Charles Darwin ki Aatmkatha - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 5

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(5)

कई बातों में वे बहुत महान चरित्र के इंसान थे। उनमें कुछ ऐसा भी था जो मुझे पहले पता नहीं था। बीगेल पर यह समुद्री यात्रा मेरे जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना रही, और इसी ने मेरे पूरे कैरियर का खाका तैयार किया। लेकिन ये सब कुछ एक छोटी-सी घटना पर आधारित था। घटना कुछ यूं थी कि जिस दिन मेरे अंकल तीस मील सवारी चलाकर मुझे श्रूजबेरी लाए थे, संसार में बहुत कम नातेदारों ने ऐसा किया होगा, और तो और मेरी नाक भी इसमें आड़े आ रही थी। मैं हमेशा यह महसूस करता हूँ कि मेरे दिमाग के लिए इस यात्रा ने वास्तविक प्रशिक्षण या तालीम दी थी। इससे मुझे प्राकृतिक इतिहास की कई परतों की जानकारी मिली और चीज़ों को समझने की मेरी ताकत में बढ़ोतरी हुई, हालांकि ये सारी योग्यताएँ मुझमें पहले से मौजूद थीं।

मैं जितनी भी जगहों पर गया वहाँ के भूविज्ञान की जानकारी भी मेरे लिए काफी महत्त्वपूर्ण थी। यहाँ मुझे तर्कशास्त्र का भी सहारा मिला। किसी भी नए भू-भाग को अगर पहली बार देखें तो चट्टानों के ढेर से ज्यादा कुछ नहीं दीखता, लेकिन बहुत स्थानों पर चट्टानों और जीवाश्मों के संस्तरों और प्रकृति की जाँच करने के साथ-साथ यदि मन में यह प्रश्न और आशा भी रखी जाए कि इसके अलावा और क्या मिल सकता है, तो उस भू-भाग के बारे में कुछ तथ्य उजागर होने शुरू हो जाते हैं। इस प्रकार सारी संरचना ही कमो-बेश सुबोध बनने लगती है। मैं अपने साथ लेयेल लिखित प्रिन्सिपल्स ऑफ ज्योलॉजी का पहला खंड भी लाया था, जिसे मैं सावधानीपूर्वक पढ़ता रहा। यह पुस्तक कई मायनों में मेरे लिए बहुत फायदेमन्द रही। वर्दे अंतरीप नामक द्वीप सेन्ट जेगो वह पहली जगह थी, जिसका मैंने निरीक्षण किया, और वहीं मुझे पता चल गया कि भूविज्ञान की जानकारी पर जितने लेखकों की रचनाओं को मैं पढ़ चुका था या बाद में पढ़ा, उनमें सबसे नायाब तरीका लेयेल का था।

इसी दौरान मैं एक और काम भी करता था - सभी प्रकार के जीवों का संग्रह। मैं इनका संक्षिप्त ब्यौरा लिखता और कुछेक समुद्री जीवों की छोटी-मोटी चीरफाड़ भी करता था। पर एक कमी रही कि ड्राइंग में हाथ तंग होने और शरीर-रचना की ज़रूरत भर जानकारी न होने के कारण इस यात्रा के दौरान मैंने जो संस्मरण लिखे, वे सब बेकार हो गए। इस तरह से मैंने काफी समय बरबाद किया। हाँ, इतना ज़रूर रहा कि क्रस्टेशियन्स की कुछ जानकारी हासिल हुई जिसकी मदद से मैं बाद में सिरीपेडिया पर अपना प्रबन्धड़ग्रन्थ लिख सका।

दिन में थोड़ा वक्त निकाल कर मैं अपना रोजनामचा लिखता था। जो कुछ भी मैं देखता था उसे सावधानी से और विस्तारपूर्वक लिखता था। मैं समझता हूँ कि यह एक अच्छी आदत थी। मेरे रोजनामचे घर को लिखे गए खतों का भी काम करते थे। जब भी मौका मिलता मैं इनके कुछ अंश इंग्लैन्ड भेज देता था।

