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कोड़ियाँ - कंचे - 6

Part- 6

आज बलदेव की परीक्षा थी, ऐसा लग रहा था. बलदेव क्या बताए क्या न बताए...बिचारी गौरी ने यह सवाल इतने सालों में एक बार भी नहीं पूछा. पर आजकल के बच्चे तर्क के आधार पर सोचते हैं, वैसे यह अच्छी ही बात है..पर बलदेव कुछ सोच में पड़ गए..फिर बोले,

‘ऐसा है, क्या तुमने कभी साक्षात भगवान् को देखा है?’

‘नहीं तो, पर हाँ मंदिर में तो हम जाते ही हैं ना दर्शन करने.’ पराग ने कहा

‘हूँ, क्या सभी मंदिरों में भगवान की मूर्ति एक जैसी ही होती है?’ बलदेव ने पूछा

‘नहीं पापा! वही तो हमारे समझ नहीं आता, किसी में हनुमान जी की, किसी में राम जी की, किसी में राधाकृष्ण, किसी में देवी माँ की, किसी में गणेश जी की... ऐसा क्यों है? पापा!’

‘वही मैं बताने जा रहा हूँ, जैसा कि मैं सोचता हूँ, यह मेरी अपनी धारणा है कि हम अपनी आस्था और विश्वास किसी में भी आरोपित कर देते हैं और जिसके कारण हमारा आत्मविश्वास बढ़ जाता है और जब हमें सफलता मिल जाती है तो हम सारा श्रेय उसी को दे देते है. चाहे वह मूर्ति हो या कोई वस्तु या कोई व्यक्ति हो. अब कोई इसे भक्ति /इष्ट मान लेता है, कोई इसे भगवान् मान लेता है और कोई इसे अंधविश्वास का नाम दे देता हैं.’

‘मैं तो पापा, पेपर देते समय जब भी डर लगता है, बस हनुमान जी को ही याद कर लेता हूँ और सच मेरा सवाल सही हो जाता है.’ पराग ने कहा

‘मैं तो शेरा वाली को याद कर लेती हूँ, हमारे स्कूल जाते समय उनका मंदिर रास्ते में आता है, सो रोज ही दर्शन कर लेती हूँ.’-परिधि ने भी अपना अनुभव सुनाया.

‘और तुम्हारी मम्मी ? कुलदेवी माँ का ही नाम लेते नहीं थकती हैं.’ मुस्कुराते हुए बलदेव ने कहकर गौरी को देखा..

‘चलो ये सब तो भगवान् को माने हैं, पर तुम्हारी तो तीन लोक से दुनिया ही न्यारी है..कौड़ियाँ को ही भगवान् माने हो.’ मुँह में अपना पल्ला दबाकर गौरी हँसी दबाते हुए बोली. बलदेव जैसे शर्मा गए उनका मुँह पर हल्का गुलाबी रंग छलक आया.

बलदेव बोले, ‘बच्चों ऐसा नहीं है, लेकिन यह सही है, जैसा मैंने अभी बताया कि यह हमारी ही आस्था होती है जो शक्ति बन जाती है. यह कौड़ियाँ मेरे बचपन की अमानत हैं, जो मुझे अपने बचपन की याद दिलाती हैं और अब इनमें मेरी आस्था इतनी हो गई है कि यह मेरे आत्मविश्वास को बनाएँ रखती हैं, मुझे लगता है कि यही मेरा प्रेम है, विश्वास है, यह मेरे पास नहीं रहेगी तो मेरा कुछ अवश्य ही बुरा हो जाएगा. इनकी वज़ह से ही मैं बचा हुआ हूँ.’

‘हा..हा. अरे! यह तो मैंने आज तुम्हें बता दिया अपना राज़ ..इससे पहले मैंने किसी को बताया क्या? यह तो पवित्र प्रेम है, जिससे मन को सुकून मिलता है, जैसे भगवान् की भक्ति से मिलता है.

बलदेव ने ‘चंगा पौ’ का खेल कागज़ पर बनाया और सबको नियम बताकर खेलने लगे.

यह खेल सभी को आनंदित भी कर रहा था. तभी उन्हें बाहर से किसी के चीखने की आवाज़ सुनाई दी..पता लगा कि पास वाले कमरे में जो था, वह परलोक सिधार गया है.

बलदेव मन ही मन काफ़ी डर गए थे, पता नहीं क्यों बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे. इतने सालों वे इतने व्यस्त रहे कि कभी पीछे मुड़कर ही नहीं देखा, पर अब इस खाली समय में उन्हें विगत की स्मृतियाँ परेशान कर रही थीं. वे उस समय बोले तो कुछ नहीं, पर पास वाले कमरे में हुई मौत ने उनको दहला दिया था. अपने लिए सोचकर वे काँप गए, बरबस उनके मुँह से निकल गया, ‘पराग, क्या तुम मेरा सिर सहला दोगे? सिर कुछ भारी हो रहा है.’

