Yes, I am a writer - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 5

कहानी-- 5-

’’मैं पानी हूँ ’’

मुर्गे ने बांग दी है। भोर की बेला है। बस, सवेरा होनेे वाला है। कुछ ही देर में सूर्य अपनी प्रथम रश्मियाँ पूरी सृष्टि पर बिखेर देगा, किन्तु रात की परछाँइयाँ अब भी पूरे गाँव पर पसरी हैं। उध्र्वगामी रात्रि गहरी नही है। सब कुछ स्पष्ट दिख रहा है। सामने नीम का पेड़, गाँव के कच्चे-पक्के घर, फूस की दलान, कुआँ व कुएँ के इर्द-गिर्द बना पक्का चबूतरा, पीपल का पुराना पेड़ तथा पास में शिव जी का मंदिर । रज्जो के घर के सामने का पूरा दृश्य उसे स्पष्ट दिख रहा है। कच्ची चाहरदीवारी में बने बाँस के गेटनुमा दरवाजे को खोल कर रज्जो बाहर आ गई। उसने चारो तरफ दृष्टि घुमायी। यहाँ से उसे चालीस-पैंतालिस घरों वाला पूरा गाँव, गाँव के चारो तरफ फैले खेत, बाग, पगडडियाँ सब कुछ स्पष्ट दिख रहा था। हल्के-हल्के फैले अँधेरे में अब उजास घुलने लगी थी। वह बाहर से वापस अन्दर आ गई। उसने लकड़ी के गेट को हल्के-से उढ़काया व कच्ची दलान के कोने में पड़ी झाड़ू ले कर दालान को बुहारने लगी। वह झाडू़ से कूड़ा आगे की तरफ सरकाती जा रही थी तथा कल घटी घटना के बारे में सोचती जा रही थी-

’’ हे भगवान! क्या कोई इतनी गालियाँ दे सकता है। ’’ वह धीरे से बुदबुदायी।

’’ मेरी गाय ने उसके खेतों की मेड़ तक लटक आयी मटर की बेल के चार पत्ते ही तो खा लिए थे। गाय तो उसके खेतो में घुसी भी नही थी। उसकी मटर की बेल पगडंडी पर फैली थी। गाय को हाँकते-हाँकते मैं ज़रा-सी पीछे रह गयी थी, और मेरी गाय ने अनारा चाची के खेतों की मेंड़ पर से दो-चार मटर के पत्ते मुँह में लपक लिये तो कितनी गालियाँ दी उसने व झगड़ा किया। ’’  उसका मन-मस्तिष्क कल के घटनाक्रम में ही उलझा हुआ था। वह विस्मृत नही कर पा रही थी कि, ’’ कैसे अनारा चाची लग्गी ले कर दौड़ती हुई आयीं। जाती हुई मेरी गाय को दूर तक दौडा़ कर दो-चार लग्गी मारी भी। मुझे गालियाँ देते हुए कहने लगी कि मैं उनके खेत अपनी गाय से चरा रही हूँ। जब कि काली माई, बरम देव ( बह्नम देव ) जी जानते हैं कि मैं गाय से थोड़ी पीछे चल रही थी......वरना मैं गाय को उसके खेतों से कुछ भी लपकने नही देती। ’’

गाय को पिटता देख, विरोध स्वरूप वह बोल पड़ी, तो क्या नही कहा उसे अनारा चाची ने, ’’ छिनाल, कमीनी.... वगैरह-वगैरह । ’’

मैंने भी तो गालियाँ घुमा-घुमा कर वापस कर दी थीं। ’’ बड़ी होगी तो अपने घर की। ’’ रज्जो मन ही मन बड़बड़ाई।

’’ जब वह मुझे कुछ नही समझती तो मैं उसे क्यों बड़ा मानूँ? भगवान रक्षा करें ऐसे पट्टीदारों से। एक तो पट्टीदार हैं, ऊपर से पड़ोस में रहते हैं। मेरे खेत से सटे उसके खेत भी हैं। सारा जीवन इन बेसरम लोगों से पीछा छूटने वाला नही है। ’’ रज्जो कल की घटना के बारे में सोचती जा रही थी व मन ही मन बड़बड़ाती जा रही थी।

’’ जी कर रहा है झाड़ते हुए यह सारा का सारा कचरा उसके दरवाजे पर कर दूँ।’’ पर यह सोच कर रूक गयी कि उससे लड़ाई और बढ़ जाएगी। कल तो वह बच गई पर इस बात पर आज उसका मरद उसे जरूर मारेगा।  सब जानते हैं कि उसका मरद सुरेश उसकी बात नही मानता। ज़रा-ज़रा-सी बात पर उसको मारने दौडता है। झगड़े-झंझटों से बच कर रहने के बाद भी वह सुरेश के हाथों पिट ही जाती है।

