Kamnao ke Nasheman - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

कामनाओं के नशेमन - 13

कामनाओं के नशेमन

हुस्न तबस्सुम निहाँ

13

रजिया बेग़म सहसा किसी गहरे समंदर में डूब गईं जैसे। वह पलों तक खामोश बुत सी बनी खड़ी रह गईं। सभी एक सहानुभूति के साथ रजिया बेग़म का चेहरा निहारते रह गए। फिर वह थोड़ा संयत होती हुई हँस कर बोलीं- ‘‘वह सब ख़ाक़ हो जाने से मेरा कुछ भी नहीं गया। मेरा गला और तरन्नुम तो बचा है।...कहीं भी बैठ कर सब बना लूंगी।‘‘

इस तूफान जैसी बात को वह एक मामूली तिनके की तरह उड़ा कर जिस तरह अभी सामान्य हुयी हैं वह अद्भुत था। वह फिर मुस्कुराती हुई केशव नाथ जी से बोलीं- ‘‘आप पंडित हैं...मेरे हाथ की बनी चाय पीने में आपको कोई एतराज तो नहीं। मैं जा रही हूँ चाय बनाने आप लोगों के लिए। इन लोगों ने तो कल मूझे किचेन में जाने की इजाजत दे दी थी।‘‘

‘‘आप इस वक्त बहुत डिस्टर्व हैं। मैं चाय बना के लाता हूँ, मेरे हाथ की भी चाय आप पीजिए।‘‘ अमल ने कहा। तभी बेला एक गहरी व्यथा के साथ हँस कर बोली- ‘‘अमल को मेरा शुक्रगुजार होना चाहिए मेरे अपाहिज होने से यह सबकुछ बनाना सीख गए।‘‘ पल भर के लिए एक चुप्पी ठहर सी गई थी। सभी बेला का हँसना निहारते भर रह गए थे। फिर रजिया बेग़म ने जोर देकर कहा- ‘‘जितनी देर मैं यहाँ आप लोगों के पास हूँ...किचेन में कोई मर्द नहीं आएगा।...इसी किचेन वाली गुलामी को पाने के लिए मैं जीवन भर तरसती रही। किसी औरत की यह किचेन वाली गुलामी बहुत मिठास लिए हुए होती है।‘‘ इतना कह क रवह चली गईं किचेन की ओर।

बेला ने केशव नाथ जी से बहुत ही सहानुभूति के स्वरों में सहसा कहा था- ‘‘बेचारी बहुत ही अच्छी महिला हैं। लगा ही नहीं कि वे किसी पराए घर में हैं।‘‘ फिर कुछ चुप होकर फिर पूछा- ‘‘अब जब उनका सबकुछ राख हो गया है तो ये कहाँ जाएंगी?‘‘

बेला का प्रश्न जैसे पानी की सतह पर किसी तेल की तरह तैरता रह गया था। किसी के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था उस क्षण। एक अजीब सी खामोशी सी छा गई थी। तभी केशव नाथ जी ने कहा- ‘‘सरकार ऐसे लोगों के लिए कुछ न कुछ करती है। कुछ नहीं तो मुआवजा तो देगी ही। उनके रहने का इंतजाम भी करेगी कहीं न कहीं।‘‘ शायद यह महज एक ढांढ़स देने वाली बात ही हो या फिर एक सच्चाई। लेकिन यह बात किसी के अंदर तक उतरी नहीं जैसे। सब के सब चुप रह गए थे।

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केशव नाथ जी की बांह की पट्टी सुबह ही बदलनी थी। वह अपने कमरे से उठ कर अमल के कमरे में आ गए थे। बेला ने अमल से कहा- ‘‘बाबू जी की पट्टी बदलने के लिए पानी गर्म कर लाईए। तभी रजिया किचेन से आती हुई बोलीं- ‘‘चाय बनाते वक्त मैंने पानी गर्म कर लिया था। पहले आप चाय पी लें फिर पट्टी बदली जाएगी...।‘‘

