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जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 2

जी हाँ, मैं लेखिका हूँ

कहानी 2-

’’ पहा़ड़ों पर नर्म धूप ’’

मेरी आँखें उसे ढूँढ रही थी। उसे कहीं न पा कर मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। न जाने क्यों? मैं उसे ठीक से जानता तक नही। उसे ठीक से जानना तो दूर, अभी उसका नाम तक नही जानता, फिर भी उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने कलाई घड़ी पर दृष्टि डाली, नौ बज रहे थे। मैं समय से आधे घंटे पूर्व ही कार्यालय आ गया था। कार्यालय के बाहरी कक्ष में जो कि स्टाफ रूम है, वहाँ बैठ कर उसकी प्रतीक्षा करने लगा। इस समय एक-एक क्षण व्यतीत करना दुरूह लग रहा था, अतः स्टाफ रूम से बाहर निकल कर लाबी में आ गया। लाबी में खड़े हो कर मैं चारों तरफ देखने लगा। इस शहर लेह मैं पहली बार आया हूँ। दूर-दूर तक पहाडों की छोटी-बड़ी श्रृंखलायें, इन विस्तृत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित समतल घाटी में बसा प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर यह छोटा-सा खूबसूरत शहर लेह। मैं यहाँ खड़े हो कर प्रकृति के अद्भुत सौन्दर्य को भरपूर दृष्टि से देख ही रहा था कि मेरे पूरे शरीर में ठंड की वजह से सिहरन होने लगी।

ठंड के कारण यहाँ रूक पाना मुश्किल हो रहा था, मैं अन्दर जाने की सोच ही रहा था कि सामने की पथरीली सड़क से वह पैदल आती दिखाई दी। बर्फीली हवाओं से बचने के लिए वह बार-बार अपना स्कार्फ ठीक कर रही थी। सड़क के दोनों तरफ फैले पथरीले मैदानों में उगे चीड़ व देवदार के ऊँचे वृक्षों के पत्ते भी मानों ठंड से काँप कर सिहर जा रहे थे। इस सर्द मौसम में वह मुझे किसी ऊष्मा से कम प्रतीत नही हो रही थी।

मेरे हाथ-पैर ठंड की वजह से काँपने लगे थे। मैं लाॅबी पार करता हुआ कार्यालय कक्ष में आ कर कुर्सी पर बैठ गया। कमरे जल रहे हीटर के कारण कमरा बाहर की अपेक्षा गर्म था। यहाँ मुझे ठीक लगा। मैं मेज पर रखी फाईलों को उठा कर पलटने लगा। किन्तु मन ही मन मैं उसकी प्रतीक्षा भी कर रहा था। मैं जानता था कि यहाँ आने के पश्चात् वह सीधे मेरे कक्ष में ही आएगी। उसके सीधे मेरे कक्ष में आने का कारण था वह यह कि वो मेरी पर्सनल सेक्रटरी थी। इस कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों की उपस्थिति रजिस्टर को उठा कर मैं देखने लगा। मैंने अभी कल ही यहाँ ज्वाइन किया है अतः मुझे यहाँ कार्यरत किसी भी कर्मचारी का नाम नही ज्ञात है। रजिस्टर देखने का एक कारण यह भी था कि मुझे उसका नाम जानने की भी उत्सुकता थी। कल सभी सहकर्मियों से परिचय तो हुआ पर मैं उसका नाम नही जान पाया। अब इस रजिस्टर से उसका नाम ज्ञात हुआ है। तो मेरी पर्सनल सेक्रेटरी का नाम शिवांगो है।

कुछ ही देर बाद वो मेरे कक्ष में दाखिल हुई। उसने मुस्कराते मेरा अभिवादन किया। मैं उसके अभिवादन का प्रत्युत्तर देना भूल कर उसके चेहरे की खूबसूरती में विलीन-सा हो गया। वो प्रत्युत्तर का आशा में कुछ क्षण मेरी ओर देखती रही तत्पश्चात् कार्यालय के कार्यों में व्यस्त हो गयी।

