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रहस्यमयी टापू--(अंतिम भाग)

रहस्यमयी टापू--(अंतिम भाग)


राजकुमारी सारन्धा की अवस्था बहुत ही गम्भीर थी और सारन्धा की अवस्था देखकर राजकुमार विक्रम बहुत ही विचलित थे,अघोरनाथ जी ने शीघ्रता से अपने अश्रु पोछे और विक्रम से बोले,राजकुमारी सारन्धा को शीघ्र ही धरती पर लिटा दो,विक्रम ने ऐसा ही किया,बाबा अघोरनाथ ने एक घेरा सा बनाकर उसमे अग्नि प्रज्वलित की और मंत्रों का जाप करने लगें, कुछ क्षण पश्चात् उनके मंत्रो का उच्चारण सारे वन में गूँजने लगा,
परन्तु तभी वहाँ सूर्यदर्शन आ पहुंचा, वो एक साधारण से घोड़े पर कुछ सैनिकों के साथ आया था,सूर्यदर्शन को देखकर विक्रम की आंखो में क्रोध की ज्वाला जलने लगी,उसे देखकर उसने कहा___


तू! कपटी,यहां क्यों आया हैं, विक्रम बोला।।
मुझे सूचना मिली की तुम लोगों ने चित्रलेखा की हत्या कर दी,वहीं संदेह दूर करने आया हूँ कि कौन हैं वो वीर जिन्होंने ये काम किया,इसकी सूचना मुझे शंखनाद ने दी,उसके गुप्तचर ने तुमलोगों को चित्रलेखा के निवास स्थान से निकलते हुए देख लिया था,सूर्यदर्शन मुस्कुराते हुए बोला।
दुष्ट, कपटी, पापी,तुझ जैसा मानव धरती पर भार हैं,विक्रम क्रोधित होकर बोला।।
मै ने सुना हैं कि राजकुमारी सारन्धा को चित्रलेखा के प्रहार ने अचेत कर दिया हैं,कदाचित् मुझे तनिक कष्ट हुआ,क्योंकि वो मेरी भूतपूर्व प्रेयसी रह चुकी, तनिक पीड़ा तो मेरे हृदय को भी पहुंची है,सूर्यदर्शन कुटिल हंसी हंसते हुए बोला।।
चुप रह धूर्त! तुझ जैसा पाषाण हृदय तो संसार मे भी ना होगा,जिसने अपने स्वार्थ के लिए अपने पिता को ही बंदी बना लिया,विक्रम क्रोधित होकर बोला।।
अरे,राजकुमार विक्रम इतना क्रोध मत कीजिए, कहीं आपके हृदय ने राजकुमारी सारन्धा को स्थान तो नहीं दे दिया,कदाचित् तुम भी उनसें प्रेम तो नहीं करने लगे,सूर्यदर्शन ने विक्रम से कहा।।
हे!मानवरूपी राक्षस,तनिक ईश्वर से डर,क्यों अपना सर्वनाश करने पर तुला हुआ हैं, विक्रम ने कहा।।
मै तो यहाँ केवल राजकुमारी सारन्धा के उपचार मे विघ्न डालने आया था,मैं नहीं चाहता कि वह पुनः जीवित हो,सूर्यदर्शन बोला।।
मेरे रहते हुए तो राजकुमारी का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा, इतना कहते ही राजकुमार विक्रम ने सूर्यदर्शन पर अपनी तलवार से प्रहार प्रारम्भ कर दिया और सूर्यदर्शन भी कहाँ पीछे हटने वाला था उसने भी अपनी तलवार से विक्रम पर प्रहार प्रारम्भ कर दिया था,विक्रम ने सारे सैनिकों को मृत्यु के घाट उतार दिया।।
अंधेरी भयावह रात्रि मे तलवारों का भययुक्त स्वर गूंज रहा था और उनसें निकलने वाली चिंगारियों से वातारण का अंधकार मिट जाता, दोनों अपनी तलवारें से प्रहार पर प्रहार किए जा रहे थें और उधर अघोरनाथ जी का मंत्रोच्चारण बिना किसी बांधा के निरन्तर होता रहा और सूर्यदर्शन अपने उद्देश्य मे सफल ना हो सका,कुछ समय उपरांत राजकुमारी सारन्धा सचेत हो उठी और सूर्यदर्शन को देखकर उसके हृदय की अग्नि प्रज्वलित हो उठी,वो शीघ्रता से उठी और बिजली की भांति उसने सुवर्ण की तलवार को उसके म्यान से खींचा और एक भी क्षण की प्रतीक्षा किए बिना ही उसने सूर्यदर्शन के सिर को उसके धड़ से अलग कर दिया और धरती पर घुटनों के बल बैठकर विलाप करने लगी।।




