Charles Darwin ki Aatmkatha - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 2

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(2)

स्कूली जीवन के शुरुआती दौर की ही बात है, एक लड़के के पास `वन्डर्स ऑफ दि वर्ल्ड' नामक किताब थी। मैं अक्सर वह किताब पढ़ता था और उसमें लिखी हुई कई बातों की सच्चाई के बारे में दूसरे लड़कों के साथ बहस भी करता था। मैं यह मानता हूँ कि यही किताब पढ़ कर मेरे मन में दूर दराज के देशों की यात्रा करने का विचार आया, और यह विचार तब पूरा हुआ जब मैंने बीगल से समुद्री यात्रा की।

स्कूली जीवन के बाद के दौर में मुझे निशानेबाजी का शौक रहा। मुझे नहीं लगता कि जितना उत्साह मुझे चिड़ियों के शिकार का रहता था, उतना कोई और किसी बड़े से बड़े धार्मिक कार्य में भी क्या दिखाता रहा होगा। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मैंने कुनाल पक्षी का शिकार किया, तो मैं इतना उत्तेजित हो गया था कि मेरे हाथ काँपने लगे और बन्दूक में दूसरी गोली भरना मेरे लिए मुश्किल हो गया। यह शौक काफी समय तक बना रहा और मैं अच्छा खासा निशानेबाज बन गया। कैम्ब्रिज में पढ़ने के दौरान मैं आइने के सामने खड़ा होकर बन्दूक को झटके से कन्धे पर रखने की कवायद करता था, ताकि बन्दूक कन्धे पर एकदम सीधी रहा करे। एक और भी खेल मैं किया करता था कि अपने किसी दोस्त को कह देता था कि वह मोमबत्ती जलाकर पकड़े, और फिर बन्दूक की नली पर डाट लगाकर गोली चलाता था, अगर निशाना सही होता था तो हवा के दबाव से छोटा-सा धमाका होता और नली पर लगी डाट से तीखा पटाखा बोलता था। मेरे एक ट्यूटर ने इस अजीब-सी घटना का जिक्र किया था कि लगता है मि. डार्विन घन्टों अपने कमरे में खड़े होकर चाबुक फटकारते रहते हैं, क्योंकि मैं जब भी इनके कमरे की खिड़की के नीचे से गुज़रता हूँ तो चटाकड़चटाक की आवाज़ आती रहती है।

स्कूली लड़कों में मेरे बहुत से दोस्त थे, जिन्हें मैं बहुत चाहता था, और मुझे लगता है कि उस समय मेरा स्वभाव बहुत ही स्नेही था।

विज्ञान में मेरी रुचि बरकरार थी, मैं अब भी उसी उत्साह से खनिज बटोरता रहता था, लेकिन बड़े ही अवैज्ञानिक तरीके से। मैं सिर्फ इतना ही देखता था कि कोई नया खनिज है, तो रख लिया, लेकिन इनके वर्गीकरण की सावधानी मैं नहीं बरतता था। कीट पतंगों पर मैं तब से ही ध्यान देने लगा था, जब मैं दस बरस (1819) का था। मैं वेल्स के समुद्रतट पर स्थित प्लास एडवर्डस् गया था। वहाँ पर मैं काले और सिन्दूरी रंग के बड़े हेमिप्टेरस कीट, और जायगोनिया तथा सिसिन्डेला जैसे शलभ देखकर चकित रह गया। ये कीट श्रापशायर में दिखाई नहीं देते थे। मैंने फौरन ही अपना मन बना लिया कि जितने भी मरे हुए कीट बटोर सकूँगा बटोरूँगा। मरे हुए कीट बटोरना मैंने इसलिए तय किया था क्योंकि मेरी बहन ने बताया था कि महज संग्रह के लिए कीटों को मारना ठीक नहीं। वाइट लिखित सेलबोर्न पढ़ने के बाद मैं पक्षियों की आदतों पर ध्यान देने लगा और इस बारे में खासड़खास बातों को लिखने भी लग गया। बड़े ही सामान्य भाव से मैं यह भी आश्चर्य करता था कि हर कोई पक्षी विज्ञानी क्यों नहीं बन जाता है।

