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कोड़ियाँ - कंचे - 2

Part-2

अब वे जिस चित्र के सम्मुख खड़े थे, वह उनके जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण चित्र था....

इस चित्र में एक घने पेड़ के नीचे बनी सफ़ेद पत्थर की बेंच पर कोयले से बनाया  बच्चों द्वारा खेला जाने वाला खेल  ‘चंगा पो’ बना हुआ था. [इसे आधुनिक लूडो या चौपड़  से मिलता-जुलता माना जा सकता है.] वही दोनों लड़कियाँ इस तरह बैठी हुईं थीं कि उनकी शक्लें भी इस चित्र में दिखाई नहीं दें रहीं थीं और पास में रखीं हुईं थीं, चार खूबसूरत चमकती हुईं कौड़ियाँ जो इस चित्र की जान थीं....इन्हें इतनी खूबसूरती से उभारा गया था कि लगता जैसे सचमुच की ही हैं और इन चमचमाती हुईं कौड़ियाँ को अभी हाथ में ले लें.

अचानक प्रोफेसर के सर पर एक थपकी पड़ी,

‘ ऐ!! यह बईमानी नहीं चलेगी.’

‘अरे! मैं कहाँ बईमानी कर रहा हूँ, जो आएगा वही तो चलूँगा. अब तुम्हारी गोटी मर रही है तो मैं क्या करूं? ’

‘ नहीं, तुमने जानबूझ कर अपनी गोटी आगे खिसका दी. मैंने देखा ’

‘ मैं क्यों खिसकाऊँगा?’ बल्लू हँसता हुआ अपनी सफाई देने की कोशिश करता रहा और समझाता रहा .

‘नहीं मैं तुम्हें अपनी पकी पकाई गोटी मारने नहीं दूंगी, यह भी कोई बात हुई .’

‘सुनो तुम्हारी गोटी यहाँ थी ना, अब मेरे चंगा आए तो ..’ कहकर बल्लू मुस्कुरा दिया.

‘तुम झूठ बोल रहे हो..तुम्हारी यहाँ नहीं थी, वहाँ एक घर पीछे थी.’ लेकिन बल्लू भी अपनी ही बात पर अड़ा रहा ...उसे तंग करने में मज़ा आ रहा था. आखिरकार परी को गुस्सा आ गया और बोली, ‘मैं नहीं खेलती तुम्हारे साथ. कभी भी नहीं खेलूंगी अब ...कुट्टा’ अपना अँगूठा दाँत में दबाकर तीन बार कुट्टा कहकर परी ने गुस्से में आकर खेल मिटा दिया और चल दी.

बल्लू को भी गुस्सा आया, उसने भी अपने हाथ के इमली के बीजों से बने पासे उठाकर  घास में दूर तक फेंक दिए. खेल का गुड गोबर हो गया. ‘नन्ही परी’  कुट्टा कह रूठकर ऊपर चली गई.

सुबह भी उठा तो उदास ही था, पर माँ से कहा कि वह उसे इमली के बीज दे दे, जिन्हें चीरकर वह फिर से खेलने के पासे बना सके पर माँ ने कहा कि उसने तो सब फेंक दिए हैं. यह सुन बल्लू बहुत उदास हो गया. माँ पर बहुत गुस्सा करने लगा. जिद करने लगा कि उसे तो इमली खानी है अभी के अभी, तू बाजार से जाकर ला.

कहने लगीं, ‘देख शाम को सब्जी लेने जाऊँगी तभी ले आऊंगी.’

पर बल्लू तो जिद पर अड़ गया, बिना इमली के खाना नहीं खाऊंगा.

यह सुनकर बल्लू ने ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया. अब वह कोई राजकुमार तो था नहीं, जो उसे सब मनाते. रोते रोते वह सो गया. बल्लू के रोने की आवाज़ सुनकर परी ने ऊपर छज्जे से झाँका, नीचे चौक में कला खड़ी थी, इशारे से पूछा क्या हुआ?

कला ने धीरे से बताया कि वह क्यों रो रहा है. परी की बाल-बुद्धि में समझ आगया कि वह वैसे पासे फिर से बनाने के लिए इतना झगड़ा कर रहा है. परी घर के अन्दर गई  उसकी नानी के पास एक थैली थी, जिसमें बहुत सारी कौड़ियाँ रखीं थीं, परी ने उसी में से चार कौड़ियाँ निकालीं और अपनी नन्हीं हथेलियों में दबाकर दायजी (प्रधान सेविका) से नज़र बचाते हुए नीचे उतर गई. देखा बल्लू रोते-रोते बाहर बरामदे में ही सो गया है और उसके गालों पर ढुलके आँसू सूख गए हैं. काकी अपने काम पर चली गई है और कला भी उन्हीं के साथ शायद चली गई, उसने ज़ोर से आवाज़ लगाईं,

‘बल्लू...बल्लू ..उठो देखो मैं क्या लाई?’

परी की आवाज़ सुन हमेशा की तरह बल्लू हड़बड़ाकर उठा, बल्लू ने देखा ‘नन्ही परी’ मुस्कुराती हुई उसके पास बैठी है और अपनी मुट्ठी में कुछ दबाए हुए है.. बल्लू को ध्यान आया वह तो उससे कुट्टी करके गई थी, अभी कैसे आगई? गुस्सा भी नहीं है..उसे अपनी शरारत पर थोड़ी शर्म भी आ रही थी, सो चुपचाप नीची नज़र कर उदास सा बैठा रहा..