सुरेश अभी सो रहा है। दिन निकलने के बाद उठेगा। फिर खेतों की ओर चला जाएगा। नित्य कर्म से निवृत हो कर, उधर ही खेतों पर लगे ट्यूबबेल से नहा-धोकर कर घंटे-डेढ़ घंटे के पश्चात् घर आएगा। घर आते ही उसे खाना तैयार चाहिए। खाना मिलने में तनिक-सा विलम्ब भी झगड़े का कारण बन जाता है। यही कारण है कि रज्जो प्रातः उठ कर घर के दैनिक कार्यों को शीघ्र समाप्त कर लेना चाहती है। झाडू लगाने के पश्चात् रज्जो गाय की घार साफ करने लगी। दालान के कोने में बँधी दोनों गायों व एक बछड़े को चाारा-पानी डाल कर सीधी हुई तथा सोचने लगी कि अभी बहुत सारा काम बाकी है। पूरे दिन काम करते-करते कमर टूट जाती है। दोपहर में नहा-धोकर तनिक देर दालान में बैठ कर आराम करती है, वह भी सुरेश को सहन नही होता। उस समय वह भी खेतों से घूम-घाम कर घर आ जाता। कभी पानी मांगना, तो कभी पंखा झलवाने के कार्यों में उसे दौडाता रहता है। कभी उसके चेहरे की तरफ देख कर कह उठता, ’’ बहुत बन-चमक कर बैठी हो। क्या बात है ? ’’ अब वह उसके इन बे-सिर पैर के प्रश्नों के क्या उत्तर दे? हमेशा उसके ऊपर शक करता है। कभी रज्जो के गोरे रंग को लेकर तंज कसता है, तो कभी उसकी सुडौल काया को लेकर ताने मारता है। अब इसमें रज्जो का क्या दोष? रज्जो सोचती जा रही थी...... उसके हृदय में बचपन की यादें समातीं जा रही थीं।

सोचते-सोचते भी वह शीघ्रता से खाना बनाने का उपक्रम करने लगी। मिट्टी के बने चुल्हे में उपलों को तोड़ कर डालने लगी। उसे स्मरण आने लगे विवाह पूर्व माता-पिता के घर व्यतीत किए गये वे बचपन के दिन, ’’ कितने अच्छे व उन्मुक्त-से दिन थे वे। गाँव के बच्चों के साथ खेलना-घूमना। कभी गाँव की अमराईयों में, कभी मंदिर के प्रांगण में पीपल के चबूतरे पर, तो कभी घर के दालान में, दिन भर खेलना-कूदना। ओस से भीगी हरी घास की तरह मुलायम व सावन के बादलों की भाँति उन्मुक्त उड़ते बचपन के दिन कब फुर्र हो गए, उसे पता ही नही चला। कितने क्षणिक दिन थे वे। बचपन के वो दिन अब क्या वापस लौट कर आयंेगे? वह जानती है कि कदापि नही। शनैः शनैः वक्त आगे बढ़ता रहा था। रज्जो को आभास तक न हुआ कि समय के साथ कब उसका शरीर भी बढ़ गया है कि माँ उसके खेलने-कूदने पर प्रतिबन्ध लगाने लगी।

समय के साथ शरीर के बढ़ने में रज्जो का क्या दोष? उसका कद बड़ा अवश्य हो गया है किन्तु उसके हृदय में तो एक नन्ही बच्ची रहती थी। गाँव के बच्चों को खेलते देख उसका मन भी खेलने को होता, किन्तु माँ घर से निकलने न देती। वे पिता जी से कहती, ’’रज्जो दिन पर दिन बड़ी होती जा रही है। उसके विवाह के लिए हमें शीघ्र सोचना पड़ेगा। ’’ रज्जो का सौन्दर्य व उसके बढ़ते शरीर को देख उसके माँ- पिता न जाने किस अज्ञात भय से भयभीत रहते और वे बाल्यावस्था में ही उसके विवाह को लेकर चिन्तित रहने लगे। अन्ततः उन्हांेने तेरह वर्ष की उम्र में ही पास के गावँ के रहने वाले, छोटे कद, साँवले रंग व गाँव के सरकारी विद्यालय से कक्षा आठ पास सुरेश के संग रज्जो का विवाह कर दिया।

