master ka maakan - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

पुस्तक समीक्षा - 15 - मास्टर का मकान

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पुस्तक: मास्टर का मकान

लेखक: यशवन्त कोठारी

प्रकाषक: रचना प्रकाशन, चांदपोल बाजार, जयपुर

मूल्य: 125 रु.

पृप्ठ 162 ।

मध्यवर्गीय सोच और उसकी सीमाओं की अभिव्यक्ति

आज हिन्दी में व्यंग्य लेखन अभिभावक विहीन है। एक समय जब ष्षरद जोषी और हरिषंकर परसाई जैसे व्यंग्यकार मौजूद थे और श्रीलाल ष्षुक्ल, रवीन्द्र नाथ त्यागी, ज्ञान चतुर्वेदी जैसे व्यंग्य लेखक सक्रिय थे, तब हिन्दी में व्यंग्य की असीम संभावनाएं दिखती थीं। लेकिन जोषी और परसाई के निधन के बाद ष्षेप व्यंग्यकारों की लेखनी भी पहले मंद पड़ी और धीरे-धीरे ष्षान्त होती गयी। अभिभावकों के इस टोली के लापता होते ही बचे-खुचे व्यंग्यकारों ने व्यंग्य लेखन के नाम पर खनापूरी ही की है। आज हिन्दी में इक्का-दुक्का व्यंग्य ही ऐसा दिखता है जिसे सही मायने में व्यंग्य माना जा सकता है।

व्यंग्य की इस निराषाजनक स्ाििति के लिए जितने दोपी हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएं हैं। पहले पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य को जो स्थान प्राप्त था, वह आज नहीं दिखता। एक तो अधिकांष पत्र-पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं और जो बची हैं उनमें भी व्यंग्य की स्थिति हाषिये पर हैं। इक्के-दुक्के अखबार या पत्रिकाएं ऐसी हैं। जो व्यंग्य छापने में रुचि लेती है। पत्र-पत्रिकाओं के इस रवैये ने भी हिन्दी को खासा नुकसान पहुंचाया है।

इन विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए जो व्यंग्यकार आज ही व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं उनमें यषवन्त कोठारी का नाम भी लिया जा सकता है। यषवन्त कोठारी भी औसत दर्जे के व्यंग्यकार है लेकिन उनकी सबसे बड़ी खूबी यही है िकवह निरन्तर सक्रिय हे। हाल ही में उनका व्यंग्य संकलन ‘मास्टर का मकान’ प्रकाषित हुआ है, जिसमें उनके लिखे पैंतालिस व्यंग्य संकलित हैं। इस पुस्तक के सभी व्यंग्य आम आदमी के जीवन में व्याप्त विसंगतियों का ही खुलासा नहीं करते, बल्कि विपरीत परिस्थितियों में रहने की मजबूरी भी बताते हे। लेखक ने कई जगहों पर व्यवस्था पर भी चोट करने की कोषिष की है लेकिन वह चोट उतनी मारक नहीं बन पायी है।

संग्रह के पहले व्यंग्य ‘मास्टर का मकान’ के माध्यम से लेखक ने मध्यवर्गीय सोच और उसकी सीमाओं को उभारने का प्रयास किया है। कहीं-कहीं पर यह मार्मिक भी बन पड़ा है। जैसे सोसायटी वाला एक जगह लेखक से कहता है, ‘बाबूजी प्जाट खरीदने के लिए षेर का दिल चाहिए। आप जैसे चिड़िया के दिल वाले लोग प्लाट नहीं खरीद सकते।’

इसके अलावा संग्रह में कई व्यंग्य है जो आम आदमी की पीड़ाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति करते हे। लेखक ने भयभीत राजनीति पर भी चोट करने की कोषिष की है। नेताओं के झूठे आष्वासनो और चुनावी अवसरवादिता पर भी उसकी टिप्पणी मारक है। ‘चुनाव ऋतु संहार’ नामक व्यंग्य में लेखक लिखता है, ‘रात्रि के समय सुख से अपने भवन में सोई हुई नेतागिरी उतावली सी बावली सी क्यों बौराई फिर रही है ? परदेष गए बोटरों के नेता वापस इस चुनावी आंधी में क्यों चले आ रहे हैं।

इसके अलावा संग्रह में और भी बहुत से व्यंग्य हैं जो आम आदमी के इर्द-गिर्द के वातावरण की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। लेखक की भापा परिपक्व है और उसमें प्रवाह भी है लेकिन उसकी राजनीतिक दृप्टि परिपक्वता का अहसास नहीं कराती। कई जगहों पर जहां वह काफी आक्रामक होकर सार्थक चोट कर सकता था, वहां उसने विनम्रता से काम चलाया है। कुल मिलाकर यह एक औसत कृति है।

रा. सं. 3-11-96 विमल झा चंदन अनामीषरण बबल

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पुस्तक: मास्टर का मकान

लेखक: यषश न्त कोठारी

प्रकाषक: रचना प्रकाश न, जयपुर

मूल्य: 125 रु.