मेरा स्कूली जीवन समापन की ओर था। इस बीच मेरे भाई रसायन विज्ञान में काफी मेहनत कर रहे थे। घर के बाग में बने टूलरूम को उन्होंने एक अच्छी खासी प्रयोगशाला में बदल दिया था। वहाँ पर तरह तरह के उपकरण जुटा लिए थे, और ज्यादातर प्रयोंगों में मुझे उनके सहायक के तौर पर मदद की इजाज़त मिल गयी थी। उन्होंने सभी गैसें तैयार कर ली थीं और कई एक यौगिक रसायन भी बना लिए थे। मैंने भी रसायन पर कई किताबें पढ़ ली थीं - इनमें सबसे पसन्दीदा किताब थी ड़ हेनरी और पार्क्स की कैमिकल कैटेकिस्म। इस विषय में मेरा मन बहुत रम रहा था, और हम दोनों भाई देर रात तक काम में जुटे रहते थे। स्कूली शिक्षा के दौरान यह समय मेरे जीवन का सर्वेत्तम काल था, क्योंकि इसी दौरान मैंने प्रयोगात्मक विज्ञान को व्यावहारिक रूप में समझा। हम दोनों मिलकर रसायनों पर प्रयोग करते हैं, यह बात न जाने कैसे स्कूल में फैल गयी। इस तरह का काम स्कूली लड़कों ने पहले कभी नहीं किया था, इसलिए सबने इसका मज़ाक उड़ाया और इसे नाम दिया - गैस। डॉ. बटलर हमारे हेडमास्टर थे। एक बार उन्होंने भी सभी के सामने मेरा अपमान करते हुए कहा कि मैं ऐसे वाहियात किस्म के विषयों पर अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ। उन्होंने सबके सामने बेवजह ही मुझे एकान्तवासी संन्यासी कहा, उस समय तो मुझे इसका मतलब समझ नहीं आया लेकिन इतना तो मैं जान ही गया था कि कुछ कड़वी बात कही गयी है।

यह देखते हुए कि मैं स्कूल में कुछ खास नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे पिता ने समझदारी दिखाते हुए मुझे कुछ पहले ही स्कूल से उठवा लिया और मुझे भाई के साथ (अक्तूबर 1825) एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी भेज दिया, जहाँ पर मैं दो बरस तक रहा।

मेरे भाई अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर रहे थे। हालांकि मैं जानता था कि डाक्टरी की प्रैक्टिस करने का उनका कोई इरादा नहीं था, और पिताजी ने मुझे इसलिए भेजा था कि मैं भी डाक्टरी की पढ़ाई शुरू कर सकूँ। इसी दौरान मुझे कुछेक छोटी मोटी घटनाओं से यह पता चल चुका था कि मेरे पिताजी मेरे लिए इतनी जायदाद छोड़ जाएँगे कि मैं आराम से ज़िन्दगी बसर कर सकूँ। हालांकि मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं इतना धनवान हूँ, लेकिन जब मुझे अपनी हैसियत का पता चला तो इतना ज़रूर हुआ कि डाक्टरी पढ़ने की मेहनत के रास्ते में रुकावट आ गयी।