मैं यहाँ लेह के आकाशवाणी केन्द्र में लखनऊ से स्थानानान्तरण के पश्चात् कल ही आया हूँ। लेह की कठोर ठंड मैदानी क्षेत्र के लोगों के लिए कष्टप्रद होती है। अतः कोई यहाँ आना नही चाहता। किन्तु नौकरी की कुछ विवशताएँ भी होती हैं जिनके कारण हमें दुरूह क्षेत्रों में भी स्थानान्तरित होना ही पड़ता है। मैं दो वर्ष के लिए यहाँ आया हूँ। इसमें समय-समय पर हमें कुछ लम्बी अवधि का अवकाश भी मिलेगा ताकि हम अपने परिवार के पास जा सकें।

यहाँ ठंड होती है ये तो मैं जानता था पर यहाँ की इतनी कठोर ठंड से अनभिज्ञ था। पहली बार ही तो मैं इस शहर में आया हूँ। जो दैनन्दिन कार्य हम मैदानों में रहने वाले लोग ठंड में भी सरलता से कर लेते हैं जैसे ब्रश करना, मुँह धोना, नहाना आदि पानी से होने वाले वो सभी कार्य मुझे प्रथम दिन ही अत्यन्त दुरूह लगे। खान-पान में भिन्नता, तथा दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं की कम अथवा दुगनी कीमत पर उपलब्धता भी हमें यहाँ दिख रही थी। आज प्रथम दिन ही कार्यालय आया तथा आज ही सोचने लगा कि कैसे ये दो वर्ष व्यतीत होंगे? मन में शीघ्र लखनऊ वापस जाने का विचार प्रबल होने लगा।

शिवांगो मेरी मेज के समीप खड़ी थी। उसके हाथों में फाईलें थीं। मैंनेे लखनऊ वापस जाने के विचारों पर विराम लगाते हुए इस समय कार्यालय के कार्यों में ध्यान लगाना ही उचित समझा। मैंने शिवांगो को अपने सामने की कुर्सी पर बैठने का संकेत किया। मुझे यह ठीक नही लगा कि वह मेरे समक्ष खड़ी रह कह कर कार्यालय के कार्यों का निस्तारण कराये। वह मुस्कराती हुई थोड़ी झिझक के साथ मेरे सामने बैठ गयी। शिवांगो आज भी उतनी ही आर्कषक लग रही लग रही थी जितनी कल लगी थी। पारदर्शी गोरा रंग, पतले गुलाबी होंठ, लेह के मूल निवासियों-सी खूबसूरत आँखें व नाक। सब कुछ आर्कषक। साधारण ढंग से बँधा रेशम से चमकीले, सुनहरे बालों का पोनीटेल उसके सौन्दर्य को और बढ़ा रहा था। कार्यालय के कार्य करते-करते बीच-बीच में मैं उसे देख भी ले रहा था। सचमुच शिवांगो बहुत खूबसूरत थी।

विपरीत प्राकृतिक वातावरण में रहते हुए मुझे एक सप्ताह हो गये। धीरे -धीरे शिवांगो मुझसे खुलने लगी थी, किन्तु बहुत नही मात्र औपचारिकता तक। उसने मुझे बताया कि उसका घर इस कार्यालय से करीब आधा किमी0 दूर उस कस्बाई बाजार में है जो यहाँ से दिखता है। वह घर से पैदल ही कार्यालय आती-जाती है। मेरे साथ यहाँ आये मेरे तीन अन्य सहकर्मी एक माह पश्चात् मिलने वाले अवकाश में घर जाने की, पत्नी-बच्चों से मिलने की चर्चाओं व तैयारियों में व्यस्त थे। किन्तु मैं... मेरे यहाँ रूकने अथवा शीघ्र लखनऊ जाने की कोई वजह नही है। मैं अविवाहित हूँ। मेरे उम्रदराज माता-पिता मेरे विवाह की चिन्ता में अपने दिन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसा नही कि मेरी अभी विवाह की उम्र नही हुई है बल्कि मेरी विवाह की उम्र अब निकलती जा रही है। मैंने अब तक न जाने विवाह क्यों नही किया? मेरे माता-पिता के अनुसार मुझे कोई लड़की पसन्द ही नही आती।