सभी ने बहुत ही अचरज से रजिया बेगम के चेहरे को देखा। उनका सबकुछ जल जाने के बाद भी उनके चेहरे पर तनिक भी अवसाद नहीं था। न जाने किन तत्वों से उनका मन बना हुआ था। किंचित मात्र भी कहीं नहीं झलक रहा था। वे इस घर में घुमड़ती विवशताओं और संवेदनाओं से जैसे जुड़ कर ही अपना सारा कुछ खोया हुआ भूलना चाहती थीं। वे अभी शायद चाय पीते वक्त सभी को उस रंग की तरह महसूस हुई थीं जो लगते ही पल भर में फैल जाते हैं। उनकी आत्मीयता का रंग जैसे लगते ही पूरे घर में चढ़ गया था।

चाय पी चुकने के बाद अमल केशव नाथ की पट्टी खोलने के लिए उनके पास कुर्सी की तरफ गए। तभी रजिया बेग़म ने अमल को रोकते हुए मुस्कुरा कर कहा- ‘‘जब तक मैं यहाँ हूँ, यह सब भी मैं ही करूंगी। बहुत तरसी हूँ किसी की खिदमत करने के लिए। कोई था ही नहीं अपना जिसकी खिदमत करके मन को तोष दे लेती। फिर उन्होंने एक अव्यक्त पीड़ा के साथ कहा- ‘‘अब तक मैं अपने आप को बहुत अकेली पा रही थी। परिवार का सुख क्या होता है इसे कुछ दिन यहाँ रह कर जी लेना चाहती हूँ। अगर आप लोगों को यहाँ मेरे रह लेने पर कुछ एतराज न हो तो...‘‘

‘‘क्या बात कहती हैं आप‘‘ अमल ने उनके चेहरे पर उमड़ती पीड़ा के सघन बादलों को महसूस करते हुए बहुत ही आत्मीयता से कहा- ‘‘घर कहीं से किसी का बन कर नहीं आता। उसे स्वीकार करने से, उससे जुड़ जाने से उसका घर बन जाता है। फिर...आप कहाँ जाएंगी अभी। वैसे न तो हम लोग आपको जाने से रोक ही पाएंगे और न तो कभी आपकी आत्मीयता को अस्वीकार ही कर पाएंगे।‘‘

इस बात पर रजिया बेग़म एक फीकी मुस्कान के साथ बोलीं- ‘‘अब तो मैं एक रिफ्यूजी की तरह बन कर रह गई हूँ...। कभी ढाका से रिफ्यूजी बन कर आयी थी यहाँ और अब एक रिफ्यूजी की तरह दोबारा ढाका वापस होऊँगी। अब मुजरे सुनाते-सुनाते थक गई हूँ।‘‘

अमल या और कोई उनकी बातों पर कुछ भी नहीं बोला था। अमल चुपचाप केशव नाथ जी की पट्टी बदलने के लिए न तो रजिया बेग़म से ही कुछ कह पा रहे थे और न ही खुद ही आगे बढ़ पा रहे थे। रजिया बेग़म ने केशव नाथ जी की पट्टी खोलते हुए कहा -‘‘शायद किसी औरत का सबसे बड़ा सुख यही होता है।...खिदमत करना‘‘

तभी बेला ने बेड पर से ही बहुत आहत भाव से कहा- ‘‘आप इतना तो कह गईं लेकिन मेरे बारे में भी जरा सोचिए। मैं इन सबकी खिदमत न कर पाने की अपनी मजबूरी के दर्द को किस तरह पड़ी-पड़ी झेलती रहती हूँ। मैं अपाहिज हूँ ये सारा दर्द भूल जाती हूँ जब इन लोगों को सारा कुछ अपने हाथों से करते हुए देखती हूँ। एक दूसरे खौफनाक दर्द से घिर जाती हूँ।‘‘

रजिया बेग़म ने बहुत गहरी आत्मीयता के साथ इस पल बेला की ओर देखा और फिर बोलीं- ‘‘मुझे ही अपना हाथ पांव मान लो। मुझे ही अपना वह मन दे डालो जिस मन में ऐसी छटपटाहट है।...सारा सुख उठा लोगी।‘‘

