Yes, I am a writer - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 11

कहानी-11’

’’ये नही है तुम्हारी नियति ’’

बसंती अपना घर साफ करते-करते घर के सामने की गली को भी बुहारती जा रही थी। यह काम उसका प्रतिदिन का है, झाड़ू लगाते-लगाते वह ’’अंकितवा......ओ....अंकितवा...’’ कह कर अपने बड़े लड़के को पुकारती जा रही थी। अंकित घर से थोड़ी दूर सामने पेड़ के नीचे मोहल्ले के लड़कों के साथ खेल रहा था। बसंती के चार बच्चे हैं। जिनमें दस वर्षीय अंकित सबसे बड़ा हैं। माँ के पुकारने के स्वर को सुन कर भी अंकित ने अनसुना कर दिया तथा पूर्ववत् खेलता रहा। झाड़ू लगाने के बाद बसंती ने उसकी तरफ पलट कर देखा तो वह क्रोध से आगबबूला हो गयी। वह तेज कदमों से उसकी तरफ दौड़ी। उसे अपनी ओर आता देख अंकित तीव्र गति से दूसरी तरफ भाग गया। बसंती वहीं ठहर कर बड़बड़ने लगी - ’’ आज तू घर आ.....तुझे मारूंगी....खाना नही दूंगी.....पढ़ने तो जाता नही....घर में भी काम नही सुनता......दिन भर खेलता रहता है.....।’’ किन्तु अंकित उसे दूर-दूर तक कहीं दिखाई नही दे रहा था। माँ को अपनी ओर आता देख वह वहाँ से भाग चुका था। कुछ देर तक बड़बड़ाने के पश्चात् बसंती घर आ कर पुनः घर के कार्यों में लग गयी।

बसंती दिन भर घर के कार्यों में लगी रहती। फिर भी काम हैं कि समाप्त ही न होते। बसंती के चार बच्चे हैं। जिनमे सबसे बड़ा अंकित दस वर्ष का है, दूसरा राहुल आठ वर्ष का, तीसरी सुमन पाँच वर्ष की तथा सबसे छोटा तुषार तीन वर्ष का है। उसके दिन का प्रारम्भ घर से एक फर्लागं दूर सार्वजनिक नल से पानी भर कर लाने के साथ होता। फिर तो सारा दिन घर के कार्यों ही में बीत जाता।

शहर के मलिन बस्ती में एक एक छोटे-से टूटे-फूटे कमरे में बसंती रहती है। उसका पति रमेश ड्राइवर है। किसी साहब की गाड़ी चलाता है। उसके साथ ही उसके सास-ससुर भी रहते हैं। सास घरों में चैका-बर्तन करती है तथा अपना खाना अलग बनाती है। रमेश की तनख्वाह से इस महंगाई में घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है। चार-चार बच्चों की परवरिश, ऊपर से रमेश की शराब पीने की लत। घर की छोटी-छोटी आवश्यकतायें पूरी करने के लिये उसे संघर्ष करना पड़ता है। पैसों का अभाव हर समय बना रहता है। अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा रमेश शराब पीने में खर्च कर देता है। किसी प्रकार बड़ी कठिनाई से गुजर होती है। आर्थिक तंगी के कारण आये दिन घर में क्लेश होता है। कोई दोष न होते हुए भी रमेश गाहे- बगाहे बसंती की पिटाई भी कर देता है।

घर की हालत देख कर बसंती की भी इच्छा होती है कि वह भी बाहर जा कर कुछ मेहनत - मजूरी करे। आस-पास के घरों में जा कर चैका बर्तन करने का कार्य ही करे। पैसे मिलें व घर की कुछ आवश्यकतायें पूरी हो सकें। यही सोच कर उस दिन बसंती ने रमेश से अपनी कार्य करने की इच्छा बताई। बसंती की यह इच्छा जान कर कि वह घरों में चैका-बर्तन करना चाहती है, रमेश क्रोध से आग-बबूला हो गया व तिलमिलाते हुए दो घूँसे उसने बसंती की पीठ पर धम-धम् कर ्जड़ दिये। बसंती पीड़ा से चिल्लाने लगी। उसे चिल्लाता छोड़ कर रमेश घर से बाहर निकल गया। जब भी बसंती ने रमेश से जा कर काम के लिए पूछा है वह ऐसे ही उग्र रूप धर कर मार-पीट पर उतर आया है। वसंती ने डर कर पूछना ही छोड़ दिया है। किन्तु घर की जर्जर स्थिति देख कर वसंती उससे पूछ ही बैठती है और पिट जाती है। वसंती की धुनाई बिना किसी वजह के वह अक्सर करता ही रहता है। प्रतिदिन घर के कार्यों के साथ चार बच्चों की देखभाल व अभावों में गुजर बसर वसंती की नियति बन चुकी है।

माह के प्रारम्भ का प्रथम सप्ताह है यह। रमेश को वेतन मिल गया है। उसने घर की जरूरत का सामान-आटा, दाल, चावल,नमक आदि ला कर रख दिए हैं। इन वस्तुओं का मात्रा इतनी है कि इनमें पूरे माह गुजर करना असम्भव है। वसंती को इतनी चाजों से ही पूरे माह घर चलाना है। माह के अन्तिम दिनों में आधा पेट या एक वक्त ही भोजन नसीब होता है। बचे खुचे पैसे रमेश शराब पीने में व्यय कर देता है।