घर जाने की मुझे कोई विशेष उत्सुकता नही थी अपने अन्य सहकर्मियों की भाँति। किन्तु लेह का बर्फीला सर्द मौसम मुझे परेशान-सा कर रहा था, अन्यथा अन्य कोई कारण नही था मेरे लखनऊ जाने का।

मेरे दिन कार्यालय के कार्यों में व्यतीत होते जा रहे थे......जब शिवांगो मेरे इर्द-गिर्द रहती और मैं उसके सौन्दर्य में खोया-सा। शनै-शनै मुझे शिवांगो की आदत-सी हो गई। कार्यालय पहँुच कर मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगता। उसके घर से कार्यालय आने वाली सड़क मुझे अच्छी लगती। किसी कारण वश उसके आने में विलम्ब होने पर मैं बाहर सर्द हवाओं में खड़े हो कर उसकी प्रतीक्षा करता तथा मेरी आँखें मार्ग पर उसे ढूँढा करतीं। उसके दिखाई देने तक लेह की खूबसूरत घाटियों में स्वंय को डुबाये रहता।

शिवांगो अब मेरे साथ थोड़ी-थोड़ी घुलने लगी थी। एक दिन उसे मैंने बता दिया था कि मैं अविवाहित हूँ। मेरी उम्र इस समय चालीस वर्ष की हो रही थी। मैं इस बात से अनभिज्ञ नही था कि मेरी विवाह की उम्र निकलती जा रही है। मुझे देख कर काई भी मेरी उम्र का अनुमान सरलता से लगाया जा सकता था किन्तु शिवांगो को देखकर उसकी उम्र का अनुमान लगााना कठिन था। सरकारी अभिलेखें में दर्ज उसकी बत्तीस वर्ष उम्र मुझे ज्ञात न होती तो मैं यही समझता कि वह इक्कीस-बाईस वर्ष की युवती है।

आज एक माह पूरे हो गए हैं मुझे यहाँ आए हुए। मुझे तथा मेरे साथ आए अन्य तीनों सहकर्मियों को आज घर जाने के लिए एक माह का अवकाश मिल गया। मैं और वो सभी एक साथ लेह से चल चुके हैं। उन्हें अपने शहर भोपाल, मुरादाबाद इत्यादि व मुझे लखनऊ पहुँचना है। लेह से आने के बाद लखनऊ में आज मेरी पहली शाम है। माँ-पापा से मिलने व उन्हें लेह की ठंड का हाल बताने के बाद मेरे पास शेष कुछ न था करने को। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मैं सैकड़ों किलोमीटर दूर लेह में स्वंय को छोड़ आया हूँ शिवांगों के पास।

मैं जो कि लेह में रूकना नही चाहता था। अब स्वंय को लेह की स्मृतियों से मुक्त नही कर पा रहा हूँ। लखनऊ मुझे अनजाना शहर लगने लगा है। मैं शीघ्र लेह पहुँच जाना चाहता हूँ किन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि ऐसा सम्भव नही है। न तो मेरे पास पक्षियों की भाँति पंख हैं न आवागमन की सरल सुविधा। आगामी माह में लेह जाने हेतु टेªन में आरक्षण हो चुका है। तिथि तय है। आजकल बिना आरक्षण के ट्रेन में यात्रा करना सरल नही है। विशेषकर दूर की यात्राओं के लिए आरक्षण कर के सफर करना ही बेहतर होता है। दूरभाष द्वारा शिवांगो से कभी-कभी बातें हो जाती हैं। उसके संयमित स्वभाव के कारण बातों का विषय कार्यालय के काम-काज तक ही सीमित रहता है फिर भी उसकी आवाज उसे मेरे पास होने का आभास कराती है।