‘अच्छा बताओ मेरी मुट्ठी में क्या है?’ परी ने मुस्काते हुए पूछा

बल्लू क्या बोलता? उसे तो सब सपने जैसा लग रहा था, ‘सोचो, सोचो क्या हो सकता है?’

बल्लू ने उसे हटाते हुए कहा, ‘मुझे कैसे मालूम, मैं कोई भगवान थोड़ी ही हूँ और तुम तो कुट्टा करके गईं थीं ना, फिर क्यों बोल रही हो?’

‘अच्छा, बोले मेरी जूती. मैं तो तुम रो रहे थे ना, इसलिए आई थी. देखो मैं क्या लाई हूँ?’ यह कहकर उसने अपनी दोनों हथेलियाँ खोल दीं.

चमचमाती हुईं कौड़ियाँ को देख बल्लू की आँखें फट गईं, ‘यह क्या है? बताना तो’ उसने यह पहली बार देखीं थीं .

‘ऊ हूँ...क्यूं दूँ? .. तूने तो लड़ाई की है ना मुझ से’ परी बोली

‘अच्छा बाबा, लड़ाई-वडाई माफ़ करो, गांधी जी को याद करो.’

इस पर दोनों ही हँस पड़े और दोनों ने अपनी तर्जनी मिलाकर दोस्ती पक्की कर ली. अब वे कौड़ियाँ बल्लू के हथेली में थीं, जिन्हें वह बड़े प्यार से सहला रहा था. एकदम चिकनी, चमकीली, चितकबरी सी उनको पलटा तो बीच में से कटी हुई और दोनों मुँह पर बड़ी सुन्दर धारियाँ पड़ी हुईं, उसके मुँह से निकला, वाह!! कितनी सुन्दर हैं, क्या हैं यह?’

‘कौड़ियाँ कहते हैं इन्हें, मम्मी जी बता रहीं थीं ये समुन्दर के किनारे रेत में मिलती हैं. मेरी नानी सा. की हैं. वे कहती हैं कि ये पुराने ज़माने के पैसे हैं.’ परी ने अपना ज्ञान बघारते हुए कहा.

परी बोले जा रही थी और बल्लू चकित सा उन पर हाथ फिराए जा रहा था. उसे यह बहुत अनमोल और मनभावन लग रहीं थीं. उसने ललचाई दृष्टि से परी की ओर देखा. परी ने कहा, ‘ये मैं तुम्हारे लिए ही लाई हूँ, पर तुम इन्हें फेंकोगे तो नहीं? कसम खाओ कि कित्ता भी गुस्सा आए, इन्हें फेंकोगे नहीं.’

बल्लू के चहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई, वह तो लालायित था, उनको पाने के लिए सो जल्दी से कहा, ‘नहीं फेकूंगा, संभाल कर रखूँगा’

‘खाओ मेरी कसम’ उसका हाथ अपने सिर पर रखते हुए कहा.

‘अच्छा बाबा त्तुम्हारी कसम. मैं हमेशा इन्हें जान से भी ज़्यादा संभाल कर रखूँगा, कभी फेंकूंगा नहीं. बस’

तभी प्रोफेसर का हाथ ज़ेब में गया और वे कौड़ियाँ अब भी उनकी ‘लक्की चार्म’ बनी ज़ेब में सुरक्षित हैं. वह हमेशा उसे ना जाने क्यों अपनी ज़ेब में रखने लगे और धीरे धीरे यह विश्वास मन में बनता गया कि जब भी वे उनकी ज़ेब में नहीं होती हैं, कुछ बुरा हो जाता है. आज इस घटना को करीब अट्ठाईस वर्ष होने आए पर प्रोफेसर ने इन्हें अपने से अलग नहीं किया. अब तो इनकी पत्नी भी इन्हें पेन, रूमाल, घड़ी की तरह इन्हें याद रखकर देने लगी थीं और जब ये सोते तो एक खूबसूरत नक्काशी वाली डिबिया में रख दिया करते.

प्रोफेसर ने हॉल से लेकर बाहर तक का पूरा मुआयना सरसरी निगाह से कर डाला.....

प्रोफेसर का परिवार भी तभी वहाँ आ गया. उनकी पत्नी, सोलह वर्षीय पुत्र और बारह वर्षीय पुत्री. उन्होंने कहा.., ‘बच्चों तुम लोग चलो हॉल में, गौरी तुम आओ मेरे साथ हम बाहर चलते हैं.’ बच्चे हॉल की ओर बढ़ गए जहाँ उनके सेक्रेटरी खड़े थे.

तभी दूर से उन्हें तिरंगे झंडे वाली सफ़ेद गाड़ियाँ आती हुईं दिखाई दीं. सड़क पर भी उनकी पार्टी के लोगों की काफ़ी भीड़ थी. जैसे ही उनकी गाड़ी करीब आई, सब लोग गायत्री देवी जिंदाबाद के नारे लगाने लगे.

नारों की आवाजों के साथ गाड़ियाँ धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ रही थी. आखिर गाड़ी मुख्यद्वार पर आकर खड़ी हो गई.. बाँधनी की लाल-गुलाबी सिल्क की साड़ी और मोतियों की माला पहने पूरे राजसी ठाठ से गायत्री जी ने गाड़ी से अपने पैर बाहर निकाले..