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उलझन - 18 - अंतिम भाग

उलझन

डॉ. अमिता दुबे

अठारह

तब तक घर आ गया था। अंशिका अपने घर चली गयी। पापा ने गाड़ी मोड़कर आॅफिस के लिए निकलने से पहले सौमित्र से कहा - ‘जानते हो सोमू आजकल एन0सी0इ0आर0टी0, मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसी संस्थाओं द्वारा इस दृष्टि से बहुत गहराई से विचार किया जा रहा है कि किताबी शिक्षा से व्यवहारिक शिक्षा को किस प्रकार अधिक से अधिक जोड़ा जाय। कुछ ओपेन यूनीवर्सिटीज ने तो प्रयोग के रूप में एम0बी0ए0 की पढ़ाई भी प्रारम्भ की है। उनका मानना है कि ग्रामीण क्षेत्र में प्रबन्धन की व्यवस्था देखने वालों को हिन्दी भाषा में कार्य करने का अभ्यास होना चाहिए तभी परिणाम अच्छे प्राप्त होंगे। अच्छा बाय, बाकी बातें फिर होंगी, अभी तुम कुछ खा-पीकर सो जाना और फिर कल के पेपर की तैयारी करना।’

‘ओके पापा बाय।’ सौमित्र ने हाथ हिलाया।

‘पापा ने भी गाड़ी बढ़ाते हुए हाथ हिलाया।’

सौमित्र ऊपर चला गया। पापा की बातें उसके दिमाग में घूम रही थीं। उसने सोचा आगे चलकर वह चाहे जो बने लेकिन अपनी अस्मिता की पहचान हिन्दी भाषा को कभी नहीं भूलेगा। हमेशा उन लोगों का सम्मान करेगा जो हिन्दी भाषा को आगे बढ़ाने की दिशा में लगे हुए हैं और सबको अपनी सामथ्र्य के अनुसार हिन्दी भाषा के प्रति समर्पित करने का प्रयास भी करेगा।

मम्मी ने उसे सोच में डूबा देखकर पूछा - ‘क्या हुआ सोमू पेपर अच्छा नहीं हुआ क्या ?’

‘नहीं मम्मी पेपर बहुत अच्छा हुआ।’

‘फिर चुप-चुप क्यों हो ?’ दादी ने टोका

‘वो दादी पापा से हिन्दी भाषा के बारे में बातचीत हो रही थी।’

‘तुम्हारे पापा और उनकी हिन्दी भाषा’ दादी ने हँसते हुए कहा - ‘जानते हो सोमू ! तुम्हारे पापा जब पढ़ाई करते थे तो तुम्हारे दोस्त हेमन्त की तरह उन्हें भी हिन्दी भाषा से डर लगता था। जिस तरह मैंने तुम्हारे दोस्त का डर दूर किया उसी तरह तुम्हारे पापा के डर रूपी भूत को भगाया था। तब से उनके मन में हिन्दी के प्रति ऐसा पे्रम उमड़ा कि.........’

‘वह आज तक बना हुआ है या यों कहो और अधिक बढ़ गया है।’ मम्मी ने दादी की बात पूरी की।

‘तुम्हारे पापा हाईस्कूल की परीक्षा देने के बाद छुट्टियों में राजकीय पुस्तकालय के सदस्य बन गये थे और वहाँ से किताबें ला-लाकर उन्होंने मंुशी पे्रमचन्द, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्र नाथ टैगोर, बंकिमचन्द, शरतचन्द्र के उपन्यास पढ़ डाले थे। उनकी पढ़ने की स्पीड इतनी तेज थी कि कभी-कभी तो नाश्ते-खाने के लिए भी डाँटना पड़ता था।’ दादी ने बताया।