एडिनबर्ग में सारी शिक्षा लैक्चरों के जरिए दी जाती थी। लेकिन ये लैक्चर इतने उबाऊ और नीरस होते थे कि बस, पूछो मत। इनमें अगर कुछ अपवाद था तो रसायनशास्त्र के बारे में होप के लैक्चर। इस सबके बावजूद मेरे विचार से पढ़ने की तुलना में लैक्चरों से लाभ तो कुछ नहीं होता था, उल्टे इनके साथ हानियाँ कई एक जुड़ी हुई थीं। सर्दियों में सवेरे ठीक आठ बजे डॉ. डन्कन द्वारा मैटेरिया मेडिका पर दिए जाने वाले लैक्चरों की याद आज भी तन को झकझोर देती है। डॉ. मुनरो मानव शरीर शास्त्र पर उतने ही नीरस लैक्चर देते थे, जितने नीरस वे खुद थे, और यह विषय मुझे वैसे भी कोफ्त भरा लगता था। मेरे जीवन में यह तो एक बड़ी दुर्घटना के रूप में तो है ही कि मैं चीर-फाड़ की कला नहीं सीख पाया। यदि सीख लेता तो न केवल अपनी झुँझलाहट से बच जाता, बल्कि यह अभ्यास मुझे भविष्य में मेरी काफी मदद करता। इस कमी की तो भरपाई कभी भी नहीं हो पायी। मुझमें एक और कमी भी थी कि मैं ड्राइंग भी नहीं बना पाता था। मैं अस्पताल में क्लीनिकल वार्ड में नियमित रूप से जाता था। कुछ मामले तो ऐसे थे जिन्हें देखकर मैं व्याकुल हो जाता था। कुछ तो ऐसे हैं जो आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर गहराई से छाए हुए हैं, लेकिन इन सबसे विचलित होकर मैंने कक्षाओं में अपनी हाजिरी कम नहीं होने दी। मुझे अभी भी यह समझ में नहीं आया है कि इस विषय की शिक्षा प्राप्त करने में मुझे रोचकता का अनुभव क्यों नहीं हुआ, क्योंकि एडिनबर्ग आने से पहले गर्मियों के दौरान श्रूजबेरी में मैंने कुछ गरीब लोगों का इलाज किया था, खासकर औरतों और बच्चों का। सभी रोगियों के मामलों में मैंने उनके सभी लक्षणों को विस्तारपूर्वक लिखा, फिर ये सभी पिताजी को सुनाए, उन्होंने कुछ और बातें भी पूछने के लिए कहा और मुझे दवाओं के बारे में भी बताया। ये दवाएं भी मैंने खुद ही तैयार कीं। एक बार में मेरे पास तकरीबन एक दर्जन बीमार आते थे और मुझे इस काम में काफी रुचि भी थी।

मैं जितने भी लोगों को जानता हूँ, उनमें मेरे पिताजी ही ऐसे थे जो व्यक्तित्व के गहरे पारखी थे, और उन्होंने मेरे लिए एक दिन कहा था कि मैं एक सफल डाक्टर बन सकता हूँ - इसका मतलब तो बस यही होता था - ऐसा व्यक्ति जिसके पास ढेर सारे मरीज आएँ। दूसरी ओर वे यह भी मानते थे कि सफलता का मुख्य तत्त्व है - आत्मविश्वास; लेकिन मेरी जिस बात ने उन्हें प्रभावित किया था वह यह कि मैं जो कुछ नहीं भी जानता था उस बात के प्रति भी अपने मन में आत्मविश्वास पैदा कर लेता था। मैं एडिनबर्ग में दो बार ऑपरेशन थिएटर में भी गया, और बहुत ही दर्दनाक ढंग से किए जा रहे दो ऑपरेशन भी देखे। इनमें से एक ऑपरेशन तो किसी बच्चे का था, लेकिन ऑपरेशन पूरा होने से पहले ही मैं बाहर निकल आया। इसके बाद मैं कभी भी ऑपरेशन कक्ष में नहीं गया। यहाँ यह भी बता दूँ कि उन दिनों क्लोरोफार्म का उपयोग नहीं किया जाता था, इसलिए दोनों ही ऑपरेशन देखकर दिल दहल गया था। मन में एक बलवती इच्छा तो थी कि एक बार मैं फिर ऑपरेशन देखने जाऊँ, लेकिन कभी नहीं गया। लेकिन दोनों ऑपरेशनों के दृश्य मुझे काफी दिनों तक विचलित करते रहे।

मेरे भाई यूनिवर्सिटी में सिर्फ एक साल ही मेरे साथ रहे। दूसरे बरस तो सारे इन्तज़ाम मुझे खुद ही करने पड़े, और यह एक तरह से अच्छा भी रहा, क्योंकि इसी दौरान मैं ऐसे युवकों के सानिध्य में आया जो प्राकृतिक विज्ञान में रुचि रखते थे। इन्हीं युवाओं में एक थे - एन्सवर्थ, बाद में इन्होंने असीरिया की यात्रा का वृत्तांत भी प्रकाशित कराया। ये सज्जन वर्नेरियन भूविज्ञानी थे, और बहुत से विषयों की थोड़ी-बहुत जानकारी रखते थे। डॉ कोल्डस्ट्रीम एक अलग ही तरह के नवयुवक थे। बड़े ही विनम्र और नफासत पसन्द, बहुत ही धार्मिक और दयालु; बाद में इन्होंने प्राणिशास्त्र में कई बेहतरीन लेख प्रकाशित कराए। मेरा एक और युवा साथी था - हार्डी, आगे चलकर वनस्पति शास्‍त्री बना, लेकिन भारत प्रवास के दौरान बहुत कम उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी।

