14 - Sajagata books and stories free download online pdf in Hindi

अर्थ पथ - 14 - सजगता

सजगता

हम प्रायः अच्छा मुनाफा होने पर कारखाने की उत्पादन क्षमता बढ़ाने में रकम लगा देते हैं और मन्दी आने पर जब माल नहीं बिकता और कार्यरत पूंजी की आवश्यकता होती है तब धन की कमी के कारण हम परेशानी में फंस जाते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा विपरीत समय आने पर बैंक भी मदद करने से अपना हाथ खींच लेता है। इसी प्रकार जब कोई व्यापार अच्छा चलने लगता है तो व्यक्ति अर्जित पूंजी को अपने अधिक लाभ के लिए व्यापार के विस्तारीकरण में खर्च कर देता है और भविष्य में किसी विपरीत परिस्थिति आने पर पूंजी में कमी के अनुभव से परेषान होता है । इससे स्पष्ट है कि कारखाने या व्यापार का विस्तारीकरण भविष्य से असामान्य परिस्थितियों का आंकलन करते हुए करना चाहिए।

जब आप अच्छे मुनाफे की स्थिति में हों उस समय आप अपने परिवार जनों के प्रति भी सजग रहें। कहीं ऐसा न हो कि परिवार जन फिजूलखर्ची और गलत दिशा की ओर अग्रसर हो जाएं। यदि ऐसी प्रवृत्तियां परिवार में प्रवेश कर जाएंगी तो आपका सारा उपक्रम छिन्न-भिन्न हो जाएगा। यह स्थिति आपको आर्थिक क्षति भी देगी और आगे आने वाले समय में आपके लिये विपत्तियां खड़ी कर देगी। हमारे भीतर अहंकार न आये वरन हममें और भी अधिक विनम्रता आना चाहिए ताकि समाज में हमारा मान-सम्मान बढ़ सके।

उद्योग के साथ-साथ अपने परिवार पर भी ध्यान देना आवश्यक है। मानव जीवन नदी के समान होता है। जिस तरह नदी अपने उद्गम से प्रारम्भ होकर सागर में विलीन हो जाती है उसी तरह हमारा जीवन भी मां के गर्भ से प्रारम्भ होकर मृत्यु पर समाप्त हो जाता है। जीवन जन्म और मृत्यु के बीच का संघर्ष है। नाविक अपनी बुद्धि और अपने कौशल से जल प्रवाह के बीच रास्ता बनाते हुए अपनी नाव को मंजिल की ओर बढ़ाता है। वह धारा, मंझधार और प्रवाह के साथ संघर्ष करता हुआ तट पर पहुँचकर कर्मवीर बन जाता है इसी तरह उद्योगपति को भी विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए जीवन का लक्ष्य प्राप्त करना होता है।

वह नाविक जो सही निर्णय लेने एवं विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करने में अक्षम होता है उसकी मंजिल उसे नहीं मिलती और उसकी नाव डूबती ही है। इसी तरह अनुभवहीन और विवेकहीन व्यक्ति समाज मे सफलता प्राप्त करने में असफल होता है। नाविक अपने अनुभव, अपनी कला को अपने बच्चों को सौंप जाता है। जीवन में सफल व्यक्ति भी अपने अनुभवों को अगली पीढ़ी को सौंपकर विदा हो जाता है। नाविक की पतवार उसकी नाव को गति व दिशा देती है। हमारा विवेक और ज्ञान हमें कर्मक्षेत्र में आगे बढ़ाता है यदि इस तथ्य को मानव समझ ले तो उसके जीवन का रास्ता भी आसान हो जाता है और सफलता उसके कदम चूमती है। वह सुख समृद्धि व सम्पन्नता का जीवन जीते हुए समाज में मान-सम्मान पाकर रहता है।

हमें उद्योग के सुचारू रूप से संचालन के लिए समय देना चाहिए। हमारा उद्योग के साथ-साथ सर्वांगीण विकास भी होना चाहिए। हमें समय निकालकर साहित्य, कला, संगीत, जनसेवा आदि में भी रूचि रखना चाहिए तभी हम जीवन के वास्तविक स्वरुप का दर्शन कर सकेंगे।

चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कनफ्यूसियस ने कहा था कि व्यक्ति अपना आधा जीवन धन कमाने में खर्च कर देता है और शेष आधा जीवन अपने स्वास्थ्य को बचाने में धन को खर्च करने में कर देता है। जब वह मृत्यु शैया पर होता है तब उसे जीवन का कड़ुवा सच समझ में आता है कि वह न ही धन बचा सका और न ही स्वास्थ्य। उसका जीवन व्यर्थ ही चला गया। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि उद्योग के विकास के साथ-साथ हमें अपना समय जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी देना चाहिए। तभी समाज में हमारा स्थान मान-सम्मान के साथ बन सकता है।

हम अपने परिवार के प्रति कितने भी आशावान हों लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे काम वही आएगा जो हम अपने श्रम से प्राप्त करेंगे। मैंने देखा है कि जो लोग यह सोचकर कि जब भी उन्हें आवश्यकता होगी उनकी पत्नी और बच्चे उनकी आवश्यकताओं को पूरा करेंगे, ऐसा सोचकर अपना पूरा धन अपनी पत्नी और बच्चों में बांट देते हैं उनको दुख और निराशा ही हाथ लगती है।

जीवन की वास्तविकता बहुत कठोर है। पत्नी से भी धन मांगने पर हमको ऐसा उत्तर मिल सकता है जिसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। उस समय हम स्वयं को कितना भी अपमानित अनुभव करें और उन दिनों की याद दिलाएं जब हमारे धन पर पूरा परिवार चलता था और सारे सुखों का उपभोग कर रहा था, यह सुनने के लिये किसी के पास समय भी नहीं होगा और हम ठगा सा अनुभव करते रह जाएंगे। इस संबंध में फिल्म उपकार की ये पंक्तियां आज भी सामयिक हैं-

कसमें, वादे, प्यार, वफा सब

बातें हैं बातों का क्या ?