पराग जल्दी से उठकर आया और उनके पलंग पर टिक कर बैठ उनके सिर पर हाथ रख धीरे धीरे उंगलियाँ फिराने लगा. आँखे बंद किए बलदेव सोने की कोशिश करने लगे पर आँखों ने उनका साथ देने से जैसे मना कर दिया..और बंद कपाटों से खारी बूँदें रिसने लगीं. पराग यह देख घबरा गया ‘पापा! आप रो रहे हैं? क्या बात है पापा, क्या परेशानी है? मुझे बताइए तो ..’

उसने अपने पापा का यह रूप कभी भी नहीं देखा था, और वे तो हिम्मत की मिसाल कहे जाते थे. उनका व्यक्तित्व एक शांत पर सशक्त पुरुष का था, जो हर मुसीबत और चुनौतियों का सामना करने का हौंसला रखता था. पराग भी मन ही मन घबरा गया, पर हिम्मत रखते हुए बोला, ‘पापा, बताइए तो आखिर हुआ क्या है प्लीज़?’

अशांत बलदेव ने कहा, मुझे भी पता नहीं, पर ना जाने क्यों मुझे अपना अतीत और तुम्हारी भुआ कला बहुत याद आ रही है.’

पराग इतना जानता था कि उनके एक भुआ थी जिनका बहुत कम उम्र में ही मौत हो गई थी.

‘ओहो ! पापा, आप भी. जिन बातों को इतने वर्ष बीत गए उन्हें याद कर क्यों दुखी होना है. ऐसी कड़वी यादों की किताब तो बंद करके रख देनी चाहिए. ना खुद याद करो और ना दूसरों को बताकर उन्हें दुखी करो. बस अपने विगत की मीठी मीठी बातें ही आपको याद रखनी चाहिए.’

पराग को ‘नन्ही परी’ की भाषा बोलते देख बलदेव चकित भी हुए और आश्वस्त भी.

‘तू ठीक कहता है, अरे! तू तो बड़ा हो गया पराग, कैसी समझदारी की बातें कर रहा है, किससे सीखा?’

‘आप ही से पापा,’ कहकर पराग उनसे लिपट गया.

सिर में पराग की उँगलियों से काफ़ी सुकून मिल रहा था, धीरे धीरे उनकी पलकें भारी होने लगीं और वे नींद के आगोश में उतर गए.

पराग अपने पलंग पर जा लेटा, दिमाग और पलकें दोनों ही भारी होने लगीं और कान में इयर फोन लगाए ही पराग अपनी निंदिया रानी की डोली में सवार हो गया. अलार्म से सुबह उठ घर के लिए रवाना हो गया.

गौरी का आज व्रत था, सिर धोकर बाहर निकली, बाल सुखाते हुए फिर परी को आवाज़  लगाने लगी, पौने सात  बज गए हैं , जल्दी करो भई ...

दिन के सारे काम जल्दी जल्दी निबटाकर फिर दोनों माँ-बेटी तैयार होने लगी पूजा के लिए –मैं क्या पहनूं माँ ? परी ने पूछा. गौरी ने कहा, ‘ आज तो घाघरी-ब्लाउज पहन ले, लहरिया की चुन्नी ले लेना उस पर.’ फिर अपना बॉक्स खोल कर सोचने लगी. यह तीज श्रावण की है, सो हरा लहरिया ही पहन लेती हूँ,’

तभी परी को याद आया, ‘अरे! माँ पापा ने कहा है, कि खूब अच्छे से तैयार होकर पूजा करें और पूरे जेवर भी पहने. पूजा के बाद हम सबको वहीँ बुलाया है.’

‘हाँ’ वह तो जाएंगे ही ना’ कहकर अपने कपड़े छांटने लगी. हरी साड़ी छोड़ उसने रानी कलर की मोठड़े में लहरिए की साड़ी निकाली और उसी के अनुरूप जेवर भी.

दोनों सज-धज कर रमा भाभीसा. के यहाँ पहुंची. गौरी को नख-शिख श्रृंगार में देख भाभीसा. तो बल्लईयाँ लेनी लगीं,

धीरे धीरे सभी पड़ोसने भी सज-धज के पूजा लिए आने लगीं. सभी चौक (आँगन) में इकठ्ठी हों बारी-बारी से झूला झूलने लगीं. राजस्थानी गानों की स्वर लहरियाँ गूंजने लगी और इसी के साथ बढ़ने लगीं झूलों की पैगे.

‘धीमे धीमे रे वायारिया, हौले हौले रे वायारिया, झोलो सहयो ही ना जाए,’ और भी कई मधुर गीत सुंदरियों के गले निकल झूलों के साथ हवा में लहराने लगे...

रमा भाभी ने आकर बताया, 'चाँद आठ वाग्या उग जावेगो, सो अँधारो होता ही सब पूजा और कथा सुणवा डागली ( छत) पर आ जाजो.'