बेला ने फीकी हँसी के साथ कहा- ‘‘....कितने दिन...यह मेरा बदन किसी छुट्टी पर नही गया है जो छुट्टी खत्म होते ही वापस चला आएगा। मैं अपाहिज हूँ और शायद पूरी जिंदगी इस दर्द को खुद ही झेलती रहूँगी...और इन सबको भी उसे झेलने के लिए मजबूर करती रहूँगी।‘‘ रजिया बेग़म जैसे बेला की इन बातों का जवाब नहीं दे सकी थी लेकिन उन्होंने बहुत ही अपनत्व से कहा- ‘‘मैं आपको एक गीत सुनाऊँगी। गीत क्या है जिंदगी की एक ग़ज़ल है। मैं इसे कभी मुजरे में नहीं सुनाती। जब खुद को बहुत अकेली महसूस करती हूँ तो खुद गाती हूँ। बड़ा सुकून मिलता है। मन के सारे दर्द उधड़ कर गिर जाते हैं।....आज ही सुनाऊँगी।‘‘ केशव नाथ जी इन क्षणों में रजिया का चेहरा निहारते भर रह गए हैं। वे फिर चुपचाप पट्टी बदलती रहीं। तभी शायद उस ख़ामोशी को तोड़ते हुए केशव नाथ जी ने अमल से पूछा- ‘‘तुमने दिल्ली जवाब दे दिया?‘‘मै कल रात अस्पताल के बेड पर पड़ा सोचता रहा कि यदि मैं जिंदा न बचता तो एक इच्छा लिए ही मर जाता कि तुम्हें इस मुल्क का एक बड़ा सितार वादक बनते देख पाता।‘‘ फिर उन्होंने जोर देते हुए कहा- ‘‘अमल तुम्हें अमेरिका जाना ही है। बेला को और तकलीफ मत दो। अगर नहीं गए तो बहुत ही बुरा महसूस करेगी। मैं उसे देख लूंगा। माला चली गई है तो किसी और को रख लूंगा। लेकिन तुम्हें जाना है।‘‘

तभी अमल की चुप्पी पर बेला ने कहा- ‘‘बाबू जी...अगर ये नहीं गए तो मैंने सोच लिया है कि मैं आत्महत्या कर लूंगी।‘‘ इस बात पर रजिया बेगम ने बेला को निहारते हुए हँस कर कहा- ‘‘जरूर जाएंगे अमल बाबू। मुझे ही यहाँ खिदमत के लिए बाबू जी से कह कर रखवा लीजिए। आाखिर अब मेरे पास बचा ही क्या है। जब ये लौट आएंगे तब मैं चली जाऊँगी।‘‘

‘‘कितनी तन्ख्वाह लेंगी आप?‘‘ अमल ने जैसे इन बातों को टालते हुए हँस कर रजिया बेग़म से पूछा। रजिया बेग़म ने भी हँस कर कहा- ‘‘बाबू जी कितनी तन्ख्वाह देते बेला को घर संभालने के लिए या आप क्या देते...?‘‘ अमल इस क्षण रजिया बेग़म की आत्मीयता से सने चेहरे को तकते भर रह गए। वे अभी उनके पूरे व्यक्तित्व को एक अजीब भाव से निहारने लगे थे। उनका भरा पूरा बदन, बड़ी-बड़ी आँखों में झलकती ढेर सारी अनकही आकांक्षांएं, एक ठहरा हुआ बसंत जिसके चुकने की कहीं भी किसी ओर से कोई संभावना नहीं मालूम पड़ती थी...वे सब चुपचाप निरखते रह गए हैं। फिर उन्होंने पट्टी बांधते हुए पूछा- ‘‘किसी ने बताया नहीं कि मेरी तनख्वाह क्या होगी?‘‘

तब केशव नाथ जी बोल पड़े- ‘‘यह तो बेला ही तय करेगी, आप उसके एवज में ही तो खिदमत करेंगी तो यह उसी का जिम्मा है कि तय करे‘‘ बेला ने बहुत प्यार से हँस कर कहा- ‘‘मेरे हाथ अभी सही सलामत हैं, मैं इन्हें पकड़ कर चूम तो सकती हूँ। यही मेरी ओर से तनख्वाह होगी। मंजूर हो तो कहिए।‘‘

