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रत्नावली 14

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

चौदह

भूतकाल की घटनायें वर्तमान के लिए प्रेरक का कार्य करती हैं, जब हम भविष्य के लिए योजनायें बुनने लगते हैं। तब भूतकाल के अनुभवों के कारण भटकाव का भय नहीं रहता। मैंने तो ऐसे ही उनके पथ को पल्लवित करने का व्रत लिया है। अब उनसे मिलने तो जाना ही है। देखें, वे मेरे बारे में क्या हल निकालते हैं ? हे राम जी, जरा उनके मन में बैठ जाना। हे सीता मैया उनके मन को फेर देना। बस मुझे शरण दे दें। मैं कभी उनके पथ में रोडे़ बनने का किन्चित भी प्रयास नहीं करुँगी।....

रत्ना मैया को गुमसुम सोचते हुये देखकर हरको बोली-‘इतने दिन हो गये आपका मन जरा भी नहीं बदला है। अकेले में गुमसुम जाने क्या सोचती हो ?‘

रत्नावली को अपने सोचने की बात, हरको से कह देना उचित लगी-‘इतने दिन हो गये अभी तक महाराज का कुछ पता ठिकाना ही नहीं चल सका। अब उनके दर्शन का मन बना लिया है तो यही बातें सोचने में भी आ ही जाती हैं।‘

हरको ने रामा भैया के प्रयत्नों की जानकारी दी-‘आप चिन्ता न करें। रामा भैया जितने साधु-सन्त गुजरते हैं सभी से सम्पर्क साधे हुये हैं। चित्रकूट में सोमवती का मेला है इस अवसर पर गुरुजी वहाँ जरूर आयेंगे।‘

इस सम्भावना पर रत्नावली ने उल्लास प्रकट किया-‘हाँ यह तुमने अच्छी बात कही। वे इस अवसर पर चित्रकूट अवश्य आयेंगे।‘ बात दोनों के मन को भा गयी। इतने दिनों बाद पहली बार रत्नावली के चेहरे से पूर्ण उल्लास टपक रहा था।

एक दिन दोपहर ढले रामा भैया रत्नावली के यहॉं आये। आते ही आवाज दी ‘भौजी‘ .............।

रत्नावली समझ गयी , इनका आना बिना कारण के नहीं होता। इसी उत्सुकता से वह आवाज सुनकर पौर में आ गयी । रत्नावली को देखते ही वे बोले-‘भौजी राम राम।‘

‘राम राम भैया, कहो कैसे चक्कर लग गया !‘

रामा भैया समझ गये। भौजी ने इतनी जल्दी में प्रश्न उत्सुकता बस ही किया है। उत्तर दिया-‘अभी-अभी एक साधु महाराज यहॉं से प्रयाग की ओर जा रहे हैं। उन्होंने बतलाया कि गोस्वामी जी चित्रकूट में रामघाट पर ठहरे हुये हैं। सोमवती तक वहीं रहेंगे। परसों सामवती का मेला भी है। हमें चलने में देर नहीं करनी चाहिए।‘

यह सुनकर रत्नावली आनन्द विभोर हो गयी । व्याकुलता में प्रश्न किया-‘फिर कब चलना है ? हरको भी साथ चलने की जिद्द कर रही है।‘

रामा भैया ने निर्णय दिया-‘अब देर करना ठीक नहीं हैं। कल रात ही निकल पड़ेंगे। रास्ते के लिए कुछ कपड़े लत्ते ले लें। जल्दी निकल पड़ें तो सीधे चित्रकूट पहॅुंचकर ही विश्राम करेंगे। मैं चलता हूँ । आप कल रात तैयार रहें। हॉं कोई घोड़ा गाड़ी तैयार करवाऊॅं।‘

रत्नावली ने उत्तर दिया-‘आप इस चक्कर में न पड़ें, मैं पैदल ही चलॅंगी। एक दिन की ही तो बात है।‘