मेरे आखिरी दोस्त थे डॉ ग्रान्ट। वैसे तो वे मुझसे कई बरस वरिष्ठ थे; उनके साथ मेरी घनिष्ठता कैसे हुई, मुझे नहीं मालूम। उन्होंने प्राणिशास्त्र में अतिश्रेष्ठ लेख प्रकाशित कराए थे, लेकिन यूनिवर्सिटी कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में लन्दन आने के बाद उन्होंने विज्ञान में कुछ खास नहीं किया। यह बात ऐसी थी, जिसे मैं कभी समझ नहीं पाया। मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता था। उनका व्यवहार बड़ा ही नीरस और औपचारिक था, लेकिन इस बाहरी आवरण के भीतर निहायत ही नेक दिल और उत्साही व्यक्ति छिपा हुआ था। एक दिन हम लोग साथ-साथ घूम रहे थे कि अचानक ही उन्होंने उद्विकास के बारे में लैमारेक के दृष्टिकोणों पर अपने विचार प्रकट करने शुरू कर दिए। मैं चकित होकर मूक श्रोता बना रहा, लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल है, मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे पहले मैंने अपने दादाजी की जूनोमिया पढ़ी थी। उसमें भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए गए थे और उनका भी मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। इसके बावजूद यह भी सम्भावना है कि जीवन के आरम्भ में ही इस प्रकार की विचारधारा को स्वीकार करता और उसकी प्रशंसा करता तो जिस प्रकार से उन्हीं विचारों को मैंने ओरिजिन ऑफ स्पेशीज़ में लिखा है, शायद उनका रूप कुछ और ही होता। इस समय मैं जूनोमिया की काफी प्रशंसा करता हूँ, लेकिन दस या पन्द्रह वर्ष के अन्तराल के बाद दोबारा वही किताब पढ़ कर मैं काफी असन्तुष्ट रहा। तथ्यों और परिकल्पनाओं में बहुत ही अन्तर दिखाई दिया।

ड़ॉ ग्रान्ट और डॉ कोल्डस्ट्रीम, दोनों ही मैरीन-जूलॉजी पर अधिक ध्यान देते थे। मैं भी यदा कदा डॉ. ग्रान्ट के साथ समुद्र किनारे चला जाता था और समुद्र में ज्वार के बाद किनारे रुके हुए पानी में जीव पकड़ता था। बाद में इन जीवों की मैं चीर-फाड़ भी करता था। न्यू हैवेन के बहुत से मछुआरों से मेरी दोस्ती हो गयी थी। जब वे सीपियाँ पकड़ने जाते तो मैं भी कई बार उनके साथ हो लेता था। इस तरह से मैंने कई नमूने एकत्र कर लिए थे। अब चीर-फाड़ का मुझे अधिक ज्ञान और अभ्यास भी नहीं था और मेरा सूक्ष्मदर्शी यंत्र भी बस कामचलाऊ ही था। इन सब बाधाओं के कारण मैं इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं कर पाया। इस सबके बावजूद मैंने छोटा किन्तु रोचक अन्वेषण किया और प्लिनियन सोसायटी के समक्ष एक छोटा-सा लेख भी पढ़ा। यह लेख फ्लस्ट्रा के डिम्बों के बारे में था। इसमें मैंने बताया था कि सिलिया के माध्यम से इसमें स्वतंत्र गति होती है, लेकिन बाद में पता चला कि वास्तव में ये लारवे थे। एक और लेख में मैंने दर्शाया था कि छोटे-छोटे गोलाकार जीव, जिन्हें फ्यूकस लोरेस की आरम्भिक अवस्था कहा जाता है, वस्तुत: पोन्टोबडेला म्यूरीकेटा जैसे कृमियों के अण्डों का खोल थे।