‘‘पेशगी अभी चाहिए।‘‘ रजिया बेग़म ने बेला के पास बैठते हुए कहा। बेला की मुट्ठियों में अपनी उंगलियां भर दीं। बेला ने उन्हें बहुत ही स्नेह से चूम लिया। अमल और केशव नाथ जी इस क्षण पूरी तरह एक गहरी आत्मीयता से रजिया बेग़म की ओर निहारने लगे थे। तभी बेला ने रजिया बेग़म की उंगलियों को अपनी मुटिठयों में लिए हुए पूछा था- ‘‘मैं आपको किस संबोधन से बुलाऊँ, बेग़म...बेग़म कहना मुझे अच्छा नहीं लगता।‘‘

रजिया बेग़म ने हँसते हुए कहा- ‘‘अब तक मेरे पास ऐसे कोई रिश्ते ही नहीं रहे। बस लोगों ने मुझे बेग़म ही कह कर पुकारा। वही कह कर पुकारो। मुझे जरा भी अजीब कुछ भी नहीं लगेगा। बेग़म सुनने की आदी हो चुकी हूँ।‘‘

‘‘मैं तो आपको बेग़म कह कर नहीं बुला पाऊँगी।‘‘ बेला ने बहुत ही अपनत्व से कहा और फिर जैसे वह उनके चेहरे पर उम्र को टटोलने लगी थी। तब रजिया बेग़म ने उसे देखते हुए कहा- ‘‘जिन रिश्तों में सिर्फ आत्मा और रूहों का ही रिशता हो उसे क्या नाम दिया जा सकता है भला?‘‘

‘‘फिर भी, आप उम्र में छोटी हैं या बड़ी क्या पता।‘‘ बेला ने एक गहरे भाव से उनकी ओर देखते हुए कहा। ‘‘आपको दीदी कहूँ या आंटी कह कर पुकारूं। यही नहीं सोच पा रही।...दरअसल आपने अपनी उम्र को इस तरह बांध कर रखा है कि कुछ भी थाह पाना मुश्किल लग रहा है।‘‘

रजिया बेग़म ने बेला का गाल थपथपाते कहा- ‘‘बहुत चालाक हो, इसी बहाने मेरी खूबसूरती की तारीफ कर ले गई।‘‘ फिर उन्होंने बेबाक होते हुए कहा- ‘‘सच कहूँ...मेरी यह निहायत मजबूरी रही है अपनी उम्र को बांध कर रखने की। मैं मुजरे के लिए कोठे पर बैठती हूँ न। लोग सिर्फ मेरा गला या तरन्नुम ही नहीं सुनने आते थे मेरी खूबसूरती भी निहारने आते थे। मैं सच कहती हूँ मुझे बेग़म कह कर ही पुकारा करो।‘‘ शायद रजिया बेग़म की उस चुभती सी बात से फिर बेला की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह इस बात को लेकर ज्यादह उलझे।

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आज अचानक शाम को बारिश हो गई थी। अच्छी ठंड पड़ने लगी थी। रजिया बेग़म ठंड से कांपती सी लग रही थीं। तब बेला ने उनसे कहा- ‘‘आप मेरी शाल निकलवा लीजिए।‘‘ फिर उसने एक अपनत्व से कहा- ‘‘आप अपनी पसंद की साड़ी भी निकाल कर पहन लीजिए। मैं उसी तरह आज आपसे ग़जल सुनूंगी जिस तरह आप सज संवर कर गाती रही हैं अब तक।‘‘

रजिया बेग़म ने बेला की आँखों में झांका। सचमुच उसमें एक गहरी आत्मीयता झलक रही थी। वे जैसे ही बेला के इस बहुत सहज प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार नहीं कर पा रही थीं। वे कुछ भी निर्णय लेने में खुद को असमर्थ पा रही थीं। वे चुपचाप उसका चेहरा निहारती भर रह गई थीं। उनकी इस अनिर्णय की स्थिति को भांप कर बेला ने कहा- ‘‘मैं शायद कुछ गलत कह गई। आप जैसी चाहें वैसी साड़ी पहन लें। लेकिन शाल जरूर अपने बदन पर डाल लें। आपसे गजल सुनना जरूर है। बड़ी मनहूसियत सी छायी रहती है यहाँ। कम से कम कुछ देर के लिए हम सब आपकी मिठास भरी आवाज में डूब जाएंगे। मैं महसूस करती हूँ आपकी बनायी हुयी डिसेज में जितनी मिठास होती है उतनी ही मिठास आपके गले में भी होती होगी।‘‘ फिर उसने अमल से कहा- ‘‘वार्डरोब की चाबी दे दीजिए, अपनी पसंद की साड़ी निकाल लेंगी।‘‘