तभी अघोरनाथ जी सारन्धा के निकट आकर बोले__
अब विलाप किस बात का पुत्री! तुम तो यही चाहती थीं और आज तुम्हारा प्रतिशोध पूर्ण हुआ।।
जी,बाबा!आज विलाप तो मैं अपने परिवार के लिए कर रहीं हूँ,मेरे पिताश्री की आत्मा को आज शांति मिली होगी,विलाप और इस पापी का,कतई नहीं, ये तो धूर्त कपटी था,संसार इसके भार से दबा जा रहा था और इसे मारने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ हैं इसलिए आज मैं प्रसन्न हूँ, राजकुमारी सारन्धा बोली।।
कदाचित् अब बिलंब किस बात का,अब हमे क्षण भर भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि दो दुष्टो का नाश करने में ही अर्धरात्रि ब्यतीत हो चुकी हैं, बाबा अघोरनाथ बोले।।
हां,बाबा आपना कथन उचित हैं, शाकंभरी बोली।।
ऐसे करें वनदेवी आप,सारन्धा और नीलकमल घोड़े पर सवार हो जाएं, सुवर्ण बोला।।
नहीं, सुवर्ण, ये घोड़ा वनदेवी के लिए लाया गया हैं, वो ही इस पर सवार होगीं, क्या तुम अपने जादू से हम सबको वहाँ नहीं ले सकते,नीलकमल बोली।।
हां..हां अवश्य, ये तो मै कर सकता हूँ, सुवर्ण बोला।।
शाकंभरी घोड़े पर सवार हुई और सब वहां से अन्तर्ध्यान हो गए।।
सब शंखनाद के निवास जा पहुंचे और सबने अपना अपना स्थान ग्रहण कर लिया, जैसी रणनीति बनी थी उसी के अनुसार सबने अपना अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया।।
सर्प्रथम सभी विशाल से वृक्ष के निकट पहुंचे जहां शाकंभरी के पंख एक बक्से मे उसी विशाल वृक्ष के तने मे रखे थे,परन्तु जो उसके चारों बाधाएँ थी,उसे दूर किए बिना उस वृक्ष को कोई भी हाथ नहीं लगा सकता था।।
तब बाबा अघोरनाथ ने अपनी कमर मे बंधी हुई छोटी सी पोटली निकाली और उसमे से विभूति निकाली और उन्होंने उस विशाल वृक्ष के चारो ओर बिखेर दी,तब बकबक ने पूछा बाबा ये क्या हैं?
अघोरनाथ जी बोले,मैं एक तांत्रिक हूँ और ये विभूति उन सिद्ध मानवों की चिता की जो अब इस संसार में नहीं हैं, हम तांत्रिक ऐसे महान पुरुषों की विभूति को इस पोटली मे इकट्ठा करते हैं कि हम इसे किसी की भलाई करने मे उपयोग कर सकें,इस विभूति मे उपस्थित अच्छी महान आत्माएं हमारी सहायता के लिए उपस्थित हो जातीं हैं, ये आत्माएं सदैव सत्य का साथ देतीं हैं।
तो क्या बाबा,अब हम सरलता वनदेवी के पंखो को प्राप्त कर सकेंगे, उड़नछू ने पूछा।।
नहीं उड़नछू, ये आत्माएं केवल तंत्र शक्तियों को ही नष्ट कर सकतीं हैं, जादुई शक्तियों को नष्ट करने के लिए तो जादू का ही उपयोग करना होगा,बाबा अघोरनाथ बोले।।
आप उसकी चिंता ना करें बाबा,मुझे जितना भी जादू आता हैं, मैं उसे उपयोग में लाने का पूर्ण प्रयास करूंगा, राजकुमार सुवर्ण बोला।।
और तभी उस विभूति ने अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया,उस विशाल वृक्ष के चारो ओर एक प्रकाश उभरा,जिसने उस अंधकार रात्रि को प्रकाशमय बना दिया, सबकी आंखे खुली की खुली रह गई और कुछ समय पश्चात् वो विभूति सारी तांत्रिक बांधाएं तोड़कर वायु मे अन्तर्ध्यान हो गई।।
अब सब वृक्ष के निकट जा सकते थे, अब सुवर्ण ने अपने जादू का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया, वो वहीं धरती पर बैठकर जादुई शक्तियों का मनन करने लगा और उसने उस वृक्ष के तने को अपनी जादुई शक्तियों द्वारा तोड़ दिया, इसी मध्य बकबक और उड़नछू उस बक्से को बाहर लेकर आए जिसमें शाकंभरी के पंख रखे हुए थे,अब उस जादुई बक्से के जादू को तोड़ने की बारी थीं, तब सुवर्ण ने एक बार पुनः अपने जादू का मनन किया और जादू के एक ही प्रहार से वो बक्सा टूट गया।।
तब बाबा अघोरनाथ ने उस बक्से वो जादुई पंख निकाले और शाकंभरी के पीछे जाकर लगा दिए,शाकंभरी खुशी से रो पड़ी और शीघ्र ही बाबा के चरण स्पर्श किए।।
और उसने सुवर्ण को भी धन्यवाद देते हुए कहा,
धन्यवाद! राजकुमार सुवर्ण और सब की भी मैं कृपापात्र और आभारी हूँ, नीलकमल और सारन्धा भी शाकंभरी के गले लग पड़ी।