मेरी जानकारी के मुताबिक प्लिनियन सोसायटी की स्थापना प्रोफेसर जेम्सन ने की थी और वही इसके प्रेरक भी थे - इस सोसायटी में कई छात्र भी शामिल थे और प्राकृत विज्ञान के बारे में लेख पढ़ने और विचार-विमर्श के लिए यूनिवर्सिटी के एक तहखाने में इसकी बैठकें होती रहती थीं। मैं इनमें नियमित रूप से शामिल होता था, और मेरे उत्साह को बढ़ाने तथा मुझे नए किस्म की अंदरूनी नज़दीकी प्रदान करने में इन बैठकों का काफी योगदान रहा।

एक शाम की बात है, एक बेचारा युवक बोलने के लिए खड़ा हुआ किन्तु बहुत देर तक हकलाता रहा। वह भयातुर हो पीला पड़ गया। अन्त में वह किसी तरह बोला, `माननीय अध्यक्ष महोदय, मैं जो कुछ कहना चाहता था, वह सब भूल गया हूँ।' वह बेचारा पूरी तरह से भयभीत लग रहा था। सभी सदस्य हैरान, कोई भी यह समझ नहीं पा रहा था कि उस बेचारे की बौखलाहट पर क्या कहा जाए? हमारी सोसायटी में जो लेख पढ़े जाते थे वे मुद्रित नहीं होते थे, इसलिए मुझे अपने लेखों को मुद्रित रूप में देख पाने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन मुझे मालूम है कि डॉ. ग्रान्ट ने मेरी छोटी-सी खोज को फ्लास्ट्रा पर अपने अनुसंधान लेख में स्थान दिया था।

मैं रॉयल मेडिकल सोसायटी का भी सदस्य था, और इसमें भी नियमित रूप से शामिल होता था। इसके सभी विषय पूरी तरह से मेडिकल से जुड़े थे, इसलिए मेरी रुचि अधिक नहीं रही। यहाँ तो सब ऊल-जलूल ही बातें होती थीं, लेकिन इसमें कुछ अच्छे वक्ता भी थे। इनमें सर जे के शटलवर्थ सर्वोत्तम थे। डॉ. ग्रान्ट मुझे यदा कदा वर्नेरियन सोसायटी की सभाओं में भी ले जाते थे। वहाँ प्राकृतिक इतिहास पर विभिन्न आलेखों का वाचन किया जाता था, विचार विमर्श होता और फिर उन्हें ट्रान्जक्शन्स में प्रकाशित किया जाता था। मैंने सुना था कि ऑडोबान ने दक्षिण अमरीकी पक्षियों की आदतों पर रोचक आख्यान दिया था। वाटरटन में बड़े ही अन्यायपूर्वक तरीके से उसका तिरस्कार हुआ। इस सबके बीच मैं यह भी बताना चाहूंगा कि एडिनबर्ग में एक नीग्रो रहता था, जिसने वाटरटन के साथ यात्रा की थी। मरे हुए पक्षियों में भुस भर कर वह अपना जीवन यापन करता था। इस काम में उसे महारथ हासिल थी। कुछ पैसे लेकर उसने मुझे भी यह काम सिखा दिया। अक्सर मैं उसके पास बैठता था। वह बड़ा ही खुशमिज़ाज और बुद्धिमान व्यक्ति था।

मिस्‍टर लियोनार्ड हार्नर एक बार मुझे रायल सोसायटी ऑफ एडिनबर्ग की सभा में भी ले गए। वहाँ मैंने सर वाल्टर स्कॉट को अध्यक्ष के रूप में देखा। सर स्काट इस बात के लिए माफी माँग रहे थे कि वे उस पद के लायक नहीं थे। मैंने उन पर और समूचे दृश्य पर हैरानी और श्रद्धापूर्वक निगाह दौड़ायी। मैं समझता हूँ इसका कारण यह था कि मैं वहाँ काफी युवावस्था में पहुंच गया था और मैं रॉयल मेडिकल सोसायटी की सभाओं में जाता रहता था, लेकिन मुझे इस बात का गर्व था कि इन दोनों ही सोसायटियों ने कुछ ही बरस पहले मुझे अपनी सदस्यता प्रदान की थी, जो अपने आप में किसी भी सम्मान से कहीं अधिक था। यदि मुझे कभी बताया जाता कि मुझे यह सम्मान मिलेगा तो मैं कहता हूँ कि मुझे ही यह हास्यास्पद और असम्भव सा लगता, जैसे कि किसी ने मुझसे कह दिया हो कि `तुम्हें इंग्लैन्ड का राजा चुना जाना चाहिए'।

