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ये भी एक ज़िंदगी - 2

अध्याय 2

एक दिन हमारे पिताजी भाइयों को बुला कर कुछ कह रहे थे और मेरे जाते ही चुप हो गए। मुझे तो यह बात बुरी लगी। मैं रोने लगी। पिताजी को मेरा रोना बिल्कुल पसंद नहीं। वे समझाने लगे "रेणुका तुम बहुत सीधी हो। तुम मेरी प्यारी बेटी हो मैं जानता हूं। आज कोई सज्जन आने वाले हैं। मैं उनसे मिलना नहीं चाहता। मैं इन्हें कह रहा था वह आए तो ‘मैं घर पर नहीं हूं कह देना।’ "पर रेणुका तुम तो सीधेपन में कह देती हमारे पापा ने ऐसा कहा है कि वह घर पर नहीं हैं ।"अब इसमें तुम्हारी गलती नहीं है तुम बहुत सीधी हो।"

मेरे घरवालों को मेरी बहुत फिक्र थी। आए दिन मेरे पापा कहते हैं "मेरे बेटों की तो कोई समस्या नहीं है सब संसार रुपी भवसागर पार लगा लेंगे । मुझे तो मेरी बेटी रेणुका की चिंता है। यह तो बहुत सीधी है। इसका क्या होगा?"

यह बातें मुझे बड़ी विचित्र लगती। इनमें क्या है जो मुझमें नहीं है? मैं समझ नहीं पाती!

1957 में नागपुर महाराष्ट्र में चला गया। मध्य प्रदेश बन गया ‌जिसकी राजधानी नेहरू जी ने भोपाल को बनाया । भोपाल में इतनी जगह नहीं थी की सारे सरकारी कर्मचारियों के रहने की समस्या हुई तो कुछ ऑफिसों को थोड़े समय के लिए ग्वालियर को हेड क्वार्टर बनाया गया। महादेव जी का परिवार ग्वालियर आ गया था।

पता नहीं कैसे-कैसे मैं भी आठवीं कक्षा में पहुंच गई।

आठवीं कक्षा में मैं बहुत बीमार रहीं और मुझे टाइफाइड हो गया |

फिर अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। 15 दिन में जाकर बुखार उतरा। पर दूध ही दूध देते थे। दूध मुझे पचता नहीं था। डॉक्टरों की समझ में नहीं आ रही थी। हफ्ता ऐसे ही निकल गया। खाने को कुछ नहीं देते थे। एक दिन पड़ोस के पलंग पर जो लड़की थी उसकी दादी उससे मिलने आई। मेरी अम्मा से पूछा "आपकी लड़की रेणुका को क्या हो गया। यह तो ठीक दिख रही है?"

"हां इसको टाइफाइड था ठीक हो गया था पर इसको दस्त हो रहे हैं। डॉक्टर कहते हैं जब तक ठीक नहीं होगा हम छुट्टी नहीं देंगे।" उसने पूछा "इसको क्या देते हो ?"

"सिर्फ दूध।"

"इसीलिए तो ऐसा हो रहा है? आप इसे साबूदाने की खीर दे दो। यह लड़की ठीक हो जाएगी।"

अम्मा को बात समझ में आ गई और उन्होंने मुझे साबूदाने की खीर खिलाई। मैं दूसरे दिन ही ठीक हो गई। जो बात डॉक्टरों की समझ में नहीं आई। एक दादी मां ने बता दी। इस तरह मुझे अस्पताल से छुट्टी मिली। 15 दिन का आराम बताया। डेढ़ महीने स्कूल नहीं गई थी। खैर स्कूल का एग्जाम दिया नवीं कक्षा पास हो गई। दसवीं में आ गई। यह बातें 1959 की थी। 1960 में मैंने बोर्ड का एग्जाम दिया देते ही हम भोपाल आ गए। रिजल्ट आया नहीं था। डेढ़ महीने बाद एक दिन एक पत्र आया। वह हमारे पड़ोस के डॉक्टर का था उन्होंने लिखा "कांग्रेचुलेशन्स रेणुका यू आर गेटिंग इन सेकंड डिविजन"। बात मेरे समझ में नहीं आई। मम्मी पापा ने भी सोचा क्या बात है?