अभी ऊपर मैंने जिन विशेष अध्ययनों का जिक्र किया है, यदि उनकी तुलना बेइन्तहा मेहनत और ध्यान लगाकर काम करने से की जाए तो वे इसकी तुलना में कुछ भी नहीं थे। उस समय तो मैं मेहनत और दिलो-जान से काम करने का पाठ पढ़ रहा था। उस समय मैं जो कुछ पढ़ता या सोचता था उसका सीधा ताल्लुक उस चीज़ से रहता था जो मैं देख चुका था या देखने की सम्भावना थी। मेरी यही आदत इस यात्रा के अगले पाँच बरस तक बरकरार रही। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूं कि इसी प्रशिक्षण की बदौलत मैं विज्ञान में कुछ हाथ पांव मार पाया।

यदि अतीत पर नज़र डालूँ तो में कह सकता हूँ कि विज्ञान के प्रति मेरे मोह ने अन्य सभी रुचियों पर विजय पायी। शुरू के दो बरस तक तो निशानेबाजी के लिए मेरा शौक जोर-शोर से बरकरार रहा। अपने संग्रह के लिए सभी पक्षियों और पशुओं को मैं खुद ही मारता था। लेकिन धीरे-धीरे बन्दूक और मेरे बीच दूरी बढ़ती गयी, और अंत में यह काम मेरे नौकर ले संभाल लिया, क्योंकि अब यह निशानेबाजी मेरे काम के आड़े आने लगी थी, खासकर किसी इलाके की भूवैज्ञानिक संरचना तैयार करते समय। हालांकि मन के किसी कोने में मैं यह भी महसूस कर रहा था कि किसी च़ीज को देखने और सत्य की कसौटी पर कसने की ताकत शिकारी के काम से ज्यादा है। इस यात्रा के दौरान किये गये कामों से मेरे दिमाग का कितना विकास हुआ था यह इससे स्पष्ट हो जाएगा - मेरे पिताजी कभी संदेह में कोई काम नहीं निपटाते थे और ललाट शास्त्र में उन्हें कोई रुचि नहीं थी, लेकिन वे बड़ी पैनी नज़र रखते थे, तभी तो समुद्र यात्रा से लौटने के बाद मुझे देखते ही, मेरी बहनों को बुला कर बोले, `क्यों जी! इसके सिर का तो हुलिया ही बदल गया है।'

और एक बार फिर समुद्र का बुलावा। सितम्बर 11 (1831), को मैं प्लेमाउथ में बीगल पर फिट्ज राय से मिलने गया। वहाँ से शूजबेरी गया। अपने पिता और बहनों से लम्बी जुदाई के लिए विदाई ली और चल दिया एक और सफर के लिए। मैं 24 अक्तूबर को प्लेमाउथ पहुँचकर वहीं रहने लगा और 27 दिसम्बर को दुनिया का चक्कर लगाने के लिए यात्रा शुरू करने तक वहीं रहा, क्योंकि भारी अंधड़ों के कारण हमारे जहाज बीगल के दो प्रयास विफल हो चुके थे, और हमारा जहाज वहीं इंग्लैन्ड के समुद्र तट पर लंगर डाले खड़ा रहा। प्लेमाउथ में ये दो महीने बेहद मुश्किल भरे गुज़रे। हालांकि मैं किसी न किसी काम धंधे में लगा ही रहता था। अपने परिवार और मित्रों से लम्बी जुदाई की याद ही मुझे हताश कर देती थी। और मौसम भी अपने रंग दिखा ही रहा था।

मेरी सांस फूल जाती और दिल के आस-पास दर्द भी महसूस होता रहता था। दूसरे नौजवानों की तरह मैं भी अपनी सेहत के प्रति लापरवाह रहता था। उस पर तुर्रा यह भी कि मुझे डॉक्टरी का सतही ज्ञान भी था, तो उसके आधार पर मैंने यह भी मान लिया कि मुझे दिल की बीमारी है। मैंने किसी डाक्टर से सलाह भी नहीं ली क्येंकि मैं पूरी तरह से मान चुका था कि वह क्या फैसला सुनाने वाला है - यही कि मैं समुद्री यात्रा के काबिल नहीं हूँ, और यहाँ मैं हर खतरा उठाने को कमर कसे बैठा था।