एडिनबर्ग प्रवास के अपने दूसरे बरस में मैंने भूविज्ञान और प्राणीविज्ञान पर जेम्सन के व्याख्यान सुने, पर ये बहुत ही नीरस थे। इनका मुझ पर जो समग्र प्रभाव पड़ा, वह यही था कि मैं ताज़िन्दगी भूविज्ञान पर कोई किताब पढ़ने का प्रयास न करूँ या फिर विज्ञान का अध्ययन ही न करूँ। तो भी इतना तो पक्का ही है कि मैं इस विषय पर दार्शनिक व्याख्यान के लिए तैयार था, क्योंकि श्रापशायर के निवासी एक बुज़ुर्ग मिस्‍टर कॉटन को चट्टानों की अच्छी जानकारी थी। उन्होंने ही दो तीन बरस पहले श्रूजबेरी शहर में पड़े एक शिलाखण्ड के बारे में बताया था। इस शिलाखण्ड को लोग बेलस्टोन कहते थे। इसके बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि कैम्बरलैन्ड या स्कॉटलैन्ड से पहले इस तरह की चट्टानें नहीं मिलती हैं। उन्होंने मुझे बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से बताया कि जिस जगह पर यह शिलाखण्ड पड़ा था, उस जगह तक यह कैसे पहुँचा, यह भेद तो शायद प्रलय के बाद भी नहीं खुलेगा। इसका मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और मैं इस सुन्दर शिलाखण्ड के बारे में कई बार चिन्तन करता रहता था। इसी बीच जब मैंने यह वृत्तान्त पढ़ा कि किस प्रकार आइसबर्ग के माध्यम से बड़े बड़े शिलाखण्ड भी अपनी जगह बदल देते हैं, तो मैं पुलकित हो उठा, और मैं उन महाशय के भूविज्ञान के ज्ञान की दशा पर रीझ गया।

यह तथ्य भी मुझे उतना ही चमत्कारी लगा, जब सड़सठ वर्ष की अवस्था में मैंने सेलिसबरी क्रेग में एक प्रोफेसर से काले रंग की चट्टान के बारे में व्याख्यान सुना। हमारे आस पास तो ज्वालामुखीय चट्टानें हैं। उस परिवेश में बादामी आकार वाले किनारों और दोनों तरफ कठोर परत वाली इस चट्टान के बारे में उन्होंने कहा कि इसमें कोई दरार रही होगी जिस पर ऊपर से गाद भरती चली गयी। उपहासपूर्वक उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोग यह मानते हैं कि यह कठोर परत तरल रूप में नीचे से घुसी हुई होगी। यह लैक्चर सुनने के बाद तो भूविज्ञान के व्याख्यान सुनने में मेरे परहेज़ पर मुझे क़तई हैरानी नहीं हुई।

जेम्सन के व्याख्यान सुनने के बाद मैं मिस्‍टर मैकागिलिवरे से परिचित हुआ। ये एक संग्रहालय के क्यूरेटर थे। इन्होंने स्काटलैन्ड के पक्षियों पर एक बड़ी पुस्तक का प्रकाशन कराया। मैं उनके साथ प्राकृत इतिहास पर रोचक चर्चा करता रहता था, और वह मुझसे प्रसन्न भी रहते थे। उन्होंने मुझे कुछ दुर्लभ शल्क भी दिए। उस समय मैं समुद्री मोलस्कों का संग्रह कर रहा था, लेकिन इस संग्रह के लिए मुझ में कोई खास उत्साह नहीं था।