यह तो अच्छा हुआ कि उसका गौना विवाह के ढाई वर्ष बाद हुआ। जब से ससुराल आई है तब से ही घर-गृहस्थी की गाड़ी खींचने में लग गई है। इस बीच दो बच्चे भी हो गए। अब बड़ा बेटा हर्षित चार वर्ष का है, छोटी कजली दो वर्ष की है। पुरानी बातें सोचते-सोचते सहसा रज्जो को स्मरण आया कि उसे शीघ्र ही भोजन बना लेना है। पुराने दिनों कर स्मृतियों में बाहर निकल वह शीघ्रता के भोजन बनाने लगीं। अब तो वह अपनी घर-गृहस्थी में पूरी तरह व्यस्त हो चुकी है। धूप-छाँव से भरे जीवन के दिन व्यतीत होते जा रहे है।

फागुन माह प्रारभ्भ हो गया है। आज गाँव में पटवारी व कोटेदार में झगड़ा हो गया। बढ़ते-बढ़ते झगड़ा इतना बढ़ गया कि दोनों ओर से मारपीट की नौबत आ गई। गाँव से कोई व्यक्ति गया और ब्लाक प्रमुख को बुला लाया। ब्लाक प्रमुख ने बीच-बचाव कर के दोनों में झगड़ा शान्त कराया। पूरा गाँव उस दिन झगड़े का तमाशा देखने पंचायत भवन के मैदान में पहुँच गया । वह भी दोनों बच्चों की उंगली पकड़े वहाँ पहुँच गई । इस छोटे-से गाँव में यह सामान्य बात है। यहाँ अक्सर कभी ढोर-जानवर ,कभी नाली-झोपड़ी, कभी खेत-मेंड़ तो कभी बिना किसी बात के भी झगड़े हो जाते हैं। कहीं भी झगड़ा शुरू होते ही गाँव के लोग उस जगह जमा हो जाते हंै, तमाश देखने के लिए। बीच-बचाव कर झगड़ा शान्त कोई भी नही कराता। रज्जो को यही लगता है कि लोग चाहते हंै कि झगड़ा, गाली-गलौज और बढ़े तथा लोग मज़े ले कर तमाशा देखें। इसीलिए तो लोग आगे बढ़ कर झगडा छुड़़ाते नही हैं।

पटवारी और कोटेदार की लड़ाई मे जब ब्लाक प्रमुख ने झगड़ा शान्त कराया तो रज्जो को अच्छा लगा। वह दोनों बच्चों का हाथ थामें, अपना आधा चेहरा पल्लू से ढ़के गाँव की औरतों के पीछे खड़ी झगड़े का तमाशा देख रही थी। सुरेश भी वहाँ था, मर्दों की ओर खड़ा। उस समय ब्लाक प्रमुख के साथ एक और युवक था। ब्लाक प्रमुख की तरफ से वही बोल रहा था। इन गाँव के मर्दों की अपेक्षा वह कितना समझदार लग रहा था , अच्छी बातें कर रहा था। उसकी बातें रज्जो को भली लग रहीं थीं। सम्मोहित-सी रज्जो की दृष्टि बार-बार उसकी ओर उठ जाती थी।

रज्जो ने चेहरे पर पड़े घुंघट की ओट से देखा तो उसे लगा जैसे वह भी बार-बार उसकी ओर ही देख रहा है। रज्जो ने झट आँचल चेहरे पर गिरा लिया।

थोड़ी देर में रज्जो घर आ गई। घर में अनेक कार्य पड़े थे करने को। यदि समय पर कार्य न हुए तो सुरेश डाँटने-डपटने लगेगा। क्रोधित होकर वह उसे मारने भी लगता है। वह झगड़े से घबराती है। सुरेश यह नही समझता कि घर में इतने सारे कार्य होते हैं। बच्चे, जानवर, घर-बाहर, खेत-खलिहान सब तो करना होता है। वह तीव्र गति से कार्य में जुट गई।

थोड़ी देर मेें सुरेश लकड़ी के गेट को भीतर ठेलते हुए दालान में दाखिल हुआ। रज्जो को आश्चर्य हुआ यह देख कर कि सुरेश के साथ वही आदमी है जो ब्लाक प्रमुख की तरफ से झगड़ा सुलझा रहा था। रज्जो ने झट से चेहरे पर घूँघट गिरा लिया व शीघ्रता से दालान के एक कोने में खड़ी चारपाई नीम की छाँव में बिछा दी, तथा कोठरी में जा कर मेहमानों के लिए बिछाने वाली नयी दरी ले आयी और चारपाई पर बिछा दी।

