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रहस्यमयी टापू--भाग (१६)

रहस्यमयी टापू--भाग(१६)

राजकुमारी सारन्धा की आंखें क्रोध से लाल थीं और उनसे अश्रुओं की धारा बह रहीं थीं, उनकी अन्त: पीड़ा को भलीभाँति समझकर नीलकमल आगें आई और सारन्धा को अपने गले लिया___
क्षमा करना बहन!आप कब से अपने भीतर अपार कष्ट को छिपाएँ बैठीं थीं और हम सब इसे ना समझ सकें, आपकी सहायता करने मे हम सब को अत्यंत खुशी मिलेगी, आप ये ना समझें की आपका कुटुम्ब आपके निकट नहीं हैं, हम सब भी तो आपका कुटुम्ब ही हैं,अब आप अपने अश्रु पोछ लिजिए और मुझे ही अपनी बहन समझिए,यहां हम सब भी शंखनाद के अत्याचारों से पीड़ित हैं,हम सब का पूर्ण सहयोग रहेगा आपके प्रतिशोध मे,आप स्वयं को असहाय मत समझिए,नीलकमल ने सारन्धा से कहा।।
धन्यवाद, बहन! और सबसे क्षमा चाहती हूँ जो अपने क्रोध को मैं वश मे ना रख सकीं,क्या करती? कोई मिला ही नहीं जिससे अपनी ब्यथा कहती,परन्तु आप सब जबसे मिले थे तो एक आशा की किरण दिखाई पड़ी कि आप लोग ही मुझे मेरे प्रतिशोध को पूर्ण करने मे सहयोग कर सकते हैं, सारन्धा ने सभी से कहा।।
तभी अघोरनाथ जी ने आगें आकर सारन्धा के सिर पर अपना हाथ रखते हुए कहा___
इतनी ब्यथित ना हो बेटी! तुम्हारे कष्ट को मैं भलीभाँति समझ रहा हूँ, जो ब्यतीत हो चुका उसे भूलने मे ही भलाई हैं, आज से तुम मुझे ही अपना पिता समझों।।
इतना सुनकर सारन्धा ने अघोरनाथ जी के चरण स्पर्श कर लिए और अघोरनाथ जी ने सारन्धा को गले से लगा लिया।।
तब राजा विक्रम,सारन्धा के सामने आकर बोले__
क्षमा करें राजकुमारी, बहुत बड़ी भूल हुई मुझसे और आपसे एक बात और ज्ञात करना चाहूँगा कि अमरेन्द्र नगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के माता-पिता से आप कभी मिलीं हैं, राजा विक्रम ने सारन्धा से प्रश्न किया।।
नहीं, उन्होंने कहा कि उनके माता पिता का स्वर्गवास हो चुका हैं, राजकुमारी सारन्धा ने उत्तर दिया।।
तात्पर्य यह हैं कि आपसे भी उन्होंने ये राज छुपाया, राजा विक्रम बोले।।
तभी राजकुमार सुवर्ण बोले, क्या बात हैं मित्र! इतने समय से पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हैं, हम सबको भी तो ज्ञात हो कदाचित् बात क्या है?