मम्मी ने दादी और सोमू को ‘लस्सी’ का गिलास पकड़ाते हुए कहा - ‘अम्मा जी ! यह आदत उनकी आज भी है। कभी-कभी रात में टेबल लैम्प जलाकर किताब पढ़ना शुरू करते हैं और किताब में इतना डूब जाते हैं कि मैं कब रसोई का काम निपटाकर लेटने आ गयी उन्हें पता ही नहीं चलता। मेरे टोकने पर ‘अभी सोता हूँ’ कहकर फिर पढ़ने लगते हैं और न जाने कब तक पढ़ते रहते हैं अक्सर शनिवार को उनका यही कार्यक्रम रहता है। अगला दिन रविवार का होने के कारण कोई हड़बड़ाहट नहीं होती।’

मम्मी की बात पूरी होने के बाद सोमू लस्सी का ग्लास मेज पर रखकर और साबुन से हाथ धोने चला गया। लौटकर आने पर उसने दादी से कहा - ‘दादी ! पापा जब पढ़ते थे तब टी0वी0, डी0वी0डी0, केबिल, मोबाइल, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि नहीं थे। तब मनोरंजन के साधन सीमित थे इसलिए लोग किताबें पढ़ते थे। अब तो मनोरंजन के साध्ज्ञन बहुत हैं।’

‘लेकिन, लोगों के पास समय नहीं है।’ मम्मी ने जोड़ा।

‘न बच्चों के पास, न बड़ों के पास और न ही बूढ़ों के पास। सब लोग भाग रहे हैं, प्रतिस्पर्धा की एक अंधी दौड़ के पीछे लोग लगे हैं। बिना यह सोचे कि क्या मिल रहा है।’ दादी ने चिन्ता जतायी।

‘ऐसा नहीं है दादी ! जिस बच्चे के पास आपकी तरह की दादी होंगी और मेरी मम्मी डार्लिंग की तरह की मम्मी होंगीं और पापा ग्रेट की तरह के पापा होंगें वह बच्चा कभी प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में नहीं सम्मिलित होगा। उसे तो निश्चित रूप से सबसे पहले अच्छा इंसान बनना है और वह बनकर रहेगा।’

‘आमीन’ अंशिका ने स्कूल की पे्रयर के बाद होने वाली सामूहिक घोषणा की नकल उतारते हुए कहा।

‘तुम कब आयीं बेटा ! और तुम्हारा पेपर कैसा हुआ ? सौमित्र की मम्मी ने पूछा।’

‘मैं तो अभी कुछ देर पहले आयी आण्टी जब सौमित्र आपको और दादी माँ को मक्खन लगा रहा था।’ अंशिका ने छेड़ा।

आदत के विपरीत सौमित्र ने कुछ नहीं कहा केवल मुस्कुराता रहा। वैसे वह अंशिका को परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ता और अंशिका भी पलटवार करने में कहाँ चूकती है।

देखते-देखते परीक्षाएँ समाप्त हो गयीं। बच्चे निश्चिन्त हुए और फिर शुरू हुआ क्रिकेट का खेल, सुहानी सुबह-शाम की साइकलिंग, जाॅगिंग और नित-नये मनोरंजन के तरीके। कुछ बच्चे टी0वी0 से चिपक कर बैठ गये तो कुछ कम्प्यूटर के माउस में खो गये। कोई नानी के यहाँ गये और तो कोई दादी के पास। कुल मिलाकर सभी बच्चे प्रसन्न। बस इंतजार है तो परीक्षा परिणामों का।

अंशिका भी पापा के साथ एक हफ्ते दादी के पास गुजार कर फिर से वापस आ गयी। वह तो आना ही नहीं चाहती थी लेकिन पापा और दादी के समझाने पर आ गयी। पापा ने उसे आश्वासन दिया कि ग्यारहवीं की पढ़ाई वह अपने शहर में करेगी और अपने मम्मी-पापा दोनों के साथ रहेगी। अंशिका नहीं जानती यह कैसे होगा लेकिन वह रोज भगवान से मनाती है कि कोई चमत्कार हो जाय। उसका मन चाहा हो जाय।