वे दोनों चारपाई पर बैठ गये। रज्जो कुछ कदम पीछे हट कर घूँघट को चेहरे पर खींचते हुए एक कोने में खड़ी हो गई। हवा के हलके झोके से उसका घूँघट यदा-कदा चेहरे से उड़ जा रहा था। दप-दप करता गौर वर्ण, बड़ी व चंचल आँखें, मासूमियत से भरे अबोध होठ उसके आधे छुपे व आधे ढँके सौन्दर्य को द्विगुणित कर रहे थे। सुरेश से बातें करते-करते वह व्यक्ति यदा-कदा उसकी तरफ देख ले रहा था।

कुछ क्षणों उपरान्त सुरेश ने रज्जो से चाय बनाने को कहा। चाय तो इस गाँव में विशेष अतिथियों को पिलाई जाती है। सुरेश द्वारा उसे विशेष अतिथि का स्थान देने पर रज्जो को अच्छा लगा। वह छप्पर वाले दालान में बने मिट्टी के चुल्हे में लकडि़याँ सुलगाने लगी। सामने नीम के पेड़ के नीचे बिछी चारपाई पर सुरेश उस व्यक्ति के साथ बैठा था। उनके बीच अधिकांशतः एक खामोशी-सी पसरी थी, किन्तु बीच-बीच में वे दोनों कुछ बातें भी कर ले रहे थे, जिसे रज्जो स्पष्ट सुन नही पा रही थी। चाय का पानी चुल्हे पर रख कर रज्जो भीतर कोठरी में दूध लेने चली गई। छींके पर टँगे बर्तन को उतार कर चाय के प्याले में दूध डालते हुए वह मन ही मन सोचती जा रही थी कि कहने को तो यह गाँव है, अघिकांश घरों में दुधरू जानवर भी पले हंै, फिर भी इस समय दोपहर में दूध ढूँढो तो कहीं भी पाव-आध पाव दूध कहीं नही मिलेगा। जब कि शहरों में होटलों पर, दुकानों में हर समय दूध उपलब्ध रहता है। वैसे भी इस छोटे-से गाँव में दो चार दुकानंे ही हैं जो लोगों ने अपने घरों में खोल रखी हैं। इसीलिए रज्जो अपनी गाय को दूह कर, बच्चों के हिस्से का दूध उन्हें दे कर थोड़ा दूध बचा कर प्रतिदिन छींके पर टाँग देती है। क्या जाने कौन वक्त-बेवक्त आ जाए और सुरेश चाय बनाने का हुक्म सुना दे। आज रज्जो को अपनी इस समझदारी भरे कार्य पर गर्व-सा अनुभव हो रहा था।

चाय में दूध मिलाते-मिलाते रज्जो ने एक पल को उनकी ओर देखा तो उस व्यक्ति को अपनी तरफ देखते पाया। उसे अपनी ओर इस प्रकार देखते पा कर रज्जो सहम गई। झट अपनी दृष्टि उसने चाय के भगोने पर टिका ली। चाय उबल कर गिरने ही वाली थी। रज्जो ने चाय प्यालों में उड़ेली तथा ट्रे में रख कर सुरेश के पास चारपाई पर रख कर वापस मुड़ने को हुई कि सुरेश ने उससे दो गिलास पानी लाने के कह दिया। उसने दो गिलासों में पानी ले जा कर सुरेश को पकड़ा दिया। इस बीच रज्जो का घूँघट उसके चेहरे से उड़ता रहा-गिरता रहा, किन्तु रज्जो ने अपनी झुकी पलकें ऊपर नही उठाई। वह कोठरी में आ कर धम्म से चारपाई पर बैठ कर माथे पर छलक आई पसीने की बूँदो को पोछने लगी। उसे आश्चर्य हो रहा था सर्दी में छलक आयी इन पसीने की बूँदों पर। लगभग आधे घ्ंाटे के उपरान्त कुछ आहट-सी हुई, कदाचित् सुरेश और वो व्यक्ति बाहर जा रहे थे।