पंख लगते ही शाकंभरी के भीतर एक नई ऊर्जा का प्रवाह होने लगा,वो अत्यधिक प्रसन्न थी कि अब उसे अपनी सारी शक्तियां पुनः प्राप्त हो चुकीं थीं,व़ह इतनी प्रसन्न थी कि अपनी भावनाएं उसने अपने अश्रुओं के साथ सबका आभार प्रकट करते हुए की परन्तु तभी शंखनाद वहाँ आ पहुंचा।।
शाकंभरी को ऐसे रूप मे देखकर क्रोध से पागल हो उठा और उसने अपने जादूई शक्तियों का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया।।
तब अघ़ोरनाध जी बोले,सुवर्ण और विक्रम तुम दोनों इसके निवास पर उड़ने वाले घोड़े से पहुंचो हम सब भी वहाँ शीघ्रता से पहुँचते हैं, आज रात्रि इसकी मृत्यु निश्चित हैं, वहाँ जाओ जहाँ इसके प्राण सुरक्षित हैं, तभी विक्रम और सुवर्ण शीघ्रता से घोड़े पर सवार हो चलें, इधर शंखनाद को अपने प्राण संकट मे पड़े हुए दिखे तो वो शीघ्रता से अपने निवास स्थान पहुँचने का प्रयास करने लगा किन्तु शाकंभरी ने इतना कड़ा प्रहार किया कि वो धरती पर जा गिरा,जैसे तैसे वो उठा हुआ और वायु में अन्तर्धान हो गया।।
सुवर्ण और विक्रम ,शंखनाद के पूर्व ही शंखनाद के निवास स्थान पहुंच गए,शंखनाद ये देखकर क्रोध से अपने मस्तिष्क का संतुलन खो बैठा और अंधाधुंध अपने जादुई प्रहार से विक्रम और सुवर्ण को क्षति पहुंचाने का प्रयास करने लगा।।
परन्तु दोनों उड़ने वाले घोड़े पर सवार थे,इस प्रकार हर प्रहार रिक्त ही चला जाता,तब तक शाकंभरी भी उड़ते हुए,वहाँ आ पहुंची और उसने सुवर्ण और विक्रम से कहा ,तुम लोग जलाशय की ओर जाओ,मैं इसे सम्भालती हूँ, बहुत बड़े बड़े अपराध किए हैं इसने,उन सब का उत्तर आज माँगूँगी।।
तब तक सभी आ पहुंचे और सभी ने शंखनाद के प्रहरियों पर प्रहार प्रारम्भ कर दिया,उड़नछू और बकबक,नीलकमल और सारन्धा, मानिकचंद और अघोरनाथ,विक्रम और सुवर्ण, सब अपनी अपनी जोड़ी के साथ थे,जैसी रणनीति बनी थीं, सब उसके अनुरूप ही अपना अपना कार्य कर रहे थे,एक एक करके सारे प्रहरियों की हत्या हो चुकी थी,सबकी तलवारें खून से लथपथ थी।।
तभी शंखनाद ने उड़ने वाले घोड़े पर अपना ऐसा जादुई प्रहार किया कि घोड़ा धरती पर जा गिरा,विक्रम और सुवर्ण मूर्छित होकर गिर पड़े।।
अब शंखनाद कुटिल हंसी हंसते हुए बोला___