इधर कुछ दिनों से रमेश लंगड़ा कर चल रहा है। उसके दाहिने पैर के ऊपरी भाग में फुडि़या निकल आयी है, जिसके कारण चलने फिरने में तकलीफ होने लगी है। डाॅक्टर को दिखाने के लिए पैसे नही हैं उसके पास। दारू पीना डाॅक्टर को दिखाने से ज्यादा आवश्यक है उसके लिए। दारू तो वह प्रतिदिन पी रहा है घरेलू चीजंे आदि उसे ही वह लगा लेता है। इन देशी दवााओं से कोई लाभ नही हो रहा है। घाव बढ़ता ही जा रहा है। बढ़ते-बढ़ते अब स्थिति ये हो गई है कि दो दिनों से वो काम पर नही जा रहा है। लोगों के बताये तेल व पत्ते बाँध कर घर में पड़ा रहता है। रमेश के पास पैसे नही हैं। बूढ़े माँ बाप किसी प्रकार मेहनत मजदूरी कर के अपना गुजर कर रहे हैं। वो कहाँ से और क्यों देंगे रमेश को पैसे? रमेश ने भी तो कभी उनको दो पैसे नही दिए पुत्र होने के नाते।

बसंती की चिन्ता बढ़ती जा रही है । घर में दो जून की रोटी के लाले पड़े हैं। ऊपर से एक नई परेशानी खड़ी कर दी है रमेश की इस हालत ने। आज असह्नय दर्द से परेशान व घरेलू इलाज से कोई लाभ न देख कर, किसी से उधार पैसे ले कर वह डाॅक्टर को दिखाने आया है। वसंती भी उसके साथ आयी है। डाॅक्टर ने बताया है कि समय से इलाज न के कारण फोड़ा बढ़ गया है। अब आपरेशन करना पड़ेगा। पास में पैसे न होने के कारण डाॅक्टर से कल आने की बात कह कर वह रमेश को ले कर घर आ गई। वह जानती है कि रमेश को अब और पैसे उधर लेने पड़ेंगे। ठीक होने तक वह काम पर भी नही जा सकेगा, अतः उसे वहाँ से भी पैसे नही मिलेंगे। घर तो वह चला नही पाता कर्ज कैसे उतारेगा? वसंती ने रमेश का तरफ देखा तो उसे उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखायें स्पष्ट दिखीं। वह कातर दृष्टि से वसंती की तरफ देखने लगा।

दूसरे दिन प्रातः बजे उठ कर घर के कार्यों को निपटा कर वसंती काम की तलाश में निकल पड़ी। आज उसे प्रतीक्षा थी कि कब रमेश उसे काम पर निकलने से रोकेगा? कब उसकी घुनाई करेगा? किन्तु रमेश तो चुप रहा। उसे समीप के ही फ्लैट में काम मिल गया।

मार्ग में चलते-चलते वसंती के कदमों के साथ उसके विचारों का प्रवाह भी रूकने का नाम नही ले रहा था। वह सोचती जा रही थी कि उसने तो रमेश की मूक भाषा समझ ली, किन्तु क्या रमेश ने उस समय उसके पीड़ा की चित्कार को समझा जब वह निर्दयता पूर्वक उसे मारता था? उसे दिन रात खटने में सुख की अनुभूति तो न होती ? वह दो पैसांे के लिए ही तो मजदूरी करना चाहती थी। किन्तु रमेश अपने झूठे अहं, शान व पुरूषत्व को दिखाने के लिए उसे जानवरो की भाँति उसे पीटता था। वह ये भी जानती है कि ठीक होने के पश्चात् वह पुनः उसे मारेगा, पीटेगा तथा गालियाँ देगा। अब तो वह उसके परिश्रम के पैसों से भी शराब पियेगा। वह हरे जख्मों के साथ हाड़-तोड़ मेहनत करेगी। उसे जीना है पति बच्चों व अपने घर के लिए। सदियों से नारी की यही नियति है। झुग्गी के स्थान पर वह बंगलों या फ्लैट्स में भले ही रह ले। कार्यक्षेत्र कार्यालय, ईट-भटटे की मिलें या घरों में झाड़ू-बर्तन कुछ भी हो। आर्थिक व सामाजिक स्थिति के अनुसार रूप भले ही अलग-अलग हों, नाम अलग-अलग हों। नारी कई रूपों में, कई स्तरों पर प्रताडि़त की जाती रही है। पुरूष अपने पुरूषत्व की संतुष्टि के लिए उसका शोषण करता है। यही उसकी नियति बन गयी है। यह नियति बदलनी चाहिए पर कैसे? पुरूष व स्त्री जब इस जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं तो दोनों के आपसी समझ व सहयोग के बिना यह परिवर्तन कैसे संभव है? वसंती सोचती चली जा रही है। प्रश्न उलझते चले जा रहे हैं।

नीरजा हेमेन्द्र