वह घर के कार्यों में व्यस्त हो गयी, प्रतिदिन की तरह। शान्ति के कुछ ही दिन व्यतीत हुए थे कि उस दिन पुनः अनारा चाची से झगड़ा हो गया था। रज्जो के छप्पर पर फैल आई उनकी तुरई की बेल से उन्हांेने रज्जो पर तुरई तोड़ कर चुराने लेने का आरोप लगा दिया था। सुरेश अनारा से कुछ न कह सका उल्टा उसी बात पर उसने रज्जो को दो-चार थप्पड़ जड़ दिए। सुरेश जानता था कि वह अनारा के साथ गाली-गलौज नही कर पायेगा। अनारा के साथ उसके तीनों लड़के व बहुएँ भी झगड़ने लगती है। वह अकेले उन सब के साथ गाली-गलौज नही कर सकता है। अब यदि झगड़े में मार-पीट की स्थिति बन गई तो? जो कि अक्सर इस गाँव में छोटी-छोटी बातों पर बन जाती है तो वह उनसे लड़ नही पायेगा। रज्जो तो उनकी भद्दी गालियों का उत्तर भी ठीक से दे नही पाती। अतः वह रज्जो से झगड़ा नही करने के लिए कहता। वह यह भी जानता है कि रज्जो झगड़ा नही करती है, किन्तु अनारा चाची झगड़े की कोई न कोई जड़ ढूँढ ही लेती हंै।

सुरेश अपने माता-पिता का इकलौता लड़का है। एक बहन भी है उसकी जो पास के गाँव में व्याही है। सुरेश के माता-पिता अब इस दुनिया में नही हैं। अनारा उनके चाचा की पत्नी है। चाचा तो अब जीवित नही हैं किन्तु अनारा अपने तीन पुत्रों के दम पर खूब लड़ लेती है। विशेषकर अपने पट्टीदार के लड़के सुरेश व उसकी पत्नी रज्जो से इष्र्या भाव रखती है। सुरेश भलीभाँति जानता है कि अनारा रज्जो से लड़ने के अवसर ढूँढा करती है। किन्तु अनारा से झगड़ा होने पर रज्जो की कोई ग़लती न होने पर भी बेबस हो कर वह रज्जो की पिटाई कर देता है।

आज पुनः सुरेश से पिटने के बाद रज्जो अनमनी-सी घर के कार्यों में लग गयी थी। यद्यपि किसी काम में उसका मन नही लग रहा था। किन्तु घर के कार्य करने आवश्यक हैं। उसके दो छोटे बच्चे हैं। उनका क्या दोष? उन्हंे तो समय से खाना-पीना, कपड़े-लत्ते सब चाहिए। रज्जो तीव्र गति से काम करती जा रही थी तथा सोचती जा रही थी कि बाहर गेट पर खट् की आवाज से उसके विचारों का प्रवाह टूट गया। उसने गेट की तरफ देखा, वही व्यक्ति जो सुरेश के साथ उस दिन आया था, गेट पर खड़ा था। वो ही ब्लाक प्रमुख का खास आदमी।

रज्जो ने आगे बढ़ कर शीघ्रता से गेट खोला। वह व्यक्ति जब तक दालान में अपनी मोटर सायकिल खड़ी कर चुका था। तब तक रज्जो शीघ्रता से नीम के पेड़ के नीचे छाँव में चारपाई बिछा कर उस पर रंगीन दरी डाल चुकी थी। वह व्यक्ति चरपाई पर बैठा नही।

वह रज्जो से पूछ बैठा, ’’ सुरेश कहाँ है। ’’

अपनी ओर उसे इस प्रकार देखते देख रज्जो के पूरे शरीर में न जाने कैसी सिहरन दौड़ पड़ी। चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसने दृष्टि झुका ली और बोल पड़ी, ’’ यहीं......खेतों की ओर गया है। अभी आ जाएगा। ’’ उसने उसे चरपाई पर बैठने का संकेत किया।

वह कुछ क्षण सोचता रहा। बोला कुछ नही। अपनी मोटर सायकिल उठाई और फर्राटे भरता गेट के बाहर निकल पड़ा। रज्जो अपलक उसे गेट के बाहर जाते हुए देखती रही। साफ सुथरी पैंट-कमीज, गले में रंगीन अंगोछा लपेटे वह आकर्षक के साथ-साथ बुद्धिमान भी लग रहा था। रज्जो उसे गेट तक आ कर तब तक देखती रही जब तक वह आँखों से ओझल न हो गया। उसे इस प्रकार ध्यान से देखने पर रज्जो स्वंय झेंप गयी। वह जानती है कि गैर मर्द को इस पकार देखना पाप है। किन्तु वह क्या करे ? न जाने क्यों वह राजेन्द्र को इस प्रकार छुप-छुप कर देखने लगी है?