बादल लगभग दो वर्षों बाद अपने गाँव गया। पर्चे उसके भी अच्छे हुए थे। वैसे तो वह अम्मा को पहुँचाने आया था लेकिन पापा के कहने पर कुछ दिन रुक गया। उसने अनुभव किया कि जहाँ वह पैदा हुआ, पला बढ़ा उस गाँव में उसे अच्छा नहीं लग रहा है। शहर की चकाचैंध्ज्ञ में उसका भोला-भाला गाँव कहीं गुम गया था। उसे शहर की याद आने लगी। दस दिन बाद ही उसने रात को सोने से पहले अम्मा से कहा - ‘अम्मा ! सोचता हूँ सुबह की पहली बस से शहर चला जाऊँ। वहाँ मामा अकेले परेशान हो रहे होंगे। दुकान पर बहुत काम रहता है।’

‘कह तो तुम ठीक रहे हो बचुआ, लेकिन तुम्हें तो पढ़ लिखकर बड़ा अफसर बनना है। मामा की दुकान के चक्कर में पड़कर मुला पढ़ाई-लिखाई बन्द मत कर देना।’ अम्मा ने चिन्ता जतायी ‘जाना चाहते हो तो तुम्हारे बाबू शनिवार को आने वाले हैं सोमवार को उनके साथ ही निकल जाना लेकिन मामा की दुकान के चक्कर में न पड़ना। बड़ी मुसीबत से बचे हो।’

बादल की आँख के आगे अभिनव से जुड़ी घटना घूम गयी। सोचते ही उसके रोंगटे खड़े हो गये। भोली अम्मा समझती हैं कि मामा की दुकान के कारण मैं उस मुसीबत में फँसा। सच्ची बात तो यह है कि मामा के परिचय और व्यवहार के कारण ही सौमित्र और अभिनव ने उसकी सहायता की उसको बचाया। भगवान दोनों का भला करे। और मेरे जैसे भटके हुए हर बच्चे को इसी तरह के शुभचिन्तक दोस्त मिलें।

धीरे-धीरे परीक्षा परिणाम आने लगे। पहले 12वीं का परीक्षाफल आया। बादल को द्वितीय श्रेणी से संतोष करना पड़ा। प्रथम श्रेणी में मात्र पाँच अंक कम रह गये। बादल को बहुत अफसोस था लेकिन उसके पिताजी और मामा प्रसन्न थे कि बादल ने जिन परिस्थितियों में परीक्षाएँ दी थीं उनमें तो इतने नम्बर आना ही बहुत था।

दसवीं का रिजल्ट प्रतीक्षित है सुबह से अंशिका, सौमित्र, हेमन्त, अभिनव सभी गुमसुम थे। सबके पेपर्स अच्छे हुए थे बात तो परसेण्टेज की थी। मोबाइल पर बार-बार मैसिज आ रहे थे रिजल्ट जानने के लिए एस0एम0एस0 करें। प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हुईं। सौमित्र के पापा का फोन आया उन्होंने इण्टरनेट पर सबका रिजल्ट देख लिया। सबसे पहले अंशिका का प्रतिशत बताया - 85 प्रतिशत फिर हेमन्त का 90 प्रतिशत और फिर सौमित्र का 98 प्रतिशत उसने बोर्ड में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। गणित और साइंस में 100 में 100 थे। हिन्दी में उसने 97 प्रतिशत अंक प्राप्त किये थे। सौमित्र मारे खुशी के कुछ बोल नहीं पाया। तभी डोर बैल बजी और टी0वी0 वाले, अखबार वाले चैनल वालों ने उसे घेर लिया। तब तक मम्मी और पापा भी आ गये। अभिनव के मम्मी-पापा भी उसके साथ आ पहुँचे थे उसको 92 प्रतिशत अंक मिले थे। मानव ने भी 75 प्रतिशत अंक प्राप्त किये थे।

सौमित्र का घर लोगों से भर गया रिश्तेदार, मुहल्ले वाले, दोस्त, उनके माता पिता, पापा के परिचित मम्मी के परिचित सभी। बधाइयों का दौर चला मिठाइयों के डिब्बे खाली हुए। लोग आते रहे जाते रहे। सबकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। एक रिपोर्टर ने सौमित्र से पूछा - ‘अपनी कामयाबी के लिए किसे क्रैडिट देना चाहोगे।’