रामा भैया ने उन्हें हिम्मत बंधाई-‘न होगा तो चार-छः जगह बैठ लेंगे। दोपहरी पहाड़ी गाँवमें बिता लेंगे। वहॉं के पुजारी जी बड़े अच्छे आदमी हैं। अब मैं चलता हॅूँ। मन्दिर पर बैठने का समय हो गया है। अच्छा, भौजी जयजय सीताराम।‘

रत्नावली ने जाने की आज्ञा प्रदान की-‘जयजय सीताराम।‘

गाँवभर में हवा फैल गयी कि रत्ना मैया गुरुजी से मिलने चित्रकूट जा रही हैं। गाँवभर के शुभ चिन्तकों ने अपना मन उनके साथ जाने का बना डाला। और जब वे रात के पिछले पहर घर से निकलीं तो बहुत से लोग वहॉं आ गये। आदमियों का अलग जत्था बन गया था। औरतों का अलग जत्था तैयार हो गया।

सभी लोग सोच रहे थे- मैया का साथ। गुरुजी के दर्शन, फिर सोमवती के दिन मंदाकिनी में स्नान। वे तीर्थ यात्रा के आनन्द में डूबे हुये थे। दोनों जत्थों में राम धुन की होड़ गाँव से निकलते ही शुरू हो गयी थी।

दोपहर होते ही वे थकान का अनुभव करने लगे। लेकिन स्वामी से मिलने की आशा में रत्नावली के पग आगे बढ़ते ही जा रहे थे। वह विचारों में खोई हुयी थीं-‘हे राम जी! अब तो इतनी कृपा कर दीजिये कि स्वामी मुझे शरण दे दें। तारा के होते आशा की डोर से बॅंधी रही। हे प्रभु, अब इस डोर से बांध दीजिये। हे दीनानाथ............., हे दीन दयाल, कृपा कर दीजिये। एक समय था जब स्वामी को मेरा एक पल का विछोह असह्म था। उस रात को मुझसे मिलने का वेग इतना तीव्र था कि उन्हें अन्य कुछ भी नहीं सूझ रहा था। अब तुम्हें गये हुये कितना समय निकल गया लेकिन इतने दिनों में मेरी सुध भी नहीं ली। वे भी क्या करें ? अब उनके हृदय में राम जी जो बस गये हैं। इन धर्म ग्रंथों ने तो नारी को नर्क का द्वार घोषित कर दिया है। नारी के बारे में, ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग में कितनी घिनौनी धारणायें पैदा कर दी हैं। दूसरी ओर एक ही आत्मा की बातें, दोहरे मापदण्ड की विसंगतियाँ आदमी समझ क्यों नहीं रहा है ?

सोच में चलने की गति जरा धीमी पड़ गयी तो हरको ने कहा ‘भौजी, जरा जल्दी-जल्दी चलो, आदमियों का जत्था बहुत आगे निकल गया है।‘

रत्नावली ने अपनी चाल बढ़ा दी। पहाड़ी गाँवआने को हो गया। वहीं ठहर कर लोग जलपान करेंगे। पहाड़ी गाँव की पहाडी पास आती हुयी दिखने लगी। ज्यों-ज्यों गाँव पास आने लगा, जंगल कम होने लगा। लगने लगा- गाँवके आने से प्रकृति विश्राम करने किसी पेड़ की छाया में ठहर गयी है।

पहाड़ी गाँवआ गया। इस गाँव में भी गोस्वामी जी की विलक्षण बुद्धि की धाक थी। सभी उन्हें जानते थे। जब लोगों ने यह सुना कि उनकी पत्नी उनसे मिलने चित्रकूट जा रही हैं तो लोग उनके दर्शनों के लिए निकल आये। कुछ औरतों ने आगे बढ़कर उनके चरण छुये। पुजारी जी की पत्नी रत्नावली के लिए जल ले आयीं। उन्हें एक पटिया पर आसनी डालकर बैठा दिया गया। लेकिन रत्नावली अन्तर्मुखी ही बनी रहीं-