उसके दो दिन बाद ही रिजल्ट अखबार में आया। मैं 58% से सेकंड डिवीजन पास हुई थी। मेरे घरवाले खुश हो गए थे क्योंकि नवीं में तो मैं स्कूल जा ही नहीं पाई थी। उस जमाने में ट्यूशन इतने होते भी नहीं थे और हमारी हैसियत भी नहीं थी। अपने आप जो पढ़ा सो पढ़ा।

मेरे भैया बड़े खुश हो गए। भैया इंजीनियरिंग कॉलेज में थे। घर का खर्चा मुश्किल से चल रहा था अब भैया की पढ़ाई कैसे हो? सब परेशान थे मेरा अच्छा रिजल्ट आने पर उन लोगों की उम्मीद जग गई थी। इससे नौकरी कराएंगे ताकि घर की माली हालत सुधरे और भैया की पढ़ाई ठीक से हो सके। उसे ऊपर वाले की कृपा से मुझे दो महीने के अंदर ही सरकारी नौकरी मिल गई।

ऑफिस भी घर के बिल्कुल सामने था । वेतन मुझे हाथ में मात्र 93 रुपये मिलते थे। उसको वैसा का वैसा घर लाकर अम्मा को दे देती। दोपहर को चाय पीने घर आ जाती। पैदल जाती नया पैसा खर्चा नहीं था। मेरी अम्मा ने अपने हाथों से मोतियों का बनाया हुआ एक छोटा पर्स मुझे दे रखा था। महीने के शुरू में उसने वह एक-दो रुपये के खुल्ले डाल देती थी। महीने के आखिर में उसे सब्जी लेने के लिए ले लेती थी क्योंकि महीने के आखिर में सब्जी लेने के पैसे नहीं बचते थे। उस समय मेरी उम्र सिर्फ 17 साल की थी।

पर मेरी अम्मा को फिकर हुई कि रेणुका को सीना-पिरोना नहीं आता सिखाना पड़ेगा। घर के कामकाज तो पहले ही सिखा चुकी थी। अब क्या करें। उनकी किस्मत बड़ी अच्छी थी या मेरी खराब समझो। शाम के समय 7:00 बजे से 9:00 बजे तक सिलाई की क्लास लगती थी उसमें और भी क्लासेस चलती थी। पर अम्मा तो मुझे सिलाई सिखाना चाहती थी ना! उन्होंने मुझे उस कक्षा में डाल दिया।

ऑफिस से आती खाना खाती और तुरंत सिलाई सीखने चली जाती। पैरों की मशीन थी। सिलाई के साथ कढाई भी मुझे सीखना था। उसके फायदे तो मुझे बाद में पता चला। पर उस समय तो मुझे बहुत बुरा लगता। सारे दिन क्या लगा रखा है! पर अम्मा से डर के मारे कुछ कह न पाती।

इस तरह मैंने सिलाई भी सीख लिया। कशीदाकारी भी सीख ली।

अब भैया भी अपनी पढ़ाई पूरी करके इंजीनियर बन गए थे।

मेरी अम्मा को अब चैन नहीं था। वह मुझे अपने पीहर ले गई। मुझे एक महीने की छुट्टी दिलाई।

वहां मेरी नानी अम्मा से चार कदम आगे थी। उन्होंने कहा अब तुम रेणुका की शादी कर दो। मेरी अम्मा ने कहा पैसे तो है नहीं। "अरे अपने गहने डाल दे। बाकी रुपयों की जहां तक बात है उधार ले लेंगे।" मेरी अम्मा ने पिताजी को पत्र लिखा। उन्होंने कहा तुम देख लो अभी क्या जल्दी है?

पर नानी ने ऐसी पट्टी पढ़ाई की मां के समझ में आ गई। मां ने दूसरा पत्र पापा को लिख दिया। उन दिनों फोन तो होते नहीं थे। मोबाइल का तो सवाल ही नहीं। पापा ने एक पत्र और लिखा। इसमें उन्होंने लिखा था कि रेणुका की शादी की कोई जल्दी नहीं है। तुम रेणुका को लेकर वापस आ जाओ । वह पत्र अम्मा को मिला नहीं और हमारी नानी ने जो लड़का देख रखा था उससे मेरी सगाई करने का मन बना लिया।