कुछ ही देर में वह पुनः आ गया। इस बार उसकी मोटर सायकिल की पीछे की सीट पर सुरेश बैठा हुआ था। वह और सुरेश दालान में पहले से बिछाई चारपाई पर बैठ गये। वे आपस में बातें करन लगे। बातें करते-करते वे दोनों हँस पड़ते, जैसे उनकी आपस में कोई पुरानी जान-पहचान हो।

इधर वह कई बार आ घर आ चुका है। एक दिन सुरेश से उसका नाम भी पता चल गया। राजेन्द्र मौर्या नाम है उसका। सुरेश के साथ उसकी जान-पहचान बढ़ती चली जा रही है। अब गाहे-बगाहे वह आता..... सुरेश के साथ बैठता, बातें करता। सुरेश के आग्रह पर चाय पीता। कभी-कभी गाँव की दुकान से खाने-पीने की कुछ चीजें भी आ जातीं।

आज कई दिनों के पश्चात् राजेन्द्र आया है। रज्जों ने चारपाई दालान में नीम के नीचे बिछा दी है, जैसा कि राजेन्द्र के आने पर वह करती है। राजेन्द्र चारपाई पर बैठ गया है। सुरेश किसी कार्य से गाँव में गया है। राजेन्द्र उसके आने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ ही देर में कुछ ही देर में सुरेश के किसी व्यक्ति से झगड़ने के स्वर यहाँ तक आने लगे। रज्जो ने जैसे ही सुना तो घबरा कर गेट की तरफ भागी। सुरेश के स्वर सुन कर राजेन्द्र भी उस तरफ शीघ्रता से बढ़ चला। रज्जो ने देखा कि सुरेश से झगड़ने वाला वह व्यक्ति पट्टीदारों का लड़का था जो अनावश्यक रूप से सुरेश से उलझ रहा था। राजेन्द्र को आते देख उस व्यक्ति के स्वर मन्द पड़ गए और वह वहाँ से चला गया। राजेन्द्र को देखते ही उस व्यक्ति का चुपचाप चले जाना रज्जो को अच्छा लगा। सुरेश को भी तो बहुत बल मिला था राजेन्द्र के वहाँ आ जाने से। राजेन्द्र जब से यहाँ आने-जाने लगा था, तब से अनारा चाची और उसके लड़कों ने भी झगड़ने का प्रयत्न नही किया है। राजेन्द्र के आते ही दोनों बच्चे भी कितने प्रसन्न हो जाते हैं। बच्चे जब ’चाचा ’ कह कर राजेन्द्र के पास जाते हैं तो वह बच्चों को अपने पास बुला कर उनका हाल, पढ़ाई-लिखाई इत्यादि की बातें पूछने लगता है। ऐसा करते हुए राजेन्द्र के चेहरे पर फैली स्नेह और प्रसन्नता किसी से छिप नही पाती। न रज्जो से न सुरेश से।

आजकल बात-बात में सुरेश कह पड़ता है, ’’रज्जो! आजकल तू सुन्दर होती जा रही है। ’’ सुरेश की बातें सुन कर रज्जो बनावटी क्रोध प्रकट करती है किन्तु वह मन ही मन शर्म से लाल हो जाती है।

उस दिन की बात है जब रज्जो अपने खेत में काम कर रही थी। उसी गाँव की सोनापति अपने खेत से निकल कर रज्जो के पास खड़ी हो गई। वह रज्जो से इधर-उधर की बातें करने लगी। रज्जो सोनापति के बारे में जानती है कि वह इधर-उधर चुगलियाँ करती है। इसकी चुगलियों से लोगों में आपस में झगड़े भी हो जाते हैं। बातों-बातों में सोनापति ने बताया कि, ’गाँव का प्रधान तुम्हारे व राजेन्द्र के बारे में बड़ा ही कलुषित विचार रखता है। ’ रज्जो सन्न रह गई।

घर जा कर रज्जो के विचारों में उथल-पुथल मचती रही। शरीर के थक जाने के पश्चात भी रात को नींद नही आयी। वह सोचती रही कि उसने तो आज तक राजेन्द्र से ठीक से बात तक नही की है। उसे लोगों की सोच पर घृणा होने लगी। उसे सुरेश के यह कहने का अर्थ भी कि, ’’रज्जो तू तो आजकल और चमकने लगी है। जब देखो बनठन कर रहती है। रंगढंग बदले लग रहे हैं तुम्हारे। ’’ क्या यही है?