अब मैं अपनी यात्रा के ब्यौरों का और घटनाओं का जिक्र फिर से नहीं करूँगा क्योंकि इन सबको मैं अपने प्रकाशित रोजनामचे में विस्तार से बता चुका हूं। फिलहाल तो मेरे सामने उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों की वनस्पतियों की हरियाली मेरे दिमाग पर किसी भी दूसरी चीज़ के मुकाबले ज्यादा गहराई से छायी हुई है। यह हरियाली मैंने पेटागोनिया के विशाल रेगिस्तानों और टियेरा डेल फ्यूगो की वन से ढंकी पर्वतमाला पर देखी। इस दृश्य का मेरे मन पर अमिट प्रभाव है। अपनी मातृभूमि में खड़े नग्न आदिवासी को मैं कभी भूल नहीं सकता। जंगली इलाकों में घुड़सवारी करते हुए या नावों में कई-कई हफ्ते तक जो सफर मैंने किए वे बहुत ही रोचक और रोमांचक थे। उस समय सफर के साथ जुड़ी परेशानियाँ और छोटे-मोटे खतरे ज़रा भी आड़े नहीं आए, और ये छिट-पुट घटनाएँ बाद में याद भी नहीं रहीं। मैंने अपने कुछ वैज्ञानिक लेखों मैं भी इनका काफी उपयोग किया। मिसाल के तौर पर, सेन्ट हेलेना जैसे कुछ द्वीपों की भूवैज्ञानिक संरचना को स्पष्ट करते हुए मूँगा द्वीपों के निर्माण आदि का समाधान किया। यही नहीं, गैलापेगोस द्वीप समूह के बहुत से टापुओं पर पाए जाने वाले पशुओं और पौधों के एकल सम्बन्धों को भी ध्यान में रखा और दक्षिणी अमरीका में पाए जाने वाले जीवों और पौधों पर भी लेख लिखे।

यदि अपने बारे में कहूं तो किस्सा कोताह यही है कि समूची समुद्री यात्रा के दौरान मैंने खुद को काम में झोंक रखा था, क्योंकि मुझे खोज बीन में आनन्द आता था और प्राकृतिक विज्ञान से जुड़े तथ्यों के विशाल पुंज में कुछ और तथ्य भी जोड़ने की मेरी बलवती इच्छा थी। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों के बीच अपने लिए ठीक-ठाक जगह बना पाना भी मेरी अभिलाषा थी ड़ यह मैं नहीं कह सकता कि मेरी अभिलाषा मेरे सहकर्मियों से अधिक थी या कम।

सेन्ट जैगो का भूविज्ञान बेहद सामान्य होने के बावजूद चकित कर देने वाला था - बहता हुआ लावा सागर की तलहटी में चला आया।

इस लावे के साथ ताजा शंखों और मूँगों का चूरा मिलकर जमता चला गया और इनके पकने से सफेद रंग की कठोर चट्टानें बनती चली गयीं। उसके बाद समूचा द्वीप सिर उठा कर ऊपर निकल आया। लेकिन सफेद चट्टान में पड़ी लकीरों ने मुझे एक नए तथा महत्त्वपूर्ण तथ्य से परिचित कराया। वह यह कि ज्वालामुखी के जीवंत होने की अवस्था के दौरान लावा निकल निकल कर क्रेटरों के चारों ओर जमता चला गया। उस समय मेरे मन में यह विचार कौंधा कि मैं जितने देशों भी में गया हूँ वहाँ के भू विज्ञान पर एक किताब लिखूँ। इस विचार ने मुझे रोमांच से भर दिया। यह मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण थे। मेरे मन पर आज भी वह छवि जस की तस अंकित है कि लावे से बनी खड़ी चट्टान के नीचे मैं खड़ा था, ऊपर सूरज चमक रहा था, आस पास रेगिस्तानी इलाकों में पाए जाने वाले कुछ पौधे सिर उठाए खड़े थे और मेरे पैरों के पास समुद्री जल में जीवित मूँगे अपनी छटा बिखेर रहे थे। यात्रा के ही दौरान फिट्ज राय ने मुझसे कहा कि मैं अपने कुछ रोजनामचे पढ़कर उन्हें सुनाऊँ - सुनते ही बोले कि ये तो भई, छपने चाहिये - और इस तरह से दूसरी पुस्तक का आगाज हो गया।