तुम जैसे तुच्छ प्राणी मुझे कोई भी हानि नहीं पहुंचा सकते,मैं पहले भी विजयी था और सदैव विजयी रहूँगा।।
अब शाकंभरी ने बकबक से कहा___
बकबक! बाबा को घोड़े पर बैठाओ,हम शीघ्र ही जलाशय की ओर प्रस्थान करेंगे, आज शंखनाद का अंत निश्चित हैं, वो अनंतकाल के लिए आज निद्राअवस्था को प्राप्त होगा,आज इस पापी का मेरे हाथों ही अंत होगा।।
और शाकंभरी उड़ कर जलाशय के निकट पहुंची और अघोरनाथ और बकबक भी वहाँ शीघ्र ही पहुंच गए, अघोरनाथ जी ने शीघ्र ही अपने तंत्र विद्या से सारी बाधाएँ तोड़ दी,उधर सारन्धा और नीलकमल अपनी तलवार से शंखनाद पर निरन्तर प्रहार करती रही जिससे शाकंभरी और अघोरनाथ अपने अपने कार्य मे सफल हो सकें।।
और हुआ भी यही शाकंभरी अपने जादू से शंखनाद के जादू को विफल कर उस मूर्ति तक पहुंच गई और उस पत्थर के उल्लू को पूरे बल के साथ धरती पर पटक दिया जिससे उस उल्लू के टुकड़े टुकड़े हो गए, परन्तु शंखनाद को कुछ भी नहीं हुआ।।
तब शंखनाद हंसते हुए बोला,वनदेवी तुम्हारे पास अधूरी जानकारी थी,मेरी मृत्यु ऐसे नही होगी।।
तब बाबा अघोरनाथ और बकबक ने शीघ्रता से शंखनाद को उड़ने वाले घोड़े पर बैठाया और वहाँ ले जाकर पटक दिया, जहाँ शंखनाद के माता पिता की समाधियां बनी थीं,उन पर गिरते ही शंखनाद भस्म मे परिवर्तित हो गया और इस प्रकार आज शंखनाद का अंत हो गया, बुराई चाहे कितनी भी बड़ी क्यों ना हो सच्चाई से कभी नहीं जीत सकती।।
शीघ्रता से शाकंभरी ने अपने जादू से सुवर्ण और विक्रम को स्वस्थ कर दिया,विक्रम को स्वस्थ देखकर सारन्धा,विक्रम के गले लग गई, ये देखकर सब हंसने लगें और सारन्धा पलकें नीची करके शरमाते हुए विक्रम से दूर हट गई।।




आज सब खुश थे,सबका प्रतिशोध पूर्ण हो चुका था,उड़नछू और बकबक अपने घोड़े के साथ अपने अपने राज्य लौट गए, नीलकमल और सुवर्ण ने विवाह कर लिया,सारन्धा और विक्रम का भी विवाह हो गया और मानिकचंद भी एक नाव मे सवार होकर अपने देश लौट गया,बाबा अघोरनाथ पुनः अपनी तपस्या मे लीन हो गए और शाकंभरी वनदेवी पुनः अपने वन की सुरक्षा में लग गई।।

THE END__
THANKS



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