’’सुरेश उसे यदि चरित्रहीन समझता है तो उसका विरोध क्यों नही करता? क्या सुरेश इतना कमजोर है कि उसे अपना पुरूषत्व दिखाने के लिए रज्जो के देह-सौन्दर्य का सम्बल लेना पड़ा। क्या वह भी यही समझता है कि राजेन्द्र को मैंने अपने सौन्दर्य के जाल में फँसाया हुआ है या कि वह मेरे देह-सौन्दर्य के वशीभूत यहाँ आता है। वह राजेन्द्र को घर आने से मना क्यों नही कर देता? वल्कि वह चाहता है कि राजेन्द्र उसके घर आता रहे। ’’ ये बातें सोच-सोच कर रज्जो व्याकुल होने लगी। उसे सुरेश की अपने प्रति इस प्रकार की मानसिकता रखने पर तरस आने लगी....घृणा होने लगी। एक तो देखने में सुरेश कहीं से भी आर्कषक नही लगता। फिर भी रज्जो उसे पति का पूरा सम्मान देती है। भाग्य का लिखा समझ कर उसके साथ खुशी-खुशी जीवन जीने का प्रयत्न करती है। ऊपर से उसका रज्जों को शक की दृष्टि से देखना....सोच-सोच कर रज्जो के मन में सुरेश के प्रति वितृष्णा के भाव उत्पन्न होने लगे।

वह गाँव के प्रधान के चरित्र के बारे में सोचने लगी। पूरा गाँव जानता है कि वह अपनी पहली व्याहता पत्नी को आये दिन मारता-पीटता था। उसने तीन बच्चों की माँ अपनी पत्नी को इतना प्रताडि़त किया कि वह घर छोड़ कर चली गई। उसे वह इतनी क्रूरता से पीटता था कि उसके चीखने-रोने के करूण स्वर आज तक रज्जो के कानों में गूँजते हैं। बाद में लोगों से सुना कि प्रधान ने उसे तलाक दे दिया है। कुछ ही महीने बाद वह दूसरी स्त्री को घर ले आया। दूसरी स्त्री प्रधान से उम्र में बहुत छोटी है। यही कोई सत्रह- अट्ठारह वर्ष की उम्र होगी उसकी। वह प्रधान की पहली पत्नी के तीनों बच्चों को सुधारने के बहाने उन्हें खूब मारती रहती है। गाँव के लोग कहते हैं कि वह नटों की बस्ती में रहती थी। प्रधान उसके पास पहले से ही आता-जाता रहता था। यही कारण था कि वह अपनी पहली पत्नी को पीटता रहता था। जिससे वह घर छोड़ कर चली जाये। अब सुना है कि उसकी नटी पत्नी अपने सौन्दर्य व जवानी के दम पर प्रधान को अपनी मुट्ठी में रखती है। कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि उसके आगे प्रधान की ज़बान बन्द रहती है। यदि प्रधान ने उसके लिए कुछ भी ग़लत बोला तो उसकी नटवारन पत्नी उसे ऐसी-ऐसी गालियाँ देती है कि उसके पुरखे भी तर जायें। प्रधान स्वंय बुरा है तो वह दूसरों के लिए अच्छी सोच क्यों रखेगा?’’ रज्जो जानती है कि प्रधान की पहली पत्नी में साहस की कमी थी। उसके स्थान पर यदि वह होती तो वह प्रधान को छोड़ कर जाने के बजाय यहीं रह कर उसे सबक सिखाती। वह जानती है कि हाकिम....सरकार अब महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई कानून बना चुकी है। अन्याय होने पर वह कानून का दरवाजा खटखटा सकती हैं। भरण पोषण के लिए अपने मर्द से खर्चा के पैसे मांग सकती हैं। ’’

समय व्यतीत होता रहा। ऋतुयें परिवर्तित हुईं। कठोर सर्दी की ऋतु जा रही है। हवाएँ तीव्र व शुष्क हो चली हैं। हवाओं के झोकों से वृक्षों के पीले पत्ते भूमि पर गिर कर वृक्षों के इर्द-गिर्द उड़ रहे थे। पतझर की ऋतु आ गई है। किन्तु वृक्षों पर नये पत्ते भी दिखने लगे हैं। पतझण के साथ वसंत का भी अगमन हो चुका है। यह पतझण और वसंत एक साथ क्यों आते हैं? ऐसा कर प्रकृति कहीं हमें यह सिखाने का प्रयास तो नही करती कि जीवन में सुख-दुःख साथ-साथ चलते हंै। अतः हमें इन सबके बीच सामंजस्य बनाते हुए आगे बढ़ना चाहिए। ऋतुओं का परिवर्तन तो होता रहता है, किन्तु रज्जो के जीवन में कहीं कोई परिवर्तन नही आया है। माँ के घर थी तो वहाँ भी उसकी इच्छा का कोई मूल्य नही था। पति के घर आ गयी जिसे दुनिया स्त्री का अपना घर कहती है यहाँ भी उसका अपना कुछ नही है।