हमारी यात्रा समाप्त होने को थी। एस्केन्सन पर पड़ाव के दौरान मुझे एक खत मिला, जिसमें मेरी बहनों ने लिखा था कि सेडविक घर आकर पिताजी से मिले थे और उनसे कहा था कि अब मुझे वैज्ञानिकों के बीच जगह मिलना तय ही है। उस समय मैं यह नहीं जान पाया था कि उन्हें मेरी गतिविधियों की जानकारी कैसे मिली होगी। बाद में मैंने सुना (और मुझे भरोसा भी हुआ) कि मैंने कुछ खत हेन्सलो को भी लिखे थे। उन खतों को उन्होंने कैम्ब्रिज की फिलास्फिकल सोसायटी के समक्ष पढ़ा, और उन्हें वहाँ वितरण के लिए छपवाया भी था। मैंने जितने जीवाश्मों का संग्रह किया था, वह भी हेन्सलो को भिजवा दिया था। इस संग्रह ने भी जीवाश्म वैज्ञानिकों को काफी आकर्षित किया था। इस खत को पढ़ कर मैं किसी तरह से ऐस्केन्सन की पहाड़ियों पर चढ़ कर गया और अपने हथौड़े से उन ज्वालामुखीय चट्टानों को ठकठकाने लगा। इस सबसे इस बात का अंदाजा तो लग ही गया होगा कि मैं कितना महत्त्वाकांक्षी था। लेकिन मैं इस सत्य को भी स्वीकार करने में संकोच नहीं करूंगा कि आने वाले बरसों में लेयेल और हूकर जैसे साथियों का हाथ मेरी पीठ पर रहा। बाकी आम लोगों की मैंने उतनी परवाह नहीं की। मेरा आशय यह नहीं है कि मेरी किताबों की अनुकूल समीक्षा या खूब बिक्री से मुझे खुशी नहीं होती थी, लेकिन यह खुशी क्षण भंगुर होती थी। पर इतना तो था ही कि प्रसिद्धि पाने के लिए मैं अपने रास्ते से जरा-सा भी डिगा नहीं।

इंग्लैन्ड में वापसी (2 अक्तूबर 1836) के बाद से मेरे विवाह तक (29 जनवरी 1839)

दो बरस और तीन महीने का यह समय काफी उथल-पुथल वाला रहा। हालांकि इस बीच बीमारी के कारण थोड़ा-सा वक्त बरबाद भी हुआ। श्रूजबेरी, मायेर, कैम्ब्रिज और लन्दन के बीच खूब दौड़ - भाग करने के बाद मैं 13 दिसम्बर को कैम्ब्रिज में घर लेकर रहने लगा। इस समय तक मेरा सारा संग्रह हेन्सलों के पास रहा। मैंने वहाँ पर तीन महीने बिताए और प्रोफेसर मिलर की सहायता से खनिजों और चट्टानों पर परीक्षणों में जुटा रहा।

इसी बीच मैंने अपना जर्नल ऑफ ट्रेवल्स तैयार करना शुरू कर दिया। यह मेरे यात्रा वृत्तांत जितना कठिन नहीं था। यह जर्नल मैंने बहुत ध्यान से लिखा। मैंने ज्यादा मेहनत इस बात पर की कि अपने रोचक वैज्ञानिक परिणामों का सारांश भी लिखूं। लेयेल के अनुरोध पर मैंने चिली के समुद्र तट पर ज़मीन के उभार के बारे में अपने अवलोकनों का विवरण जिओलोजिकल सोसायटी को भी भिजवाया।

