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शुभ-चिन्‍तक

लघु-कथा--

शुभ-चिन्‍तक

आर. एन. सुनगरया,

स्‍वजीवीपन, स्‍वार्थ चालाकी साजिष, असम्‍वेदनशीलता, वास्‍तविकता का अवमूलन, मर्यादाओं का उलंघन, अशिष्‍टाचार, झूठा आत्‍मविश्‍वास, यथार्थ स्थिति को अनदेखा करना, इत्‍यादि ये सब, जब रक्‍त के रिश्‍तों में घुलना शुरू होता है, तब सम्‍बन्‍धों का ताना-बाना ‘’कसैला’’ अथवा ‘ज़हरीला’ होने लगता है। अन्‍तत: यही परस्‍पर जीवन में दरार उत्‍पन्‍न करता है। नाते-रिश्‍तों में सौम्यहृदय व सामान्‍य सार्थकता के अस्तित्‍व का हृास प्रारम्‍भ होने लगता है। जो कड़वाहट का मुख्‍य कारण बनता है तथा हिन्‍सात्‍मक स्थिति की और बढ़ने लगता है—अन्‍तत: चरितार्थ होने में सक्षम रहता है, तब रक्‍त के रिश्‍ते मोम के बन्‍धन की भॉंति धीमी ऑंच में भी पिघलने लगते हैं। जिन्‍हें पुन: आकार देना सम्‍भव नहीं हो सकता।

· * *

‘’......क्‍या हुआ शादी....? जमा कहीं......? कर दो यार! निबटाओ, भगाओ। निभालेंगें, अन्‍यथा भुगतेंगे। अपनी बला टालो! बस.....!!’’

.......इत्‍यादी-इत्‍यादी.....जुमलों के डंक चुभते रहते हैं। सत्‍य ही निकट और फिकरमन्‍द होने का दिखावा करते हैं। समय-समय पर जब्कि वे वास्‍तविक वस्‍तुस्थ्‍िाति से पूर्णत: अवगत हैं। स्‍वछन्‍दता और खुला आसमान देने का परिणाम यह हुआ कि अब कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं। परस्‍पर विश्‍वास खत्‍म हो चुका है। अपनी मनमर्जी से अपने फैसले थोप रहे हैं। जिन्‍हें मानने के लिये विभिन्‍न प्रकार से दबाव बना या बनवा रहे हैं, तथा राजी नहीं होने की स्थिति में ऐसी की तैसी करने पर उतारू हैं। निर्भय होकर निहायत ही बद्तमीजी से अपनी चालाकी चरितार्थ करने में लगे हुये हैं। इसमें वे तथाकथित शुभ-चिन्तक मुखौटेबाज प्रोत्‍साहन दे रहे हैं, जिन्‍हें अपनी गोटियॉं, साजिष के तहत फिट बैठती नज़र आ रही हैं। आगे खुली पृष्‍ठभूमि दिखाई दे रही है। जिस पर अपनी विसात आसानी से बिछाई जा सकती है।

.........अनकाउंटेबल एमाऊॅंट को फिजूल खर्च मनमर्जी के अनुसार हेन्डिल करके खुशी मिलती है। अहंकार से सर ऊँचा हो जाता है। अपने आप को बहुत ही काबिल समझकर चैन मिलता है। क्षणिक ही सही!

· * *

· ....बाप ने अपने उम्र के अन्तिम पहर में अगर अपने युवा बेटे से कुछ कमाई करने हेतु कहा तो कौन सा गुनाह कर दिया कि वह पिता को निहायत ही कठोर शब्दों में असभ्‍य अश्‍लील लहजे में प्रताडि़त करें।

सम्‍भवत: वह पहले भी अपनी स्‍वार्थसिद्धी के लिये ऑंखें दिखाकर चालाकी से अपनी बिन्‍दासगिरी बरकरार रखता आया है। जिसको बाप ने किन्‍हीं प्रत्‍येक्ष / अप्रत्‍येक्ष कारणों से नज़र अन्‍दाज़ करता आया है, कदाचित उसे इसी कारण प्रोत्‍साहन मिला हो एवं वह अपने झूठे आत्‍मविश्‍वास के आधार पर दबाव बनाकर आगामी कार्य भी ऐसे ही दूसरों के कंधों पर सवार होकर सम्‍पन्‍न करता रहेगा। बगैर किसी प्रयास के हर काम समय पर पूर्ववत् होते रहेंगे। चिन्‍ता किस बात की है।

लेकिन समय परिवर्तनशील होता है। बाप इनके भरोसे भागता-भागता अबतक अपने बल पर खींच लाया गाड़ी। मगर उसकी हिम्‍मत टूटने लगी है। आशाओं की डोर कमजोर पड़ने लगी है, जो व्‍यक्ति आज तक हमेशा इन सबका सहारा बना हुआ है; वह सहारे की आस लगाये हुये है। इन लोगों का स्‍वार्थ परक, स्‍वजीवीपन, असम्‍वेदनशील एहसान फरामोशी मेहसूस करके चिन्तित रहने लगा है। खामोश / उदासीन / बैचेन / नाउम्‍मीद / अकेला / नि:सहाय....इत्‍यादि-इत्‍यादि नकारात्‍मक परिस्थितियों के भ्रमजाल में घिरने लगा है। तड़पने लगा है। घुट-घुट कर चुपचाप मौत के आगोश में धीरे-धीरे खिंचता चला जा रहा है......!!!

वर्तमान विषम परिस्थितियॉं, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक, भौतिक इत्‍यादि-इत्‍यादि को बताऍंगे तो कोई सत्‍य मानेगा नहीं...!!! मृत्‍यु, जो अटल सत्‍य है। सत्‍य मानना ही पड़ेगा........।

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संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

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