पृप्ठ: 162 ।

मानवीय संवेदना को छूने वाली व्यंग्य- रचनाएं

व्यंग्य जीवन की विसंगतियों, विद्रूपताओं और आडम्बरों पर तीखा प्रहार करने वाली सषक्त विधा है। आज का जीवन छल-प्रपंच, आडम्बर, स्वार्थ-अन्धता, धन- लिप्सा, कथनी- करनी के भेद आदि अनेक प्रकारों की विसंगतियों से जितना अधिक आक्रान्त होता जा रहा है, उतना ही व्यंग्य अपनी मारकता और चुटीलेपन के कारण लोकप्रिय होता जा रहा है। राजस्थान के कई व्यंग्यकार हिन्दी व्यंग्य-लेखन में अग्रसर हैं,जिनमें यषवन्त कोठारी ने अपनी पहचान बनाई है।

यषवन्त कोठारी के कई व्यंग्य-संग्रह प्रकाषित हो चुके हैं। समीक्ष्य पुस्तक ‘मास्टर का मकान’ उनकी सद्यः प्रकाषित कृति है, जिसमें 45 वयंग्य रचनाएं संकलित है। इनमें विपय की विविधता एवं षिल्पगत नवीनता है। लेखक ने जीवन के छोटे बड़े विभिन्न क्षेत्रों में पल रही विसंगतियों को परखा है। ‘वे फिर चुनाव लड़ने चले’ ‘एम. एल.ए.साहब’, चुनाव ऋतु संहार’ और लघु कथाएं-‘नेताओं का समद्र-मंथन’ व ‘प्रजातंत्र नामक रचनाओं में राजनीति में व्याप्त भ्रप्टाचार पर तीखा व्यंग्य है। इनमें नेताओं के दोहरे चरित्र का बखूबी पर्दाफाष किया है। वुनावी राजनीति के स्वार्थपूर्ण गठबंधन की व्यंजना काव्यात्मक षैली में रोचक है-‘‘देख सखि, देख, कैसा समय आ गया है और आष्चर्य घोर आष्चर्य, कैसा कलियुग कि यह मोर इस सांप को कुछ नहीं कह रहा है। देख, यह हाथी रुपी नेता सिंह रुपी नेता के सामने कैसा नतमस्तक है, चुनाव की बेला में ही ऐसा अनुपम दृष्य संभव हैं।’’ चुनाव के अभियान का मदनोत्सव के रुप में सांगोपांग चित्रण सटीक व राचक है।

लेखक ने फागुन में वसन्त का स्वागत न कर पाने की विवषता बताकर आज के उपभोक्तावादी समाज की विसंगतियों पर प्रहार किया है।

प्रस्तुत संग्रह में आर्थिक व सामाजिक विपमताओं को उजागर करने वाली रचनाएं है। संवादात्मक षैली के, प्रयोग से कथ्य में जीवन्तता व स्वाभाविकता आई है। ‘सखि रे बाढ़ आई’ रचना में आधुनिक षिक्षा प्राप्त अफसर की पत्नी अपनी बेटी के साथ बाढ़ के कारुणिक दृष्यों में पिकनिक मनाने का आनन्द लेती है। यह अमानवीय मनोवृति आक्रोष उत्पन्न करने के साथ ही पीड़ा को गहरा करती है। मानवीय संवेदनहीनता, निर्ममता व स्वार्थपरता पर दर्द भरा व्यंग्य उभरा है एवं अवसरवादी लोगों के भ्रप्ट आचरण की पोल खुली है।

‘जब वे विदेष गए’ में विदेषी संस्कृति के प्रति मोहान्धता को एवं ‘बाइसा चाली पार्टी में ’ में उपभोक्तावादी अपसंस्कृति के आडम्बर, धन-लिप्सा व वैभव-प्रदर्षन को निषाना बनाया गया है। ‘मास्टर का मकान’ षिक्षक की अभाव-ग्रस्त स्थिति एवं मकान बनाने की समस्याओं को रेखांकित करता है। निम्न मध्य वर्ग की आर्थिक कठिनाईयों व वस्तुओं की खरीददारी को केन्द्र में रखकर लिखे गए व्यंग्यों में कुछ स्थलों पर समस्याओं का ब्यौरा अधिक हो गया है, व्यंग्य की प्रखरता कम।

वस्तुतः व्यंग्य-रचना की बुनावट में अभिव्यक्ति की वक्रता, ध्वन्यात्मकता, चुटीलापन व धारदार तेवर का निर्वाह होना अत्यन्त आवष्यक है। इस दुप्टि से इस संग्रह की कुछ रचनाओं में षिथिलता आई है। लेखक जहां गप्पों, तबादलों, हंसी आदि के प्रकारों और महत्व को वर्णित करते हैं वहां सीधी-सादी अभिधात्मक ष्षैली के स्थान पर यदि कम ष्षब्दों में वक्र व्यंजना का प्रयोग करते, तो व्यंग्य की भंगिमा अधिक निखरती। कुल मिलाकर यषवन्त कोठारी के व्यंग्य जीवन के विविध पक्षों को सार्थकता से मानवीय संवेदना के धरातल पर छूते हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी के आर्थिक सहयोग से प्रकाषित प्रस्तुत व्यंग्य संकलन रोचक एवं पठनीय है।

राज्स्थान पत्रिका 25-8-96 डा. उपा गोयल

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