कभी -कभी मैं सोचता कि क्या शिवांगो के हृदय में भी मेरे लिए ऐसे ही प्रगाढ़ प्रेम की अनुभूति होती होगी जिस प्रकार की अनुभूति मैं करने लगा हूँ। मुझे अपनी ओर देखते देख उसके चेहरे पर फैल जाती वो लज्जायुक्त लालिमा तथा यदाकदा उसके होठांे पर आ जाती वो स्नेहसिक्त हँसी उसके प्रेम को ही तो व्यक्त करते थे। शिवांगो भी अवश्य मुझसे पे्रम करने लगी होगी और वो भी इस समय वहाँ मेरी अनुपस्थिति में मुझे स्मरण कर दिन व्यतीत कर रही होगी। शिवांगो ने अपना प्रेम मुझसे भले ही व्यक्त न किया हो, वह भी मुझसे प्रेम अवश्य करती होगी। मैंने निश्चय कर लिया कि इस बार मैं जाऊँगा तो शिवांगो के समक्ष अपना प्रणय प्रकट करूंगा तथा उसके हृदय की भावनाओं को भी स्पष्ट जानने का प्रयत्न करूंगा।

मेरे अवकाश के दिन-रात व दिन-रात के प्रत्येक प्रहर शिवांगो को स्मरण करने में व्यतीत हो गए। छुट्टियां समाप्त हो गयी तथा लेह जाने का दिन भी आ गया।

आज मैं लेह जाने वाली ट्रेन में बैठा सुख-दुख मिश्रित भावों की अनुभूति कर रहा हूँ। ऐसा लग रहा है जैसे मैं अपने वृद्ध माता-पिता को छोड़ कर शिवांगो के पास सदा के लिए चला जा रहा हूँ। मन में अजीब सी भावनायें हिलोरे ले रही हैं। कदाचित् यह कोई पीड़ा है? मैंने सुना था कि प्रेम पीड़ा भी देता है तो क्या मेरा यह प्रगाढ़ प्रेम मुझे पीड़ा की अनुभूति भी दे रहा है।

जैसे-जैसे लेह मेरे समीप आता जा रहा है मैं गर्म वातावरण से निकल कर ठंड की सुखद अनुभूति कर रहा हूँ। अन्ततः आज शाम के आठ बजे मैं लेह पहुँच गया हूँ। अपने कक्ष में प्रवेश करते ही मुझे लगा कि मेरा कमरा अत्यन्त ठंडा है, इतना ठंडा कि इसमे रहने की कल्पना मात्र से मेरा मन उद्वेलित होने लगा। एक माह के अन्तराल में मुझे स्मरण ही नही रहा कि मुझे कमरे को गर्म करने के लिए आवश्यक उपकरण रूम हीटर को चलाना था। हीटर से कमरा गर्म किए बिना यहाँ रहना अत्यन्त कठिन है। यह सब कर के मंैने अव्यवस्थित कक्ष को थोडा ़-सा व्यवस्थित किया। होटल के रेस्त्रां से भोजन का आर्डर दे कर मैं फ्रेश होने बाथरूम में प्रवेश किया। पानी को बर्फ का शक्ल में देख कर इस ठंड में भी मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैने बाथरूम में भी विद्युत चालित गर्म प्लेटंे आॅन की तथा हाथ मुँह धोकर कमरे में आ गया। मैं इन दैनिक कार्यों में दक्ष होना चाह रहा था। मैं लेह के जीवनचर्या में दक्ष होना चाह रहा था। शीध्र प्रातः होने की प्रतीक्षा में कब आँख लगी मुझे ज्ञात नही।