अमल ने बेला के तकिए के नीचे से चाबी निकाल कर रजिया बेग़म के हाथ में थमा दी। वे कुछ हिचकती सी चाभी लेकर सामने वार्डरोब की तरफ चली गईं। अमल केशव नाथ के कमरे में चले गए। थोड़ी देर बाद जब अमल वापस कमरे में आए तो देखा रजिया बेग़म बहुत सज संवर कर चौकी पर हाथ में सितार लिए बैठी थीं। संयोंग से उन्होंने वही बनारसी साड़ी पहनी थी जिसे बेला ने शादी के बाद पहली बार पहना था। इस वक्त वह किसी अपसरा जैसी लग रही थीं। तभी उन्होने अमल को देख कर कहा- ‘‘अमल तुम ही सितार बजाओ। मैं सिर्फ गाऊँगी ही और हाँ बाबू जी को भी यहीं बुला लाओ। वे वहाँ अकेले पड़े ऊबते होंगे।‘‘

अमल केशव नाथ जीको उनके कमरे में बुलाने चले गए। कुछ देर में वे बाबू जी को लिवा कर आ गए। अमल ने रजिया बेग़म से कहा- ‘‘बाबू जी आज सितार बजाएंगे आपके साथ। घायल होने के बाद से बाबू जी ने सितार छुआ तक नहीं है। अब तो इनके घाव भी भर से गए हैं।...मैं फिर कभी सितार सुना दूंगा आपको।‘‘

केशव नाथ जी ने अमल का चेहरा निहारते हुए कहा- ‘‘अभी सितार संभालने की हिम्मत नहीं हो रही है। बांह में अभी दर्द होता है। तुम ही संगत कर लो आज।‘‘ फिर रजिया बेग़म ने कुछ पलों तक केशव नाथ जी की ओर निहारते हुए धीमी आवाज में कहा- ‘‘अमल फिर कभी...आज आप ही साथ बैठ जाएं। मैं बहुत मूड में हूँ। शायद बहुत अर्से बाद मेरे गले से वैसी आवाज फूटे जिसके लिए मैं खुद तरस गई।‘‘ इतना कह कर रजिया बेग़म आँखों में पल भर के लिए आयी एक चमक को ढांपते हुए हँस कर कहा- ‘‘आज बेला को एक ऐसी गज़ल सुनाऊँगी जिसे गाए मुझे जमाना बीत गया। तुम्हारा सारा दर्द खींच लूंगी। कभी-कभी एक दर्द दूसरे दर्द को मिटा डालता है।‘‘

केशव नाथ जी चौकी पर रजिया बेग़म के बगलमें सितार लेकर बैठ गए। जिस वक्त रजिया बेग़म ने गज़ल गाना शुरू किया, उनकी आवाज ही आवाज रह गई थी। बाकी सब कुछ डूब चुका था रजिया बेग़म के तरन्नुम में।

जब गजल खत्म हुई तो बेला ताली बजाने लगी। अमल ने भी ताली बजायी। वह मुस्कुरा कर रह गईं। बेला बोली-‘‘आपकी आवाज सीधे मन तक पहुँचती है। गजल के बोल भी बहुत ही प्यारे हैं। मैंने कभी बाबू जी को यह गजल यहाँ गुनगुनाते हुए सुना है।‘‘

रजिया ने हँस कर कहा- ‘‘यह गज़ल ही ऐसी है। मिर्जा गालिब की यह गज़ल बहुत मशहूर गज़ल है। बाबू जी क्या, किसी को भी यह पसंद आएगी। जिंदगी से छूटते एहसासात से भरी है यह गजल।....मिर्जा ग़ालिब ने अपनी न खत्म होने वाली तन्हाई को पाकर यह गजल लिखी होगी।‘‘ फिर उन्होंने केशव नाथ जी के चेहरे पर शायद उस गज़ल से तैर आए दर्द को महसूस करते हुए कहा- ‘‘अमल की माँ से हमेशा के लिए छूटने के बाद ही बाबू जी ये गजल गुनगुनाते रहे होगे।‘‘