ये सब बातें सोचकर आज सुबह से ही रज्जो को अच्छा नही लग रहा था। दोपहर बाद राजेन्द्र सुरेश को ढँूढता हुआ आ गया। सुरेश अभी खेतों से नही लौटा था। रज्जो ने दालान में चारपाई बिछा कर उसे बैठा दिया। रज्जो का हृदय तीव्र गति से धड़क रहा था। आज उसके मन में क्यों एक विद्रोही स्त्री सर उठा रही थी। यद्यपि राजेन्द्र के समीप वह कभी नही गयी। न तो कभी प्रेम या दैहिक आकषर्ण की दृष्टि से उसे देखा। जब कि अच्छा लगता है उसे वह। वह अक्सर रज्जो को देखता है। रज्जो उसके नेत्रों में छुपे प्रेम को पढ़ कर भी अनदेखा कर देती है। रज्जों का मन होता है कि राजेन्द्र के नेत्रों में भरी पूनम के रात की स्निग्ध चाँदनी में डूब जाये। किन्तु वह दुनिया के डर से अपनी भावनाये हृदय के अन्तःस्थल में छुपा लेती है। आज रज्जो के हृदय में छुपी विद्रोही स्त्री बाहर आना चाहती है। विद्रोह का यह पौधा अविश्वास के बीज से पनप रहा है। सुरेश जो पहले रज्जो के चरित्र पर संदेह करता था। बिना किसी बात के झगड़े की वजह निकाल कर उस पर हाथ उठा दिया करता था, आजकल शान्त रहता है। वह रज्जो की बातें सुनता है तथा मानता भी है। जब वह कहता है कि, ’’ आजकल तो तुम निखरती जा रही हो किसी युवती की तरह। क्या किसी से दिल लगा लिया है। ’’ तो उसकी इस व्यंगात्मक बातों में उसे अपने चरित्र पर संदेह करने का स्पष्ट आभास होता है। क्यों सुरेश रज्जो के चरित्र पर संदेह करता है? रज्जो ने आज तक कभी किसी पर पुरूष की तरफ ग़लत दृष्टि से देखा तक नही है। राजेन्द्र के दबंग व्यक्तित्व के कारण सुरेश आजकल रज्जो से कम ही झगड़ता है।

रज्जो के अन्दर की नारी विद्रोहिणी होने लगी है। राजेन्द्र दालान में बैठा बच्चों से बातें कर रहा है। उसके चेहरे पर संतुष्टि तथा प्रसन्नता के भाव स्पष्ट हो रहे हैं। सुरेश ने उसे बताया था कि राजेन्द्र का विवाह हुए सात-आठ वर्ष हो गए हैं किन्तु उसे अभी तक सन्तान सुख प्राप्त नही हुआ है।

रज्जो दालान में आ कर खड़ी हो गयी। उसका मन आज राजेन्द्र से बातें करने का हो रहा था। न जाने क्यों वह अपने अन्दर कुछ टूटता हुआ अनुभव कर रही थी। वह जानती है कि जब मन के अन्दर कुछ टूटता है तो बाहर भी बहुत कुछ टूटता है। चाहे सुरेश का विश्वास हो या रज्जो के मन की दहलीज की अदृश्य सीमा।

सुरेश की अनुपस्थिति में रज्जो ने आगे बढ़ कर आज प्रथम बार राजेन्द्र से पूछ लिया ’’ क्या आप चाय पीयेंगे? ’’ राजेन्द्र ने भी आज रज्जो की तरफ भरपूर देख कर मुस्कराते हुए कहा, ’’ हाँ, आप पिलायेंगी तो अवश्य।’’ रज्जो चाय बनाने के लिए आगे बढ़ चुकी थी।

आज बहुत दिनों पश्चात् सुरेश अपनी आदिम भूख की तृप्ति के लिए उसका उपयोग कर रहा है। वही भूख जिसकी तृप्ति उस पत्नी से करते हुए तनिक भी शर्म नही आती जिसका नाम किसी परपुरूष के साथ जोड़ कर उसे जी भर कर गालियाँ देता है। उफ्फ यह कैसी रात है? रज्जो का शरीर तो सुरेश के नियंत्रण में है किन्तु मन तो पूरी तरह राजेन्द्र के पास है। उसे अपने शरीर पर राजेन्द्र की उंगुलियो के स्पर्श की अनुभूति हो रही है। राजेन्द्र उसके मन के भीतर समाता जा रहा है। ’’ बहुत अच्छा किया सुरेश तुमने राजेन्द्र को मेरे समीप कर के । न तुम मुझ पर शक करते और न राजेन्द्र आज मेरे इतने समीप होता! ’’ रज्जो मन ही मन बुदबुदा उठती है।

नीरजा हेमेन्द्र