दूसरे दिन मैं समय से पूर्व ही कार्यालय पहुँच गया, पूर्व की भाँति। कक्ष से निकल बरामदे में खडा़ हो कर शिवांगो की प्रतीक्षा करने लगा। मेरी दृष्टि बार-बार उस पथ पर उठ जाती जहाँ से शिवंागो को आना था। कुछ ही समय बाद शिवंगो मुझे आती दिखाई दी। वही सौन्दर्य, वही भोलापन उसके चेहरे पर व्याप्त था। मुझे उसकी चाल कुछ सुस्त व धीमी लगी। तो क्या यहाँ शिवांगो भी मेरी कमी को अनुभव कर रही थी। कहीं वह भी तो मुझसे प्रेम नही करती? आखिर वह इतनी उदास क्यों है? अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के साथ लेह में मेरे दो दिन और व्यतीत हो गए। मैं अपने हृदय की बात शिवांगो से बतानेे का साहस नही जुटा पाया।

आज प्रातः से ही आकाश में मेघों ने डेरा डाल दिया था। उमड़ते-घुमड़ते श्याम बादलों को देख कर भारी बारिश होने की आशंका प्रतीत हो रही थी। मध्यान्ह पश्चात् बादलों ने बरसना प्रारम्भ कर ही दिया। ठंडी हवाए कुछ और ठंडी हो चली। शिवांगो ने लांग कोट के साथ गले में ऊनी स्कार्फ बाँध रखा था। बारिश की इस ऋतु में वह मुझे और आकर्षक लग रही थी। मैं कार्यालय के कार्यों को करते-करते बीच-बीच में दृष्टि बचा कर उसे देख लिया करता था। विगत् एक माह में यह करना मेरे स्वभाव में समाहित हो चुका था।

कार्यालय बन्द करने का समय हो गया, किन्तु बारिश बन्द नही हुई। बारिश कुछ धीमी हुई तो कार्यालय के लोग अपनी सुविधाओं-साधनों से धीरे-धीरे अपने घरों को जाने लगे। शिवांगो अपने घर से पैदल आती थी, उसे जाना भी पैदल ही था। अतः वह बारिश के रूकने की प्रतीक्षा कर रही थी। मैंने आज तक उसके घर के किसी सदस्य को नही देखा था जिससे मैं यह अनुमान लगा सकूँ कि घर से उसे कोई लेने आ जाएगा। मुझे शिवांगो के घर पहुँचने को ले कर चिन्ता होने लगी। धीमी होती बारिश पुनः तेज हो गई। शिवांगो काॅरीडोर में खड़ी तेज हाती जा रही बारिश तथा खाली होते जा रहे कार्यालय को चुप-चाप देख रही थी। उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ स्पष्ट होने लगी थीं। तत्काल मुझे युक्ति सूझी मैने कार्यालय की गाड़ी निकलवायी तथा शिवंागो को बुला कर उसे घर छोड़ने का प्रस्ताव रखा। मौसम के बिगड़ते मिजाज को देख कर उसने वह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया व गाड़ी में बैठ गयी।

मैं गाड़ी चला रहा था। शिवांगो मेरी बगल की सीट पर बैठी थी। उसके साथ बारिश में भीगा यह छोटा-सा सफर मुझे भला लग रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे इस शहर को, इस मार्ग को आज मैं प्रथम बार देख रहा हूँ। सब कुछ नया-सा। पथरीले मार्ग में स्थान-स्थान पर बिखरी हरियाली विपरीत परिस्थितियों में ताल-मेल का अनूठा दृश्य उपस्थित कर रही थी। मेरी इच्छा हो रही थी कि शिवांगो के साथ मेरी यह यात्रा इसी प्रकार चलती रहे। शिवांगो विचारमग्न मेरे समीप बैठी थी। मैं उसकी तरफ देख कर यह जानने का प्रयत्न करना चाह रहा था कि क्या उसे भी मेरे समीप बैठना उतना ही अच्छा लग रहा है जितना मुझे। यात्रा सचमुच सुखद थी। मार्ग के दोनों ओर स्थान-स्थान पर बने सब्जियाँ

व फल उगाने के लिए बने कृत्रिम वातानुकूलित घरों में बन्द प्राकृतिक हरियाली बादलों व पर्वतों के मध्य अन्यन्त आर्कषक लग रही थी।