तब राजा विक्रम बोले___
मित्र! सुवर्ण, जिस राजकुमार सूर्यदर्शन की बात राजकुमारी सारन्धा कर रहीं हैं, वो सच मे बहुत धूर्त और पाखंडी हैं, राजा विक्रम बोले।।
तो,मित्र ! क्या आप भी सूर्यदर्शन से भलीभाँति परिचित हैं, सुवर्ण ने विक्रम से पूछा।।
जी,हां! राजकुमार सुवर्ण,वो सूर्यदर्शन नहीं,क्षल-कपट की मूर्ति हैं, उसने ना जाने कितने लोगों के साथ क्षल किया हैं___
आप विस्तार से बताएं, सूर्यदर्शन के विषय मे,सुवर्ण ने कहा।।
हां,तो आप सभी सुने,सूर्यदर्शन के विषय मे और राजा विक्रम ने कहना प्रारम्भ किया___
मानसरोवर नदी के तट पर एक सुंदर राज्य था जिसका नाम बांधवगढ़ था,उस राज्य के वनों में वन्यजीवों की कोई भी अल्पता नहीं थीं, राज्य के वासियों को उन वन्यजीवों का आखेट निषेध था,नागरिक अपना भरण पोषण उचित प्रकार से कर सकें इसके लिए वहां के राजा मानसिंह ने उचित प्रबन्ध कर रखें थे,वैसे भी राज्य मे किसी भी प्रकार की कोई भी अल्पता नहीं थी,मानसरोवर नदी ही वहाँ की जीविका की मुख्य स्श्रोत थी,चारों ओर खुशहाली ही खुशहाली थी।।
राजा सदैव नागरिकों की सहायता हेतु कुछ ना कुछ प्रयास करते रहते,उन्हें सदैव अपनी प्रजा अपनों प्राणों से भी प्रिय थीं,उनकी रानी विद्योत्तमा सदैव उनसे कहती की कि प्रजा के हित में उनका इतना चिंतन करना उचित नहीं हैं, इससें आपके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता हैं परन्तु महाराज कहते कि ये प्रजा तो मेरे पुत्र पुत्री समान हैं, भला इनके विषय मे चिंतन करने से मुझे क्या हो सकता हैं।।
ऐसे ही दिन ब्यतीत हो रहे थे,राजा के अब दो संतानें हो चुकी थीं,उन्होंने पुत्र का नाम विक्रम और पुत्री का ना संयोगिता रखा,उनकी दोनों संतानें अब यौवनावस्था मे पहुंच चुकीं थीं ।।
तभी राज्य में चारों ओर से वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं आने लगीं,राजा मानसिंह इन सूचनाओं से अत्यधिक ब्याकुल रहने लगे और उन्होंने इन सबके कारणों के विषय में अपनी प्रजा और राज्य के मंत्रियों से विचार विमर्श किया, परन्तु कोई भी मार्ग ना सूझ सका और ना ही किसी को कोई कारण समझ मे आया,ना गुप्तचर ही कोई कारण सामने ला पाए।।
तब राजा मानसिंह ने निर्णय लिया कि वो ही वन में वेष बदलकर रहेंगे और कारणों को जानने का प्रयास करेंगे,राजा मानसिंह ने कुछ सैनिको के साथ वन की ओर प्रस्थान किया और आदिवासियों का रूप धरकर वन मे रहने लगें,इसी तरह कुछ दिन ब्यतीत हो गए परन्तु कोई भी कारण सामने ना आ सका,अब राजा और भी गहरी सोंच मे डूबे रहते।।
अन्ततः एक रात्रि उन्होंने कुछ अनुभव किया कि कोई आकृति वायु में उड़ते हुए आई और एक वन्यजीव पर कुल्हाड़ी से प्रहार किया,मृत पशु की त्वचा को शरीर से निकाला और पुनः वायु मे उड़ चला,मानसिंह ने अपने भाले से उस पर प्रहार किया, जिससे वो भयभीत हो गया और उसनें अपनी गति बढ़ा थी और वायु में अदृश्य हो गया, राजा उसके पीछे पीछे भागने लगे क्योंकि उस मृत पशु की त्वचा अदृश्य नहीं हुई थी और इस बार मानसिंह ने अपने बाण का उपयोग किया जिससे वो अदृश्य आकृति मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी,मानसिंह भागकर उस स्थान पर गए,तब तक वो आकृति अपना रूप ले चुकी थी, राजा ने शीघ्र अपने सैनिकों को पुकारा और उसे बंदी बनाने को कहा___
उसे बंदी बनाने के उपरांत मानसिंह ने उससे उसका परिचय पूछा___