कोई किसी का नहीं ये झूठे

नाते हैं नातों का क्या ?

इसलिये हमें स्वयं सावधान रहना चाहिए और धन के संबंध में अपनी निर्भरता अपनी संतानों और अपनी पत्नी पर भी नहीं रखना चाहिए। हमको अपनी वृद्धावस्था के लिये अपनी पूंजी अलग जोड़कर रखना चाहिए।

मुम्बई के पैडर रोड में जसलोक हास्पिटल के पास एक बहुमंजिला इमारत में मोहनलाल जी नाम के एक व्यक्ति रहते थे। वे जितने बुद्धिमान थे उतने ही दयालु भी थे। उसी इमारत के पास एक सन्यासी रहता था। वह दिन भर ईश्वर की आराधना में व्यस्त रहता था। मोहनलाल जी के यहाँ से उसे प्रतिदिन रात का भोजन प्रदान किया जाता था। यह परम्परा लम्बे समय से चल रही थी।

एक दिन उस सन्यासी ने भोजन लाने वाले को निर्देश दिया कि अपने मालिक से कहना कि मैंने उसे याद किया है। यह जानकर मोहनलाल जी तत्काल ही उसके पास पहुँचे और उससे उन्होंने बुलाने का प्रयोजन जानना चाहा। सन्यासी ने कहा- आज आपके भोजन के स्वाद में अन्तर था। जो मुझे आप पर आने वाली विपत्ति का संकेत प्रतीत हो रहा है। आप कोई बहुत बड़ा निर्णय निकट भविष्य में लेने वाले हैं। मोहनलाल जी ने बताया- मैं अपने दोनों पुत्रों और पत्नी के बीच अपनी संपत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ। मेरी आवश्यकताएं तो बहुत सीमित हैं जिसकी व्यवस्था वे खुशी-खुशी कर देंगे। सन्यासी ने यह सुनकर निवेदन किया कि आप अपनी संपत्ति के तीन नहीं चार भाग कीजिये और एक भाग अपने लिये बचाकर रख लीजिये। इससे आपको जीवन में किसी पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।

मोहनलाल जी यह सुनकर मुस्कराये और बोले- हमारे यहां सभी में आपस में बहुत प्रेम है। मुझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसके बाद मोहनलाल जी वहां से विदा हो गए। बाद में जब उन्होंने संपत्ति का वितरण किया तो उसके तीन ही हिस्से किए और वे अपनी पत्नी और बच्चों में बांट दिये।

कुछ समय तक तो सब कुछ सामान्य रहा। फिर उन्हें अनुभव होने लगा कि उनके बच्चे उद्योग-व्यापार और पारिवारिक मामलों में उनकी दखलन्दाजी पसन्द नहीं करते हैं। मोहन लाल जी की कुछ माह में उपेक्षा होना प्रारम्भ हो गया और जब स्थिति मर्यादा को पार करने लगी तो एक दिन दुखी मन से अनजाने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करने हेतु घर छोड़कर बाहर आ गए।

वे जाने के पहले उस सन्यासी के पास मिलने गए। उन्होंने पूछा कैसे आए ? तो मोहनलाल जी ने उत्तर दिया- कि मैं प्रकाश से अन्धकार की ओर चला गया था और अब वापिस प्रकाश लाने के लिये जा रहा हूँ। मैं अपना भविष्य नहीं जानता किन्तु प्रयासरत रहूँगा कि सम्मान की दो रोटी प्राप्त का सकूं। सन्यासी ने उनकी बात सुनी और मुस्कराकर कहा- मैंने तो तुम्हें पहले ही आगाह किया था। तुम कड़ी मेहनत करके सूर्य की प्रकाश किरणों के समान प्रकाशवान होकर औरों को प्रकाशित करने का प्रयास करो।

मेरे पास बहुत लोग आते हैं जो मुझे काफी धन देकर जाते हैं जो मेरे लिये किसी काम का नहीं है। तुम इसका समुचित उपयोग करके जीवन में आगे बढ़ो और समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करो। जिन्होंने तुम्हारे साथ दुव्र्यवहार किया है उनको भी समुचित शिक्षा मिलनी चाहिए। ऐसा कहकर उस सन्यासी ने लाखों रूपये जो उसके पास जमा थे वह मोहनलाल जी को दे दिये।

मोहनलाल जी ने उन रूपयों से पुनः व्यापार प्रारम्भ किया। वे अनुभवी तो थे ही बुद्धिमान भी थे। उनकी बाजार में साख भी थी। उन्होंने बाजार में अपना व्यापार पुनः स्थापित कर लिया। इस बीच उनके दोनों लड़कों ने अपनी माँ का धन भी हड़प लिया। बाद में आपस में भी उनमें नहीं पटी। अपने व्यापार को चौपट कर लिया। यहां मोहनलाल जी पहले से भी अधिक समृद्ध हो चुके थे। वे उनके पास पहुँचे और सहायता मांगने लगे। मोहनलाल जी ने स्पष्ट कहा- इस धन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। वे तो एक ट्रस्टी हैं वे इसे संभाल रहे हैं। जो कुछ भी है उस सन्यासी का है। तुम लोग जो भी सहायता चाहते हो उसके लिये उसी सन्यासी के पास जाकर निवेदन करो। जब वे उस सन्यासी के पास पहुँचे तो सन्यासी ने यह कहते हुए उनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया कि जो कुछ तुमने किया है उसका फल भोगो।