शिवांगो का भावशून्य चेहार देख कर मेरे भीतर भी कुछ असामान्य-सा अनुभव होन लगा। मेरे हृदय में शिवांगो के समक्ष अपने प्रेम को प्रकट करने की इच्छा बलवती होने लगी। प्रेम से सिक्त हवायें भी यही संकेत कर रही थीं।

चढ़ते-उतरते मार्गों व भावाभिव्यक्ति के उहापोह के मध्य शिवांगो का घर आ गया। मैंने गाड़ी उसके घर के गेट पर खड़ी कर दी। शिवांगो गाड़ी से उतर गयी। उसने मेरी तरफ देखे बिना ही मुझे अन्दर आने के लिए संकेत किया। मुझे लग रहा था कि वह घर के सदस्यों के समक्ष मुझे ले कर नही जाना चाहती है। इसका कारण अपने प्रेम को अभी सबके समक्ष व्यक्त न करने की उसकी इच्छा है या कोई और वजह? मैं अपनी इस सोच पर मन ही मन मुस्करा पड़ा। तत्क्षण मेरे मन में यह विचार भी आया कि मैंने शिवांगो से या शिवांगो ने मुझसे अभी तक अपने प्रेम को शब्दों के माध्यम से व्यक्त ही नही किया है।

मैं शिवांगो के पीछे-पीछे चल कर उसके ड्राइंग रूम में आ गया। मुझे अपने ड्राइंग रूम में बैठा कर शिवांगो अन्दर चली गयी। अत्यन्त कलात्मक ढंग से व्यवस्थित छोटे-से ड्राइंग रूम में पर्वतीय कला की साज-सज्जा परिलक्षित हो रही थी। मैं चुपचाप बैठा ड्राइंग रूम की साज-सज्जा को बड़े ही मनोयोग से निहार रहा था कि एक छः सात वर्ष का बालक ड्रइंग रूम में आकर खड़ा हो गया। वह मुझे आश्चर्य से देख रहा था। बच्चा बड़ा ही प्यारा-सा था। बिलकुल शिवांगो की तरह। कुछ क्षण मुझे यूँ ही देखने के पश्चात् वह अन्दर चला गया। मैं सोचने लगा था कि कहीं यह शिवांगो का छोटा भाई तो नही है। मुझे शिवांगो के घर के सदस्यों की जानकारी भी नही है। अतः मैंने अनुमान लगाना छोड़ दिया।

कुछ ही देर में शिवांगो मेरे समक्ष खड़ी थी। उसे पीछे वह बच्चा भी था, जो उसके लांग कोट के पीछे कभी छुप जा रहा था, तो कभी प्रकट। शिवांगो के हाथ में ट्रे थी जिसमें चाय के दो प्याले रखे थे। शिवांगो मेरे सामने सोफे पर बैठ गयी व शालीनता से मुस्कुराते हुए एक प्याला मेरी ओर बढ़ा दिया। वह बच्चा भी उसकी बगल में आ कर बैठ गया था। मैं धीरे-धीरे चाय पीने लगा। मैंने सुना था कि पहाड़ो पर रहने वाले चाय बहुत अच्छी बनाते हैं। सचमुच, चाय बहुत अच्छी बनी थी।

कमरे में पसरे सन्नाटे को बाहर हो रही मूसलाधार बारिश की आवाजें तोड़ रही थीं। कमरे में व्याप्त सन्नाटा मुझे अच्छा नही लग रहा था। इससे उबरने का प्रयत्न करते हुए मैं शिवांगो से पूछ बैठा, ’घर में कौन-कौन है?’