क्या सोच कर ये मेरा स्वागत कर रही हैं ? यही कि मैंने पति को मोक्ष का उपदेश देकर घर से निकाल दिया। आज पुत्र वियोग भी सहन कर रही हॅूँ। संसार में इससे बडा दुःख दूसरा कोई नहीं हो सकता। आज सभी मेरा स्वागत कर रही हैं तो स्वामी के कारण।

पुजारिन उन्हें भोजन के लिए बुलाने आ गयी, बोलीं-‘बहन चलो, कुछ खा पी लो, वहाँ पहुँचते-पहुँचते रात हो जायेगी। फिर गोस्वामी जी को क्या पता कि आप आ रही हैं, जो टिक्कर बना कर रखेंगे।‘

इस प्यार भरी चुटकी ने रत्नावली को आनन्द विभोर कर दिया। वह उठ खड़ी हुयी। पुजारिन बोली-‘सभी चलकर दो-दो फुलके पा लो। ‘अब तक कुछ दूसरी बिरादरी के लोग अपनी-अपनी बिरादरी वालों को भोजन पर बुलाने आ गये थे। सभी अपनी-अपनी बिरादरी वालों के घर चले गये। रत्नावली और हरको पुजारी रामरतन जी के यहॉं चल दीं।

औरतों का जत्था भोजन करके जब लौटा, आदमियों का दल पहले से ही तैयार बैठा था।जैसे ही रत्ना मैया और हरको लौट कर आयीं, अगली यात्रा प्रारम्भ हो गयी ।

आदमियों के दल ने लोकगीत गाना शुरू कर दिया। औरतें सुनने का आनन्द ले रहीं थीं। लोकगीत बन्द हुआ तो रामा भैया रामायण के उस प्रसंग की चर्चा करने लगे, जब भगवान श्री राम चित्रकूट में पधारे थे। औरतों का दल पास आ गया। इस प्रसंग को सुनते-सुनते रास्ता कटने लगा। फिर तुलसीदास जी महाराज का प्रसंग उठा, कोई कह रहा था-‘सुना है गोस्वामी जी बैरागी बन गये हैं। राम के भजन में घण्टों लीन रहते हैं।‘

दूसरा बोला-‘वे तो उस जन्म में शंकर भगवान ही रहे होंगे। नहीं तो इस घोर कलियुग में, ऐसा आदमी हमने तो देखा नहीं।‘

रामा भैया ने अपनी शान का झण्डा फहराया-‘तभी तो मैंने उनसे गुरुदीक्षा ली है।‘

उनमें से एक बोला-‘हॉं भई, आप भी ज्ञानी पुरूष हैं। वो कहावत है कि पानी पीजै छान और गुरू कीजै जान।‘

किसी की आवाज सुन पड़ी-‘भैया आपने कोई गुरु यों ही नहीं बना लिया। न ही गणपति के पिता श्री जैसे विद्वान किसी ऐसे वैसे से अपने पुत्र को दीक्षा दिलाते।

उनमें से किसी ने पूछ लिया ‘क्यों भैया, गणपति ने तो तुमसे पहले दीक्षा ली है?‘

यह सुन रामा भैया को लगा- मैंने ही पहले दीक्षा क्यों नहीं ली। लो हो गया मैं दूसरे नम्बर का शिष्य। यह सोचकर बोले-‘जिस दिन गणपति ने दीक्षा ली उसी दिन मैंने भी ली है। पहले-पीछे क्या होता है ? गुरु तो सबको समान भाव से देखते हैं कि नहीं!‘

इस पर किसी की आवाज सुन पड़ी-‘हॉंँ यह तो है।‘ और रत्नावली इस वार्तालाप को सुनकर आनन्द सागर में गोते लगा रही थीं।

इन्हीं अठखेलियों में चलते-चलते दिन डूबने को हो गया। रामा भैया ने कहा-‘जरा चाल और बढ़ाओ। चित्रकूट आ गया। वह देखो, कामदगिरि पर्वत दिख रहा है। लोगों ने अनुमान लगाकर कामदगिरि पर्वत को प्रणाम किया। औरतों ने यह देख उन सब का अनुकरण किया। रत्नावली ने मन ही मन प्रार्थना की, हे प्रभु आप स्वामी के दर्शन करा दीजिये। उनके मन में बैठ जाइये, जिससे वे मुझे शरण दे दें।

