़बर्दस्‍ती नहीं की थी। वह बेटे का निर्णय था। उन दिनों मोबाइल नहीं थे। दुकानों पर सार्वजनिक टेलीफोन हुआ करते थे, जिसमें एक रुपये का सिक्का डालकर बात की जा सकती थी।

कामना चिंकू एक रुपये का सिक्का अलग से देती थी और साथ ही बस की आने जाने की टिकट के लिये दस रुपये रोज़ देती थी। उन दिनों स्‍कूल के बच्‍चों का आधा टिकट लगता था। उसे घर की चाभी दे दी गयी थी।

वह चार बजे तक घर आ जाता था। कामना सुबह उसके लिये कुछ न कुछ बनाकर ज़रूर जाती थी, ताकि वह स्‍कूल से आकर खा ले। छोटे बेटे अवि को कालोनी में एक अधिकारी के परिवार के पास रखने का इंतज़ाम कर दिया था। वे अधिकारी की पत्‍नी थीं और बालवाड़ी चलाती थीं।

कामना की ज़िंदगी चकरघिन्नी की तरह घूम रही थी। पता नहीं किसका आशीर्वाद था कि वह कभी थकती नहीं थी। घर, ऑफिस के सारे काम हंसते हंसते करती थी। बेटे का होमवर्क भी करने में मदद करती थी। सोम को घर आते आते रात के आठ-साढ़े आठ बज जाते थे।

उनसे कोई कामना कर ही नहीं सकती थी। वे पहले ही थके हुए घर पहुंचते थे। चूंकि यह हाय फाय इलाका था, तो कोई किसी से बात करना तक पसंद नहीं करता था और कोई किसी को कुछ बताता भी नहीं था। खुद को ही सब खोजना पड़ता था।

गैस ट्रांसफर कराना था, राशन कार्ड ट्रांसफर कराना था। कितने काम निपटाने थे अभी। ये तो ख़ैर थी कि फोन जल्‍दी मिल गया था तो घर से फोन किया जा सकता था। जब सोम ने देखा कि घर संभल गया तो एक दिन बोले –

‘कामना, मेरे माता पिता यहां कुछ दिनों के लिये आना चाहते हैं। अब तो घर में सब कुछ है। मैंने कार भी बुक करवा ली है। संस्थान लोन देता है। हर महीने थोड़ी थोड़ी राशि कटती रहेगी। वे लोग वहां बोर होते हैं। यहां उनका कुछ तो मन लगेगा।‘

कामना भला क्‍यों मना करने लगी। उसने कहा – ‘ठीक है। बुला लो। वैसे भी इन दिनों दिल्‍ली में ठंड ज्‍य़ादा पड़ती है।‘ बस, यह कहने की देर थी कि अगले सप्ताह वे लोग आ गये थे। इतनी जल्‍दी वे लोग आ जायेंगे, इसकी उसे कल्‍पना नहीं थी।

अभी तो वह इस नये घर में खुद को सैट करने की प्रक्रिया से गुजर रही थी। वह सास-ससुर को मम्‍मी और डैडीजी कहती थी। उनको मम्‍मी कहलाना पसंद था। वे लोग यहां आकर बहुत खुश थे। पिताजी बोले –

‘कामना, ये मत सोचना कि हम जल्‍दी जायेंगे। हम चार महीनों के लिये आये हैं। हमारे बेटे का घर है। तुम्‍हें हमारी, अपनी और हमारे बेटे की सेवा करना होगा।‘ यह सुनकर वह संभलते हुए बोली थी –

‘जी हां, ये आपका ही तो घर है। मुझसे जितना हो सकेगा, करूंगी। नौकरी से आते आते सात बज जाते हैं।‘ सोम बहुत खुश थे। सोम आदर्श पिता, आदर्श भाई, आदर्श बेटा सब कुछ थे। इन आदर्शों को सहेजने के चक्‍कर में वे कामना के साथ ज्यादती कर जाते थे।

मन के बुरे नहीं थे, पर अपने माता-पिता के सामने कुछ कह नहीं पाते थे और कामना के दुख का यह सबसे बड़ा कारण था। वह कभी कुछ बोली नहीं थी। कुछ मामलों में चुप रहना ही बेहतर था। वह तभी बोलती थी, जब सिर से पानी ऊपर चढ़ जाता था।

जब घर में सोम के परिवार वाले होते थे, तो वे उसकी उपस्थिति मानो भूल जाते थे। वे अपनी मम्‍मी के हाथ का बना खाना खाना चाहते थे और वे हर सब्जी में ख़ासा कांदा डालती थीं, जो उससे नहीं खाया जाता था। खाना बनाने से मना करना भी अच्‍छा नहीं लगता था।

एक दिन जब उससे नहीं रहा गया, तो वह बोली – ‘मम्‍मीजी, आप यहां आराम करने आई हैं, इतना काम न किया करें। मैं ऑफिस से आकर सब्जियां बना दिया करूंगी और आप रोटी सेंकने का काम कर दिया करें।‘

आश्चर्य कि वे इस बात पर राजी हो गई थीं और कामना ने चैन की सांस ली थी। उनके आ जाने से उनके कजिन भाई भाभी और दोस्‍त भी आने लगे थे और इससे कामना का काम बढ़ता जा रहा था।

वह मशीन बनकर रह गई थी। पूरे परिवार के होते हुए भी उससे कोई बात करने वाला नहीं था उसका मन करता कि सोम अकेले में उससे बात करें। साढ़े छ: साल वह अकेली रही थी। कितना कुछ था उसके पास कहने के लिये, पर सोम के पास वक्‍त़ नहीं था सुनने के लिये।

वह चाहती थी कि सोम उसे लेकर थोड़ी देर के लिये बाहर जायें...लेकिन वे उसकी यह इच्‍छा पूरी करने में खुद को असमर्थ पाते थे। वे दोनों कभी जाना भी चाहते तो मम्‍मी और डैडीजी भी तैयार हो जाते थे और कहते थे –

‘हम घर में अकेले बैठकर क्‍या करेंगे। हम भी चलते हैं’ और सब कार में सवार हो जाते थे। डैडीजी सोम के साथ आगे बैठते और पीछे कामना, मम्‍मी और दोनों बेटे। मार्च का महीना नज़दीक आ रहा था और बच्‍चों के पेपरों का समय नज़दीक आता जा रहा था।

सोम के मम्‍मी पापा का भी मन अब उखड़ने लगा था। बात बात में चिढ़ने लगे थे – ‘तू खाना ठीक से नहीं बनाती। हमें रात को आठ बजे खाने की आदत है। सोने से पहले फल और दूध पीने की आदत है।‘

उनकी कामना से ज़रूरत से ज्‍य़ादा अपेक्षाएं थीं। उनका मूड होता तो ठीक से बात करते, वरना सोम के साथ ड्रिंक पीने बैठ जाते थे। उसे बिल्‍कुल पसंद नहीं था। जब तक चिंकू और अवि पैदा नहीं हुए थे, तब तक तो सब ठीक लगता था।

पर छोटे बच्‍चों के सामने? यह परिभाषा उसे कभी पसंद नहीं आई थी. कभी नहीं। एक रात को कामना ने सोम से कहा – ‘अब तुम्‍हारे मम्‍मी डैडी का मन यहां से भर गया है। उनके भाई भी मिलने नहीं आते। मुझे तो लगता है कि वे अब वापिस जाना चाहते हैं।‘ इस पर सोम थोड़ा हिचकिचाये थे और बोले थे – ‘पूछना अच्‍छा नहीं लगता। वे अपने आप कहें तो ठीक है।‘

इस पर वह चुप हो गई थी और सोने की तैयारी करने लगी थी। सोम ने भी करवट बदल ली थी। सभी तो थके होते थे। उसे सुबह जल्‍दी उठना होता था। उसने सोचा कि वह रविवार को अपने ससुर की टोह लेगी कि वे कब जाना चाहते हैं।