इस बात पर केशव नाथ जी चुपचाप उठे और बिना कुछ बोले अपने कमरे में चले गए। बेला और अमल इस क्षण केशव नाथ जी का चुपचाप कमरे से चले जाना बहुत पीड़ा के साथ महसूस करते रह गए थे। एक अजीब ख़ामोशी सी छा गई थी। तभी बहुत ही कातर स्वर में रजिया बेग़म ने धीरे से कहा- ‘‘मुझसे भूल हुई। मुझे इन लम्हों में बाबूजी का मन नहीं दुखाना चाहिए था। बीते दिनों की याद दिला कर। एक अच्छा खासा माहौल मैंने बिगाड़ दिया।‘‘

‘‘नहीं....नहीं...बाबू जी जबसे रिटायर हुए हैं तबसे वे किसी भी दर्द से सन उठते हैं। अभी वे नॉर्मल हो जाएंगे थोड़ी ही देर में। फिर आकर खूब हँसेंगे और हँसाएंगे पुरानी घटनाओं को सुना-सुनाकर। रजिया बेगम ने फिर एक गहरी सांस लेते हुए कहा- ‘‘जिंदगी में सिर्फ मुस्कुराने या हँसने वाले अतीत ही नहीं होते। कुछ आंसुओं के बादल भी लिए होते हैं। जब याद आते हैं तो उनके अंदर ही अंदर बरस जाने से मन को बहुत संतोष मिल जाता है। शायद बाबू जी भी अभी उन्हीं बादलों से घिर गए होंगे। कुछ देर में मन साफ हो जाएगा खुले आसमान की तरह..बिलकुल साफ।

अमल और बेला रजिया बेग़म की बातों से न जाने क्या अर्थ निकालते से रह गए थे चुपचाप। इस वक्त उनके चेहरे पर जो बहुत ही प्यारी मासूमियत छायी थी वह गायब सी होने लगी थी। बहुत खूबसूरत से चेहरे पर जब दर्द की परतें चढ़ जाती हैं तो वह और भी मादक बना जाती हैं स्त्रियों को। अमल इस क्षण कुछ ऐसे ही भाव से रजिया बेग़म के चेहरे पर चढ़ी दर्द की पर्तों को अंदर ही अंदर महसूस करते रहे। रजिया बेग़म ने चौकी से उठते हुए बेला से हँस कर कहा- ‘‘अब तुम सो जाओ ...काफी रात हो गई है।‘‘

‘‘नींद कहाँ आती है। अब तो यह नींद की गोलियां खिला के मुझे सुलाते हैं। खुद जागते रहते हैं.....।‘‘ जब वे बाजू वाले कमरे में सोने जाने लगीं तो बेला ने कहा- ‘‘मेरे पास आ जाईए।‘‘ रजिया ने ताज्जुब से बेला का चेहरा निहार कर मुस्कुराते हुए पूछा- ‘‘क्या बात रह गई है अभी...‘‘

‘‘मेरे पास आईए आपके चेहरे को चूमने का मन हो रहा है। आप इस वक्त बहुत खूबसूरत दिख रही हैं।‘‘ बेला ने बहुत ही सहज भाव से कहा। रजिया बेग़म ने हँस कर कहा- ‘‘ले चूम ले, आज तक मैने खुद को किसी को छूने न दिया। चूमने की तो बात ही अलग है। मैं भी तो आज महसूस करूं कि चूमने का एहसास कैसा होता है।‘‘ फिर उन्होंने एक शोख लहजे में शरारत से कहा- ‘‘लेकिन तू तो औरत है रे...। तेरे इस चूमने से मुझे एक इज्जत या सम्मान का ही एहसास मिलेगा...बस। जबकि औरत को तो इसमें एक दूसरा भी एहसास चाहिए न। चल मैं तुझसे ही उस एहसास की कल्पना कर लूंगी...।‘‘ और बेला की ओर देख एक आँख धीरे से दबा दी। अमल दोनों को चुपचाप बैठे देखते रहे।

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