शिवांगो कुछ क्षण खामोश रही, तत्पश्चात् कमरे की खिड़की से दिखाई देने वाले गेट की तरफ देखते हुए बोल पड़ी ’’मेरे पापा हैं....बस्स।’’ कह कर वह चुप हो गयी।

’’ वह घर में नही हैं क्या?’’ मैं पूछ बैठा। हांलाकि यह पूछते हुए मुझे कुछ झिझक-सी हुई कहीं शिवांगो कुछ ग़लत न समझ बैठे।

’’ नही, वह इस समय दुकान में होंगे.......उनकी एक छोटी-सी जनरल मर्चेंट की दुकान है......यहीं पर.....बाजार में।’’ रूक-रूक कर उसने बात पूरी की।

मेरी चाय खत्म हो चुकी थी। बाहर पानी का शोर थम नही रहा था। मुझे भीगने की कोई चिन्ता नही थी, न ही शीघ्र घर जाने की। मेरे पास कार्यालय की गाड़ी है। मैं आज शिवांगो के बारे में कुछ और जानना चाहता था।

’’ माँ नही हैं। माँ को गुजरे छः वर्ष को गए हैं। ’’ बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए शिवांगो ने कहा।

’’ ये तुम्हारा छोटा भाई है.....। ’’

’’ नही, यह मेरा बेटा है......चवांग। ’’ मेरी तरफ स्थिर दृष्टि से देखते हुए शिवांगो ने कहा।

लेह की कठोर ठंड में मैं काँप उठा व मेरे माथे पर पसीने की

बूँदें छलक पड़ी। मेरे भीतर न जाने कैसी व्याकुलता भरती जा रही थी।

मैं बन्द खिडकी के शीशे से बाहर देखने लगा। मुझे ऐसा लगने लगा जैसे कि इस स्थान को चारों तरफ से घेरे ऊँचे पर्वतों के शिखरों की बर्फ पिघल कर मेरे अन्दर बहती जा रही है। काश! यह बर्फीला पानी मेरी आँखों से अश्रु बन कर बह पड़ता, किन्तु नही, मेरी भावनायें घनीभूत हो कर मेरे हृदय में भरती जा रही थीं। हृदय पर बढ़ता जा रहा बोझ कैसे हल्का होगा? मैंने सुना है कि यहाँ के फूचे ग्लेशियर से निकलते चश्में का पानी यहाँ के निवासियों को जीवन प्रदान करता है। वो यहाँ का जीवन तत्व है। मेरे जीवन में भी कोई ऐसा स्रोता फूट पड़े जो मुझे कुछ श्वाँस दे सके। मेरे हृदय का स्पन्दन थम-सा रहा था।

मैंने स्वंय को किसी प्रकार संयत किया। अनेक प्रश्न अनुत्तरित से दूर खड़े देवदार के लम्बे वृक्षों की भाँति मेरे समक्ष खड़े थे। मैं जानता था कि शिवांगो इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिए विवश नही है। क्यों कि उसने मुझसे प्रेम निवेदन या प्रेम प्रतिज्ञा नही की है। मैं भी तो अपनी भावनाओं उसे अवगत् नही करा पाया था। मैं अपनी पुरूष सत्तात्मक सोच से बाहर कब निकल पाया था? उसके द्वारा पहल करने की आशा में मेरा प्रतीक्षारत् रहना मेरी मेरी पुरूषवादी सोच का ही तो प्रतीक था।

बाहर बारिश की ध्वनि तेज होती जा रही थी। तापमान हिमांक बिन्दु से काफी नीचे चला गया था किन्तु मेरे भीतर नही।

मेरे अन्दर एक उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। यह सही थी या नही मुझेे ज्ञात नही। मैं शिवांगो के पति को एक बार देख भर लेना चाहता था। चवांग वहाँ से उठ कर भीतर चला गया था। कमरे मे मैं और शिवांगो ही थे। जो साहस मुझे अब से पूर्व का लेना चाहिए था, वो साहस मैं अब करने जा रहा था।

अपनी भावनायें छिपाते हुए मैं शिवांगो से पूछ बैठा , ’’तुम्हारे पति दिखाई नही दे रहे हैं? ’’

शिवांगो खामोश थी।

’’क्या वो यहाँ नही रहते? ......बाहर रहते हैं क्या....?’’ मैंने कुछ क्षण रूक-रूक कर कई प्रश्न एक साथ जानने चाहे।

मेरे कई प्रश्नों को एक साथ सुन कर शिवांगो ने खामोशी पर विराम लगाते हुए तत्क्षण उत्तर दिया, ’’ वो हमारे साथ नही रहते। ’’

मुझे ऐसा लगा जैसे शिवांगो को सब कुछ बताने की उतनी ही शीघ्रता है जितनी मुझे जान लेने की।

’’ क्यों ?’’