कौन हो तुम? और यहां क्या करने आए थे,ऊंचे स्वर मे मानसिंह ने पूछा।।
मैं हूं दृष्टिबंधक (जादूगर)शंखनाद, मैं यहाँ वन्यजीवों का आखेट करने आया था और राजन तुम मुझे अधिक समय तक बंदी बनाकर नहीं रख पाओगे, अभी मेरी शक्तियों से तुम परिचित नहीं हो,एक बार मेरी दृष्टि जिस पर पड़ गई,इसके उपरांत उस पर किसी का भी अधिकार नहीं रहता और अब ये वन मेरा हैं इस पर मेरा अधिकार हैं,शंखनाद बोला।।
और कुछ समय उपरांत शंखनाद पुनः अदृश्य आकृति मे परिवर्तित होकर वायु में अदृश्य हो गया,मानसिह और उनके सैनिकों ने चहुँ ओर अपनी दृष्टि डाली परन्तु वो कहीं भी नहीं दिखा।।
परन्तु उस रात्रि के उपरांत वन्यजीवों के आखेट की सूचनाएं नहीं आईं,अब राजा मानसिंह भी निश्चिन्त हो गए थे कि कदाचित् शंखनाद के भीतर भय ब्याप्त हो गया हैं,इसलिए वन्यजीवों का आखेट करना उसने छोड़ दिया हैं।।
परन्तु यहीं राजा मानसिंह से भूल हो गई और वे पुनः राजपाट मे ब्यस्त हो गए,इसी बीच एक दिन राजकुमारी संयोगिता के लिए अमरेन्द्रनगर के राजकुमार सूर्यदर्शन के विवाह सम्बन्ध का प्रस्ताव आया,राजा मानसिंह सहमत भी हो गए, परन्तु राजकुमार विक्रम बोले___
पिता श्री,मैं पहले अपने संदेह दूर कर लूं, इसके उपरांत आप विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करें,मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी और राजा मानसिंह ने अपनी सहमति विक्रम को दे दी।।
विक्रम वेष बदलकर अमरेंद्र नगर पहुंचा,वहां वो कुछ दिनों तक अपनी पहचान छिपाकर रहा,उसने पता किया कि सूर्य दर्शन एक कपटी व्यक्ति हैं, वो अपने पिता सत्यजीत को बंदी बनाकर स्वयं राजा बन बैठा और अब कुछ समय से शंखनाद से मित्रता कर ली हैं और उसने धूर्तता की सारी सीमाएं लांघ लीं हैं,उसका चरित्र भी गिरा हुआ हैं, दिन रात्रि मद मे डूबा रहता हैं, विक्रम समय रहते जानकारी ज्ञात कर सारी सूचनाएं लेकर महाराज मानसिंह के समीप पहुंचे।।
ये सब सुनकर मानसिंह अत्यधिक क्रोधित हुए,उन्होंने सूर्यदर्शन के विवाह प्रस्ताव को सहमति नहीं दी और इस कारण सूर्यदर्शन को अपने अपमान का अनुभव किया और उसने राजा मानसिंह से प्रतिशोध लेने की सोचीं।।
और एक रात्रि सूर्यदर्शन, शंखनाद के संग महाराज मानसिंह के राज्य बांधवगढ़ पहुंचा,शंखनाद ने बांधवगढ़ की प्रजा के घरों में अग्नि लगाना प्रारम्भ कर दिया, सारा राज्य अग्नि के काल में समाने लगा, प्रजा त्राहि त्राहि कर उठीं, अपने महल के छज्जे से प्रजा की ऐसी दशा देखकर राजा मानसिंह बिलख पड़े।।
उसी समय महल से बाहर आए,परन्तु उसी समय शंखनाद ने अपने अदृश्य रूप में उनका वध कर दिया,रानी बिलखती हुई राजन..राजन करते हुए उनके समीप आईं तब रानी पर प्रहार कर राजकुमारी संयोगिता को अपने साथ उठा ले गया।।
तब मैं राजकुमार विक्रम अपनी बहन संयोगिता की खोज में ना जाने कितने दिनों तक भटकता रहा, मुझे ये ज्ञात हुआ कि शंखनाद और सूर्यदर्शन ने ये षणयंत्र रचा था और शंखनाद ने संयोगिता को ले जाकर बांधवगढ़ की सीमा पर छोड़ दिया था और उसे वहां से शंखनाद के जादू से बने राक्षस ने तलघर में बंदी बना लिया हैं, मैं उस तलघर के अत्यंत समीप पहुंच गया तभी उसी समय मुझ पर किसी ने प्रहार किया और मैं मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा,इसके उपरांत आप सब मिले,उसके आगें की कथा तो आप सबको ज्ञात हैं।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा__