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कोड़ियाँ - कंचे - 7

Part- 7

बलदेव के मन में एक डर सा घर करने लगा, यदि मैं नहीं रहा तो? और सबके चेहरे घूमने लगे आँख के सामने, गौरी तो बारहवीं पास है,  इन दोनों बच्चों की पढ़ाई अभी तो सभी कुछ बाक़ी है, कैसे क्या होगा?  सोचकर बलदेव को घबराहट सी होने लगी. पराग बाहर चौक में पढ़ाई का बहाना कर शायद फ़ोन पर अपनी दोस्त अंजना से बात कर रहा था.

ऐसे में ‘नन्ही परी’ ही बलदेव के पास आ जाती है,

‘क्यों परेशान होते हो बल्लू, तुम्हारे लिए चिंता करना ठीक नहीं.’

‘मैं इतनी जल्दी बिना अपने कर्तव्य पूरे किए बिना नहीं जा सकता। देखो इन कोड़ियों को भी अपने से अलग नहीं किया, पर अब मैं तुम्हें यह लौटा कर ऋण मुक्त होना चाहता हूँ.’

‘तुम कैसी बातें कर रहे हो बल्लू! मैंने क्या किया?’

‘तुम मेरा पहला प्यार बनकर खड़ी हुई और मेरी प्रेरणा बनी रही, मैंने तुम्हें कभी भी पाने की कल्पना नहीं की, क्योंकि तुम मुझसे कभी अलग ही नहीं हुईं।’

‘यह कैसा अद्भुत प्यार है तुम्हारा? क्या तुम मुझसे कुछ भी नहीं पाना चाहते थे और जताना भी नहीं चाहते थे कि तुम इतना प्यार करते हो?’

‘नहीं, कोई इच्छा नहीं थी और ना है, मेरा और तुम्हारा भौतिक रूप में कोई सामंजस्य ही नहीं था, मैंने तुम से एक फ़रिश्ते के रूप में प्यार किया था। गायत्री और मेरी राहें अलग अलग थीं, पर उसके रूप में मेरी और नन्हीं परी की राहें सदैव एक रहीं।’

‘उफ़, यह कैसा अलौकिक प्यार है तुम्हारा, जिसमें उसके मान-सम्मान के लिए बिना उसे जताए तुम सब कुछ कर जाते हो. अच्छा एक बात बताओ, फिर क्या तुम गौरी से प्यार नहीं करते?’

‘अब तुम्हें भी क्या ईर्ष्या होने लगी है?  कितनी बार बताऊँ तुम्हें, तुम मेरी आत्मा हो तो गोरी मेरा मन वैसे ही जैसे राधा और रुक्मणी ...समझीं.’

‘ह हाँ. .हाँ ...अब यह बात तुम अपनी गौरी को ही समझाना...वह क्या समझ पाएगी तुम्हारी ज्ञान की बातें?’ कहकर परी हँसने लगी। हाँ, और गायत्री ? क्या उसे पता है कि तुम उसे इतना प्यार करते हो? उसी के एक बार कहने मात्र से ही तुम इस हवेली की दशा सुधारने के लिए यहाँ आगए, माना कि इस हवेली से तुम्हारा भी लगाव है. तुम्हारी जन्मस्थली है यह. लेकिन इसके खातिर तुमने अपनी बीबी, बच्चों को इतने अच्छे शहर कोटा से लाकर गाँव में बसा दिया. क्या यहाँ तुम्हारे बच्चों की पढ़ाई खराब नहीं हो रही? पर तुमने उसको जीत दिलाने के लिए इतना बड़ा त्याग बिना किसी को बताए चुपचाप कर दिया. यहाँ तक कि हवेली की मरम्मत और उसमें कक्षाएं चलाने के लिए रात-दिन एक कर दिया और इस प्रदर्शनी के लिए तो तुम पागल ही हो गए थे. ना समय से खाना, ना समय से सोना. बल्लू इसी सबका नतीजा है कि आज तुम इस पलंग पर हो.’

बलदेव सोचने लगे- ये कैसा मूक रिश्ता था, बिना किसी अपेक्षा के. क्या प्रेम इसे ही कहते हैं? गायत्री बिचारी तो कुछ जानती भी नहीं और न ही अब मुझे पहचानती है..तो क्या मैं उसे बता दूँ? अंतरात्मा ने कहा, ‘नहीं, वह मुसीबत में भी पड़ सकती है और शर्मिंदा भी हो सकती है, क्या कहेगी कि ये हमारे चौकीदार का बेटा है, जिसका भाई आज भी अपने जीजा के क़त्ल के ज़ुल्म में जेल में सजा काट रहा है. ओह!! नहीं ..नहीं.. मैं अपने इस पवित्र प्यार को कभी शर्मिन्दा नहीं होने दूँगा..मैं जीते जी कभी नहीं बताऊँगा कि मैं ही उसका बल्लू हूँ.’ बलदेव ने एक कागज़ की चिट ली और उस पर कुछ लिखा और उसे अपनी कौड़ियों की डिबिया में नीचे बिछा दिया.

पिछले दरवाज़े की ख़ट खट ने ध्यान भंग किया,  देखा परिधि और गौरी दोनों अप्सरा सी चली आ रही हैं, एकाएक चौंक गए बलदेव, ‘अरे!’ परी इतनी बड़ी और बहुत ही प्यारी लग रही थी, बारह  वर्षीय अपने उम्र की मुग्धावस्था की दहलीज़ पर खड़ी,  उन्होंने अपने दोनो हाथ फैलाकर परी को बाँहों में भर लिया,  मेरी प्यारी परी...परी भी पापा से ऐसे लिपट गयी जैसे बरसों बाद मिली हो... ‘पापा ! आज बहुत मज़े आए’

‘अच्छा!’ क्या किया भाई ऐसा ?‘

अब बलदेव की निगाह गौरी पर पड़ी, आँखें टिमटिमाते हुए बलदेव ने परी से पूछा, यह तुम्हारे साथ जो सुंदरी आई हैं,  वे क्या तुम्हारी सहेली है?’

सुनकर सबकी हँसी फूट पड़ी, गौरी के गाल शर्म से गुलाबी हो गए, पास आकर वह बलदेव के पैर छूने लगी तो बलदेव ने बीच में ही पकड़ लिया, ‘अरे! यह क्या कर रही हो, आज तो बस ग़ज़ब ढा रही हो, क्या इरादा है तुम्हारा? यह माथे का लट्टू तो करेंट मार रहा है। और यह बाँहों पर यह क्या लटका लिए हैं?’ हँसते-हँसते बलदेव ने कहा.

गौरी ने भी इसका ज़वाब उसी स्टाइल में दिया, ‘ ये तो हमारे बचाव के हथियार हैं जी, कोई थोड़ी भी बदत्तमीजी करेगो तो ई बोर्डा सूँ करेंट मार दूँगी और बाज़ूबंद की ई लूम सूँ कोड़ा (चाबुक) मार-मार भगा दूँगी, हाँ।’ फिर हँस दी और बलदेव की तरफ़ ऐसे देखा जैसे उन्हें चुनौती दे रही हो.

‘क्या बात है, हमारी झाँसी की रानी, हम तो ऐसे ही मर गए, सरेंडर कर देते हैं भई, क्यों बच्चों?’

प्यार भरी नोक-झोंक ने बलदेव का मन हल्का कर दिया।

खाने से निबटने के बाद बलदेव ने कहा, ' आज सब यहीं सो जाओ'

पराग काफी समझदार हो गया था,  वैसे भी यहाँ वह उसे वहाँ सोना अच्छा नहीं लग रहा था, सो उसने कहा, ऐसा करते हैं, आज मम्मी यहाँ रुक जाएंगी,  मैं और परी घर पर जाते हैं. कल हमारी छुट्टी है, सो मम्मी का सुबह कोई काम नहीं है. बलदेव यही तो चाह रहे थे, पर वे पराग की समझदारी देख चकित थे.

बच्चों को रवाना कर गौरी जब कमरे में लौटी तो देखा कि बलदेव बाथरूम से निकल रहे थे,  अपनी ज़ेब से कोड़ियाँ निकाल कर अपनी डिब्बी में रखने लगे। गौरी बड़े प्यार से उनके पास जाकर उन्हें रखते हुए देखने लगी, यह वैसे तो रोज़ रात का क्रम था, पर आज उनकी आँखों में एक विशेष चमक थी और वे बड़े स्नेह से उन्हें सहला रहे थे. गौरी ने पूछा, ‘ इतने ध्यान से क्या देख रहे हो? बरसों से तो है पास में, अब इनमें नया क्या है?’

बलदेव ने डिबिया बंद की और गौरी की आँखों में झाँकते हुए कहा, ‘ सही कहा, इनमें नया कुछ नहीं, आज तो मेरी गौरी में नयापन है और झुक गए गौरी के ऊपर.’

गौरी कुछ बोल नहीं पाई और मूक समर्पण कर दिया। वह भी यही चाहती थी, दिन भर भूखी रहकर, थकान से चूर हुई गौरी को ऐसे ही प्रगाढ़ आलिंगन की ज़रूरत थी. लग रहा था उसे कि वह जन्म जन्मातर की प्यासी है. वह ऐसे ही अटूट बंधन में हमेशा ही बँधी रहना चाहती थी, लग रहा था, आज उसकी पूजा सार्थक हो गयी है, बस उसे अब कुछ नहीं चाहिए...एक तृप्तता का भाव महसूस हो रहा था. बलदेव भी भूल गए थे कि वे अस्वस्थ हैं, उनके लिए यह उत्तेजना घातक सिद्ध हो सकती है, वे उस क्षण को पूरी तरह जी लेना चाहते थे. कमरे में अवश्य अंधकार था,  लेकिन दोनो के हृदय आत्मीय सुख की अनुभूति से प्रकाशवान थे. द्वैत से अद्वैत की ओर वे अग्रसर हो रहे थे. दीन दुनिया को विस्मृत किए वे ना जाने कब तक ही रहते कि कुत्तों के विलाप का कर्कश स्वर उनके बेहोश कानों से टकराया। अचानक जैसे स्वप्निल उड़ान भरते पंछियों को किसी ने धरा पर ला पटका हो. भान हुआ कि वे हॉस्पिटल में हैं, फूली हुईं साँसों को समेटते हुए, दोनों चकित थे कि यह कुत्ते सब मिलकर इतना विलाप क्यों कर रहे हैं? बलदेव अपनी बोझिल पलकों को खोल नहीं पा रहे थे, पर गौरी की आँखें डर से खुल गईं, वह धीरे से उठी, कमरे का अंधकार अब उसे भयंकर लग रहा था.

उसने उठकर नाइट लाइट जलाई, अपने को सम्भाला, देखा वह ढेर सारे गहने पहने हुए ही...ओ!माँ, उसने धीरे से अपने सारे गहने उतारे,  उन्हें क़रीने से पर्स में से एक पतला डिब्बा निकाल कर जमाया और फिर  उसे अपने सिरहाने रख दिया। तीज माता से प्रार्थना कर वह फिर से बलदेव के शीघ्र स्वस्थ हो जाने के बारे में आश्वस्त हो गई. कुत्तों का विलाप भी अब थम गया था. बलदेव को ठीक से ओढ़ाकर, वह भी सामने वाले पलंग पर शांत मन से सो गई.

दरवाज़े पर ज़ोर से खट ख़ट सुन उठी, समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है, यथार्थ और स्वप्न में अंतर करना ही कठिन हो रहा था.

कपड़ों को ठीक कर,  बालों को समेटते हुए दरवाज़ा खोलने पहुँची,  देखा चाय वाला खड़ा है, उसको वहाँ देख वह भी चकित था, ‘ राम राम भाभी सा ..दूसरी बार आया हूँ, ये सर की फीकी चाय, आपके लिए भी लाऊँ? मीठी या फीकी?’

‘मीठी, बिस्कुट नी लाया? एक पेकेट लेता आ जो।’

गौरी ने बलदेव की ओर देखा, वह अभी भी गहरी नींद में सो रहे थे, असीम तृप्ति के भाव लिए।