’’क्यों कि वह श्रीनगर नही छोड़ सकता था और मैं लेह।’’

उसकी बातें मुझमें अजीब-सी अनुभूति का संचार कर रही थीं। सुखद या कुछ अन्य मैं समझ नही पा रहा था।

’’ विवाहोपरान्त भी तुम्हारी इच्छा नही थी उसके साथ श्रीनगर जाने की ’’। न जाने किस लिए मैंने शिवांगो का मन टटोलना चाहा।

’’ नही, पापा को यहाँ अकेला नही छोड़ सकती थी। मैं लेह नही छोड़ सकती। ’’

’’ मुझे मैदानों में रहना नही आता। ’’ कुछ क्षण रूक कर शिवांगो ने अपनी बात पूरी की। ’’

’’ वह कभी नही आता.......चवांग से मिलने? ’’ मैंने पुनः पूछा।

’’ नही, छः वर्ष हो गये......मुझे ठीक से स्मरण नही वह कब आया था। ’’

’’ वह हमें विस्मृत कर चुका है और हम उसे। ऐसा मैंने स्वेच्छा से किया है। मुझे उससे कोई शिकायत नही। ’’ अपनी बात पूरी कर शिवांगो चुप हो गई।

मैं बरिशें की फुहारों व पानी की संगीत लहरियों से होता हुआ वहाँ से चला आया। मार्ग में गाड़ी चलाते हुए मुझे इस कठोर ठंड में भी ठंड की अनुभूति नही हो रही थी। जैसे मैं यहाँ रहने का अभ्यस्त हूँ। शिवांगो के घर मेरी कोई वस्तु छूट गयी थी। मेरा चश्मा भी।

दिन-प्रतिदिन समय के आगे बढ़ते रहने के साथ ही साथ मुझे ऐसा प्रतीत होनेे लगा था जैसे मैं शिवांगो के और समीप होता जा रहा हूँ।

मौसम ने करवट ले ली है। पहाड़ों से अठखेलियाँ करते बादलों के पीछे से सूर्य की किरणें छन-छन कर बर्फ के मैदानों को स्वर्णिम कर रही हैं।

मैंने अपने माता-पिता की सहमति से शिवांगो के साथ लेह के एक बौद्ध मठ में बर्फ के फाहे से धवल, पवित्र अपने प्रेम को साक्षी मानते हुए विवाह कर लिया है। मैंने अपने माता-पिता को यह भी बता दिया है कि उनका बेटा ही उनके साथ रहेगा, उनकी बहू कुछ दूर रह कर उनके पास रहेगी।

छः वर्ष बाद

मेरी बेटी सायमा बिलकुल शिवांगो की तरह है। समझदार, शालीन व सुन्दर। वह लखनऊ में अपने भाई चवांग के साथ मेरे पास रहती है। शिवांगो यदाकदा अवकाश के दिनों में हम सबसे मिलने आती रहती है। उसे मैदानों में रहना नही आता। सचमुच।

मुझे पर्वतों, घाटियों, बर्फ, देवदार व वहाँ के निवासियों से प्रेम करना आ गया है। क्यों कि मैं स्थानान्तरण के उपरान्त भी लेह आता-जाता रहता हूँ। शिवांगो का सम्पूर्ण प्रेम मैदानों की ओर बहता है, फूचे ग्लेशियर से बहते मीठे चश्में के जीवनदायी जल-सा।

नीरजा हेमेन्द्र