रात्री का प्रथम प्रहर समाप्त होते-होते सभी चित्रकूट पहॅुंच गये। रामघाट पर पहुँचते ही मंदाकिनी के प्रवाह ने अपनी ओर उनके मन को आकर्षित कर लिया। यात्रियों ने थकान को मिटाने के लिए शीतल जल का पान किया। कुछ ने स्नान का लाभ लिया। रामा भैया ने तुलसीदास जी महाराज का पता चलाया। पता चला वे रामघाट पर ही एक गुफा में ठहरे हुये हैं। यही सूचना देने के लिए रत्ना मैया के पास लौट आये। बोले-‘भौजी, इसी घाट पर थोड़ा ऊपर एक गुफा है, उसी में महाराज ठहरे हुये हैं।... अब तो उनके दर्शन हो ही जायेंगे।‘

रत्नावली को लगा- अभी मिलने के लिए, उनकी आज्ञा मिलने की एक दीवार और रह गयी है। यही सोचकर बोली-‘भैया आप जाकर हमारे यहॉं आने की उन्हें सूचना दे आओ और इसी समय मिलने की आज्ञा ले आओ।‘

आज्ञा पाकर रामा भैया गोस्वामी जी से मिलने चले गये।

जब रामा भैया लौटे, सभी पीपल के नीचे उन्हीं की प्रतीक्षा में बैठे हुये थे। वे एक डलिया में प्रसाद लिए थे। आते ही बोले ‘ रात्री अधिक होरही है। गुरुजी का आदेश हुआ है प्रसादी पाकर मंदाकिनी मैया का जल पीकर आराम करें। हारे-थके होंगे। ऊपर राम मन्दिर की दालान में ठहरने की व्यवस्था है। उनके दर्शन सोमवती के बाद हो पायेंगे।

रत्नावली ने पूछा-‘भैया आपने मेरे बारे में........‘

वे बात काट कर बोले-‘मैंने कहा कि भौजी भी साथ में हैं। तो उन्होंने कहा है कि इन दिनों मिलने वालों की भीड़ है, उनसे मिलना तो सोमवती के बाद ही हो पायेगा! किंतु उन्होंने हमारे रहने की व्यवस्था तो कर दी है।

‘भैया! आपने तारा के बारे में नहीं कहा?’

रामा भैया गंभीर होकर बोले-‘भौजी यह कहने की मेरी हिम्मत ही नहीं पड़ी।’

‘और उन्होंने भी तारा के बारे में नहीं पूछा?’ रत्नावली ने आहत होकर पूछा।

‘नहीं !’वे बोले।

यह सुनकर उसे लगा कि वे कैसे अंतर्यामी हैं! वह यहाँ व्यर्थ प्रलाप करने तो नहीं चली आयी।... लगता है, इन्हें तो अपने पुत्र की भी चिंता नहीं है! उस दिन मुझसे मिलने की कितनी व्याकुलता थी! क्या वे मेरे धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं? ....उसे लगा- वे कह रहे हों- कहो रत्ने, अब तुम्हें कैसा लगा? ...मुझे कैसा लगेगा! पुत्र को खोकर माँ को कैसा लगता है! मैं आपकी तरह नहीं हूँ। आप क्या सोचते हैं?, मैं यहाँ क्या आपके साथ रहने आयी हूँ!

नारी की यही तो विडम्बना है कि वह पति की छवि जीवन भर पुत्र में देखना चाहती है।

रामा भैया ने उन्हें टोका-‘भौजी, अब किस सोच में खो गयीं ? लो यह प्रसादी।‘

सुनकर वे चौंकी। फिर पलास के दोने में रखा प्रसाद ग्रहण कर लिया।

जब सारे लोग निवृत हो गये तो राम मन्दिर की सीढ़ियाँ चढने लगे।