बिना एक क्षण गँवाये सौमित्र का उत्तर था - ‘पहले भगवान, फिर दादी माँ उसके बाद मम्मी पापा और टीचर्स का आशीर्वाद और विश्वास के कारण ही मैं कुछ कर सका। मुझे सबने यही कहकर प्रोत्साहित किया कि तुम कर सकते हो तुम कर लोगे।’

टी0वी0 चैनल वालों का प्रश्न था - कैसे पढ़ाई करते थे - ‘नियमित छः घण्टे।’ कौन सा विषय प्रिय है - ‘सभी’

‘बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ?’

‘एक अच्छा इन्सान।’

सभी मुस्कुराने लगे।

अंशिका ने सौम्या को फोन कर सबका रिजल्ट पता किया। भूमि को छोड़कर सभी सहेलियाँ अच्छे नम्बरों से पास हो गयीं थी। भूमि दो विषयों में फेल हो गयी थी। सौमित्र के चेहरे पर व्यंग्य की हंसी खेल गयी जिसे अंशिका ने समझ लिया।

फोटो सेशन और इंटरव्यू के बाद सौमित्र ने सबके सामने ही मम्मी से कहा मम्मी और डैडी। आपने वायदा किया था यदि 95 प्रतिशत से अध्ज्ञिक तुम्हारे नम्बर आये तो जो चाहोगे वह गिफ्ट मिलेगा।’

‘हाँ बेटा किया था माॅगो क्या चाहिए।’

‘मम्मी-डैडी मुझे आपसे सहयोग चाहिए लेकिन गिफ्ट तो बुआ जी से चाहिए।’ सौमित्र ने कहा।

‘माँगो बेटा शौक से माँगो।’ कलिका की मम्मी ने प्रसन्न होते हुए कहा - ‘जो माॅगोगे मिलेगा तुमने तो हमारे खानदान का नाम रौशन किया है।’

‘बुआ जी ! आपसे नहीं मुझे अंशिका वाली बुआ जी से कुछ चाहिए।’ सौमित्र ने रहस्य बनाया।

अंशिका की मम्मी ने कहा - ‘हाॅ सौमित्र माँगो बेटा ! अंशिका की पढ़ाई में तुमने जितना सहयोग किया है उसके लिए मैं तुम्हें ढेर सारा आशीर्वाद देती हूँ। मैं तो अपनी उलझनों में रही कभी उसकी पढ़ाई की ओर ध्यान ही नहीं दे पायी।’

‘आण्टी ! आप अंशिका की उलझन खत्म कर दें। उसे उसका प्यारा सा घर दे दें जहाँ वह मेरी तरह अपने मम्मी-पापा और अपनी बेस्ट फ्रैण्ड दादी के साथ रह सके। जैसे मेरी गर्ल फ्रैण्ड मेरी दादी माँ हैं, वैसे ही उसकी भी बेस्ट फ्रैण्ड उसकी दादी माँ ही हैं।’

अंशिका की मम्मी कुछ कहती उससे पहले उनके मोबाइल पर घण्टी बजी वे कह रही थीं - अंशी के पापा ! बहुत-बहुत बधाई हो आपकी बेटी के बहुत अच्छे नम्बर आये हैं। माँ जी से बात कराइये हम मिठाई कल साथ ही खायेंगे क्योंकि कल सुबह आप हम दोनों अपने घर को ले जाने के लिए यहाँ आ रहे हैं। अंशिका तो अपने पापा की प्रतीक्षा कर ही रही है मैं भी क्षमा याचना के साथ आपकी राह देख रही हूँ।’

‘हुर्रे ! अंशिका तेरी उलझन तो बिल्कुल खत्म हो गयी। सौमित्र की दादी माँ बच्चों की तरह चिल्ला रही थीं और अंशिका और उसकी मम्मी के आँखों में खुशी के आँसू थे। सौमित्र मंद-मंद मुस्कुरा रहा था भगवान ! ऐसे ही सब बच्चों की उलझन दूर करो।’