मैंने 7 मार्च 1837 को लन्दन में ग्रेट मार्लबरो स्ट्रीट में एक घर ले लिया और विवाह तक वहीं रहा। इन दो बरसों के दौरान मैंने अपना जर्नल पूरा किया, जिओलॉजिकल सोसायटी में कई लेखों का पाठ किया और जिओलॉजिकल आब्जर्वेशन्स पत्रिका के लिए वृत्तांत तैयार करना शुरू कर दिया। इसके अलावा, जूलॉजी ऑफ दि वायज ऑफ दि बीगल के प्रकाशन की तैयारी में जुट गया। जुलाई में मैंने द ऑरिजिन ऑफ स्पीशेज़ के लिए तथ्यों के संग्रह के लिए नोट बुक लिखनी शुरू कर दी। इसका उल्लेख मैंने काफी पहले शुरू कर दिया था। इसके बाद अगले बीस वर्ष तक मैंने अपना काम रुकने नहीं दिया।

इन दो बरसों के बीच मैं कुछ सोसायटियों में गया और जिओलॉजिकल सोसायटी के मानद सचिव मे रूप में काम भी करता रहा। मैंने लेयेल की मेहनत भी देखी। उनमें एक खासियत यह भी थी कि वे दूसरों के काम के प्रति भी संवेदना रखते थे। इंग्लैन्ड लौटकर मैंने मूँगे की चट्टानों पर अपने विचार जब उन्हें बताए तो उनकी रुचि देखकर मैं चकित भी हुआ और प्रसन्न भी। इससे मेरा हौसला बढ़ा और उनकी सलाह तथा नज़ीर ने मुझ पर काफी असर डाला। इसी समय के आस पास मैं राबर्ट ब्राउन से भी काफी मिला। मैं अक्सर रविवार को नाश्ते पर उनसे बातचीत करने चला जाता था। वे भी अपनी जिज्ञासा और सटीक टिप्पणियों का भरपूर खजाना मेरे सामने खोल देते थे। यह बात अलग है कि उनके प्रश्न बारीक बातों को लेकर होते थे। वे विज्ञान के बड़े या खास प्रश्नों पर विचार विमर्श नहीं करते थे।

इन्हीं दो बरसों के दौरान मैंने मनोरंजन के तौर पर छोटी छोटी अध्ययन यात्राएं भी कीं। इन्हीं में से एक लम्बी यात्रा मैंने ग्लेन राय की यात्रा के समांतर की। इसके वृत्तांत फिलास्फिकल ट्रान्जक्शन में प्रकाशित हुए। यह आलेख एकदम असफल रहा और मैं इसके लिए शर्मसार भी हूँ। दक्षिण अमरीका में भूमि के उठान में समुद्र के योगदान से मैं बहुत प्रभावित हुआ था और इसी का वर्णन मैंने किया था। उसी आधार पर मैंने यह आलेख भी लिखा था, लेकिन मुझे यह विचार त्यागना पड़ा क्योंकि एगासिज ने ग्लेशियर झील सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था, और उस समय जानकारी की स्थिति के तहत कोई और वर्णन सम्भव भी नहीं था। मैंने समुद्र की संक्रिया के पक्ष में तर्क दिया, हालांकि मेरी यह भूल मेरे लिए एक सबक भी थी कि कुछ चीज़ों के बारे में विज्ञान पर भरोसा छोड़ना पड़ता है।

ऐसा नहीं था कि मैं सारा दिन विज्ञान पर ही काम करता रहता था। इन्हीं दोनों बरसों में मैंने अलग अलग विषयों पर पुस्तकों का अध्ययन किया। इनमें से कुछ पुस्तकें तत्त्व मीमांसा पर थीं। लेकिन मैं ऐसे विषयों के लायक नहीं था। इस बीच मुझे वर्डस्वर्थ और कॉलरिज के काव्य में काफी आनन्द मिला और मैं फख्र के साथ कह सकता हूं कि मैंने एक्सकर्सन दो बार पढ़ लिया था। इससे पहले मैं मिल्टन के पैराडाइज लॉस्ट को बहुत पसन्द करता था, और बीगल से समुद्र यात्रा करते समय जब हम बीच बीच में अध्ययन यात्राओं पर जाते थे, और कोई एक ही किताब लेनी होती थी तो मिल्टन मेरी पहली पसन्द होते थे।